शनिवार, 29 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) आठवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

आठवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णके सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूपका दर्शन

 

वत्सपालापहरणात् किमभूज्जगत. पतेः ।

हो खद्योतवद्वधा श्रीकृष्णरविसम्मुखे || ३७

एवं विमुह्यति सति जडीभूते च ब्रह्मणि ।

स्वमायां कृपयाकृष्य कृष्णः स्वं दर्शनं ददौ ॥ ३८

एवं तत्र सकृद् ब्रह्मा गोवत्सान् गोपदारकान् ।

सर्वानाचष्ट श्रीकृष्णं भक्त्या विज्ञानलोचनैः || ३९

ददर्शाथ विधिस्तत्र बहिरन्त शरीरतः ।

स्वात्मना सहितं राजन् सर्व विष्णुमयं जगत् ॥ ४०

एवं विलोक्य ब्रह्मा तु जडो भूत्वा स्थिरोऽभवत् ।

वृन्दावद् वृन्दारण्ये प्रदृश्येत यथा तथा ।। ४१

स्वात्मनो महिमां द्रष्टुं नीशेऽपि च ब्रह्मणि ।

चच्छाद सपदि ज्ञात्वा मायाजवनिकां हरिः ॥ ४२

ततः प्रलब्धनयनः स्रष्टा सुप्त इवोत्थितः,

उन्मील्य नयने कृच्छ्राद्ददर्शेद सहात्मना ॥ ४३

समाहितस्तत्र भूत्वा सद्योऽपश्यद्दिशो दश ।

श्रीमद्बृन्दावनं रम्यं वासन्तीलतिकान्वितम् ॥ ४४

शार्दूलबालकैर्यत्र क्रीडन्ति मृगबालकाः ।

श्येनैः कपोता नकुलै. सर्पा वैरविवर्जिताः ॥ ४५

ततश्च वृन्दकारण्ये सपाणिकवलं विधिः ।

वत्सान् सखीन् विचिन्वन्तमेकं कृष्णं ददर्श सः ॥ ४६

दृष्ट्वा गोपालवेषेण गुप्तं गोलोकवल्लभम् ।

ज्ञात्वा साक्षाद्धरि ब्रह्मा भीतोऽभूत् स्वकृतेन च ॥ ४७

तं प्रसादयितुं राजन् ज्वलन्तं सर्वतो दिशम् ।

लज्जयावाङ्मुखो भूत्वा ह्यवतीर्य स्ववाहनात् ॥ ४८

शनैरुपससारेशं प्रसीदेति वदन् नमन् ।

स्रवद्वर्षात्ताः स षपाताथ दण्डवत् ॥ ४९

उत्थाप्याश्वास्य तं कृष्णः प्रियं प्रिय इव स्पृशन् ।

सुरान् सुभुवि दूरस्थानालुलोक सुधार्द्रटक ॥ ५०

ततो जयजयेत्युच्चैः स्तुवतां नमतां समम् ।

तहयादृष्टदृष्टानां सानन्दः सम्भ्रमोऽभवत् ॥ ५१

दृष्ट्वा हरिं तत्र समास्थितं विधि

र्ननाम भक्तमनाः कृताञ्जलिः ।

स्तुति चकाराशु स दण्डवल्लुठन्

प्रहृष्टरोमा भुवि गद्मदातरः || ५२

 

गोप-बालकों के हरण से जगत्पति की तो कुछ हानि हुई नहीं, अपितु श्रीकृष्णरूप सूर्यके सम्मुख ब्रह्माजी ही जुगनू से दीखने लगे। ब्रह्माके इस प्रकार मोहित एवं जडीभूत हो जानेपर श्रीकृष्णने कृपापूर्वक अपनी मायाको हटाकर उनको अपने स्वरूपका दर्शन कराया। भक्तिके द्वारा ब्रह्माजीको ज्ञाननेत्र प्राप्त हुए । उन्होंने एक बार गोवत्स एवं गोप-बालक—सबको श्रीकृष्णरूप देखा । राजन् ! ब्रह्माजीने शरीरके भीतर और बाहर अपने सहित सम्पूर्ण जगत्को विष्णुमय देखा ॥ ३ – ४० ॥

 

इस प्रकार दर्शन करके ब्रह्माजी तो जडताको प्राप्त होकर निश्चेष्ट हो गये। ब्रह्माजीको वृन्दादेवी द्वारा अधिष्ठित वृन्दावनमें जहाँ-तहाँ दीखनेवाली भगवान्- की महिमा देखनेमें असमर्थ जानकर श्रीहरिने मायाका पर्दा हटा लिया ।। ४१-४२ ॥

 

तब ब्रह्माजी नेत्र पाकर, निद्रा से जगे हुए की भाँति उठकर, अत्यन्त कष्ट से नेत्र खोलकर अपनेसहित वृन्दावन को देखने में समर्थ हुए। वहाँपर वे उसी समय एकाग्र होकर दसों दिशाओं में देखने लगे और वसन्तकालीन सुन्दर लताओं से युक्त रमणीय श्रीवृन्दावन का उन्होंने दर्शन किया ।। ४३-४४ ॥

 

वहाँ बाघके बच्चोंके साथ मृग शावक खेल रहे थे। बाज और कबूतरमें, नेवला और साँपमें वहाँ जन्मजात वैरभाव नहीं था। ब्रह्माजीने देखा कि एकमात्र श्रीकृष्ण ही हाथमें भोजनका कौर लिये हुए प्यारे गोवत्सोंको वृन्दावनमें ढूँढ़ रहे हैं। गोलोकपति साक्षात् श्रीहरिको गोपाल-वेषमें अपनेको छिपाये हुए देखकर तथा ये साक्षात् श्रीहरि हैं - यह पहचानकर ब्रह्माजी अपनी करतूतको स्मरण करके भयभीत हो गये ।। ४५-४७ ॥

 

राजन् ! उन चारों ओर प्रज्वलित दीखनेवाले श्रीकृष्णको प्रसन्न करनेके लिये ब्रह्माजी अपने वाहनसे उतरे और लज्जाके कारण उन्होंने सिर नीचा कर लिया। वे भगवान्‌को प्रणाम करते हुए और 'प्रसन्न हों - यह कहते हुए धीरे-धीरे उनके निकट पहुँचे। यों भगवान्- को अपनी आँखों से झरते हुए हर्ष के आँसुओं का अर्ध्य देकर दण्ड की भाँति वे भूमिपर गिर पड़े ।।४८-४९ ॥

 

भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्माजीको उठाकर आश्वस्त किया और उनका इस प्रकार स्पर्श किया, जैसे कोई प्यारा अपने प्यारेका स्पर्श करे । तत्पश्चात् वे सुधासिक्त दृष्टिसे उसी सुन्दर भूमिपर दूर खड़े देवताओंकी ओर देखने लगे। तब वे सभी उच्चस्वरसे जय-जयकार करते हुए उनका स्तवन करने लगे । साथ-साथ प्रणाम भी करने लगे। श्रीकृष्णकी दयादृष्टि पाकर सभी आनन्दित हुए और उनके प्रति आदरसे भर गये ।। ५०-५१ ॥

 

 ब्रह्माजीने भगवान्‌ को उस स्थानपर देखकर भक्तियुक्त मनसे हाथ जोड़कर प्रणाम किया और रोमाञ्चित होकर दण्डकी भाँति वे भूमिपर गिर पुनः वे गद्गद वाणीसे भगवान्‌ का स्तवन लगे ॥ ५२ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्ग संहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णके सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूपका दर्शन' नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

2 टिप्‍पणियां:

  1. 💐💖🌷🥀जय श्रीहरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण हरि: हरि:
    श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव
    जय श्री राधे गोविंद

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  2. अति सुंदर प्रयास

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