॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – चौथा
अध्याय..(पोस्ट०२)
हिरण्यकशिपु
के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन
देवोद्यानश्रिया
जुष्टं अध्यास्ते स्म त्रिपिष्टपम् ।
महेन्द्रभवनं
साक्षात् निर्मितं विश्वकर्मणा ।
त्रैलोक्यलक्ष्म्यायतनं
अध्युवासाखिलर्द्धिमत् ॥ ८ ॥
यत्र
विद्रुमसोपाना महामारकता भुवः ।
यत्र
स्फाटिककुड्यानि वैदूर्यस्तम्भपङ्क्तयः ॥ ९ ॥
यत्र
चित्रवितानानि पद्मरागासनानि च ।
पयःफेननिभाः
शय्या मुक्तादामपरिच्छदाः ॥ १० ॥
कूजद्भिर्नूपुरैर्देव्यः
शब्दयन्त्य इतस्ततः ।
रत्नस्थलीषु
पश्यन्ति सुदतीः सुन्दरं मुखम् ॥ ११ ॥
तस्मिन्महेन्द्रभवने
महाबलो
महामना निर्जितलोक एकराट् ।
रेमेऽभिवन्द्याङ्घ्रियुगः
सुरादिभिः
प्रतापितैरूर्जितचण्डशासनः ॥ १२ ॥
तमङ्ग
मत्तं मधुनोरुगन्धिना
विवृत्तताम्राक्षमशेषधिष्ण्यपाः ।
उपासतोपायनपाणिभिर्विना
त्रिभिस्तपोयोगबलौजसां पदम् ॥ १३ ॥
जगुर्महेन्द्रासनमोजसा
स्थितं
विश्वावसुस्तुम्बुरुरस्मदादयः ।
गन्धर्वसिद्धा
ऋषयोऽस्तुवन्मुहुः
विद्याधरा अप्सरसश्च पाण्डव ॥ १४ ॥
अब
वह (हिरण्यकशिपु) नन्दनवन आदि दिव्य उद्यानों के सौन्दर्य से युक्त स्वर्ग में ही
रहने लगा था। स्वयं विश्वकर्मा का बनाया हुआ इन्द्र का भवन ही उसका निवासस्थान था।
उस भवन में तीनों लोकों का सौन्दर्य मूर्तिमान् होकर निवास करता था। वह सब प्रकार की
सम्पत्तियों से सम्पन्न था ॥ ८ ॥ उस महल में मूँगे की सीढिय़ाँ, पन्ने की गचें, स्फटिकमणि की दीवारें, वैदूर्यमणिके खंभे और माणिक की कुर्सियाँ थीं। रंग-बिरंगे चँदोवे तथा दूध के
फेन के समान शय्याएँ, जिनपर मोतियों की झालरें लगी हुई थीं,
शोभायमान हो रही थीं ॥ ९-१० ॥ सर्वाङ्गसुन्दरी अप्सराएँ अपने
नूपुरों से रुन-झुन ध्वनि करती हुई रत्नमय भूमि पर इधर-उधर टहला करती थीं और
कहीं-कहीं उसमें अपना सुन्दर मुख देखने लगती थीं ॥ ११ ॥ उस महेन्द्रके महलमें
महाबली और महामनस्वी हिरण्यकशिपु सब लोकोंको जीतकर, सबका
एकच्छत्र सम्राट् बनकर बड़ी स्वतन्त्रतासे विहार करने लगा। उसका शासन इतना कठोर था
कि उससे भयभीत होकर देव-दानव उसके चरणोंकी वन्दना करते रहते थे ॥ १२ ॥ युधिष्ठिर !
वह उत्कट गन्धवाली मदिरा पीकर मतवाला रहा करता था। उसकी आँखें लाल-लाल और चढ़ी हुई
रहतीं। उस समय तपस्या, योग, शारीरिक और
मानसिक बलका वह भंडार था। ब्रह्मा, विष्णु और महादेवके सिवा और
सभी देवता अपने हाथों में भेंट ले-लेकर
उसकी सेवामें लगे रहते ॥ १३ ॥ जब वह अपने पुरुषार्थ से इन्द्रासनपर बैठ गया,
तब युधिष्ठिर ! विश्वावसु, तुम्बुरु तथा हम
सभी लोग उसके सामने गान करते थे। गन्धर्व, सिद्ध, ऋषिगण, विद्याधर और अप्सराएँ बार-बार उसकी स्तुति करती
थीं ॥ १४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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