बुधवार, 6 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

बलि का बाँधा जाना

महीं सर्वां हृतां दृष्ट्वा त्रिपदव्याजयाञ्चया
ऊचुः स्वभर्तुरसुरा दीक्षितस्यात्यमर्षिताः ॥ ९ ॥
न वायं ब्रह्मबन्धुर्विष्णुर्मायाविनां वरः
द्विजरूपप्रतिच्छन्नो देवकार्यं चिकीर्षति ॥ १० ॥
अनेन याचमानेन शत्रुणा वटुरूपिणा
सर्वस्वं नो हृतं भर्तुर्न्यस्तदण्डस्य बर्हिषि ॥ ११ ॥
सत्यव्रतस्य सततं दीक्षितस्य विशेषतः
नानृतं भाषितुं शक्यं ब्रह्मण्यस्य दयावतः ॥ १२ ॥
तस्मादस्य वधो धर्मो भर्तुः शुश्रूषणं च नः
इत्यायुधानि जगृहुर्बलेरनुचरासुराः ॥ १३ ॥

दैत्यों ने देखा कि वामनजी ने तीन पग पृथ्वी माँगने के बहाने सारी पृथ्वी ही छीन ली। तब वे सोचने लगे कि हमारे स्वामी बलि इस समय यज्ञ में दीक्षित हैं, वे तो कुछ कहेंगे नहीं। इसलिये बहुत चिढक़र वे आपसमें कहने लगे ॥ ९ ॥ अरे, यह ब्राह्मण नहीं है। यह सबसे बड़ा मायावी विष्णु है। ब्राह्मणके रूपमें छिपकर यह देवताओं का काम बनाना चाहता है ॥ १० ॥ जब हमारे स्वामी यज्ञमें दीक्षित होकर किसी को किसी प्रकार का दण्ड देनेके लिये उपरत हो गये हैं, तब इस शत्रु ने ब्रह्मचारी का वेष बनाकर पहले तो याचना की और पीछे हमारा सर्वस्व हरण कर लिया ॥ ११ ॥ यों तो हमारे स्वामी सदा ही सत्यनिष्ठ हैं, परंतु यज्ञमें दीक्षित होनेपर वे इस बातका विशेष ध्यान रखते हैं। वे ब्राह्मणोंके बड़े भक्त हैं तथा उनके हृदयमें दया भी बहुत है। इसलिये वे कभी झूठ नहीं बोल सकते ॥ १२ ॥ ऐसी अवस्थामें हमलोगोंका यही धर्म है कि इस शत्रुको मार डालें। इससे हमारे स्वामी बलिकी सेवा भी होती है।यों सोचकर राजा बलिके अनुचर असुरोंने अपने-अपने हथियार उठा लिये ॥ १३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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