मंगलवार, 30 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनों का वर्णन

 

श्रीभगवानुवाच

यो विद्याश्रुतसम्पन्नः आत्मवान्नानुमानिकः

मायामात्रमिदं ज्ञात्वा ज्ञानं च मयि सन्न्यसेत् १

ज्ञानिनस्त्वहमेवेष्टः स्वार्थो हेतुश्च सम्मतः

स्वर्गश्चैवापवर्गश्च नान्योऽर्थो मदृते प्रियः २

ज्ञानविज्ञानसंसिद्धाः पदं श्रेष्ठं विदुर्मम

ज्ञानी प्रियतमोऽतो मे ज्ञानेनासौ बिभर्ति माम् ३

तपस्तीर्थं जपो दानं पवित्राणीतराणि च

नालं कुर्वन्ति तां सिद्धिं या ज्ञानकलया कृता ४

तस्माज्ज्ञानेन सहितं ज्ञात्वा स्वात्मानमुद्धव

ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो भज मां भक्तिभावतः ५

ज्ञानविज्ञानयज्ञेन मामिष्ट्वात्मानमात्मनि

सर्वयज्ञपतिं मां वै संसिद्धिं मुनयोऽगमन् ६

त्वय्युद्धवाश्रयति यस्त्रिविधो विकारो

मायान्तरापतति नाद्यपवर्गयोर्यत्

जन्मादयोऽस्य यदमी तव तस्य किं स्युर्

आद्यन्तयोर्यदसतोऽस्ति तदेव मध्ये ७

 

श्रीउद्धव उवाच

ज्ञानं विशुद्धं विपुलं यथैत-

द्वैराग्यविज्ञानयुतं पुराणम्

आख्याहि विश्वेश्वर विश्वमूर्ते

त्वद्भक्तियोगं च महद्विमृग्यम् ८

तापत्रयेणाभिहतस्य घोरे

सन्तप्यमानस्य भवाध्वनीश

पश्यामि नान्यच्छरणं तवाङ्घ्रि

द्वन्द्वातपत्रादमृताभिवर्षात् ९

दष्टं जनं सम्पतितं बिलेऽस्मिन्

कालाहिना क्षुद्र सुखोरुतर्षम्

समुद्धरैनं कृपयापवर्ग्यै-

र्वचोभिरासिञ्च महानुभाव १०

 

श्रीभगवानुवाच

इत्थमेतत्पुरा राजा भीष्मं धर्मभृतां वरम्

अजातशत्रुः पप्रच्छ सर्वेषां नोऽनुशृण्वताम् ११

निवृत्ते भारते युद्धे सुहृन्निधनविह्वलः

श्रुत्वा धर्मान्बहून्पश्चान्मोक्षधर्मानपृच्छत १२

तानहं तेऽभिधास्यामि देवव्रतमुखाच्छ्रुतान्

ज्ञानवैराग्यविज्ञान श्रद्धाभक्त्युपबृंहितान् १३

नवैकादश पञ्च त्रीन्भावान्भूतेषु येन वै

ईक्षेताथैकमप्येषु तज्ज्ञानं मम निश्चितम् १४

एतदेव हि विज्ञानं न तथैकेन येन यत्

स्थित्युत्पत्त्यप्ययान् पश्येद्भावानां त्रिगुणात्मनाम् १५

आदावन्ते च मध्ये च सृज्यात्सृज्यं यदन्वियात्

पुनस्तत्प्रतिसङ्क्रामे यच्छिष्येत तदेव सत् १६

श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यमनुमानं चतुष्टयम्

प्रमाणेष्वनवस्थानाद्विकल्पात्स विरज्यते १७

कर्मणां परिणामित्वादाविरिञ्च्यादमङ्गलम्

विपश्चिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि दृष्टवत् १८

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी ! जिसने उपनिषदादि शास्त्रोंके श्रवण, मनन और निदिध्यासन के द्वारा आत्मसाक्षात्कार कर लिया है, जो श्रोत्रिय एवं ब्रह्मनिष्ठ है, जिसका निश्चय केवल युक्तियों और अनुमानोंपर ही निर्भर नहीं करता, दूसरे शब्दोंमें—जो केवल परोक्षज्ञानी नहीं है, वह यह जानकर कि सम्पूर्ण द्वैतप्रपञ्च और इसकी निवृत्तिका साधन वृत्तिज्ञान मायामात्र है, उन्हें मुझमें लीन कर दे, वे दोनों ही मुझ आत्मामें अध्यस्त हैं, ऐसा जान ले ॥ १ ॥ ज्ञानी पुरुषका अभीष्ट पदार्थ मैं ही हूँ, उसके साधन-साध्य, स्वर्ग और अपवर्ग भी मैं ही हूँ। मेरे अतिरिक्त और किसी भी पदार्थसे वह प्रेम नहीं करता ॥ २ ॥ जो ज्ञान और विज्ञानसे सम्पन्न सिद्धपुरुष हैं, वे ही मेरे वास्तविक स्वरूपको जानते हैं। इसीलिये ज्ञानी पुरुष मुझे सबसे प्रिय है। उद्धवजी ! ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञानके द्वारा निरन्तर मुझे अपने अन्त:करणमें धारण करता है ॥ ३ ॥ तत्त्वज्ञानके लेशमात्रका उदय होनेसे जो सिद्धि प्राप्त होती है, वह तपस्या, तीर्थ, जप, दान अथवा अन्त:करण-शुद्धिके और किसी भी साधनसे पूर्णतया नहीं हो सकती ॥ ४ ॥ इसलिये मेरे प्यारे उद्धव ! तुम ज्ञानके सहित अपने आत्मस्वरूपको जान लो और फिर ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न होकर भक्तिभावसे मेरा भजन करो ॥ ५ ॥ बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंने ज्ञान-विज्ञानरूप यज्ञके द्वारा अपने अन्त:करणमें मुझ सब यज्ञोंके अधिपति आत्माका यजन करके परम सिद्धि प्राप्त की है ॥ ६ ॥ उद्धव ! आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक—इन तीन विकारोंकी समष्टि ही शरीर है और वह सर्वथा तुम्हारे आश्रित है। यह पहले नहीं था और अन्तमें नहीं रहेगा; केवल बीचमें ही दीख रहा है। इसलिये इसे जादूके खेलके समान माया ही समझना चाहिये। इसके जो जन्मना, रहना, बढऩा, बदलना, घटना और नष्ट होना—ये छ: भावविकार हैं, इनसे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है  । यही नहीं, ये विकार उसके भी नहीं हैं; क्योंकि वह स्वयं असत् है। असत् वस्तु तो पहले नहीं थी, बादमें भी नहीं रहेगी; इसलिये बीच में भी उसका कोई अस्तित्व नहीं होता ॥ ७ ॥

उद्धवजीने कहा—विश्वरूप परमात्मन् ! आप ही विश्वके स्वामी हैं। आपका यह वैराग्य और विज्ञानसे युक्त सनातन एवं विशुद्ध ज्ञान जिस प्रकार सुदृढ़ हो जाय, उसी प्रकार मुझे स्पष्ट करके समझाइये और उस अपने भक्तियोगका भी वर्णन कीजिये, जिसे ब्रह्मा आदि महापुरुष भी ढूँढ़ा करते हैं ॥ ८ ॥ मेरे स्वामी ! जो पुरुष इस संसारके विकट मार्गमें तीनों तापोंके थपेड़े खा रहे हैं और भीतर-बाहर जल-भुन रहे हैं, उनके लिये आपके अमृतवर्षी युगल चरणारविन्दोंकी छत्र- छायाके अतिरिक्त और कोई भी आश्रय नहीं दीखता ॥ ९ ॥ महानुभाव ! आपका यह अपना सेवक अँधेरे कुएँमें पड़ा हुआ है, कालरूपी सर्पने इसे डस रखा है; फिर भी विषयोंके क्षुद्र सुख- भोगोंकी तीव्र तृष्णा मिटती नहीं, बढ़ती ही जा रही है। आप कृपा करके इसका उद्धार कीजिये और इससे मुक्त करनेवाली वाणीकी सुधा-धारासे इसे सराबोर कर दीजिये ॥ १० ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी ! जो प्रश्र तुमने मुझसे किया है, यही प्रश्र धर्मराज युधिष्ठिरने धाॢमकशिरोमणि भीष्मपितामहसे किया था। उस समय हम सभी लोग वहाँ विद्यमान थे ॥ ११ ॥ जब भारतीय महायुद्ध समाप्त हो चुका था और धर्मराज युधिष्ठिर अपने स्वजन-सम्बन्धियोंके संहारसे शोक-विह्वल हो रहे थे, तब उन्होंने भीष्मपितामहसे बहुत-से धर्मोंका विवरण सुननेके पश्चात् मोक्षके साधनोंके सम्बन्धमें प्रश्र किया था ॥ १२ ॥ उस समय भीष्मपितामहके मुखसे सुने हुए मोक्षधर्म मैं तुम्हें सुनाऊँगा। क्योंकि वे ज्ञान, वैराग्य, विज्ञान, श्रद्धा और भक्तिके भावोंसे परिपूर्ण हैं ॥ १३ ॥ उद्धवजी ! जिस ज्ञानसे प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्रा—ये नौ, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन—ये ग्यारह, पाँच महाभूत और तीन गुण अर्थात् इन अट्ठाईस तत्त्वोंको ब्रह्मासे लेकर तृणतक सम्पूर्ण कार्योंमें देखा जाता है और इनमें भी एक परमात्मतत्त्वको अनुगत रूपसे देखा जाता है—वह परोक्षज्ञान है, ऐसा मेरा निश्चय है ॥ १४ ॥ जब जिस एक तत्त्वसे अनुगत एकात्मक तत्त्वोंको पहले देखता था, उनको पहलेके समान न देखे, किन्तु एक परम कारण ब्रह्मको ही देखे, तब यही निश्चित विज्ञान (अपरोक्षज्ञान) कहा जाता है। (इस ज्ञान और विज्ञानको प्राप्त करनेकी युक्ति यह है कि) यह शरीर आदि जितने भी त्रिगुणात्मक सावयव पदार्थ हैं, उनकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलयका विचार करे ॥ १५ ॥ जो तत्त्ववस्तु सृष्टिके प्रारम्भमें और अन्तमें कारणरूपसे स्थित रहती है, वही मध्यमें भी रहती है और वही प्रतीयमान कार्यसे प्रतीयमान कार्यान्तरमें अनुगत भी होती है। फिर उन कार्योंका प्रलय अथवा बाध होनेपर उसके साक्षी एवं अधिष्ठान रूपसे शेष रह जाती है। वही सत्य परमार्थ वस्तु है, ऐसा समझे ॥ १६ ॥ श्रुति, प्रत्यक्ष, ऐतिह्य (महापुरुषोंमें प्रसिद्धि) और अनुमान—प्रमाणोंमें यह चार मुख्य हैं। इनकी कसौटीपर कसनेसे दृश्य-प्रपञ्च अस्थिर, नश्वर एवं विकारी होनेके कारण सत्य सिद्ध नहीं होता, इसलिये विवेकी पुरुष इस विविध कल्पनारूप अथवा शब्दमात्र प्रपञ्चसे विरक्त हो जाता है ॥ १७ ॥ विवेकी पुरुषको चाहिये कि वह स्वर्गादि फल देनेवाले यज्ञादि कर्मोंके परिणामी—नश्वर होनेके कारण ब्रह्मलोकपर्यन्त स्वर्गादि सुख—अदृष्ट को भी इस प्रत्यक्ष विषय-सुखके समान ही अमङ्गल, दु:खदायी एवं नाशवान् समझे ॥ १८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

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