शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

इत्येवं शैशवं भुक्त्वा दुःखं पौगण्डमेव च ।
अलब्धाभीप्सितोऽज्ञानाद् इद्धमन्युः शुचार्पितः ॥ २८ ॥
सह देहेन मानेन वर्धमानेन मन्युना ।
करोति विग्रहं कामी कामिष्वन्ताय चात्मनः ॥ २९ ॥
भूतैः पञ्चभिरारब्धे देहे देह्यबुधोऽसकृत् ।
अहं ममेत्यसद्ग्रा हः करोति कुमतिर्मतिम् ॥ ३० ॥
तदर्थं कुरुते कर्म यद्बाद्धो याति संसृतिम् ।
योऽनुयाति ददत्क्लेशं अविद्याकर्मबन्धनः ॥ ३१ ॥
यद्यसद्‌भि पथि पुनः शिश्नोदरकृतोद्यमैः ।
आस्थितो रमते जन्तुः तमो विशति पूर्ववत् ॥ ३२ ॥

इसी प्रकार बाल्य (कौमार) और पौगण्ड—अवस्थाओं के दु:ख भोगकर वह बालक युवावस्था में पहुँचता है । इस समय उसे यदि कोई इच्छित भोग नहीं प्राप्त होता, तो अज्ञानवश उसका क्रोध उद्दीप्त हो उठता है और वह शोकाकुल हो जाता है ॥ २८ ॥ देह के साथ-ही-साथ अभिमान और क्रोध बढ़ जाने के कारण वह कामपरवश जीव अपना ही नाश करने के लिये दूसरे कामी पुरुषों के साथ वैर ठानता है ॥ २९ ॥ खोटी बुद्धिवाला वह अज्ञानी जीव पञ्चभूतोंसे रचे हुए इस देहमें मिथ्याभिनिवेशके कारण निरन्तर मैं-मेरेपनका अभिमान करने लगता है ॥ ३० ॥ जो शरीर इसे वृद्धावस्था आदि अनेक प्रकारके कष्ट ही देता है तथा अविद्या और कर्मके सूत्रसे बँधा रहनेके कारण सदा इसके पीछे लगा रहता है, उसीके लिये यह तरह-तरहके कर्म करता रहता है—जिनमें बँध जानेके कारण इसे बार-बार संसार-चक्रमें पडऩा होता है ॥ ३१ ॥ सन्मार्गमें चलते हुए यदि इसका किन्हीं जिह्वा और उपस्थेन्द्रियके भोगोंमें लगे हुए विषयी पुरुषोंसे समागम हो जाता है, और यह उनमें आस्था करके उन्हींका अनुगमन करने लगता है, तो पहलेके समान ही फिर नारकी योनियोंमें पड़ता है ॥ ३२ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

1 टिप्पणी:

  1. 🌺🕉️🥀🌺जय श्रीहरि: !!🙏
    ॐ श्रीपरमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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