सोमवार, 30 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

अष्टाङ्गयोग की विधि

जानुद्वयं जलजलोचनया जनन्या
     लक्ष्म्याखिलस्य सुरवन्दितया विधातुः ।
ऊर्वोर्निधाय करपल्लवरोचिषा यत्
     संलालितं हृदि विभोरभवस्य कुर्यात् ॥ २३ ॥
ऊरू सुपर्णभुजयोरधि शोभमानौ
     वोजोनिधी अतसिकाकुसुमावभासौ ।
व्यालम्बिपीतवरवाससि वर्तमान
     काञ्चीकलापपरिरम्भि नितम्बबिम्बम् ॥ २४ ॥
नाभिह्रदं भुवनकोशगुहोदरस्थं
     यत्रात्मयोनिधिषणाखिललोकपद्मम् ।
व्यूढं हरिन्मणिवृषस्तनयोरमुष्य
     ध्यायेद् द्वयं विशदहारमयूखगौरम् ॥ २५ ॥
वक्षोऽधिवासमृषभस्य महाविभूतेः
     पुंसां मनोनयननिर्वृतिमादधानम् ।
कण्ठं च कौस्तुभमणेरधिभूषणार्थं
     कुर्यान्मनस्यखिल लोकनमस्कृतस्य ॥ २६ ॥

भवभयहारी अजन्मा श्रीहरि की दोनों पिंडलियों एवं घुटनों का ध्यान करे, जिनको विश्वविधाता ब्रह्माजी की माता सुरवन्दिता कमललोचना लक्ष्मीजी  अपनी जाँघोंपर रखकर अपने कान्तिमान् करकिसलयोंकी कान्तिसे लाड़ लड़ाती रहती हैं ॥ २३ ॥ भगवान्‌की जाँघोंका ध्यान करे, जो अलसीके फूलके समान नीलवर्ण और बलकी निधि हैं तथा गरुडजीकी पीठपर शोभायमान हैं। भगवान्‌के नितम्बबिम्ब का ध्यान करे, जो एड़ी तक लटके हुए पीताम्बर से ढका हुआ है और उस पीताम्बरके ऊपर पहनी हुई सुर्वणमयी करधनी की लडिय़ों को आलिङ्गन कर रहा है ॥ २४ ॥
सम्पूर्ण लोकोंके आश्रयस्थान भगवान्‌के उदरदेशमें स्थित नाभिसरोवरका ध्यान करे; इसीमेंसे ब्रह्माजी का आधारभूत सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ है। फिर प्रभुके श्रेष्ठ मरकतमणि सदृश दोनों स्तनों का चिन्तन करे, जो वक्ष:स्थलपर पड़े हुए शुभ्र हारों की किरणों से गौरवर्ण जान पड़ते हैं ॥ २५ ॥ इसके पश्चात् पुरुषोत्तम भगवान्‌ के वक्ष:स्थलका ध्यान करे, जो महालक्ष्मी का निवासस्थान और लोगों के मन एवं नेत्रों को आनन्द देनेवाला है । फिर सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय भगवान्‌ के गले का चिन्तन करे, जो मानो कौस्तुभमणि को भी सुशोभित करने के लिये ही उसे धारण करता है ॥ २६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

रविवार, 29 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

अष्टाङ्गयोग की विधि

स्थितं व्रजन्तमासीनं शयानं वा गुहाशयम् ।
प्रेक्षणीयेहितं ध्यायेत् शुद्धभावेन चेतसा ॥ १९ ॥
तस्मिन्लब्धपदं चित्तं सर्वावयवसंस्थितम् ।
विलक्ष्यैकत्र संयुज्याद् अङ्गे भगवतो मुनिः ॥ २० ॥
सञ्चिन्तयेद् भगवतश्चरणारविन्दं
     वज्राङ्कुशध्वज सरोरुह लाञ्छनाढ्यम् ।
उत्तुङ्गरक्तविलसन् नखचक्रवाल
     ज्योत्स्नाभिराहतमहद् हृदयान्धकारम् ॥ २१ ॥
यच्छौचनिःसृतसरित् प्रवरोदकेन ।
     तीर्थेन मूर्ध्न्यधिकृतेन शिवः शिवोऽभूत् ।
ध्यातुर्मनःशमलशैलनिसृष्टवज्रं
     ध्यायेच्चिरं भगवतश्चरणारविन्दम् ॥ २२ ॥

भगवान्‌ की लीलाएँ बड़ी दर्शनीय हैं; अत: अपनी रुचि के अनुसार खड़े हुए, चलते हुए, बैठे हुए, पौढ़े हुए अथवा अन्तर्यामीरूप में स्थित हुए उनके स्वरूप का विशुद्ध भावयुक्त चित्त से चिन्तन करे ॥ १९ ॥ इस प्रकार योगी जब यह अच्छी तरह देख ले कि भगवद्विग्रह में चित्त की स्थिति हो गयी,तब वह उनके समस्त अङ्गों में लगे हुए चित्त को विशेष रूपसे एक-एक अङ्ग में लगावे   ॥ २० ॥ भगवान्‌के चरणकमलों का ध्यान करना चाहिये। वे वज्र, अङ्कुश, ध्वजा और कमलके मङ्गलमय चिह्नोंसे युक्त हैं तथा अपने उभरे हुए लाल-लाल शोभामय नखचन्द्र-मण्डलकी चन्द्रिकासे ध्यान करनेवालोंके हृदयके अज्ञानरूप घोर अन्धकारको दूर कर देते हैं ॥ २१ ॥ इन्हींकी धोवनसे नदियोंमें श्रेष्ठ श्रीगङ्गाजी प्रकट हुई थीं, जिनके पवित्र जलको मस्तकपर धारण करनेके कारण स्वयं मङ्गलरूप श्रीमहादेवजी और भी अधिक मङ्गलमय हो गये। ये अपना ध्यान करनेवालोंके पापरूप पर्वतोंपर छोड़े हुए इन्द्रके वज्रके समान हैं। भगवान्‌के इन चरणकमलोंका चिरकालतक चिन्तन करे ॥ २२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

शनिवार, 28 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

अष्टाङ्गयोग की विधि

यदा मनः स्वं विरजं योगेन सुसमाहितम् ।
काष्ठां भगवतो ध्यायेत् स्वनासाग्रावलोकनः ॥ १२ ॥
प्रसन्नवदनाम्भोजं पद्मगर्भारुणेक्षणम् ।
नीलोत्पलदलश्यामं शङ्खचक्रगदाधरम् ॥ १३ ॥
लसत्पङ्कज किञ्जल्क पीतकौशेयवाससम् ।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत् कौस्तुभामुक्तकन्धरम् ॥ १४ ॥
मत्तद्विरेफकलया परीतं वनमालया ।
परार्ध्यहारवलय किरीटाङ्गदनूपुरम् ॥ १५ ॥
काञ्चीगुणोल्लसत् श्रोणिं हृदयाम्भोजविष्टरम् ।
दर्शनीयतमं शान्तं मनोनयन वर्धनम् ॥ १६ ॥
अपीच्यदर्शनं शश्वत् सर्वलोकनमस्कृतम् ।
सन्तं वयसि कैशोरे भृत्यानुग्रहकातरम् ॥ १७ ॥
कीर्तन्यतीर्थयशसं पुण्यश्लोकयशस्करम् ।
ध्यायेद्देवं समग्राङ्गं यावन्न च्यवते मनः ॥ १८ ॥

जब योगका अभ्यास करते-करते चित्त निर्मल और एकाग्र हो जाय, तब नासिकाके अग्रभागमें दृष्टि जमाकर इस प्रकार भगवान्‌की मूर्तिका ध्यान करे ॥ १२ ॥ भगवान्‌ का मुखकमल आनन्द से प्रफुल्ल है, नेत्र कमलकोश के समान रतनारे हैं, शरीर नीलकमलदल के समान श्याम है; हाथों में शङ्ख, चक्र और गदा धारण किये हैं ॥ १३ ॥ कमल की केसर के समान पीला रेशमी वस्त्र लहरा रहा है,वक्ष:स्थल में श्रीवत्सचिह्न है और गले में कौस्तुभमणि झिलमिला रही है॥१४॥ वनमाला चरणोंतक लटकी हुई है, जिसके चारों ओर भौंरे सुगन्धसे मतवाले होकर मधुर गुंजार कर रहे हैं; अङ्ग-प्रत्यङ्ग में महामूल्य हार, कङ्कण, किरीट, भुजबन्ध और नूपुर आदि आभूषण विराजमान हैं ॥१५॥ कमर में करधनी की लडिय़ाँ उसकी शोभा बढ़ा रही हैं; भक्तों के हृदयकमल ही उनके आसन हैं, उनका दर्शनीय श्यामसुन्दर स्वरूप अत्यन्त शान्त एवं मन और नयनों को आनन्दित करनेवाला है ॥१६॥ उनकी अति सुन्दर किशोर अवस्था है,वे भक्तोंपर कृपा करनेके लिये आतुर हो रहे हैं। बड़ी मनोहर झाँकी है। भगवान्‌ सदा सम्पूर्ण लोकोंसे वन्दित हैं ॥१७॥ उनका पवित्र यश परम कीर्तनीय है और वे राजा बलि आदि परम यशस्वियोंके भी यशको बढ़ानेवाले हैं। इस प्रकार श्रीनारायणदेव का सम्पूर्ण अङ्गोंके सहित तब तक ध्यान करे, जब तक चित्त वहाँसे हटे नहीं ॥ १८ ॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

शुक्रवार, 27 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

अष्टाङ्गयोग की विधि

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य विजितासन आसनम् ।
तस्मिन् स्वस्ति समासीन ऋजुकायः समभ्यसेत् ॥ ८ ॥
प्राणस्य शोधयेन्मार्गं पूरकुम्भकरेचकैः ।
प्रतिकूलेन वा चित्तं यथा स्थिरं अचञ्चलम् ॥ ९ ॥
मनोऽचिरात्स्याद् विरजं जितश्वासस्य योगिनः ।
वाय्वग्निभ्यां यथा लोहं ध्मातं त्यजति वै मलम् ॥ १० ॥
प्राणायामैः दहेद् दोषान् धारणाभिश्च किल्बिषान् ।
प्रत्याहारेण संसर्गान् ध्यानेनान् ईश्वरान्गुणान् ॥ ११ ॥

पहले आसन को जीते, फिर प्राणायाम के अभ्यास के लिये पवित्र देश में कुश-मृगचर्मादि से युक्त आसन बिछावे । उसपर शरीरको सीधा और स्थिर रखते हुए सुखपूर्वक बैठकर अभ्यास करे॥८॥ आरम्भ में पूरक, कुम्भक और रेचक क्रम से अथवा इसके विपरीत रेचक, कुम्भक और पूरक करके प्राण के मार्ग का शोधन करे—जिससे चित्त स्थिर और निश्चल हो जाय ॥ ९ ॥ जिस प्रकार वायु और अग्नि से तपाया हुआ सोना अपने मल को त्याग देता है, उसी प्रकार जो योगी प्राणवायु को जीत लेता है, उसका मन बहुत शीघ्र शुद्ध हो जाता है ॥ १० ॥ अत: योगी को उचित है कि प्राणायाम से वात-पित्तादिजनित दोषों को, धारणा से पापों को, प्रत्याहार से विषयों के सम्बन्ध को और ध्यान से भगवद्विमुख करनेवाले राग-द्वेषादि दुर्गुणों को दूर करे ॥ ११ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

गुरुवार, 26 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

अष्टाङ्गयोग की विधि

श्रीभगवानुवाच -
योगस्य लक्षणं वक्ष्ये सबीजस्य नृपात्मजे ।
मनो येनैव विधिना प्रसन्नं याति सत्पथम् ॥ १ ॥
स्वधर्माचरणं शक्त्या विधर्माच्च निवर्तनम् ।
दैवाल्लब्धेन सन्तोष आत्मवित् चरणार्चनम् ॥ २ ॥
ग्राम्यधर्मनिवृत्तिश्च मोक्षधर्मरतिस्तथा ।
मितमेध्यादनं शश्वद् विविक्तक्षेमसेवनम् ॥ ३ ॥
अहिंसा सत्यमस्तेयं यावदर्थपरिग्रहः ।
ब्रह्मचर्यं तपः शौचं स्वाध्यायः पुरुषार्चनम् ॥ ४ ॥
मौनं सदाऽऽसनजयः स्थैर्यं प्राणजयः शनैः ।
प्रत्याहारश्चेन्द्रियाणां विषयान्मनसा हृदि ॥ ५ ॥
स्वधिष्ण्यानां एकदेशे मनसा प्राणधारणम् ।
वैकुण्ठलीलाभिध्यानं समाधानं तथात्मनः ॥ ६ ॥
एतैः अन्यैश्च पथिभिः मनो दुष्टमसत्पथम् ।
बुद्ध्या युञ्जीत शनकैः जितप्राणो ह्यतन्द्रितः ॥ ७ ॥

कपिलभगवान्‌ कहते हैं—माताजी ! अब मैं तुम्हें सबीज (ध्येयस्वरूप के आलम्बन से युक्त) योग का लक्षण बताता हूँ, जिसके द्वारा चित्त शुद्ध एवं प्रसन्न होकर परमात्मा के मार्ग में प्रवृत्त हो जाता है ॥ १ ॥ यथाशक्ति शास्त्रविहित स्वधर्म का पालन करना तथा शास्त्रविरुद्ध आचरण का परित्याग करना, प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाय उसी में सन्तुष्ट रहना, आत्मज्ञानियों के चरणों की पूजा करना, ॥ २ ॥ विषयवासनाओं को बढ़ानेवाले कर्मों से दूर रहना, संसारबन्धन से छुड़ानेवाले धर्मों में प्रेम करना, पवित्र और परिमित भोजन करना, निरन्तर एकान्त और निर्भय स्थान में रहना, ॥ ३ ॥ मन, वाणी और शरीरसे किसी जीवको न सताना, सत्य बोलना, चोरी न करना, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, तपस्या करना (धर्मपालन के लिये कष्ट सहना), बाहर-भीतर से पवित्र रहना, शास्त्रों का अध्ययन करना, भगवान्‌ की पूजा करना, ॥ ४ ॥ वाणी का संयम करना, उत्तम आसनोंका अभ्यास करके स्थिरतापूर्वक बैठना, धीरे-धीरे प्राणायाम के द्वारा श्वास को जीतना, इन्द्रियों को मन के द्वारा विषयों से हटाकर अपने हृदय में ले जाना ॥ ५ ॥ मूलाधार आदि किसी एक केन्द्रमें मनके सहित प्राणों को स्थिर करना, निरन्तर भगवान्‌ की लीलाओं का चिन्तन और चित्त को समाहित करना,॥ ६ ॥ इनसे तथा व्रत-दानादि दूसरे साधनों से भी सावधानी के साथ प्राणों को जीतकर बुद्धि के द्वारा अपने कुमार्गगामी दुष्ट चित्त को धीरे-धीरे एकाग्र करे, परमात्मा के ध्यान में लगावे ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

बुधवार, 25 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन

यदैवमध्यात्मरतः कालेन बहुजन्मना ।
सर्वत्र जातवैराग्य आब्रह्मभुवनान्मुनिः ॥ २७ ॥
मद्भतक्तः प्रतिबुद्धार्थो मत्प्रसादेन भूयसा ।
निःश्रेयसं स्वसंस्थानं कैवल्याख्यं मदाश्रयम् ॥ २८ ॥
प्राप्नोतीहाञ्जसा धीरः स्वदृशा च्छिन्नसंशयः ।
यद्गपत्वा न निवर्तेत योगी लिङ्गाद् विनिर्गमे ॥ २९ ॥
यदा न योगोपचितासु चेतो
     मायासु सिद्धस्य विषज्जतेऽङ्ग ।
अनन्यहेतुष्वथ मे गतिः स्याद्
     आत्यन्तिकी यत्र न मृत्युहासः ॥ ३० ॥

(श्रीभगवान्‌ कह रहे हैं) जब मनुष्य अनेकों जन्मों में बहुत समय तक इस प्रकार आत्मचिन्तन में ही निमग्न रहता है, तब उसे ब्रह्मलोक-पर्यन्त सभी प्रकार के भोगों से वैराग्य हो जाता है ॥ २७ ॥ मेरा वह धैर्यवान् भक्त मेरी ही महती कृपासे तत्त्वज्ञान प्राप्त करके आत्मानुभव के द्वारा सारे संशयों से मुक्त हो जाता है और फिर लिङ्गदेह का नाश होने पर एकमात्र मेरे ही आश्रित अपने स्वरूपभूत कैवल्य-संज्ञक मङ्गलमय पद को सहज में ही प्राप्त कर लेता है, जहाँ पहुँचने पर योगी फिर लौटकर नहीं आता ॥ २८-२९ ॥  माताजी ! यदि योगीका चित्त योगसाधना से बढ़ी हुई मायामयी अणिमादि सिद्धियोंमें, जिनकी प्राप्तिका योगके सिवा दूसरा कोई साधन नहीं है, नहीं फँसता, तो उसे मेरा वह अविनाशी परमपद प्राप्त होता है—जहाँ मृत्युकी कुछ भी दाल नहीं गलती ॥ ३० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

मंगलवार, 24 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन

श्रीभगवानुवाच –
अनिमित्तनिमित्तेन स्वधर्मेणामलात्मना ।
तीव्रया मयि भक्त्या च श्रुतसम्भृतया चिरम् ॥ २१ ॥
ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन वैराग्येण बलीयसा ।
तपोयुक्तेन योगेन तीव्रेणात्मसमाधिना ॥ २२ ॥
प्रकृतिः पुरुषस्येह दह्यमाना त्वहर्निशम् ।
तिरोभवित्री शनकैः अग्नेर्योनिरिवारणिः ॥ २३ ॥
भुक्तभोगा परित्यक्ता दृष्टदोषा च नित्यशः ।
नेश्वरस्याशुभं धत्ते स्वे महिम्नि स्थितस्य च ॥ २४ ॥
यथा हि अप्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बह्वनर्थभृत् ।
स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते ॥ २५ ॥
एवं विदिततत्त्वस्य प्रकृतिर्मयि मानसम् ।
युञ्जतो नापकुरुत आत्मारामस्य कर्हिचित् ॥ २६ ॥

श्रीभगवान्‌ने कहा—माताजी ! जिस प्रकार अग्नि का उत्पत्तिस्थान अरणि अपने से ही उत्पन्न अग्नि से जलकर भस्म हो जाती है, उसी प्रकार निष्कामभावसे किये हुए स्वधर्मपालनद्वारा अन्त:करण शुद्ध होनेसे बहुत समय तक भगवत्कथा-श्रवणद्वारा पुष्ट हुई मेरी तीव्र भक्ति से, तत्त्वसाक्षात्कार करानेवाले ज्ञान से, प्रबल वैराग्य से, व्रतनियमादि के सहित किये हुए ध्यानाभ्याससे और चित्तकी प्रगाढ़ एकाग्रतासे पुरुषकी प्रकृति (अविद्या) दिन-रात क्षीण होती हुई धीरे-धीरे लीन हो जाती है ॥ २१—२३ ॥ फिर नित्यप्रति दोष दीखनेसे भोगकर त्यागी हुई वह प्रकृति अपने स्वरूप में स्थित और स्वतन्त्र (बन्धनमुक्त) हुए उस पुरुष का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती ॥ २४ ॥ जैसे सोये हुए पुरुष को स्वप्न में कितने ही अनर्थों का  अनुभव करना पड़ता है, किन्तु जग पडऩे पर उसे उन स्वप्न के अनुभवों से किसी प्रकार का मोह नहीं होता ॥२५॥ उसी प्रकार जिसे तत्त्वज्ञान हो गया है और जो निरन्तर मुझ में ही मन लगाये रहता है, उस आत्माराम मुनि का प्रकृति कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती ॥ २६ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

सोमवार, 23 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन

देवहूतिरुवाच –

पुरुषं प्रकृतिर्ब्रह्मन् न विमुञ्चति कर्हिचित् ।
अन्योन्यापाश्रयत्वाच्च नित्यत्वाद् अनयोः प्रभो ॥ १७ ॥
यथा गन्धस्य भूमेश्च न भावो व्यतिरेकतः ।
अपां रसस्य च यथा तथा बुद्धेः परस्य च ॥ १८ ॥
अकर्तुः कर्मबन्धोऽयं पुरुषस्य यदाश्रयः ।
गुणेषु सत्सु प्रकृतेः कैवल्यं तेष्वतः कथम् ॥ १९ ॥
क्वचित् तत्त्वावमर्शेन निवृत्तं भयमुल्बणम् ।
अनिवृत्तनिमित्तत्वात् पुनः प्रत्यवतिष्ठते ॥ २० ॥

देवहूतिने पूछा—प्रभो ! पुरुष और प्रकृति दोनों ही नित्य और एक-दूसरे के आश्रयसे रहनेवाले हैं, इसलिये प्रकृति तो पुरुषको कभी छोड़ ही नहीं सकती ॥ १७ ॥ ब्रह्मन् ! जिस प्रकार गन्ध और पृथ्वी तथा रस और जल की पृथक्-पृथक् स्थिति नहीं हो सकती, उसी प्रकार पुरुष और प्रकृति भी एक-दूसरे को छोडक़र नहीं रह सकते ॥ १८ ॥ अत: जिनके आश्रय से अकर्ता पुरुष को यह कर्मबन्धन प्राप्त हुआ है, उन प्रकृतिके गुणों के रहते हुए उसे कैवल्यपद कैसे प्राप्त होगा ? ॥ १९ ॥ यदि तत्त्वोंका विचार करनेसे कभी यह संसारबन्धनका तीव्र भय निवृत्त हो भी जाय, तो भी उसके निमित्तभूत प्राकृत गुणोंका अभाव न होनेसे वह भय फिर उपस्थित हो सकता है ॥ २० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

रविवार, 22 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन

यथा जलस्थ आभासः स्थलस्थेनावदृश्यते ।
स्वाभासेन तथा सूर्यो जलस्थेन दिवि स्थितः ॥ १२ ॥
एवं त्रिवृद् अहङ्कारो भूतेन्द्रियमनोमयैः ।
स्वाभासैः लक्षितोऽनेन सदाभासेन सत्यदृक् ॥ १३ ॥
भूतसूक्ष्मेन्द्रियमनो बुद्ध्यादिष्विह निद्रया ।
लीनेष्वसति यस्तत्र विनिद्रो निरहङ्‌क्रियः ॥ १४ ॥
मन्यमानस्तदात्मानं अनष्टो नष्टवन्मृषा ।
नष्टेऽहङ्करणे द्रष्टा नष्टवित्त इवातुरः ॥ १५ ॥
एवं प्रत्यवमृश्यादौ आत्मानं प्रतिपद्यते ।
साहङ्कारस्य द्रव्यस्य योऽवस्थानमनुग्रहः ॥ १६ ॥

(श्रीभगवान्‌ कहते हैं )जिस प्रकार जल में पड़ा हुआ सूर्य का प्रतिबिम्ब दीवालपर पड़े हुए अपने आभास के सम्बन्ध से देखा जाता है और जल में दीखनेवाले प्रतिबिम्ब से आकाशस्थित सूर्य का ज्ञान होता है, उसी प्रकार वैकारिक आदि भेद से तीन प्रकार का अहंकार देह, इन्द्रिय और मन में स्थित अपने प्रतिबिम्बों से लक्षित होता है और फिर सत् परमात्मा के प्रतिबिम्बयुक्त उस अहंकार के द्वारा सत्य-ज्ञानस्वरूप परमात्मा का दर्शन होता है—जो सुषुप्ति के समय निद्रा से शब्दादि भूतसूक्ष्म, इन्द्रिय और मनबुद्धि आदि के अव्याकृत में लीन हो जानेपर स्वयं जागता रहता है और सर्वथा अहंकारशून्य है ॥ १२—१४ ॥ (जाग्रत्-अवस्था में यह आत्मा भूतसूक्ष्मादि दृश्यवर्ग के द्रष्टारूप में स्पष्टतया अनुभवमें आता है; किन्तु) सुषुप्ति के समय अपने उपाधिभूत अहंकारका नाश होनेसे वह भ्रमवश अपनेको ही नष्ट हुआ मान लेता है और जिस प्रकार धनका नाश हो जानेपर मनुष्य अपनेको भी नष्ट हुआ मानकर अत्यन्त व्याकुल हो जाता है, उसी प्रकार वह भी अत्यन्त विवश होकर नष्टवत् हो जाता है ॥ १५ ॥ माताजी ! इन सब बातों का मनन करके विवेकी पुरुष अपने आत्मा का अनुभव कर लेता है, जो अहंकार के सहित सम्पूर्ण तत्त्वों का अधिष्ठान और प्रकाशक है ॥ १६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

शनिवार, 21 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन

यमादिभिः योगपथैः अभ्यसन् श्रद्धयान्वितः ।
मयि भावेन सत्येन मत्कथाश्रवणेन च ॥ ६ ॥
सर्वभूतसमत्वेन निर्वैरेणाप्रसङ्गतः ।
ब्रह्मचर्येण मौनेन स्वधर्मेण बलीयसा ॥ ७ ॥
यदृच्छयोपलब्धेन सन्तुष्टो मितभुङ् मुनिः ।
विविक्तशरणः शान्तो मैत्रः करुण आत्मवान् ॥ ८ ॥
सानुबन्धे च देहेऽस्मिन् अकुर्वन् असदाग्रहम् ।
ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन प्रकृतेः पुरुषस्य च ॥ ९ ॥
निवृत्तबुद्ध्यवस्थानो दूरीभूतान्यदर्शनः ।
उपलभ्यात्मनात्मानं चक्षुषेवार्कमात्मदृक् ॥ १० ॥
मुक्तलिङ्गं सदाभासं असति प्रतिपद्यते ।
सतो बन्धुमसच्चक्षुः सर्वानुस्यूतमद्वयम् ॥ ११ ॥

यमादि योगसाधनोंके द्वारा श्रद्धापूर्वक अभ्यास—चित्तको बारंबार एकाग्र करते हुए मुझमें सच्चा भाव रखने, मेरी कथा श्रवण करने, समस्त प्राणियोंमें समभाव रखने, किसीसे वैर न करने, आसक्तिके त्याग, ब्रह्मचर्य, मौन-व्रत और बलिष्ठ (अर्थात् भगवान्‌को समर्पित किये हुए) स्वधर्मसे जिसे ऐसी स्थिति प्राप्त हो गयी है कि—प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाता है उसीमें सन्तुष्ट रहता है, परिमित भोजन करता है, सदा एकान्तमें रहता है, शान्तस्वभाव है, सबका मित्र है, दयालु और धैर्यवान् है, प्रकृति और पुरुषके वास्तविक स्वरूपके अनुभवसे प्राप्त हुए तत्त्वज्ञानके कारण स्त्री-पुत्रादि सम्बन्धियोंके सहित इस देहमें मैं-मेरेपनका मिथ्या अभिनिवेश नहीं करता, बुद्धिकी जाग्रदादि अवस्थाओंसे भी अलग हो गया है तथा परमात्माके सिवा और कोई वस्तु नहीं देखता—वह आत्मदर्शी मुनि नेत्रोंसे सूर्यको देखने की भाँति अपने शुद्ध अन्त:करणद्वारा परमात्मा का साक्षात्कार कर उस अद्वितीय ब्रह्मपदको प्राप्त हो जाता है, जो देहादि सम्पूर्ण उपाधियोंसे पृथक्, अहंकारादि मिथ्या वस्तुओंमें सत्यरूप से भासनेवाला, जगत्कारणभूता प्रकृतिका अधिष्ठान, महदादि कार्यवर्ग का प्रकाशक और कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण पदार्थोंमें व्याप्त है ॥ ६—११ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

शुक्रवार, 20 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन

अर्थे हि अविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते ।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ॥ ४ ॥
अत एव शनैश्चित्तं प्रसक्तं असतां पथि ।
भक्तियोगेन तीव्रेण विरक्त्या च नयेद्वशम् ॥ ५ ॥

जिस प्रकार स्वप्न में भय-शोकादि का कोई कारण न होने पर भी स्वप्न के पदार्थों में आस्था हो जाने के कारण दु:ख उठाना पड़ता है, उसी प्रकार भय-शोक, अहं-मम एवं जन्म-मरणादिरूप संसार की कोई सत्ता न होने पर भी अविद्यावश विषयों का चिन्तन करते रहने से जीव का संसार-चक्र कभी निवृत्त नहीं होता ॥ ४ ॥ इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य को उचित है कि असन्मार्ग (विषय-चिन्तन) में फँसे हुए चित्त को तीव्र भक्तियोग और वैराग्य के द्वारा धीरे-धीरे अपने वशमें लावे  ॥ ५ ॥

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गुरुवार, 19 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन

श्रीभगवानुवाच –

प्रकृतिस्थोऽपि पुरुषो नाज्यते प्राकृतैर्गुणैः ।
अविकारात् अकर्तृत्वात् निर्गुणत्वाज्जलार्कवत् ॥ १ ॥
स एष यर्हि प्रकृतेः गुणेष्वभिविषज्जते ।
अहङ्क्रियाविमूढात्मा कर्तास्मीति अभिमन्यते ॥ २ ॥
तेन संसारपदवीं अवशोऽभ्येत्यनिर्वृतः ।
प्रासङ्गिकैः कर्मदोषैः सदसन् मिश्रयोनिषु ॥ ३ ॥

श्रीभगवान्‌ कहते हैं—माताजी ! जिस तरह जल में प्रतिबिम्बित सूर्य के साथ जल के शीतलता, चञ्चलता आदि गुणों का सम्बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृति के कार्य शरीर में स्थित रहने पर भी आत्मा वास्तव में उसके सुख-दु:खादि धर्मों से लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह स्वभाव से निर्विकार, अकर्ता और निर्गुण है ॥ १ ॥ किन्तु जब वही प्राकृत गुणों से अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, तब अहंकार से मोहित होकर ‘मैं कर्ता हूँ’—ऐसा मानने लगता है ॥ २ ॥ उस अभिमान के कारण वह देह के संसर्ग से किये हुए पुण्य-पापरूप कर्मोंके दोष से अपनी स्वाधीनता और शान्ति खो बैठता है तथा उत्तम, मध्यम और नीच योनियों में उत्पन्न होकर संसारचक्र में घूमता रहता है ॥ ३ ॥ 

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बुधवार, 18 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

क्षुत्तृड्भ्यां उदरं सिन्धुः नोदतिष्ठत् तदा विराट् ।
हृदयं मनसा चन्द्रो नोदतिष्ठत् तदा विराट् । ६८ ॥
बुद्ध्या ब्रह्मापि हृदयं नोदतिष्ठत् तदा विराट् ।
रुद्रोऽभिमत्या हृदयं नोदतिष्ठत् तदा विराट् । ६९ ॥
चित्तेन हृदयं चैत्यः क्षेत्रज्ञः प्राविशद्यदा ।
विराट्तदैव पुरुषः सलिलाद् उदतिष्ठत ॥ ७० ॥
यथा प्रसुप्तं पुरुषं प्राणेन्द्रियमनोधियः ।
प्रभवन्ति विना येन नोत्थापयितुमोजसा ॥ ७१ ॥
तमस्मिन् प्रत्यगात्मानं धिया योगप्रवृत्तया ।
भक्त्या विरक्त्या ज्ञानेन विविच्यात्मनि चिन्तयेत् ॥ ७२ ॥

समुद्रने क्षुधा-पिपासाके सहित उदरमें प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा। चन्द्रमाने मनके सहित हृदयमें प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा ॥ ६८ ॥ ब्रह्माने बुद्धिके सहित हृदयमें प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा। रुद्रने अहंकारके सहित उसी हृदयमें प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा ॥ ६९ ॥ किन्तु जब चित्तके अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञने चित्तके सहित हृदयमें प्रवेश किया, तो विराट् पुरुष उसी समय जलसे उठकर खड़ा हो गया ॥ ७० ॥ जिस प्रकार लोकमें प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि चित्तके अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञकी सहायताके बिना सोये हुए प्राणीको अपने बलसे नहीं उठा सकते, उसी प्रकार विराट् पुरुषको भी वे क्षेत्रज्ञ परमात्माके बिना नहीं उठा सके ॥ ७१ ॥ अत: भक्ति, वैराग्य और चित्तकी एकाग्रतासे प्रकट हुए ज्ञानके द्वारा उस अन्तरात्मस्वरूप क्षेत्रज्ञको इस शरीरमें स्थित जानकर उसका चिन्तन करना चाहिये ॥ ७२ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे षड्‌विंशोऽध्यायः ॥२६

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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मंगलवार, 17 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

एते हि अभ्युत्थिता देवा नैवास्योत्थापनेऽशकन् ।
पुनराविविशुः खानि तमुत्थापयितुं क्रमात् । ६२ ॥
वह्निर्वाचा मुखं भेजे नोदतिष्ठत् तदा विराट् ।
घ्राणेन नासिके वायुः नोदतिष्ठत् तदा विराट् । ६३ ॥
अक्षिणी चक्षुषादित्यो नोदतिष्ठत् तदा विराट् ।
श्रोत्रेण कर्णौ च दिशो नोदतिष्ठत् तदा विराट् । ६४ ॥
त्वचं रोमभिरोषध्यो नोदतिष्ठत् तदा विराट् ।
रेतसा शिश्नमापस्तु नोदतिष्ठत् तदा विराट् । ६५ ॥
गुदं मृत्युरपानेन नोदतिष्ठत् तदा विराट् ।
हस्ताविन्द्रो बलेनैव नोदतिष्ठत् तदा विराट् । ६६ ॥
विष्णुर्गत्यैव चरणौ नोदतिष्ठत् तदा विराट् ।
नाडीर्नद्यो लोहितेन नोदतिष्ठत् तदा विराट् । ६७ ॥

जब ये क्षेत्रज्ञ के अतिरिक्त सारे देवता उत्पन्न होकर भी विराट् पुरुष को उठाने में असमर्थ रहे, तो उसे उठानेके लिये क्रमश: फिर अपने-अपने उत्पत्तिस्थानोंमें प्रविष्ट होने लगे ॥ ६२ ॥ अग्नि ने वाणी के साथ मुख में प्रवेश किया, परन्तु इससे विराट् पुरुष न उठा। वायु ने घ्राणेन्द्रियके सहित नासाछिद्रों में प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा ॥ ६३ ॥ सूर्य ने चक्षु के सहित नेत्रों में प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा। दिशाओंने श्रवणेन्द्रिय के सहित कानों में प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा ॥ ६४ ॥ ओषधियों ने रोमों के सहित त्वचा में प्रवेश किया फिर भी विराट् पुरुष न उठा। जल ने वीर्यके साथ लिङ्ग में प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा ॥ ६५ ॥ मृत्यु ने अपान के साथ गुदा में प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा। इन्द्र ने बल के साथ हाथों में प्रवेश किया, परन्तु इससे भी विराट् पुरुष न उठा ॥ ६६ ॥ विष्णु ने गति के सहित चरणोंमें प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा । नदियों ने रुधिर के सहित नाडियों में प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा ॥ ६७ ॥

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सोमवार, 16 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

हस्तौ च निरभिद्येतां बलं ताभ्यां ततः स्वराट् ।
पादौ च निरभिद्येतां गतिस्ताभ्यां ततो हरिः ॥ ५८ ॥
नाड्योऽस्य निरभिद्यन्त ताभ्यो लोहितमाभृतम् ।
नद्यस्ततः समभवन् उदरं निरभिद्यत ॥ ५९ ॥
क्षुत्पिपासे ततः स्यातां समुद्रस्त्वेतयोरभूत् ।
अथास्य हृदयं भिन्नं हृदयान्मन उत्थितम् । ६० ॥
मनसश्चन्द्रमा जातो बुद्धिर्बुद्धेर्गिरां पतिः ।
अहङ्कारस्ततो रुद्रः चित्तं चैत्यस्ततोऽभवत् । ६१ ॥

तदनन्तर (उस विराट् पुरुष के) हाथ प्रकट हुए, उनसे बल और बल के बाद हस्तेन्द्रिय का अभिमानी इन्द्र उत्पन्न हुआ । फिर चरण प्रकट हुए, उनसे गति (गमनकी क्रिया) और फिर पादेन्द्रिय का अभिमानी विष्णुदेवता उत्पन्न हुआ ॥ ५८ ॥ इसी प्रकार जब विराट् पुरुष के नाडियाँ प्रकट हुर्ईं, तो उनसे रुधिर उत्पन्न हुआ और उससे नदियाँ हुर्ईं । फिर उसके उदर (पेट) प्रकट हुआ ॥ ५९ ॥ उससे क्षुधा-पिपासा की अभिव्यक्ति हुई और फिर उदर का अभिमानी समुद्रदेवता उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् उसके हृदय प्रकट हुआ, हृदयसे मनका प्राकट्य हुआ ॥ ६० ॥ मनके बाद उसका अभिमानी देवता चन्द्रमा हुआ। फिर हृदयसे ही बुद्धि और उसके बाद उसका अभिमानी ब्रह्मा हुआ। तत्पश्चात् अहंकार और उसके अनन्तर उसका अभिमानी रुद्रदेवता उत्पन्न हुआ। इसके बाद चित्त और उसका अभिमानी क्षेत्रज्ञ प्रकट हुआ ॥ ६१ ॥

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रविवार, 15 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

घ्राणात् वायुरभिद्येतां अक्षिणी चक्षुरेतयोः ।
तस्मात्सूर्यो न्यभिद्येतां कर्णौ श्रोत्रं ततो दिशः ॥ ५५ ॥
निर्बिभेद विराजस्त्वग् रोमश्मश्र्वादयस्ततः ।
तत ओषधयश्चासन् शिश्नं निर्बिभिदे ततः ॥ ५६ ॥
रेतस्तस्मादाप आसन् निरभिद्यत वै गुदम् ।
गुदादपानोऽपानाच्च मृत्युर्लोकभयङ्करः ॥ ५७ ॥

घ्राण के बाद उसका अधिष्ठाता वायु उत्पन्न हुआ । तत्पश्चात् नेत्रगोलक प्रकट हुए, उनसे चक्षु-इन्द्रिय प्रकट हुई और उसके अनन्तर उसका अधिष्ठाता सूर्य उत्पन्न हुआ। फिर कानोंके छिद्र प्रकट हुए, उनसे उनकी इन्द्रिय श्रोत्र और उसके अभिमानी दिग्देवता प्रकट हुए ॥ ५५ ॥ इसके बाद उस विराट् पुरुष के त्वचा उत्पन्न हुई। उससे रोम, मूँछ-दाढ़ी तथा सिरके बाल प्रकट हुए । और उनके बाद त्वचा की अभिमानी ओषधियाँ (अन्न आदि) उत्पन्न हुर्ईं । इसके पश्चात् लिङ्ग प्रकट हुआ ॥ ५६ ॥ उससे वीर्य और वीर्य के बाद लिङ्ग का अभिमानी आपोदेव (जल) उत्पन्न हुआ। फिर गुदा प्रकट हुई, उससे अपानवायु और अपानके बाद उसका अभिमानी लोकोंको भयभीत करनेवाला मृत्युदेवता उत्पन्न हुआ ॥ ५७ ॥

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शनिवार, 14 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

एतान्यसंहत्य यदा महदादीनि सप्त वै ।
कालकर्मगुणोपेतो जगदादिरुपाविशत् ॥ ५० ॥
ततस्तेनानुविद्धेभ्यो युक्तेभ्योऽण्डं अचेतनम् ।
उत्थितं पुरुषो यस्मात् उदतिष्ठदसौ विराट् ॥ ५१ ॥
एतदण्डं विशेषाख्यं क्रमवृद्धैर्दशोत्तरैः ।
तोयादिभिः परिवृतं प्रधानेनावृतैर्बहिः ।
यत्र लोकवितानोऽयं रूपं भगवतो हरेः ॥ ५२ ॥
हिरण्मयाद् अण्डकोशाद् उत्थाय सलिले शयात् ।
तमाविश्य महादेवो बहुधा निर्बिभेद खम् ॥ ५३ ॥
निरभिद्यतास्य प्रथमं मुखं वाणी ततोऽभवत् ।
वाण्या वह्निरथो नासे प्राणोऽतो घ्राण एतयोः ॥ ५४ ॥

जब महत्तत्त्व, अहंकार और पञ्चभूत—ये सात तत्त्व परस्पर मिल न सके—पृथक्-पृथक् ही रह गये, तब जगत् के आदिकारण श्रीनारायण ने काल, अदृष्ट और सत्त्वादि गुणोंके सहित उनमें प्रवेश किया ॥ ५० ॥
फिर परमात्मा के प्रवेश से क्षुब्ध और आपस में मिले हुए उन तत्त्वों से एक जड अण्ड उत्पन्न हुआ । उस अण्ड से इस विराट् पुरुष की अभिव्यक्ति हुई ॥ ५१ ॥ इस अण्ड का नाम विशेष है, इसी के अन्तर्गत श्रीहरि के स्वरूपभूत चौदहों भुवनों का विस्तार है। यह चारों ओर से क्रमश: एक-दूसरे से दस गुने जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार और महत्तत्त्व—इन छ: आवरणोंसे घिरा हुआ है। इन सबके बाहर सातवाँ आवरण प्रकृतिका है ॥ ५२ ॥ कारणमय जलमें स्थित उस तेजोमय अण्डसे उठकर उस विराट् पुरुषने पुन: उसमें प्रवेश किया और फिर उसमें कई प्रकारके छिद्र किये ॥ ५३ ॥ सबसे पहले उसमें मुख प्रकट हुआ, उससे वाक्-इन्द्रिय और उसके अनन्तर वाक्का अधिष्ठाता अग्नि उत्पन्न हुआ। फिर नाक के छिद्र (नथुने) प्रकट हुए, उनसे प्राणसहित घ्राणेन्द्रिय उत्पन्न हुई ॥ ५४ ॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

शुक्रवार, 13 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वों की  उत्पत्ति का वर्णन

नभोगुणविशेषोऽर्थो यस्य तच्छ्रोत्रमुच्यते ।
वायोर्गुणविशेषोऽर्थो यस्य तत्स्पर्शनं विदुः ॥ ४७ ॥
तेजोगुणविशेषोऽर्थो यस्य तच्चक्षुरुच्यते ।
अम्भोगुणविशेषोऽर्थो यस्य तद्रसनं विदुः ।
भूमेर्गुणविशेषोऽर्थो यस्य स घ्राण उच्यते ॥ ४८ ॥
परस्य दृश्यते धर्मो हि, अपरस्मिन् समन्वयात् ।
अतो विशेषो भावानां भूमावेवोपलक्ष्यते ॥ ४९ ॥

आकाशका विशेष गुण शब्द जिसका विषय है, वह श्रोत्रेन्द्रिय है; वायुका विशेष गुण स्पर्श जिसका विषय है, वह त्वगिन्द्रिय है; ॥ ४७ ॥ तेजका विशेष गुण रूप जिसका विषय है, वह नेत्रेन्द्रिय है; जलका विशेष गुण रस जिसका विषय है, वह रसनेन्द्रिय है और पृथ्वीका विशेष गुण गन्ध जिसका विषय है, उसे घ्राणेन्द्रिय कहते हैं ॥ ४८ ॥ वायु आदि कार्य-तत्त्वोंमें आकाशादि कारण-तत्त्वोंके रहनेसे उनके गुण भी अनुगत देखे जाते हैं; इसलिये समस्त महाभूतोंके गुण शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध केवल पृथ्वीमें ही पाये जाते हैं ॥ ४९ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

गुरुवार, 12 जून 2025

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

हरि:ॐ

जो लोग दरिद्रता के दु:खज्वर की ज्वाला से दग्ध हो रहे हैं, जिन्हें माया-पिशाची ने रौंद डाला है तथा जो संसार-समुद्रमें डूब रहे हैं, उनका कल्याण करनेके लिये श्रीमद्भागवत सिंहनाद कर रहा है ॥

दारिद्र्यदुःखज्वरदाहितानां
     मायापिशाचीपरिमर्दितानाम्
संसारसिन्धौ परिपातितानां
     क्षेमाय वै भागवतं प्रगर्जति ॥ ९२ ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

रसमात्राद् विकुर्वाणात् अम्भसो दैवचोदितात् ।
गन्धमात्रं अभूत् तस्मात् पृथ्वी घ्राणस्तु गन्धगः ॥ ४४ ॥
करम्भपूतिसौरभ्य शान्तोग्राम्लादिभिः पृथक् ।
द्रव्यावयववैषम्याद् गन्ध एको विभिद्यते ॥ ४५ ॥
भावनं ब्रह्मणः स्थानं धारणं सद्विशेषणम् ।
सर्वसत्त्वगुणोद्भेादः पृथिवीवृत्तिलक्षणम् ॥ ४६ ॥

इसके पश्चात् दैवप्रेरित रसस्वरूप जल के विकृत होनेपर उससे गन्धतन्मात्र हुआ और उससे पृथ्वी तथा गन्धको ग्रहण करानेवाली घ्राणेन्द्रिय प्रकट हुई ॥ ४४ ॥ गन्ध एक ही है; तथापि परस्पर मिले हुए द्रव्यभागोंकी न्यूनाधिकतासे वह मिश्रितगन्ध, दुर्गन्ध, सुगन्ध, मृदु, तीव्र और अम्ल (खट्टा) आदि अनेक प्रकारका हो जाता है ॥ ४५ ॥ प्रतिमादिरूपसे ब्रह्मकी साकार-भावनाका आश्रय होना, जल आदि कारण-तत्त्वोंसे भिन्न किसी दूसरे आश्रयकी अपेक्षा किये बिना ही स्थित रहना, जल आदि अन्य पदार्थोंको धारण करना, आकाशादिका अवच्छेदक होना (घटाकाश, मठाकाश आदि भेदोंको सिद्ध करना) तथा परिणामविशेषसे सम्पूर्ण प्राणियोंके [स्त्रीत्व, पुरुषत्व आदि] गुणोंको प्रकट करना—ये पृथ्वीके कार्यरूप लक्षण हैं ॥ ४६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

बुधवार, 11 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

रूपमात्राद् विकुर्वाणात् तेजसो दैवचोदितात् ।
रसमात्रं अभूत् तस्मात् अम्भो जिह्वा रसग्रहः ॥ ४१ ॥
कषायो मधुरस्तिक्तः कट्वम्ल इति नैकधा ।
भौतिकानां विकारेण रस एको विभिद्यते ॥ ४२ ॥
क्लेदनं पिण्डनं तृप्तिः प्राणनाप्यायनोन्दनम् । 
तापापनोदो भूयस्त्वं अम्भसो वृत्तयस्त्विमाः ॥ ४३ ॥

फिर दैव की प्रेरणा से रूपतन्मात्रमय तेज के विकृत होनेपर उससे रसतन्मात्र हुआ और उससे जल तथा रसको ग्रहण करानेवाली रसनेन्द्रिय (जिह्वा) उत्पन्न हुई ॥ ४१ ॥ रस अपने शुद्ध स्वरूपमें एक ही है; किन्तु अन्य भौतिक पदार्थोंके संयोग से वह कसैला, मीठा, तीखा, कड़वा, खट्टा और नमकीन आदि कई प्रकार का हो जाता है ॥ ४२ ॥ गीला करना, मिट्टी आदि को पिण्डाकार बना देना, तृप्त करना, जीवित रखना, प्यास बुझाना, पदार्थों को मृदु कर देना, ताप की निवृत्ति करना और कूपादि में से निकाल लिये जानेपर भी वहाँ बार-बार पुन: प्रकट हो जाना—ये जल की वृत्तियाँ हैं ॥ ४३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

मंगलवार, 10 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

वायोश्च स्पर्शतन्मात्राद् रूपं दैवेरितादभूत् ।
समुत्थितं ततस्तेजः चक्षू रूपोपलम्भनम् ॥ ३८ ॥
द्रव्याकृतित्वं गुणता व्यक्तिसंस्थात्वमेव च ।
तेजस्त्वं तेजसः साध्वि रूपमात्रस्य वृत्तयः ॥ ३९ ॥
द्योतनं पचनं पानं अदनं हिममर्दनम् ।
तेजसो वृत्तयस्त्वेताः शोषणं क्षुत्तृडेव च ॥ ४० ॥

तदनन्तर दैवकी प्रेरणा से स्पर्शतन्मात्रविशिष्ट वायु के विकृत होने पर उस से रूप तन्मात्र हुआ तथा उससे तेज और रूप को उपलब्ध करानेवाली नेत्रेन्द्रिय का प्रादुर्भाव हुआ ॥ ३८ ॥ साध्वि ! वस्तु के आकार का बोध कराना, गौण होना—द्रव्यके अङ्गरूप से प्रतीत होना, द्रव्य का जैसा आकार-प्रकार और परिमाण आदि हो, उसी रूप में उपलक्षित होना तथा तेज का स्वरूपभूत होना—ये सब रूपतन्मात्र की वृत्तियाँ हैं ॥३९॥ चमकना, पकाना, शीत को दूर करना, सुखाना, भूख-प्यास पैदा करना और उनकी निवृत्तिके लिये भोजन एवं जलपान कराना—ये तेजकी वृत्तियाँ हैं ॥ ४० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

सोमवार, 9 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

तामसाच्च विकुर्वाणाद् भगवद्‌वीर्यचोदितात् ।
शब्दमात्रं अभूत् तस्मात् नभः श्रोत्रं तु शब्दगम् ॥ ३२ ॥
अर्थाश्रयत्वं शब्दस्य द्रष्टुर्लिङ्गत्वमेव च ।
तन्मात्रत्वं च नभसो लक्षणं कवयो विदुः ॥ ३३ ॥
भूतानां छिद्रदातृत्वं बहिरन्तरमेव च ।
प्राणेन्द्रियात्मधिष्ण्यत्वं नभसो वृत्तिलक्षणम् ॥ ३४ ॥
नभसः शब्दतन्मात्रात् कालगत्या विकुर्वतः ।
स्पर्शोऽभवत्ततो वायुः त्वक् स्पर्शस्य च सङ्ग्रहः ॥ ३५ ॥
मृदुत्वं कठिनत्वं च शैत्यमुष्णत्वमेव च ।
एतत्स्पर्शस्य स्पर्शत्वं तन्मात्रत्वं नभस्वतः ॥ ३६ ॥
चालनं व्यूहनं प्राप्तिः नेतृत्वं द्रव्यशब्दयोः ।
सर्वेन्द्रियाणां आत्मत्वं वायोः कर्माभिलक्षणम् ॥ ३७ ॥

भगवान्‌ की चेतनशक्ति की प्रेरणा से तामस अहंकार के विकृत होने पर उससे शब्दतन्मात्र का प्रादुर्भाव हुआ। शब्दतन्मात्र से आकाश तथा शब्द का ज्ञान करानेवाली श्रोत्रेन्द्रिय उत्पन्न हुई ॥ ३२ ॥ अर्थका प्रकाशक होना, ओटमें खड़े हुए वक्ताका भी ज्ञान करा देना और आकाशका सूक्ष्म रूप होना विद्वानोंके मतमें यही शब्दके लक्षण हैं ॥ ३३ ॥ भूतोंको अवकाश देना, सबके बाहर-भीतर वर्तमान रहना तथा प्राण, इन्द्रिय और मनका आश्रय होना—ये आकाशके वृत्ति (कार्य) रूप लक्षण हैं ॥ ३४ ॥
फिर शब्दतन्मात्रके कार्य आकाशमें कालगतिसे विकार होनेपर स्पर्शतन्मात्र हुआ और उससे वायु तथा स्पर्शका ग्रहण करानेवाली त्वगिन्द्रिय (त्वचा) उत्पन्न हुई ॥ ३५ ॥ कोमलता, कठोरता, शीतलता और उष्णता तथा वायु का सूक्ष्म रूप होना—ये स्पर्श के लक्षण हैं ॥ ३६ ॥ वृक्ष की शाखा आदि को हिलाना, तृणादि को इकट्ठाकर देना, सर्वत्र पहुँचना, गन्धादियुक्त द्रव्य को घ्राणादि इन्द्रियों के पास तथा शब्द को श्रोत्रेन्द्रिय के समीप ले जाना तथा समस्त इन्द्रियों को कार्यशक्ति देना—ये वायुकी वृत्तियों के लक्षण हैं ॥ ३७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

रविवार, 8 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

कर्तृत्वं करणत्वं च कार्यत्वं चेति लक्षणम् ।
शान्तघोरविमूढत्वं इति वा स्यादहङ्कृतेः ॥ २६ ॥
वैकारिकाद् विकुर्वाणात् मनस्तत्त्वमजायत ।
यत्सङ्कल्पविकल्पाभ्यां वर्तते कामसम्भवः ॥ २७ ॥
यद् विदुर्ह्यनिरुद्धाख्यं हृषीकाणां अधीश्वरम् ।
शारदेन्दीवरश्यामं संराध्यं योगिभिः शनैः ॥ २८ ॥
तैजसात्तु विकुर्वाणाद् बुद्धितत्त्वमभूत्सति ।
द्रव्यस्फुरणविज्ञानं इन्द्रियाणामनुग्रहः ॥ २९ ॥
संशयोऽथ विपर्यासो निश्चयः स्मृतिरेव च ।
स्वाप इत्युच्यते बुद्धेः लक्षणं वृत्तितः पृथक् ॥ ३० ॥
तैजसानि इन्द्रियाण्येव क्रियाज्ञानविभागशः ।
प्राणस्य हि क्रियाशक्तिः बुद्धेर्विज्ञानशक्तिता ॥ ३१ ॥

(श्रीभगवान्‌ कहते हैं) इस अहंकार का देवतारूप से कर्तृत्व, इन्द्रियरूप से करणत्व और पञ्चभूतरूप से कार्यत्व लक्षण है तथा सत्त्वादि गुणों के सम्बन्ध से शान्तत्व, घोरत्व और मूढत्व भी इसी के लक्षण हैं ॥ २६ ॥ उपर्युक्त तीन प्रकार के अहंकारमें से वैकारिक अहंकार के विकृत होने पर उससे मन हुआ, जिसके सङ्कल्प-विकल्पों से कामनाओं की उत्पत्ति होती है ॥ २७ ॥ यह मनस्तत्त्व ही इन्द्रियों के अधिष्ठाता ‘अनिरुद्ध’ के नाम से प्रसिद्ध है। योगिजन शरत्कालीन नीलकमल के समान श्यामवर्ण वाले इन अनिरुद्धजी की शनै:-शनै: मन को वशीभूत करके आराधना करते हैं ॥ २८ ॥ 
साध्वि ! फिर तैजस अहंकारमें विकार होनेपर उससे बुद्धितत्त्व उत्पन्न हुआ। वस्तुका स्फुरणरूप विज्ञान और इन्द्रियोंके व्यापारमें सहायक होना—पदार्थोंका विशेष ज्ञान करना—ये बुद्धिके कार्य हैं ॥ २९ ॥ वृत्तियोंके भेदसे संशय, विपर्यय (विपरीत ज्ञान), निश्चय, स्मृति और निद्रा भी बुद्धिके ही लक्षण हैं। यह बुद्धितत्त्व ही ‘प्रद्युम्र’ है ॥ ३० ॥ इन्द्रियाँ भी तैजस अहंकारका ही कार्य हैं। कर्म और ज्ञानके विभागसे उनके कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दो भेद हैं। इनमें कर्म प्राणकी शक्ति है और ज्ञान बुद्धिकी ॥ ३१ ॥

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शनिवार, 7 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

यत्तत्सत्त्वगुणं स्वच्छं शान्तं भगवतः पदम् ।
यदाहुर्वासुदेवाख्यं चित्तं तन्महदात्मकम् ॥ २१ ॥
स्वच्छत्वं अविकारित्वं शान्तत्वमिति चेतसः ।
वृत्तिभिर्लक्षणं प्रोक्तं यथापां प्रकृतिः परा ॥ २२ ॥
महत्तत्त्वाद् विकुर्वाणाद् भगवद्‌वीर्यसम्भवात् ।
क्रियाशक्तिः अहङ्कारः त्रिविधः समपद्यत ॥ २३ ॥
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्च यतो भवः ।
मनसश्चेन्द्रियाणां च भूतानां महतामपि ॥ २४ ॥
सहस्रशिरसं साक्षाद् यं अनन्तं प्रचक्षते ।
सङ्कर्षणाख्यं पुरुषं भूतेन्द्रियमनोमयम् ॥ २५ ॥

जो सत्त्वगुणमय, स्वच्छ, शान्त और भगवान्‌की उपलब्धिका स्थानरूप चित्त है, वही महत्तत्त्व है और उसीको ‘वासुदेव’ कहते हैं [*] ॥ २१ ॥ जिस प्रकार पृथ्वी आदि अन्य पदार्थोंके संसर्ग से पूर्व जल अपनी स्वाभाविक (फेन-तरङ्गादिरहित) अवस्था में अत्यन्त स्वच्छ, विकारशून्य एवं शान्त होता है, उसी प्रकार अपनी स्वाभाविकी अवस्था की दृष्टि से स्वच्छत्व, अविकारित्व और शान्तत्व ही वृत्तियोंसहित चित्त का लक्षण कहा गया है ॥ २२ ॥ तदनन्तर भगवान्‌ की वीर्यरूप चित्-शक्ति से उत्पन्न हुए महत्तत्त्व के विकृत होने पर उससे क्रिया-शक्तिप्रधान अहंकार उत्पन्न हुआ । वह वैकारिक, तैजस और तामस भेद से तीन प्रकारका है। उसीसे क्रमश: मन, इन्द्रियों और पञ्चमहाभूतोंकी उत्पत्ति हुई ॥ २३-२४ ॥ इस भूत, इन्द्रिय और मनरूप अहंकारको ही पण्डितजन साक्षात् ‘सङ्कर्षण’ नामक सहस्र सिरवाले अनन्तदेव कहते हैं ॥ २५ ॥ 
...........................................................
[*] जिसे अध्यात्ममें चित्त कहते हैं, उसीको अधिभूतमें महत्तत्त्व कहा जाता है। चित्तमें अधिष्ठाता ‘क्षेत्रज्ञ’ और उपास्यदेव ‘वासुदेव’ हैं। इसी प्रकार अहंकारमें अधिष्ठाता ‘रुद्र’ और उपास्यदेव ‘सङ्कर्षण’ हैं, बुद्धिमें अधिष्ठाता ‘ब्रह्मा’ और उपास्यदेव ‘प्रद्युम्र’ हैं तथा मनमें अधिष्ठाता ‘चन्द्रमा’ और उपास्यदेव ‘अनिरुद्ध’ हैं।

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शुक्रवार, 6 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

प्रभावं पौरुषं प्राहुः कालमेके यतो भयम् ।
अहङ्कारविमूढस्य कर्तुः प्रकृतिमीयुषः ॥ १६ ॥
प्रकृतेर्गुणसाम्यस्य निर्विशेषस्य मानवि ।
चेष्टा यतः स भगवान् काल इत्युपलक्षितः ॥ १७ ॥
अन्तः पुरुषरूपेण कालरूपेण यो बहिः ।
समन्वेत्येष सत्त्वानां भगवान् आत्ममायया ॥ १८ ॥
दैवात्क्षुभितधर्मिण्यां स्वस्यां योनौ परः पुमान् ।
आधत्त वीर्यं सासूत महत्तत्त्वं हिरण्मयम् ॥ १९ ॥
विश्वमात्मगतं व्यञ्जन् कूटस्थो जगदङ्कुरः ।
स्वतेजसा पिबत् तीव्रं आत्मप्रस्वापनं तमः ॥ २० ॥

(श्रीभगवान्‌ कहते हैं) कुछ लोग काल को पुरुष से भिन्न तत्त्व न मानकर पुरुषका प्रभाव अर्थात् ईश्वरकी संहारकारिणी शक्ति बताते हैं। जिससे मायाके कार्यरूप देहादिमें आत्मत्वका अभिमान करके अहंकारसे मोहित और अपनेको कर्ता माननेवाले जीवको निरन्तर भय लगा रहता है ॥ १६ ॥ मनुपुत्रि ! जिनकी प्रेरणासे गुणोंकी साम्यावस्थारूप निर्विशेष प्रकृतिमें गति उत्पन्न होती है, वास्तवमें वे पुरुषरूप भगवान्‌ ही ‘काल’ कहे जाते हैं ॥ १७ ॥ इस प्रकार जो अपनी माया के द्वारा सब प्राणियों के भीतर जीवरूप से और बाहर कालरूप से व्याप्त हैं, वे भगवान्‌ ही पचीसवें तत्त्व हैं ॥ १८ ॥ जब परमपुरुष परमात्मा ने जीवों के अदृष्टवश क्षोभ को प्राप्त हुई सम्पूर्ण जीवों की उत्पत्तिस्थानरूपा अपनी माया में चिच्छक्तिरूप वीर्य स्थापित किया, तो उससे तेजोमय महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ ॥ १९ ॥ लय-विक्षेपादि रहित तथा जगत् के अङ्कुररूप इस महत्तत्त्व ने अपने में स्थित विश्व को प्रकट करने के लिये अपने स्वरूप को आच्छादित करनेवाले प्रलयकालीन अन्धकार को अपने ही तेज से पी लिया ॥ २० ॥

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गुरुवार, 5 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

देवहूतिरुवाच –
प्रकृतेः पुरुषस्यापि लक्षणं पुरुषोत्तम ।
ब्रूहि कारणयोरस्य सदसच्च यदात्मकम् ॥ ९ ॥

श्रीभगवानुवाच –
यत्तत् त्रिगुणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम् ।
प्रधानं प्रकृतिं प्राहुः अविशेषं विशेषवत् ॥ १० ॥
पञ्चभिः पञ्चभिर्ब्रह्म चतुर्भिर्दशभिस्तथा ।
एतत् चतुर्विंशतिकं गणं प्राधानिकं विदुः ॥ ११ ॥
महाभूतानि पञ्चैव भूरापोऽग्निर्मरुन्नभः ।
तन्मात्राणि च तावन्ति गन्धादीनि मतानि मे ॥ १२ ॥
इन्द्रियाणि दश श्रोत्रं त्वग् दृक् रसननासिकाः ।
वाक्करौ चरणौ मेढ्रं पायुर्दशम उच्यते ॥ १३ ॥
मनो बुद्धिरहङ्कारः चित्तमित्यन्तरात्मकम् ।
चतुर्धा लक्ष्यते भेदो वृत्त्या लक्षणरूपया ॥ १४ ॥
एतावानेव सङ्ख्यातो ब्रह्मणः सगुणस्य ह ।
सन्निवेशो मया प्रोक्तो यः कालः पञ्चविंशकः ॥ १५ ॥

देवहूतिने कहा—पुरुषोत्तम ! इस विश्वके स्थूल-सूक्ष्म कार्य जिनके स्वरूप हैं तथा जो इसके कारण हैं, उन प्रकृति और पुरुष का लक्षण भी आप मुझसे कहिये ॥ ९ ॥
श्रीभगवान्‌ ने कहा—जो त्रिगुणात्मक, अव्यक्त, नित्य और कार्य-कारणरूप है तथा स्वयं निर्विशेष होकर भी सम्पूर्ण विशेष धर्मों का आश्रय है,उस प्रधान नामक तत्त्व को ही प्रकृति कहते हैं॥१० ॥
पाँच महाभूत, पाँच तन्मात्रा, चार अन्त:करण और दस इन्द्रिय—इन चौबीस तत्त्वोंके समूहको विद्वान् लोग प्रकृतिका कार्य मानते हैं ॥ ११ ॥ पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश—ये पाँच महाभूत हैं; गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द—ये पाँच तन्मात्र माने गये हैं ॥ १२ ॥ श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना, नासिका, वाक्, पाणि, पाद, उपस्थ और पायु—ये दस इन्द्रियाँ हैं ॥ १३ ॥ मन,बुद्धि, चित्त और अहंकार—इन चार के रूप में एक ही अन्त:करण अपनी सङ्कल्प, निश्चय, चिन्ता और अभिमानरूपा चार प्रकार की वृत्तियों से लक्षित होता है ॥ १४ ॥ इस प्रकार तत्त्वज्ञानी पुरुषों ने सगुण ब्रह्म के सन्निवेशस्थान इन चौबीस तत्त्वों की संख्या बतलायी है । इसके सिवा जो काल है, वह पचीसवाँ तत्त्व है ॥ १५ ॥ 

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बुधवार, 4 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी  उत्पत्ति का वर्णन

श्रीभगवानुवाच ।

अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि तत्त्वानां लक्षणं पृथक् ।
यद्विदित्वा विमुच्येत पुरुषः प्राकृतैर्गुणैः ॥ १ ॥
ज्ञानं निःश्रेयसार्थाय पुरुषस्यात्मदर्शनम् ।
यदाहुर्वर्णये तत्ते हृदयग्रन्थिभेदनम् ॥ २ ॥
अनादिरात्मा पुरुषो निर्गुणः प्रकृतेः परः ।
प्रत्यग्धामा स्वयंज्योतिः विश्वं येन समन्वितम् ॥ ३ ॥
स एष प्रकृतिं सूक्ष्मां दैवीं गुणमयीं विभुः ।
यदृच्छयैवोपगतां अभ्यपद्यत लीलया ॥ ४ ॥
गुणैर्विचित्राः सृजतीं सरूपाः प्रकृतिं प्रजाः ।
विलोक्य मुमुहे सद्यः स इह ज्ञानगूहया ॥ ५ ॥
एवं पराभिध्यानेन कर्तृत्वं प्रकृतेः पुमान् ।
कर्मसु क्रियमाणेषु गुणैरात्मनि मन्यते ॥ ६ ॥
तदस्य संसृतिर्बन्धः पारतन्त्र्यं च तत्कृतम् ।
भवति अकर्तुरीशस्य साक्षिणो निर्वृतात्मनः ॥ ७ ॥
कार्यकारणकर्तृत्वे कारणं प्रकृतिं विदुः ।
भोक्तृत्वे सुखदुःखानां पुरुषं प्रकृतेः परम् ॥ ८ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहा—माता जी ! अब मैं तुम्हें प्रकृति आदि सब तत्त्वोंके  अलग-अलग लक्षण बतलाता हूँ; इन्हें जानकर मनुष्य प्रकृति के गुणों से मुक्त हो जाता है ॥ १ ॥ आत्मदर्शनरूप ज्ञान ही पुरुष के मोक्ष का कारण है और वही उसकी अहंकाररूप हृदयग्रन्थि का छेदन करनेवाला है, ऐसा पण्डितजन कहते हैं । उस ज्ञान का मैं तुम्हारे आगे वर्णन करता हूँ ॥ २ ॥ यह सारा जगत् जिससे व्याप्त होकर प्रकाशित होता है, वह आत्मा ही पुरुष है । वह अनादि, निर्गुण, प्रकृति से परे, अन्त:करण में स्फुरित होने वाला और स्वयंप्रकाश है ॥ ३ ॥ उस सर्वव्यापक पुरुष ने अपने पास लीला-विलासपूर्वक आयी हुई अव्यक्त और त्रिगुणात्मिका वैष्णवी मायाको स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया ॥ ४ ॥ लीला- परायण प्रकृति अपने सत्त्वादि गुणों द्वारा उन्हीं के अनुरूप प्रजाकी सृष्टि करने लगी; यह देख पुरुष ज्ञान- को आच्छादित करनेवाली उसकी आवरणशक्तिसे मोहित हो गया, अपने स्वरूपको भूल गया ॥ ५ ॥ इस प्रकार अपनेसे भिन्न प्रकृतिको ही अपना स्वरूप समझ लेनेसे पुरुष प्रकृतिके गुणों द्वारा किये जानेवाले कर्मोंमें अपनेको ही कर्ता मानने लगता है ॥ ६ ॥ इस कर्तृत्वाभिमान से ही अकर्ता, स्वाधीन, साक्षी और आनन्दस्वरूप पुरुष को जन्म-मृत्युरूप बन्धन एवं परतन्त्रता की प्राप्ति होती है ॥ ७ ॥ कार्यरूप शरीर, कारणरूप इन्द्रिय तथा कर्तारूप इन्द्रियाधिष्ठातृ-देवताओं में पुरुष जो अपनेपन का आरोप कर लेता है, उसमें पण्डितजन प्रकृति को ही कारण मानते हैं तथा वास्तव में प्रकृति से परे होकर भी जो प्रकृतिस्थ हो रहा है, उस पुरुष को सुख-दु:खों के भोगने में कारण मानते हैं ॥ ८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

मंगलवार, 3 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

देवहूति का प्रश्न तथा भगवान्‌ कपिलद्वारा 
भक्तियोग की महिमा का वर्णन

मद्भियाद् वाति वातोऽयं सूर्यस्तपति मद्भभयात् ।
वर्षतीन्द्रो दहत्यग्निः मृत्युश्चरति मद्भियात् ॥ ४२ ॥
ज्ञानवैराग्ययुक्तेन भक्तियोगेन योगिनः ।
क्षेमाय पादमूलं मे प्रविशन्ति अकुतोभयम् ॥ ४३ ॥
एतावान् एव लोकेऽस्मिन् पुंसां निःश्रेयसोदयः ।
तीव्रेण भक्तियोगेन मनो मय्यर्पितं स्थिरम् ॥ ४४ ॥

मेरे भयसे यह वायु चलती है, मेरे भयसे सूर्य तपता है, मेरे भयसे इन्द्र वर्षा करता और अग्रि जलाती है तथा मेरे ही भयसे मृत्यु अपने कार्यमें प्रवृत्त होता है ॥ ४२ ॥ योगिजन ज्ञान-वैराग्ययुक्त भक्तियोगके द्वारा शान्ति प्राप्त करनेके लिये मेरे निर्भय चरणकमलोंका आश्रय लेते हैं ॥ ४३ ॥ संसारमें मनुष्यके लिये सबसे बड़ी कल्याणप्राप्ति यही है कि उसका चित्त तीव्र भक्तियोगके द्वारा मुझमें लगकर स्थिर हो जाय ॥ ४४ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

सोमवार, 2 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

देवहूति का प्रश्न तथा भगवान्‌ कपिलद्वारा 
भक्तियोग की महिमा का वर्णन

इमं लोकं तथैव अमुं आत्मानं उभयायिनम् ।
आत्मानं अनु ये चेह ये रायः पशवो गृहाः ॥ ३९ ॥
विसृज्य सर्वान् अन्यांश्च मामेवं विश्वतोमुखम् ।
भजन्ति अनन्यया भक्त्या तान्मृत्योरतिपारये ॥ ४० ॥
नान्यत्र मद्‍भगवतः प्रधानपुरुषेश्वरात् ।
आत्मनः सर्वभूतानां भयं तीव्रं निवर्तते ॥ ४१ ॥

(श्रीभगवान्‌ कह रहे हैं) माताजी ! जो लोग इहलोक, परलोक और इन दोनों लोकोंमें साथ जानेवाले वासनामय लिङ्गदेहको तथा शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाले जो धन, पशु एवं गृह आदि पदार्थ हैं, उन सबको और अन्यान्य संग्रहोंको भी छोडक़र अनन्य भक्तिसे सब प्रकार मेरा ही भजन करते हैं—उन्हें मैं मृत्युरूप संसारसागरसे पार कर देता हूँ ॥ ३९-४० ॥ मैं साक्षात् भगवान्‌ हूँ, प्रकृति और पुरुषका भी प्रभु हूँ तथा समस्त प्राणियोंका आत्मा हूँ; मेरे सिवा और किसीका आश्रय लेनेसे मृत्युरूप महाभयसे छुटकारा नहीं मिल सकता ॥ ४१ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

रविवार, 1 जून 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

देवहूति का प्रश्न तथा भगवान्‌ कपिलद्वारा 
भक्तियोग की महिमा का वर्णन

अथो विभूतिं मम मायाविनस्तां
     ऐश्वर्यमष्टाङ्गमनुप्रवृत्तम् ।
श्रियं भागवतीं वास्पृहयन्ति भद्रां
     परस्य मे तेऽश्नुवते तु लोके ॥ ३७ ॥
न कर्हिचिन्मत्पराः शान्तरूपे
     नङ्क्ष्यन्ति नो मेऽनिमिषो लेढि हेतिः ।
येषामहं प्रिय आत्मा सुतश्च
     सखा गुरुः सुहृदो दैवमिष्टम् ॥ ३८ ॥

अविद्याकी निवृत्ति हो जानेपर यद्यपि वे मुझ मायापतिके सत्यादि लोकोंकी भोगसम्पत्ति, भक्तिकी प्रवृत्तिके पश्चात् स्वयं प्राप्त होनेवाली अष्टसिद्धि अथवा वैकुण्ठलोकके भगवदीय ऐश्वर्यकी भी इच्छा नहीं करते, तथापि मेरे धाममें पहुँचनेपर उन्हें ये सब विभूतियाँ स्वयं ही प्राप्त हो जाती हैं ॥ ३७ ॥ जिनका एकमात्र मैं ही प्रिय, आत्मा, पुत्र, मित्र, गुरु, सुहृद् और इष्टदेव हूँ—वे मेरे ही आश्रयमें रहनेवाले भक्तजन शान्तिमय वैकुण्ठधाममें पहुँचकर किसी प्रकार भी इन दिव्य भोगोंसे रहित नहीं होते और न उन्हें मेरा कालचक्र ही ग्रस सकता है ॥ ३८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से