शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— पचासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीभगवान्‌ के द्वारा वसुदेव जी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश

तथा देवकी जी के छ: पुत्रों को लौटा लाना

 

श्रीबादरायणिरुवाच

अथैकदात्मजौ प्राप्तौ कृतपादाभिवन्दनौ

वसुदेवोऽभिनन्द्याह प्रीत्या सङ्कर्षणाच्युतौ १

मुनीनां स वचः श्रुत्वा पुत्रयोर्धामसूचकम्

तद्वीर्यैर्जातविश्रम्भः परिभाष्याभ्यभाषत २

कृष्ण कृष्ण महायोगिन्सङ्कर्षण सनातन

जाने वामस्य यत्साक्षात्प्रधानपुरुषौ परौ ३

यत्र येन यतो यस्य यस्मै यद्यद्यथा यदा

स्यादिदं भगवान्साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वरः ४

एतन्नानाविधं विश्वमात्मसृष्टमधोक्षज

आत्मनानुप्रविश्यात्मन्प्राणो जीवो बिभर्ष्यज ५

प्राणादीनां विश्वसृजां शक्तयो याः परस्य ताः

पारतन्त्र्याद्वै सादृश्याद् द्वयोश्चेष्टैव चेष्टताम् ६

कान्तिस्तेजः प्रभा सत्ता चन्द्राग्न्यर्कर्क्षविद्युताम्

यत्स्थैर्यं भूभृतां भूमेर्वृत्तिर्गन्धोऽर्थतो भवान् ७

तर्पणं प्राणनमपां देव त्वं ताश्च तद्रसः

ओजः सहो बलं चेष्टा गतिर्वायोस्तवेश्वर ८

दिशां त्वमवकाशोऽसि दिशः खं स्फोट आश्रयः

नादो वर्णस्त्वमॐकार आकृतीनां पृथक्कृतिः ९

इन्द्रियं त्विन्द्रियाणां त्वं देवाश्च तदनुग्रहः

अवबोधो भवान्बुद्धेर्जीवस्यानुस्मृतिः सती १०

भूतानामसि भूतादिरिन्द्रियाणां च तैजसः

वैकारिको विकल्पानां प्रधानमनुशायिनम् ११

नश्वरेष्विह भावेषु तदसि त्वमनश्वरम्

यथा द्रव्यविकारेषु द्रव्यमात्रं निरूपितम् १२

सत्त्वम्रजस्तम इति गुणास्तद्वृत्तयश्च याः

त्वय्यद्धा ब्रह्मणि परे कल्पिता योगमायया १३

तस्मान्न सन्त्यमी भावा यर्हि त्वयि विकल्पिताः

त्वं चामीषु विकारेषु ह्यन्यदा व्यावहारिकः १४

गुणप्रवाह एतस्मिन्नबुधास्त्वखिलात्मनः

गतिं सूक्ष्मामबोधेन संसरन्तीह कर्मभिः १५

यदृच्छया नृतां प्राप्य सुकल्पामिह दुर्लभाम्

स्वार्थे प्रमत्तस्य वयो गतं त्वन्माययेश्वर १६

असावहम्ममैवैते देहे चास्यान्वयादिषु

स्नेहपाशैर्निबध्नाति भवान्सर्वमिदं जगत् १७

युवां न नः सुतौ साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वरौ

भूभारक्षत्रक्षपण अवतीर्णौ तथात्थ ह १८

तत्ते गतोऽस्म्यरणमद्य पदारविन्दम्

आपन्नसंसृतिभयापहमार्तबन्धो

एतावतालमलमिन्द्रियलालसेन

मर्त्यात्मदृक्त्वयि परे यदपत्यबुद्धिः १९

सूतीगृहे ननु जगाद भवानजो नौ

सञ्जज्ञ इत्यनुयुगं निजधर्मगुप्त्यै

नानातनूर्गगनवद्विदधज्जहासि

को वेद भूम्न उरुगाय विभूतिमायाम् २०

 

श्रीशुक उवाच

आकर्ण्येत्थं पितुर्वाक्यं भगवान्सात्वतर्षभः

प्रत्याह प्रश्रयानम्रः प्रहसन्श्लक्ष्णया गिरा २१

 

श्रीभगवानुवाच

वचो वः समवेतार्थं तातैतदुपमन्महे

यन्नः पुत्रान्समुद्दिश्य तत्त्वग्राम उदाहृतः २२

अहं यूयमसावार्य इमे च द्वारकौकसः

सर्वेऽप्येवं यदुश्रेष्ठ विमृग्याः सचराचरम् २३

आत्मा ह्येकः स्वयंज्योतिर्नित्योऽन्यो निर्गुणो गुणैः

आत्मसृष्टैस्तत्कृतेषु भूतेषु बहुधेयते २४

खं वायुर्ज्योतिरापो भूस्तत्कृतेषु यथाशयम्

आविस्तिरोऽल्पभूर्येको नानात्वं यात्यसावपि २५

 

श्रीशुक उवाच

एवं भगवता राजन्वसुदेव उदाहृतः

श्रुत्वा विनष्टनानाधीस्तूष्णीं प्रीतमना अभूत् २६

अथ तत्र कुरुश्रेष्ठ देवकी सर्वदेवता

श्रुत्वानीतं गुरोः पुत्रमात्मजाभ्यां सुविस्मिता २७

कृष्णरामौ समाश्राव्य पुत्रान्कंसविहिंसितान्

स्मरन्ती कृपणं प्राह वैक्लव्यादश्रुलोचना २८

 

श्रीदेवक्युवाच

राम रामाप्रमेयात्मन्कृष्ण योगेश्वरेश्वर

वेदाहं वां विश्वसृजामीश्वरावादिपूरुषौ २९

कलविध्वस्तसत्त्वानां राज्ञामुच्छास्त्रवर्तिनाम्

भूमेर्भारायमाणानामवतीर्णौ किलाद्य मे ३०

यस्यांशांशांशभागेन विश्वोत्पत्तिलयोदयाः

भवन्ति किल विश्वात्मंस्तं त्वाद्याहं गतिं गता ३१

चिरान्मृतसुतादाने गुरुणा किल चोदितौ

आनिन्यथुः पितृस्थानाद्गुरवे गुरुदक्षिणाम् ३२

तथा मे कुरुतं कामं युवां योगेश्वरेश्वरौ

भोजराजहतान्पुत्रान्कामये द्रष्टुमाहृतान् ३३

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इसके बाद एक दिन भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी प्रात:कालीन प्रणाम करनेके लिये माता-पिताके पास गये। प्रणाम कर लेनेपर वसुदेवजी बड़े प्रेमसे दोनों भाइयोंका अभिनन्दन करके कहने लगे ॥ १ ॥ वसुदेवजीने बड़े-बड़े ऋषियोंके मुँहसे भगवान्‌की महिमा सुनी थी तथा उनके ऐश्वर्यपूर्ण चरित्र भी देखे थे। इससे उन्हें इस बातका दृढ़ विश्वास हो गया था कि ये साधारण पुरुष नहीं, स्वयं भगवान्‌ हैं। इसलिये उन्होंने अपने पुत्रोंको प्रेमपूर्वक सम्बोधित करके यों कहा॥ २ ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! महायोगीश्वर सङ्कर्षण ! तुम दोनों सनातन हो। मैं जानता हूँ कि तुम दोनों सारे जगत्के साक्षात् कारणस्वरूप प्रधान और पुरुषके भी नियामक परमेश्वर हो ॥ ३ ॥ इस जगत्के आधार, निर्माता और निर्माण- सामग्री भी तुम्हीं हो। इस सारे जगत् के स्वामी तुम दोनों हो और तुम्हारी ही क्रीडा के लिये इसका निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूपमें जो कुछ रहता है, होता हैवह सब तुम्हीं हो। इस जगत् में प्रकृति-रूपसे भोग्य और पुरुषरूप से भोक्ता तथा दोनोंसे परे दोनों के नियामक साक्षात् भगवान्‌ भी तुम्हीं हो ॥ ४ ॥ इन्द्रियातीत ! जन्म, अस्तित्व आदि भावविकारोंसे रहित परमात्मन् ! इस चित्र-विचित्र जगत् का तुम्हीं ने निर्माण किया है और इसमें स्वयं तुमने ही आत्मारूपसे प्रवेश भी किया है। तुम प्राण (क्रियाशक्ति) और जीव (ज्ञानशक्ति) के रूपमें इसका पालन-पोषण कर रहे हो ॥ ५ ॥ क्रियाशक्तिप्रधान प्राण आदिमें जो जगत्की वस्तुओंकी सृष्टि करनेकी सामथ्र्य है, वह उनकी अपनी सामथ्र्य नहीं, तुम्हारी ही है। क्योंकि वे तुम्हारे समान चेतन नहीं, अचेतन हैं; स्वतन्त्र नहीं, परतन्त्र हैं। अत: उन चेष्टाशील प्राण आदिमें केवल चेष्टामात्र होती है, शक्ति नहीं। शक्ति तो तुम्हारी ही है ॥ ६ ॥ प्रभो ! चन्द्रमाकी कान्ति, अग्रिका तेज, सूर्यकी प्रभा, नक्षत्र और विद्युत् आदि की स्फुरणरूपसे सत्ता, पर्वतोंकी स्थिरता, पृथ्वीकी साधारणशक्तिरूप वृत्ति और गन्धरूप गुणये सब वास्तवमें तुम्हीं हो ॥ ७ ॥ परमेश्वर ! जलमें तृप्त करने, जीवन देने और शुद्ध करनेकी जो शक्तियाँ हैं, वे तुम्हारा ही स्वरूप हैं। जल और उसका रस भी तुम्हीं हो। प्रभो ! इन्द्रियशक्ति, अन्त:करणकी शक्ति, शरीरकी शक्ति, उसका हिलना-डोलना, चलना-फिरनाये सब वायुकी शक्तियाँ तुम्हारी ही हैं ॥ ८ ॥ दिशाएँ और उनके अवकाश भी तुम्हीं हो। आकाश और उसका आश्रयभूत स्फोटशब्दतन्मात्रा या परा वाणी, नादपश्यन्ती, ओंकारमध्यमा तथा वर्ण (अक्षर) एवं पदार्थोंका अलग-अलग निर्देश करनेवाले पद, रूप, वैखरी वाणी भी तुम्हीं हो ॥ ९ ॥ इन्द्रियाँ, उनकी विषयप्रकाशिनी शक्ति और अधिष्ठातृ-देवता तुम्हीं हो ! बुद्धिकी निश्चयात्मिका शक्ति और जीवकी विशुद्ध स्मृति भी तुम्हीं हो ॥ १० ॥ भूतोंमें उनका कारण तामस अहङ्कार, इन्द्रियोंमें उनका कारण तैजस अहङ्कार और इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ- देवताओंमें उनका कारण सात्त्विक अहङ्कार तथा जीवोंके आवागमनका कारण माया भी तुम्हीं हो ॥ ११ ॥ भगवन् ! जैसे मिट्टी आदि वस्तुओंके विकार घड़ा, वृक्ष आदिमें मिट्टी निरन्तर वर्तमान है और वास्तवमें वे कारण (मृत्तिका) रूप ही हैंउसी प्रकार जितने भी विनाशवान् पदार्थ हैं, उनमें तुम कारणरूपसे अविनाशी तत्त्व हो ! वास्तवमें वे सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं ॥ १२ ॥ प्रभो ! सत्त्व, रज, तमये तीनों गुण और उनकी वृत्तियाँ (परिणाम)महत्तत्त्वादि परब्रह्म परमात्मा में, तुममें योगमायाके द्वारा कल्पित हैं ॥ १३ ॥ इसलिये ये जितने भी जन्म, अस्ति, वृद्धि, परिणाम आदि भाव-विकार हैं, वे तुममें सर्वथा नहीं हैं। जब तुममें इनकी कल्पना कर ली जाती है, तब तुम इन विकारोंमें अनुगत जान पड़ते हो। कल्पनाकी निवृत्ति हो जानेपर तो निर्विकल्प परमार्थस्वरूप तुम्हीं तुम रह जाते हो ॥ १४ ॥ यह जगत् सत्त्व, रज, तमइन तीनों गुणोंका प्रवाह है; देह, इन्द्रिय, अन्त:करण, सुख, दु:ख और राग-लोभादि उन्हींके कार्य हैं। इनमें जो अज्ञानी तुम्हारा, सर्वात्माका सूक्ष्मस्वरूप नहीं जानते, वे अपने देहाभिमानरूप अज्ञानके कारण ही कर्मोंके फंदेमें फँसकर बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें भटकते रहते हैं ॥ १५ ॥ परमेश्वर ! मुझे शुभ प्रारब्धके अनुसार इन्द्रियादिकी सामथ्र्यसे युक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ। किन्तु तुम्हारी मायाके वश होकर मैं अपने सच्चे स्वार्थ- परमार्थ से ही असावधान हो गया और मेरी सारी आयु यों ही बीत गयी ॥ १६ ॥ प्रभो ! यह शरीर मैं हूँ और इस शरीर के सम्बन्धी मेरे अपने हैं, इस अहंता एवं ममतारूप स्नेह की फाँसी से तुमने इस सारे जगत् को बाँध रखा है ॥ १७ ॥ मैं जानता हूँ कि तुम दोनों मेरे पुत्र नहीं हो, सम्पूर्ण प्रकृति और जीवों के स्वामी हो ! पृथ्वी के भारभूत राजाओं के नाश के लिये ही तुमने अवतार ग्रहण किया है। यह बात तुमने मुझसे कही भी थी ॥ १८ ॥ इसलिये दीनजनों के हितैषी, शरणागतवत्सल ! मैं अब तुम्हारे चरणकमलोंकी शरणमें हूँ; क्योंकि वे ही शरणागतोंके संसारभयको मिटानेवाले हैं। अब इन्द्रियोंकी लोलुपतासे भर पाया। इसीके कारण मैंने मृत्युके ग्रास इस शरीरमें आत्मबुद्धि कर ली और तुममें, जो कि परमात्मा हो, पुत्रबुद्धि ॥ १९ ॥ प्रभो ! तुमने प्रसव-गृहमें ही हमसे कहा था कि यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, फिर भी मैं अपनी ही बनायी हुई धर्म-मर्यादाकी रक्षा करनेके लिये प्रत्येक युगमें तुम दोनोंके द्वारा अवतार ग्रहण करता रहा हूँ।भगवन् ! तुम आकाशके समान अनेकों शरीर ग्रहण करते और छोड़ते रहते हो। वास्तवमें तुम अनन्त, एकरस सत्ता हो। तुम्हारी आश्चर्यमयी शक्ति योगमायाका रहस्य भला कौन जान सकता है ? सब लोग तुम्हारी कीर्तिका ही गान करते रहते हैं ॥ २० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! वसुदेवजीके ये वचन सुनकर यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान्‌श्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने विनयसे झुककर मधुर वाणीसे कहा ॥ २१ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहापिताजी ! हम तो आपके पुत्र ही हैं हमें लक्ष्य करके आपने यह ब्रह्मज्ञानका उपदेश किया है। हम आपकी एक-एक बात युक्तियुक्त मानते हैं ॥ २२ ॥ पिताजी ! आपलोग, मैं, भैया बलरामजी, सारे द्वारकावासी, सम्पूर्ण चराचर जगत्सब-के-सब आपने जैसा कहा, वैसे ही हैं, सबको ब्रह्मरूप ही समझना चाहिये ॥ २३ ॥ पिताजी ! आत्मा तो एक ही है। परन्तु वह अपनेमें ही गुणोंकी सृष्टि कर लेता है और गुणोंके द्वारा बनाये हुए पञ्चभूतोंमें एक होनेपर भी अनेक, स्वयंप्रकाश होनेपर भी दृश्य, अपना स्वरूप होनेपर भी अपनेसे भिन्न, नित्य होनेपर भी अनित्य और निर्गुण होनेपर भी सगुणके रूपमें प्रतीत होता है ॥ २४ ॥ जैसे आकाश, वायु, अग्रि, जल और पृथ्वीये पञ्चमहाभूत अपने कार्य घट, कुण्डल आदिमें प्रकट-अप्रकट, बड़े-छोटे, अधिक-थोड़े, एक और अनेक-से प्रतीत होते हैंपरन्तु वास्तवमें सत्तारूपसे वे एक ही रहते हैं; वैसे ही आत्मामें भी उपाधियोंके भेदसे ही नानात्वकी प्रतीति होती है। इसलिये जो मैं हूँ, वही सब हैंइस दृष्टिसे आपका कहना ठीक ही है ॥ २५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके इन वचनोंको सुनकर वसुदेवजीने नानात्वबुद्धि छोड़ दी; वे आनन्दमें मग्र होकर वाणीसे मौन और मनसे निस्सङ्कल्प हो गये ॥ २६ ॥ कुरुश्रेष्ठ ! उस समय वहाँ सर्वदेवमयी देवकीजी भी बैठी हुई थीं। वे बहुत पहलेसे ही यह सुनकर अत्यन्त विस्मित थीं कि श्रीकृष्ण और बलरामजीने अपने मरे हुए गुरुपुत्रको यमलोकसे वापस ला दिया ॥ २७ ॥ अब उन्हें अपने उन पुत्रोंकी याद आ गयी, जिन्हें कंसने मार डाला था। उनके स्मरणसे देवकीजीका हृदय आतुर हो गया, नेत्रोंसे आँसू बहने लगे। उन्होंने बड़े ही करुणस्वरसे श्रीकृष्ण और बलरामजीको सम्बोधित करके कहा ॥ २८ ॥

देवकीजीने कहालोकाभिराम राम ! तुम्हारी शक्ति मन और वाणीके परे है। श्रीकृष्ण ! तुम योगेश्वरोंके भी ईश्वर हो। मैं जानती हूँ कि तुम दोनों प्रजापतियोंके भी ईश्वर, आदिपुरुष नारायण हो ॥ २९ ॥ यह भी मुझे निश्चत रूपसे मालूम है कि जिन लोगोंने कालक्रमसे अपना धैर्य, संयम और सत्त्वगुण खो दिया है तथा शास्त्रकी आज्ञाओंका उल्लङ्घन करके जो स्वेच्छाचारपरायण हो रहे हैं, भूमिके भारभूत उन राजाओंका नाश करनेके लिये ही तुम दोनों मेरे गर्भसे अवतीर्ण हुए हो ॥ ३० ॥ विश्वात्मन् ! तुम्हारे पुरुषरूप अंशसे उत्पन्न हुई मायासे गुणों की उत्पत्ति होती है और उनके लेशमात्रसे जगत् की उत्पत्ति, विकास तथा प्रलय होता है। आज मैं सर्वान्त:करण से तुम्हारी शरण हो रही हूँ ॥ ३१ ॥ मैंने सुना है कि तुम्हारे गुरु सान्दीपनिजी के पुत्र को मरे बहुत दिन हो गये थे। उनको गुरुदक्षिणा देनेके लिये उनकी आज्ञा तथा कालकी प्रेरणासे तुम दोनोंने उनके पुत्रको यमपुरीसे वापस ला दिया ॥ ३२ ॥ तुम दोनों योगीश्वरोंके भी ईश्वर हो। इसलिये आज मेरी भी अभिलाषा पूर्ण करो। मैं चाहती हूँ कि तुम दोनों मेरे उन पुत्रोंको, जिन्हें कंसने मार डाला था, ला दो और उन्हें मैं भर आँख देख लूँ ॥ ३३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

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