रविवार, 4 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

एक तितिक्षु ब्राह्मण का इतिहास

 

यशो यशस्विनां शुद्धं श्लाघ्या ये गुणिनां गुणाः

लोभः स्वल्पोऽपि तान्हन्ति श्वित्रो रूपमिवेप्सितम् १६

अर्थस्य साधने सिद्धे उत्कर्षे रक्षणे व्यये

नाशोपभोग आयासस्त्रासश्चिन्ता भ्रमो नृणाम् १७

स्तेयं हिंसानृतं दम्भः कामः क्रोधः स्मयो मदः

भेदो वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च १८

एते पञ्चदशानर्था ह्यर्थमूला मता नृणाम्

तस्मादनर्थमर्थाख्यं श्रेयोऽर्थी दूरतस्त्यजेत् १९

भिद्यन्ते भ्रातरो दाराः पितरः सुहृदस्तथा

एका स्निग्धाः काकिणिना सद्यः सर्वेऽरयः कृताः २०

अर्थेनाल्पीयसा ह्येते संरब्धा दीप्तमन्यवः

त्यजन्त्याशु स्पृधो घ्नन्ति सहसोत्सृज्य सौहृदम् २१

लब्ध्वा जन्मामरप्रार्थ्यं मानुष्यं तद्द्विजाग्र्यताम्

तदनादृत्य ये स्वार्थं घ्नन्ति यान्त्यशुभां गतिम् २२

स्वर्गापवर्गयोर्द्वारं प्राप्य लोकमिमं पुमान्

द्रविणे कोऽनुषज्जेत मर्त्योऽनर्थस्य धामनि २३

देवर्षिपितृभूतानि ज्ञातीन्बन्धूंश्च भागिनः

असंविभज्य चात्मानं यक्षवित्तः पतत्यधः २४

व्यर्थयार्थेहया वित्तं प्रमत्तस्य वयो बलम्

कुशला येन सिध्यन्ति जरठः किं नु साधये २५

कस्मात्सङ्क्लिश्यते विद्वान्व्यर्थयार्थेहयासकृत्

कस्यचिन्मायया नूनं लोकोऽयं सुविमोहितः २६

किं धनैर्धनदैर्वा किं कामैर्वा कामदैरुत

मृत्युना ग्रस्यमानस्य कर्मभिर्वोत जन्मदैः २७

नूनं मे भगवांस्तुष्टः सर्वदेवमयो हरिः

येन नीतो दशामेतां निर्वेदश्चात्मनः प्लवः २८

सोऽहं कालावशेषेण शोषयिष्येऽङ्गमात्मनः

अप्रमत्तोऽखिलस्वार्थे यदि स्यात्सिद्ध आत्मनि २९

तत्र मामनुमोदेरन्देवास्त्रिभुवनेश्वराः

मुहूर्तेन ब्रह्मलोकं खट्वाङ्गः समसाधयत् ३०

 

जैसे थोड़ा-सा भी कोढ़ सर्वाङ्गसुन्दर स्वरूपको बिगाड़ देता है, वैसे ही तनिक-सा भी लोभ यशस्वियोंके शुद्ध यश और गुणियोंके प्रशंसनीय गुणोंपर पानी फेर देता है ॥ १६ ॥ धन कमानेमें, कमा लेनेपर उसको बढ़ाने, रखने एवं खर्च करनेमें तथा उसके नाश और उपभोगमें—जहाँ देखो वहीं निरन्तर परिश्रम, भय, चिन्ता और भ्रमका ही सामना करना पड़ता है ॥ १७ ॥ चोरी, हिंसा, झूठ बोलना, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, अहङ्कार, भेदबुद्धि, वैर, अविश्वास, स्पद्र्धा, लम्पटता, जूआ और शराब—ये पन्द्रह अनर्थ मनुष्योंमें धनके कारण ही माने गये हैं। इसलिये कल्याणकामी पुरुषको चाहिये कि स्वार्थ एवं परमार्थके विरोधी अर्थनामधारी अनर्थको दूरसे ही छोड़ दे ॥ १८-१९ ॥ भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र, माता-पिता, सगे-सम्बन्धी—जो स्नेहबन्धनसे बँधकर बिलकुल एक हुए रहते हैं—सब-के-सब कौड़ीके कारण इतने फट जाते हैं कि तुरंत एक-दूसरेके शत्रु बन जाते हैं ॥ २० ॥ ये लोग थोड़े-से धनके लिये भी क्षुब्ध और क्रुद्ध हो जाते हैं। बात-की-बातमें सौहार्द-सम्बन्ध छोड़ देते हैं, लाग-डाँट रखने लगते हैं और एकाएक प्राण लेने-देनेपर उतारू हो जाते हैं। यहाँतक कि एक-दूसरेका सर्वनाश कर डालते हैं ॥ २१ ॥ देवताओंके भी प्रार्थनीय मनुष्य-जन्मको और उसमें भी श्रेष्ठ ब्राह्मणशरीर प्राप्त करके जो उसका अनादर करते हैं और अपने सच्चे स्वार्थ-परमार्थका नाश करते हैं, वे अशुभ गतिको प्राप्त होते हैं ॥ २२ ॥ यह मनुष्यशरीर मोक्ष और स्वर्गका द्वार है, इसको पाकर भी ऐसा कौन बुद्धिमान् मनुष्य है जो अनर्थोंके धाम धनके चक्करमें फँसा रहे ॥ २३ ॥ जो मनुष्य देवता, ऋषि, पितर, प्राणी, जाति-भाई, कुटुम्बी और उनके दूसरे भागीदारोंको उनका भाग देकर सन्तुष्ट नहीं रखता और न स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह यक्षके समान धनकी रखवाली करनेवाला कृपण तो अवश्य ही अधोगतिको प्राप्त होता है ॥ २४ ॥ मैं अपने कर्तव्यसे च्युत हो गया हूँ। मैंने प्रमादमें अपनी आयु, धन और बल-पौरुष खो दिये। विवेकीलोग जिन साधनोंसे मोक्षतक प्राप्त कर लेते हैं, उन्हींको मैंने धन इकट्ठाकरनेकी व्यर्थ चेष्टामें खो दिया। अब बुढ़ापेमें मैं कौन-सा साधन करूँगा ॥ २५ ॥ मुझे मालूम नहीं होता कि बड़े-बड़े विद्वान् भी धनकी व्यर्थ तृष्णासे निरन्तर क्यों दुखी रहते हैं ? हो-न-हो, अवश्य ही यह संसार किसीकी मायासे अत्यन्त मोहित हो रहा है ॥ २६ ॥ यह मनुष्य-शरीर कालके विकराल गालमें पड़ा हुआ है। इसको धनसे, धन देनेवाले देवताओं और लोगोंसे, भोगवासनाओं और उनको पूर्ण करनेवालोंसे तथा पुन:-पुन: जन्म-मृत्युके चक्करमें डालनेवाले सकाम कर्मोंसे लाभ ही क्या है ? ॥ २७ ॥

इसमें सन्देह नहीं कि सर्वदेवस्वरूप भगवान्‌ मुझपर प्रसन्न हैं। तभी तो उन्होंने मुझे इस दशामें पहुँचाया है और मुझे जगत् के प्रति यह दु:ख-बुद्धि और वैराग्य दिया है। वस्तुत: वैराग्य ही इस संसार-सागरसे पार होनेके लिये नौकाके समान है ॥ २८ ॥ मैं अब ऐसी अवस्थामें पहुँच गया हूँ। यदि मेरी आयु शेष हो तो मैं आत्मलाभमें ही सन्तुष्ट रहकर अपने परमार्थ के सम्बन्ध में सावधान हो जाऊँगा और अब जो समय बच रहा है, उसमें अपने शरीरको तपस्याके द्वारा सुखा डालूँगा ॥ २९ ॥ तीनों लोकोंके स्वामी देवगण मेरे इस सङ्कल्पका अनुमोदन करें। अभी निराश होनेकी कोई बात नहीं है, क्योंकि राजा खट्वाङ्गने तो दो घड़ी में ही भगवद्धाम की प्राप्ति कर ली थी ॥ ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें