रविवार, 28 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

तेरहवाँ अध्याय  (पोस्ट 02)

 

पूतनाका उद्धार

 

गोप्य ऊचुः -
श्रीकृष्णस्ते शिरः पातु वैकुण्ठः कण्ठमेव हि ।
श्वेतद्वीपपतिः कर्णौ नासिकां यज्ञरूपधृक् ॥१५॥
नृसिंहो नेत्रयुग्मं च जिह्वां दशरथात्मजः ।
अधराववतां ते तु नरनाराणावृषी ॥१६॥
कपोलौ पातु ते साक्षात्सनकाद्याः कला हरेः ।
भालं ते श्वेतवाराहो नारदो भ्रूलतेऽवतु ॥१७॥
चिबुकं कपिलः पातु दत्तात्रेय उरोऽवतु ।
स्कंधौ द्वावृषभः पातु करौ मत्स्यः प्रपातु ते ॥१८॥
दोर्दण्डं सततं रक्षेत्पृथुः पृथुलविक्रमः ।
उदरं कमठः पातु नाभिं धन्वन्तरिश्च ते ॥१९॥
मोहिनी गुह्यदेशं च कटिं ते वामनोऽवतु ।
पृष्ठं परशुरामश्च तवोरू बादरायणः ॥२०॥
बलो जानुद्वयं पातु जंघे बुद्धः प्रपातु ते ।
पादौ पातु सगुल्फौ च कल्किर्धर्मपतिः प्रभुः ॥२१॥
सर्वरक्षाकरं दिव्यं श्रीकृष्णकवचं परम् ।
इदं भगवता दत्तं ब्रह्मणे नाभिपंकजे ॥२२॥
ब्रह्मणा शंभवे दत्तं शंभुर्दुर्वाससे ददौ ।
दुर्वासाः श्रीयशोमत्यै प्रादाच्छ्रीनन्दमन्दिरे ॥२३॥
अनेन रक्षां कृत्वास्य गोपीभिः श्रीयशोमती ।
पाययित्वा स्तनं दानं विप्रेभ्यः प्रददौ महत् ॥२४॥
तदा नंदादयो गोपा आगता मथुरापुरात् ।
दृष्ट्वा घोरां पूतनाख्यां बभूवुर्भयविह्वलाः ॥२५॥
छित्वा कुठारैस्तद्देहं गोपाः श्रीयमुनातटे ।
अनेकाश्च चिताः कृत्वा दाहयामासुरेव ताम् ॥२६॥
एलालवंगश्रीखंडतगरागरुगंधिभृत् ।
धूमो दग्धस्य देहस्य पवित्रस्य समुत्थितः ॥२७॥
अहो कृष्णमृते कं वा व्रजाम शरणं त्विह ।
पूतनायै मोक्षगतिं ददौ पतितपावनः ॥२८॥


श्रीबहुलाश्व उवाच -
केयं वा राक्षसी पूर्वं पूतना बालघातिनी ।
विषस्तना दुष्टभावा परं मोक्षं कथं गता ॥२९॥


श्रीनारद उवाच -
बलियज्ञे वामनस्य दृष्ट्वा रूपमतः परम् ।
बलिकन्या रत्‍नमाला पुत्रस्नेहं चकार ह ॥३०॥
एतादृशो यदि भवेद्‌बालस्तं हि शुचिस्मितम् ।
पाययामि स्तनं तेन प्रसन्नं मे मनस्तदा ॥३१॥
बलेः परमभक्तस्य सुतायै वामनो हरिः ।
मनोरथस्तु ते भूयान् मनस्यपि वरं ददौ ॥३२॥
यः पूतनामोक्षमिमं शृणोति
कृष्णस्य देवस्य परात्परस्य ।
भक्तिर्भवेत्प्रेमयुतापि तस्य
त्रिवर्गशुद्धिः किमु मैथिलेंद्र ॥३४॥

श्रीगोपियाँ बोलीं- मेरे लाल ! श्रीकृष्ण तेरे सिरकी रक्षा करें और भगवान् वैकुण्ठ कण्ठकी। श्वेतद्वीप के स्वामी दोनों कानों की, यज्ञरूपधारी श्रीहरि नासिका की, भगवान् नृसिंह दोनों नेत्रों की, दशरथ- नन्दन श्रीराम जिह्वा की और नर-नारायण ऋषि तेरे अधरों की रक्षा करें ।। १५-१६ ॥     

 

साक्षात् श्रीहरिके कलावतार सनक सनन्दन आदि चारों महर्षि तेरे दोनों कपोलोंकी रक्षा करें। भगवान् श्वेतवाराह तेरे भालदेशकी तथा नारद दोनों भ्रूलताओंकी रक्षा करें। भगवान् कपिल तेरी ठोढ़ीको और दत्तात्रेय तेरे वक्षःस्थलको सुरक्षित रखें। भगवान् ऋषभ तेरे दोनों कंधोंकी और मत्स्य- भगवान् तेरे दोनों हाथोंकी रक्षा करें ।। १७-१८ ॥    

पृथुल-पराक्रमी राजा पृथु सदा तेरे बाहुदण्डोंको सुरक्षित रखें। भगवान् कच्छप उदरको और धन्वन्तरि तेरी नाभिकी रक्षा करें। मोहिनी रूपधारी भगवान् तेरे गुह्यदेशको और वामन तेरी कटिको हानिसे बचायें । परशुरामजी तेरे पृष्ठभागकी और बादरायण व्यासजी तेरी दोनों जाँघोंकी रक्षा करें ।। १९-२० ॥     

बलभद्र दोनों घुटनोंकी और बुद्ध- देव तेरी पिंडलियोंकी रक्षा करें। धर्मपालक भगवान् कल्कि गुल्फोंसहित तेरे दोनों पैरोंको सकुशल रखें। यह सबकी रक्षा करनेवाला परम दिव्य 'श्रीकृष्ण- कवच' है। इसका उपदेश भगवान् विष्णुने अपने नाभि-कमलमें विद्यमान ब्रह्माजीको दिया था ।। २१-२२ ॥     

ब्रह्माजी ने शम्भु को शम्भु ने दुर्वासा को और दुर्वासा ने नन्द – मन्दिर में आकर श्रीयशोदाजी को इसका उपदेश दिया था । इस कवचके द्वारा गोपियोंसहित श्रीयशोदा- ने नन्दनन्दनकी रक्षा करके उन्हें अपना स्तन पिलाया और ब्राह्मणों को प्रचुर धन दिया  ॥ २३ – २४ ॥

उसी समय नन्द आदि गोप मथुरापुरी से गोकुल में लौट आये। पूतना के भयानक शरीर को देखकर वे सब- के-सब भयसे व्याकुल हो गये। गोपों ने कुठारों से उसके शरीर को काट-काटकर यमुनाजी के किनारे कई चिताएँ बनायीं और उसका दाह संस्कार किया । पूतना का शरीर परम पवित्र हो गया था। जलाने पर उससे जो धुआँ निकला, उसमें इलाइची - लवङ्ग, चन्दन, तगर और अगर की सुगन्ध भरी हुई थी। अहो ! जिन पतित- पावन ने पूतना को मोक्षगति प्रदान की, उन श्रीकृष्ण को छोड़कर हम यहाँ किसकी शरण में जायँ ।। २५-२८ ॥

बहुलाश्व ने पूछा- देवर्षे ! यह बालघातिनी राक्षसी पूतना पूर्वजन्ममें कौन थी ? इसके स्तनमें विष लगा हुआ था तथा उसके भीत रका भाव भी दूषित ही था; तथापि इसे उत्तम मोक्ष की प्राप्ति कैसे हुई ? ॥ २९ ॥

श्रीनारदजी बोले- पूर्वकाल में राजा बलि के यज्ञ में भगवान् वामन के परम उत्तम रूप को देखकर बलि-कन्या रत्नमाला ने उनके प्रति पुत्रोचित स्नेह किया था। उसने मन-ही-मन यह संकल्प किया था कि 'यदि मेरे भी ऐसा ही बालक उत्पन्न हो और उस पवित्र मुसकानवाले शिशुको मैं अपना स्तन पिला सकूँ तो उससे मेरा चित्त प्रसन्न हो जायगा ।' बलि भगवान्‌के परम भक्त हैं, अतः उनकी पुत्री को वामन- भगवान् ने यह वर दिया कि 'तेरे मनमें जो मनोरथ है, वह पूर्ण हो ' ॥ ३०-३२ ॥

वही रत्नमाला द्वापरके अन्तमें पूतना नामसे विख्यात राक्षसी हुई। भगवान् श्रीकृष्णके स्पर्शसे उसका उत्तम मनोरथ सफल हो गया। मिथिलानरेश ! जो मनुष्य परात्पर भगवान् श्रीकृष्णके इस पूतनोद्धारसम्बन्धी प्रसङ्गको सुनता है, उसको भगवान्‌ की प्रेमपूर्ण भक्ति प्राप्त हो जाती है; फिर उसे धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्गकी उपलब्धि हो जाय इसके लिये तो कहना ही क्या है । ३३ - ३४ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'पूतना-मोक्ष' नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 

1 टिप्पणी:

  1. 🌺💖🌹🥀जय श्री हरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    हे विश्वरूप हे सर्वेश्वर जगतपति
    अनंत कोटि ब्रह्मांड के स्वामी
    श्री कृष्ण गोविंद की बाल लीला सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश:वंदन
    हे करुणामय तुम्हें शत शत प्रणाम 🙏🙏💟🌹🙏🙏

    जवाब देंहटाएं