रविवार, 16 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)

हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन

नारद उवाच -
एवं वृतः शतधृतिः हिरण्यकशिपोरथ ।
प्रादात् तत् तपसा प्रीतो वरान् तस्य सुदुर्लभान् ॥ १ ॥

ब्रह्मोवाच -
ताते मे दुर्लभाः पुंसां यान् वृणीषे वरान् मम ।
तथापि वितराम्यङ्‌ग वरान् यदपि दुर्लभान् ॥ २ ॥
ततो जगाम भगवान् अमोघानुग्रहो विभुः ।
पूजितोऽसुरवर्येण स्तूयमानः प्रजेश्वरैः ॥ ३ ॥
एवं लब्धवरो दैत्यो बिभ्रद् हेममयं वपुः ।
भगवत्यकरोद् द्वेषं भ्रातुर्वधमनुस्मरन् ॥ ४ ॥
स विजित्य दिशः सर्वा लोकांश्च त्रीन्महासुरः ।
देवासुरमनुष्येन्द्रान् गन्धर्वगरुडोरगान् ॥ ५ ॥
सिद्धचारणविद्याध्रान् ऋषीन् पितृपतीन् मनून् ।
यक्षरक्षःपिशाचेशान् प्रेतभूतपतीनथ ॥ ६ ॥
सर्वसत्त्वपतीन्जित्वा वशमानीय विश्वजित् ।
जहार लोकपालानां स्थानानि सह तेजसा ॥ ७ ॥

नारदजी कहते हैंयुधिष्ठिर ! जब हिरण्यकशिपु ने ब्रह्माजी से इस प्रकार के अत्यन्त दुर्लभ वर माँगे, तब उन्होंने उसकी तपस्यासे प्रसन्न होनेके कारण उसे वे वर दे दिये ॥ १ ॥
ब्रह्माजीने कहाबेटा ! तुम जो वर मुझसे माँग रहे हो, वे जीवोंके लिये बहुत ही दुर्लभ हैं; परंतु दुर्लभ होनेपर भी मैं तुम्हें वे सब वर दिये देता हूँ ॥ २ ॥
[नारदजी कहते हैं—]ब्रह्माजीके वरदान कभी झूठे नहीं होते। वे समर्थ एवं भगवद्रूप ही हैं। वरदान मिल जानेके बाद हिरण्यकशिपुने उनकी पूजा की। तत्पश्चात् प्रजापतियोंसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे अपने लोकको चले गये ॥ ३ ॥ ब्रह्माजीसे वर प्राप्त करनेपर हिरण्यकशिपुका शरीर सुवर्णके समान कान्तिमान् एवं हृष्टपुष्ट हो गया। वह अपने भाईकी मृत्युका स्मरण करके भगवान्‌से द्वेष करने लगा ॥ ४ ॥ उस महादैत्यने समस्त दिशाओं, तीनों लोकों तथा देवता, असुर, नरपति, गन्धर्व, गरुड़, सर्प, सिद्ध, चारण, विद्याधर, ऋषि, पितरोंके अधिपति, मनु, यक्ष, राक्षस, पिशाचराज, प्रेत, भूतपति एवं समस्त प्राणियोंके राजाओंको जीतकर अपने वशमें कर लिया। यहाँतक कि उस विश्व-विजयी दैत्यने लोकपालोंकी शक्ति और स्थान भी छीन लिये ॥ ५७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

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