॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन
आत्मजायासुतागार पशुद्रविण बन्धुषु ।
निरूढमूलहृदय आत्मानं बहु मन्यते ॥ ६ ॥
सन्दह्यमानसर्वाङ्ग एषां उद्वहनाधिना ।
करोति अविरतं मूढो दुरितानि दुराशयः ॥ ७ ॥
आक्षिप्तात्मेन्द्रियः स्त्रीणां असतीनां च मायया ।
रहो रचितयालापैः शिशूनां कलभाषिणाम् ॥ ८ ॥
गृहेषु कूटधर्मेषु दुःखतन्त्रेष्वतन्द्रितः ।
कुर्वन् दुखप्रतीकारं सुखवन्मन्यते गृही ॥ ९ ॥
अर्थैरापादितैर्गुर्व्या हिंसयेतः ततश्च तान् ।
पुष्णाति येषां पोषेण शेषभुग्यात्यधः स्वयम् ॥ १० ॥
वार्तायां लुप्यमानायां आरब्धायां पुनः पुनः ।
लोभाभिभूतो निःसत्त्वः परार्थे कुरुते स्पृहाम् ॥ ११ ॥
कुटुम्बभरणाकल्पो मन्दभाग्यो वृथोद्यमः ।
श्रिया विहीनः कृपणो ध्यायन् श्वसिति मूढधीः ॥ १२ ॥
यह मूर्ख(जीव) अपने शरीर, स्त्री, पुत्र, गृह, पशु, धन और बन्धु-बान्धवोंमें अत्यन्त आसक्त होकर उनके सम्बन्धमें नाना प्रकारके मनोरथ करता हुआ अपनेको बड़ा भाग्यशाली समझता है ॥ ६ ॥ इनके पालन-पोषणकी चिन्तासे इसके सम्पूर्ण अङ्ग जलते रहते हैं; तथापि दुर्वासनाओंसे दूषित हृदय होनेके कारण यह मूढ़ निरन्तर इन्हींके लिये तरह-तरहके पाप करता रहता है ॥ ७ ॥ कुलटा स्त्रियों के द्वारा एकान्त में सम्भोगादि के समय प्रदर्शित किये हुए कपटपूर्ण प्रेम में तथा बालकोंकी मीठी-मीठी बातों में मन और इन्द्रियों के फँस जाने से गृहस्थ पुरुष घर के दु:ख-प्रधान कपटपूर्ण कर्मोंमें लिप्त हो जाता है । उस समय बहुत सावधानी करनेपर यदि उसे किसी दु:खका प्रतीकार करनेमें सफलता मिल जाती है, तो उसे ही वह सुख-सा मान लेता है ॥८-९॥ जहाँ-तहाँ से भयङ्कर हिंसावृत्ति के द्वारा धन सञ्चय कर यह ऐसे लोगोंका पोषण करता है, जिनके पोषण से नरक में जाता है। स्वयं तो उनके खाने-पीनेसे बचे हुए अन्नको ही खाकर रहता है ॥ १० ॥ बार-बार प्रयत्न करनेपर भी जब इसकी कोई जीविका नहीं चलती, तो यह लोभवश अधीर हो जानेसे दूसरेके धनकी इच्छा करने लगता है ॥ ११ ॥ जब मन्दभाग्यके कारण इसका कोई प्रयत्न नहीं चलता और यह मन्दबुद्धि धनहीन होकर कुटुम्बके भरण-पोषण में असमर्थ हो जाता है, तब अत्यन्त दीन और चिन्तातुर होकर लंबी-लंबी साँसें छोडऩे लगता है ॥ १२ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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