॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
अवधूतोपाख्यान—अजगर से लेकर पिङ्गला
तक नौ गुरुओं की कथा
श्रीब्राह्मण
उवाच -
सुखम्
ऐन्द्रियकं राजन् स्वर्गे नरक एव च ।
देहिनां
यद् यथा दुःखं तस्मान् नेच्छेत तद्बुधः ॥ १ ॥
ग्रासं
सुमृष्टं विरसं महान्तं स्तोकमेव वा ।
यदृच्छयैवापतितं
ग्रसेत् आजगरोऽक्रियः ॥ २ ॥
शयीताहानि
भूरीणि निराहारोऽनुपक्रमः ।
यदि नोपनमेद् ग्रासो महाहिरिव दिष्टभुक् ॥ ३ ॥
ओजःसहोबलयुतं बिभ्रद् देहमकर्मकम् ।
शयानो वीतनिद्रश्च नेहेतेन्द्रियवानपि ॥ ४ ॥
मुनिः प्रसन्नगम्भीरो दुर्विगाह्यो दुरत्ययः ।
अनन्तपारो ह्यक्षोभ्यः स्तिमितोद इवार्णवः ॥ ५ ॥
समृद्धकामो हीनो वा नारायणपरो मुनिः ।
नोत्सर्पेत न शुष्येत सरिद्भिरिव सागरः ॥ ६ ॥
दृष्ट्वा स्त्रियं देवमायां तद्भावैरजितेन्द्रियः
।
प्रलोभितः पतत्यन्धे तमस्यग्नौ पतङ्गवत् ॥ ७ ॥
योषिद्धिरण्याभरणाम्बरादि
द्रव्येषु मायारचितेषु मूढः ।
प्रलोभितात्मा ह्युपभोगबुद्ध्या
पतङ्गवत् नश्यति नष्टदृष्टिः ॥ ८ ॥
स्तोकं
स्तोकं ग्रसेद् ग्रासं देहो वर्तेत यावता ।
गृहान् अहिंसन् आतिष्ठेद् वृत्तिं माधुकरीं
मुनिः ॥ ९ ॥
अणुभ्यश्च महद्भ्यश्च शास्त्रेभ्यः कुशलो नरः ।
सर्वतः सारमादद्यात् पुष्पेभ्य इव षट्पदः ॥ १० ॥
सायन्तनं श्वस्तनं वा न सङ्गृह्णीत भिक्षितम् ।
पाणिपात्रोदरामत्रो मक्षिकेव न सङ्ग्रही ॥ ११ ॥
सायन्तनं श्वस्तनं वा न सङ्गृह्णीत भिक्षुकः ।
मक्षिका इव सङ्गृह्णन् सह तेन विनश्यति ॥ १२ ॥
पदापि युवतीं भिक्षुः न स्पृशेद् दारवीमपि ।
स्पृशन् करीव बध्येत करिण्या अङ्गसङ्गतः ॥ १३ ॥
नाधिगच्छेत् स्त्रियं प्राज्ञः कर्हिचित्
मृत्युमात्मनः ।
बलाधिकैः स हन्येत गजैरन्यैर्गजो यथा ॥ १४ ॥
न देयं नोपभोग्यं च लुब्धैर्यद् दुःखसञ्चितम् ।
भुङ्क्ते तदपि तच्चान्यो मधुहेवार्थविन्मधु ॥ १५
॥
सुदुःखोपार्जितैः वित्तैः आशासानां गृहाशिषः ।
मधुहेवाग्रतो भुङ्क्ते यतिर्वै गृहमेधिनाम् ॥ १६
॥
ग्राम्यगीतं न श्रृणुयाद् यतिर्वनचरः क्वचित् ।
शिक्षेत हरिणाद् बद्धान् मृगयोर्गीतमोहितात् ॥
१७ ॥
नृत्यवादित्रगीतानि जुषन् ग्राम्याणि योषिताम् ।
आसां क्रीडनको वश्य ऋष्यश्रृङ्गो मृगीसुतः ॥ १८
॥
जिह्वयातिप्रमाथिन्या जनो रसविमोहितः ।
मृत्युम् ऋच्छत्यसद्बुधिः मीनस्तु बडिशैर्यथा ॥
१९ ॥
इन्द्रियाणि जयन्त्याशु निराहारा मनीषिणः ।
वर्जयित्वा तु रसनं तन्निरन्नस्य वर्धते ॥ २० ॥
तावत् जितेन्द्रियो न स्याद् विजितान्येन्द्रियः
पुमान् ।
न जयेद् रसनं यावत् जितं सर्वं जिते रसे ॥ २१ ॥
अवधूत दत्तात्रेयजी कहते हैं—राजन्
! प्राणियोंको जैसे बिना इच्छाके, बिना किसी प्रयत्नके, रोकनेकी चेष्टा करनेपर भी पूर्वकर्मानुसार दु:ख प्राप्त होते हैं, वैसे ही स्वर्गमें या नरकमें—कहीं भी रहें,
उन्हें इन्द्रियसम्बन्धी सुख भी प्राप्त होते ही हैं। इसलिये सुख
और दु:खका रहस्य जाननेवाले बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि इनके लिये इच्छा अथवा
किसी प्रकारका प्रयत्न न करे ॥ १ ॥ बिना माँगे,
बिना इच्छा किये स्वयं ही अनायास जो कुछ मिल जाय—वह चाहे रूखा-सूखा
हो, चाहे बहुत मधुर और स्वादिष्ट,
अधिक हो या थोड़ा—बुद्धिमान् पुरुष अजगरके समान उसे ही खाकर जीवन-
निर्वाह कर ले और उदासीन रहे ॥ २ ॥ यदि भोजन न मिले तो उसे भी प्रारब्ध-भोग समझकर
किसी प्रकारकी चेष्टा न करे, बहुत दिनोंतक भूखा ही पड़ा रहे। उसे चाहिये कि अजगरके समान केवल
प्रारब्धके अनुसार प्राप्त हुए भोजनमें ही सन्तुष्ट रहे ॥ ३ ॥ उसके शरीरमें मनोबल, इन्द्रियबल और देहबल तीनों हों तब भी वह निश्चेष्ट ही रहे।
निद्रारहित होनेपर भी सोया हुआ-सा रहे और कर्मेन्द्रियोंके होनेपर भी उनसे कोई
चेष्टा न करे। राजन् ! मैंने अजगरसे यही शिक्षा ग्रहण की है ॥ ४ ॥
समुद्रसे मैंने यह सीखा है कि
साधकको सर्वदा प्रसन्न और गम्भीर रहना चाहिये,
उसका भाव अथाह, अपार और असीम होना चाहिये तथा किसी भी निमित्तसे उसे क्षोभ न होना
चाहिये। उसे ठीक वैसे ही रहना चाहिये, जैसे ज्वार-भाटे और तरङ्गों से रहित शान्त समुद्र ॥ ५ ॥ देखो, समुद्र वर्षाऋतु में नदियों की बाढक़े कारण बढ़ता नहीं और न
ग्रीष्म-ऋतुमें घटता ही है; वैसे ही भगवत्परायण साधक को
भी सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिसे प्रफुल्लित न होना चाहिये और न उनके घटनेसे
उदास ही होना चाहिये ॥ ६ ॥
राजन् ! मैंने पङ्क्षतगेसे यह
शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह रूपपर मोहित होकर आगमें कूद पड़ता है और जल मरता है, वैसे ही अपनी इन्द्रियोंको वशमें न रखनेवाला पुरुष जब स्त्रीको
देखता है तो उसके हाव-भावपर लट्टू हो जाता है और घोर अन्धकारमें, नरकमें गिरकर अपना सत्यानाश कर लेता है। सचमुच स्त्री देवताओंकी वह
माया है, जिससे जीव भगवान् या मोक्षकी प्राप्तिसे वञ्चित रह जाता है ॥ ७ ॥
जो मूढ़ कामिनी-कञ्चन, गहने-कपड़े
आदि नाशवान् मायिक पदार्थोंमें फँसा हुआ है और जिसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति उनके
उपभोगके लिये ही लालायित है, वह अपनी विवेकबुद्धि खोकर पतंगे के समान नष्ट हो जाता है ॥ ८ ॥
राजन् ! संन्यासी को चाहिये कि
गृहस्थोंको किसी प्रकारका कष्ट न देकर भौंरे
की तरह अपना जीवन-निर्वाह करे। वह अपने शरीरके लिये उपयोगी रोटीके कुछ
टुकड़े कई घरोंसे माँग ले [1] ॥ ९ ॥ जिस प्रकार भौंरा विभिन्न पुष्पोंसे—चाहे वे छोटे हों या
बड़े—उनका सार संग्रह करता है, वैसे ही बुद्धिमान् पुरुष को
चाहिये कि छोटे-बड़े सभी शास्त्रोंसे उनका सार—उनका रस निचोड़ ले ॥ १० ॥ राजन् !
मैंने मधुमक्खी से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सायङ्काल अथवा दूसरे दिन के
लिये भिक्षा का संग्रह न करना चाहिये। उसके पास भिक्षा लेनेको कोई पात्र हो तो
केवल हाथ और रखनेके लिये कोई बर्तन हो तो पेट। वह कहीं संग्रह न कर बैठे, नहीं तो मधुमक्खियोंके समान उसका जीवन ही दूभर हो जायगा ॥ ११ ॥ यह
बात खूब समझ लेनी चाहिये कि संन्यासी सबेरे शाम के लिये किसी प्रकारका संग्रह न
करे; यदि संग्रह करेगा, तो मधुमक्खियों के समान अपने संग्रह के साथ ही जीवन भी गँवा बैठेगा
॥ १२ ॥
राजन् ! मैंने हाथी से यह सीखा कि
संन्यासी को कभी पैर से भी काठकी बनी हुई
स्त्रीका भी स्पर्श न करना चाहिये। यदि वह ऐसा करेगा तो जैसे हथिनीके अङ्ग-सङ्गसे
हाथी बँध जाता है, वैसे
ही वह भी बँध जायगा [2] ॥
१३ ॥ विवेकी पुरुष किसी भी स्त्रीको कभी भी भोग्यरूपसे स्वीकार न करे; क्योंकि यह उसकी मूर्तिमती मृत्यु है। यदि वह स्वीकार करेगा तो
हाथियोंसे हाथीकी तरह अधिक बलवान् अन्य पुरुषोंके द्वारा मारा जायगा ॥ १४ ॥
मैंने मधु निकालनेवाले पुरुषसे यह
शिक्षा ग्रहण की है कि संसारके लोभी पुरुष बड़ी कठिनाईसे धनका सञ्चय तो करते रहते
हैं, किन्तु वह सञ्चित धन न किसीको दान करते हैं और न स्वयं उसका उपभोग
ही करते हैं। बस, जैसे
मधु निकालनेवाला मधुमक्खियोंद्वारा सञ्चित रसको निकाल ले जाता है, वैसे ही उनके सञ्चित धनको भी उसकी टोह रखनेवाला कोई दूसरा पुरुष ही
भोगता है ॥ १५ ॥ तुम देखते हो न कि मधुहारी मधुमक्खियोंका जोड़ा हुआ मधु उनके
खानेसे पहले ही साफ कर जाता है; वैसे ही गृहस्थोंके बहुत कठिनाईसे सञ्चित किये पदार्थोंको, जिनसे वे सुखभोगकी अभिलाषा रखते हैं,
उनसे भी पहले संन्यासी और ब्रह्मचारी भोगते हैं। क्योंकि गृहस्थ तो
पहले अतिथि-अभ्यागतोंको भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करेगा ॥ १६ ॥
मैंने हरिनसे यह सीखा है कि वनवासी
संन्यासीको कभी विषय-सम्बन्धी गीत नहीं सुनने चाहिये। वह इस बातकी शिक्षा उस
हरिनसे ग्रहण करे, जो
व्याधके गीतसे मोहित होकर बँध जाता है ॥ १७ ॥ तुम्हें इस बातका पता है कि हरिनीके
गर्भसे पैदा हुए ऋष्यशृङ्ग मुनि स्त्रियोंका विषय-सम्बन्धी गाना-बजाना, नाचना आदि देख-सुनकर उनके वशमें हो गये थे और उनके हाथकी कठपुतली
बन गये थे ॥ १८ ॥
अब मैं तुम्हें मछलीकी सीख सुनाता
हूँ। जैसे मछली काँटेमें लगे हुए मांसके टुकड़ेके लोभसे अपने प्राण गँवा देती है, वैसे ही स्वादका लोभी दुर्बुद्धि मनुष्य भी मनको मथकर व्याकुल कर
देनेवाली अपनी जिह्वाके वशमें हो जाता है और मारा जाता है ॥ १९ ॥ विवेकी पुरुष
भोजन बंद करके दूसरी इन्द्रियोंपर तो बहुत शीघ्र विजय प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु इससे उनकी रसना-इन्द्रिय वशमें नहीं होती। वह तो भोजन बंद
कर देनेसे और भी प्रबल हो जाती है ॥ २० ॥ मनुष्य और सब इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त
कर लेनेपर भी तबतक जितेन्द्रिय नहीं हो सकता,
जबतक रसनेन्द्रियको अपने वशमें नहीं कर लेता। और यदि रसनेन्द्रियको
वशमें कर लिया, तब तो मानो सभी इन्द्रियाँ वशमें हो गयीं ॥ २१ ॥
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[1] नहीं तो एक ही कमलके गन्धमें आसक्त हुआ भ्रमर जैसे रात्रिके समय
उसमें बंद हो जानेसे नष्ट हो जाता है,
उसी प्रकार स्वादवासनासे एक ही गृहस्थका अन्न खानेसे उसके सांसॢगक
मोहमें फँसकर यति भी नष्ट हो जायगा।
[2] हाथी पकडऩेवाले तिनकोंसे ढके हुए गड्ढेपर कागजकी हथिनी खड़ी कर
देते हैं। उसे देखकर हाथी वहाँ आता है और गड्ढेमें गिरकर फँस जाता है।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
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