शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ का प्रकट होकर अदिति को वर देना

श्रीभगवानुवाच -
देवमातर्भवत्या मे विज्ञातं चिरकांक्षितम् ।
यत् सपत्‍नैः हृतश्रीणां च्यावितानां स्वधामतः ॥ १२ ॥
तान्विनिर्जित्य समरे दुर्मदान् असुरर्षभान् ।
प्रतिलब्धजयश्रीभिः पुत्रैः इच्छसि उपासितुम् ॥ १३ ॥
इन्द्रज्येष्ठैः स्वतनयैः हतानां युधि विद्विषाम् ।
स्त्रियो रुदन्तीरासाद्य द्रष्टुमिच्छसि दुःखिताः ॥ १४ ॥
आत्मजान् सुसमृद्धान् त्व प्रत्याहृतयशःश्रियः ।
नाकपृष्ठं अधिष्ठाय क्रीडतो द्रष्टुमिच्छसि ॥ १५ ॥
प्रायोऽधुना तेऽसुरयूथनाथा
     अपारणीया इति देवि मे मतिः ।
यत्तेऽनुकूलेश्वरविप्रगुप्ता
     न विक्रमस्तत्र सुखं ददाति ॥ १६ ॥
अथाप्युपायो मम देवि चिन्त्यः
     सन्तोषितस्य व्रतचर्यया ते ।
ममार्चनं नार्हति गन्तुमन्यथा
     श्रद्धानुरूपं फलहेतुकत्वात् ॥ १७ ॥
त्वयार्चितश्चाहमपत्यगुप्तये
     पयोव्रतेनानुगुणं समीडितः ।
स्वांशेन पुत्रत्वमुपेत्य ते सुतान्
     गोप्तास्मि मारीचतपस्यधिष्ठितः ॥ १८ ॥
उपधाव पतिं भद्रे प्रजापतिं अकल्मषम् ।
मां च भावयती पत्यौ एवं रूपमवस्थितम् ॥ १९ ॥
नैतत् परस्मा आख्येयं पृष्टयापि कथञ्चन ।
सर्वं संपद्यते देवि देवगुह्यं सुसंवृतम् ॥ २० ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहादेवताओं की जननी अदिति ! तुम्हारी चिरकालीन अभिलाषा को मैं जानता हूँ। शत्रुओंने तुम्हारे पुत्रों की सम्पत्ति छीन ली है, उन्हें उनके लोक (स्वर्ग) से खदेड़ दिया है ॥ १२ ॥ तुम चाहती हो कि युद्धमें तुम्हारे पुत्र उन मतवाले और बली असुरोंको जीतकर विजयलक्ष्मी प्राप्त करें, तब तुम उनके साथ भगवान्‌ की उपासना करो ॥ १३ ॥ तुम्हारी इच्छा यह भी है कि तुम्हारे इन्द्रादि पुत्र जब शत्रुओंको मार डालें, तब तुम उनकी रोती हुई दुखी स्त्रियोंको अपनी आँखों देख सको ॥ १४ ॥ अदिति ! तुम चाहती हो कि तुम्हारे पुत्र धन और शक्तिसे समृद्ध हो जायँ, उनकी कीर्ति और ऐश्वर्य उन्हें फिरसे प्राप्त हो जायँ तथा वे स्वर्गपर अधिकार जमाकर पूर्ववत् विहार करें ॥ १५ ॥ परंतु देवि ! वे असुर-सेनापति इस समय जीते नहीं जा सकते, ऐसा मेरा निश्चय है। क्योंकि ईश्वर और ब्राह्मण इस समय उनके अनुकूल हैं। इस समय उनके साथ यदि लड़ाई छेड़ी जायगी, तो उससे सुख मिलनेकी आशा नहीं है ॥ १६ ॥ फिर भी देवि ! तुम्हारे इस व्रतके अनुष्ठानसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिये मुझे इस सम्बन्धमें कोई-न-कोई उपाय सोचना ही पड़ेगा। क्योंकि मेरी आराधना व्यर्थ तो होनी नहीं चाहिये। उससे श्रद्धाके अनुसार फल अवश्य मिलता है ॥ १७ ॥ तुमने अपने पुत्रोंकी रक्षाके लिये ही विधिपूर्वक पयोव्रतसे मेरी पूजा एवं स्तुति की है। अत: मैं अंशरूपसे कश्यपके वीर्यमें प्रवेश करूँगा और तुम्हारा पुत्र बनकर तुम्हारी सन्तानकी रक्षा करूँगा ॥ १८ ॥ कल्याणी ! तुम अपने पति कश्यपमें मुझे इसी रूपमें स्थित देखो और उन निष्पाप प्रजापतिकी सेवा करो ॥ १९ ॥ देवि ! देखो, किसीके पूछनेपर भी यह बात दूसरेको मत बतलाना। देवताओंका रहस्य जितना गुप्त रहता है, उतना ही सफल होता है ॥ २० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


4 टिप्‍पणियां:

  1. जय श्री सीताराम जय हो प्रभु जय हो

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  2. ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌹🌺🙏

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  3. 🌸🎋💐जय श्री हरि: 🙏🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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