रविवार, 10 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

कंस के हाथ से छूटकर योगमाया का
आकाश में जाकर भविष्यवाणी करना

श्रीशुक उवाच ।
कंस एवं प्रसन्नाभ्यां विशुद्धं प्रतिभाषितः ।
देवकी वसुदेवाभ्यां अनुज्ञातो आविशत् गृहम् ॥ २८ ॥
तस्यां रात्र्यां व्यतीतायां कंस आहूय मंत्रिणः ।
तेभ्य आचष्ट तत् सर्वं यदुक्तं योगनिद्रया ॥ २९ ॥
आकर्ण्य भर्तुर्गदितं तं ऊचुः देवशत्रवः ।
देवान् प्रति कृतामर्षा दैतेया नातिकोविदाः ॥ ३० ॥
एवं चेत्तर्हि भोजेन्द्र पुरग्राम व्रजादिषु ।
अनिर्दशान् निर्दशांश्च हनिष्यामोऽद्य वै शिशून् ॥ ३१ ॥
किं उद्यमैः करिष्यन्ति देवाः समरभीरवः ।
नित्यं उद्विग्नमनसो ज्याघोषैर्धनुषस्तव ॥ ३२ ॥
अस्यतस्ते शरव्रातैः हन्यमानाः समन्ततः ।
जिजीविषव उत्सृज्य पलायनपरा ययुः ॥ ३३ ॥
केचित् प्राञ्जलयो दीना न्यस्तशस्त्रा दिवौकसः ।
मुक्तकच्छशिखाः केचिद् भीताः स्म इति वादिनः ॥ ३४ ॥
न त्वं विस्मृतशस्त्रास्त्रान् विरथान् भयसंवृतान् ।
हंस्यन्यासक्तविमुखान् भग्नचापानयुध्यतः ॥ ३५ ॥
किं क्षेमशूरैर्विबुधैः असंयुगविकत्थनैः ।
रहोजुषा किं हरिणा शंभुना वा वनौकसा ।
किं इंद्रेणाल्पवीर्येण ब्रह्मणा वा तपस्यता ॥ ३६ ॥
तथापि देवाः सापत्‍न्यान् नोपेक्ष्या इति मन्महे ।
ततः तन्मूलखनने नियुंक्ष्वास्मान् अनुव्रतान् ॥ ३७ ॥
यथामयोंऽगे समुपेक्षितो नृभिः
न शक्यते रूढपदश्चिकित्सितुम् ।
यथेन्द्रियग्राम उपेक्षितस्तथा
रिपुर्महान् बद्धबलो न चाल्यते ॥ ३८ ॥
मूलं हि विष्णुः देवानां यत्र धर्मः सनातनः ।
तस्य च ब्रह्मगोविप्राः तपो यज्ञाः सदक्षिणाः ॥ ३९ ॥
तस्मात्सर्वात्मना राजन् ब्राह्मणान् ब्रह्मवादिनः ।
तपस्विनो यज्ञशीलान् गाश्च हन्मो हविर्दुघाः ॥ ४० ॥
विप्रा गावश्च वेदाश्च तपः सत्यं दमः शमः ।
श्रद्धा दया तितिक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनूः ॥ ४१ ॥
स हि सर्वसुराध्यक्षो ह्यसुरद्‌विड् गुहाशयः ।
तन्मूला देवताः सर्वाः सेश्वराः सचतुर्मुखाः ।
अयं वै तद्‌वधोपायो यद्‌ऋषीणां विहिंसनम् ॥ ४२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब वसुदेव और देवकीने इस प्रकार प्रसन्न होकर निष्कपटभाव से कंस के साथ बातचीत की, तब उनसे अनुमति लेकर वह अपने महलमें चला गया ॥ २८ ॥ वह रात्रि बीत जानेपर कंसने अपने मन्ङ्क्षत्रयोंको बुलाया और योगमायाने जो कुछ कहा था, वह सब उन्हें कह सुनाया ॥ २९ ॥ कंसके मन्त्री पूर्णतया नीतिनिपुण नहीं थे । दैत्य होनेके कारण स्वभावसे ही वे देवताओंके प्रति शत्रुताका भाव रखते थे । अपने स्वामी कंसकी बात सुनकर वे देवताओंपर और भी चिढ़ गये और कंससे कहने लगे॥ ३० ॥ भोजराज ! यदि ऐसी बात है तो हम आज ही बड़े-बड़े नगरोंमें, छोटे-छोटे गाँवोंमें, अहीरोंकी बस्तियोंमें और दूसरे स्थानोंमें जितने बच्चे हुए हैं, वे चाहे दस दिनसे अधिकके हों या कमके, सबको आज ही मार डालेंगे ॥ ३१ ॥ समरभीरु देवगण युद्धोद्योग करके ही क्या करेंगे ? वे तो आपके धनुषकी टङ्कार सुनकर ही सदा-सर्वदा घबराये रहते हैं ॥ ३२ ॥ जिस समय युद्धभूमिमें आप चोट-पर-चोट करने लगते हैं, बाण-वर्षासे घायल होकर अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये समराङ्गण छोडक़र देवतालोग पलायन-परायण होकर इधर-उधर भाग जाते हैं ॥ ३३ ॥ कुछ देवता तो अपने अस्त्र-शस्त्र जमीनपर डाल देते हैं और हाथ जोडक़र आपके सामने अपनी दीनता प्रकट करने लगते हैं । कोई-कोई अपनी चोटीके बाल तथा कच्छ खोलकर आपकी शरणमें आकर कहते हैं कि—‘हम भयभीत हैं, हमारी रक्षा कीजिये॥ ३४ ॥ आप उन शत्रुओंको नहीं मारते जो अस्त्र-शस्त्र भूल गये हों, जिनका रथ टूट गया हो, जो डर गये हों, जो लोग युद्ध छोडक़र अन्यमनस्क हो गये हों, जिनका धनुष टूट गया हो या जिन्होंने युद्धसे अपना मुख मोड़ लिया होउन्हें भी आप नहीं मारते ॥ ३५ ॥ देवता तो बस वहीं वीर बनते हैं, जहाँ कोई लड़ाई-झगड़ा न हो । रणभूमिके बाहर वे बड़ी-बड़ी डींग हाँकते हैं । उनसे तथा एकान्तवासी विष्णु, वनवासी शङ्कर, अल्पवीर्य इन्द्र और तपस्वी ब्रह्मासे भी हमें क्या भय हो सकता है ॥ ३६ ॥ फिर भी देवताओंकी उपेक्षा नहीं करनी चाहियेऐसी हमारी राय है । क्योंकि हैं तो वे शत्रु ही । इसलिये उनकी जड़ उखाड़ फेंकनेके लिये आप हम-जैसे विश्वासपात्र सेवकोंको नियुक्त कर दीजिये ॥ ३७ ॥ जब मनुष्यके शरीरमें रोग हो जाता है और उसकी चिकित्सा नहीं की जातीउपेक्षा कर दी जाती है, तब रोग अपनी जड़ जमा लेता है और फिर वह असाध्य हो जाता है । अथवा जैसे इन्द्रियोंकी उपेक्षा कर देनेपर उनका दमन असम्भव हो जाता है, वैसे ही यदि पहले शत्रुकी उपेक्षा कर दी जाय और वह अपना पाँव जमा ले, तो फिर उसको हराना कठिन हो जाता है ॥ ३८ ॥ देवताओं की जड़ है विष्णु और वह वहाँ रहता है, जहाँ सनातनधर्म है । सनातनधर्म की जड़ हैंवेद, गौ, ब्राह्मण, तपस्या और वे यज्ञ, जिनमें दक्षिणा दी जाती है ॥३९॥ इसलिये भोजराज ! हमलोग वेदवादी ब्राह्मण, तपस्वी, याज्ञिक और यज्ञके लिये घी आदि हविष्य पदार्थ देनेवाली गायोंका पूर्णरूपसे नाश कर डालेंगे ॥ ४० ॥ ब्राह्मण, गौ, वेद, तपस्या, सत्य, इन्द्रियदमन, मनोनिग्रह, श्रद्धा, दया, तितिक्षा और यज्ञ विष्णुके शरीर हैं ॥ ४१ ॥ वह विष्णु ही सारे देवताओंका स्वामी तथा असुरोंका प्रधान द्वेषी है । परंतु वह किसी गुफामें छिपा रहता है । महादेव, ब्रह्मा और सारे देवताओंकी जड़ वही है । उसको मार डालनेका उपाय यह है कि ऋषियोंको मार डाला जाय॥ ४२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

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