॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
हिरण्यकशिपु
के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न
एकदासुरराट्पुत्रमङ्कमारोप्य
पाण्डव
पप्रच्छ
कथ्यतां वत्स मन्यते साधु यद्भवान् ||४||
श्रीप्रह्लाद
उवाच
तत्साधु
मन्येऽसुरवर्य देहिनां
सदा
समुद्विग्नधियामसद्ग्रहात्
हित्वात्मपातं
गृहमन्धकूपं
वनं
गतो यद्धरिमाश्रयेत ||५||
श्रीनारद
उवाच
श्रुत्वा
पुत्रगिरो दैत्यः परपक्षसमाहिताः
जहास
बुद्धिर्बालानां भिद्यते परबुद्धिभिः ||६||
सम्यग्विधार्यतां
बालो गुरुगेहे द्विजातिभिः
विष्णुपक्षैः
प्रतिच्छन्नैर्न भिद्येतास्य धीर्यथा ||७||
गृहमानीतमाहूय
प्रह्रादं दैत्ययाजकाः
प्रशस्य
श्लक्ष्णया वाचा समपृच्छन्त सामभिः ||८||
वत्स
प्रह्लाद भद्रं ते सत्यं कथय मा मृषा
बालानति
कुतस्तुभ्यमेष बुद्धिविपर्ययः ||९||
बुद्धिभेदः
परकृत उताहो ते स्वतोऽभवत्
भण्यतां
श्रोतुकामानां गुरूणां कुलनन्दन ||१०||
युधिष्ठिर
! एक दिन हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को बड़े प्रेमसे गोदमें लेकर पूछा—‘बेटा ! बताओ तो सही, तुम्हें कौन-सी बात अच्छी लगती
है ?’ ॥ ४ ॥
प्रह्लादजी
ने कहा—पिताजी ! संसारके प्राणी ‘मैं’ और ‘मेरे’ के झूठे आग्रहमें
पडक़र सदा ही अत्यन्त उद्विग्न रहते हैं। ऐसे प्राणियोंके लिये मैं यही ठीक समझता
हूँ कि वे अपने अध:पतन के मूल कारण, घास से ढके हुए अँधेरे
कूएँ के समान इस घर को छोडक़र वनमें चले जायँ और भगवान् श्रीहरि की शरण ग्रहण करें
॥ ५ ॥
नारदजी
कहते हैं—प्रह्लादजी के मुँह से शत्रुपक्ष की प्रशंसा से भरी बात सुनकर हिरण्यकशिपु
ठठाकर हँस पड़ा। उसने कहा—‘दूसरोंके बहकाने से बच्चों की
बुद्धि यों ही बिगड़ जाया करती है ॥ ६ ॥ जान पड़ता है गुरुजी के घर पर विष्णु के
पक्षपाती कुछ ब्राह्मण वेष बदलकर रहते हैं। बालक की भलीभाँति देख-रेख की जाय,
जिससे अब इसकी बुद्धि बहकने न पाये ॥ ७ ॥
जब
दैत्योंने प्रह्लादको गुरुजीके घर पहुँचा दिया, तब पुरोहितोंने
उनको बहुत पुचकारकर और फुसलाकर बड़ी मधुर वाणीसे पूछा ॥ ८ ॥ बेटा प्रह्लाद !
तुम्हारा कल्याण हो। ठीक-ठीक बतलाना। देखो, झूठ न बोलना। यह
तुम्हारी बुद्धि उलटी कैसे हो गयी ? और किसी बालककी बुद्धि
तो ऐसी नहीं हुई ॥ ९ ॥ कुलनन्दन प्रह्लाद ! बताओ तो बेटा ! हम तुम्हारे गुरुजन यह
जानना चाहते हैं कि तुम्हारी बुद्धि स्वयं ऐसी हो गयी या किसी ने सचमुच तुम को
बहका दिया है ? ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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