॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – चौथा
अध्याय..(पोस्ट०३)
हिरण्यकशिपु
के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन
स
एव वर्णाश्रमिभिः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।
इज्यमानो
हविर्भागान् अग्रहीत् स्वेन तेजसा ॥ १५ ॥
अकृष्टपच्या
तस्यासीत् सप्तद्वीपवती मही ।
तथा
कामदुघा गावो नानाश्चर्यपदं नभः ॥ १६ ॥
रत्नाकराश्च
रत्नौघान् तत्पत्न्यश्चोहुरूर्मिभिः ।
क्षारसीधुघृतक्षौद्र
दधिक्षीरामृतोदकाः ॥ १७ ॥
शैला
द्रोणीभिराक्रीडं सर्वर्तुषु गुणान् द्रुमाः ।
दधार
लोकपालानां एक एव पृथग्गुणान् ॥ १८ ॥
स
इत्थं निर्जितककुब् एकराड् वियान् प्रियान् ।
यथोपजोषं
भुञ्जानो नातृप्यदजितेन्द्रियः ॥ १९ ॥
युधिष्ठिर
! वह इतना तेजस्वी था कि वर्णाश्रमधर्म का पालन करनेवाले पुरुष जो बड़ी-बड़ी
दक्षिणावाले यज्ञ करते,
उनके यज्ञोंकी आहुति वह स्वयं छीन लेता ॥ १५ ॥ पृथ्वीके सातों
द्वीपोंमें उसका अखण्ड राज्य था। सभी जगह बिना ही जोते-बोये धरतीसे अन्न पैदा होता
था। वह जो कुछ चाहता, अन्तरिक्षसे उसे मिल जाता तथा आकाश उसे
भाँति-भाँतिकी आश्चर्यजनक वस्तुएँ दिखा- दिखाकर उसका मनोरंजन करता था ॥ १६ ॥ इसी
प्रकार खारे पानी, सुरा, घृत, इक्षुरस, दधि, दुग्ध और मीठे
पानीके समुद्र भी अपनी पत्नी नदियोंके साथ तरङ्गोंके द्वारा उसके पास रत्नराशि
पहुँचाया करते थे ॥ १७ ॥ पर्वत अपनी घाटियोंके रूपमें उसके लिये खेलनेका स्थान
जुटाते और वृक्ष सब ऋतुओंमें फूलते-फलते। वह अकेला ही सब लोकपालोंके विभिन्न गुणों
को धारण करता ॥ १८ ॥ इस प्रकार दिग्विजयी और एकच्छत्र सम्राट् होकर वह अपने को
प्रिय लगनेवाले विषयों का स्वच्छन्द उपभोग करने लगा। परंतु इतने विषयों से भी उसकी
तृप्ति न हो सकी। क्योंकि अन्तत: वह इन्द्रियों का दास ही तो था ॥ १९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें