मंगलवार, 18 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०५)

हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन

नारद उवाच -
इत्युक्ता लोकगुरुणा तं प्रणम्य दिवौकसः ।
न्यवर्तन्त गतोद्वेगा मेनिरे चासुरं हतम् ॥ २९ ॥
तस्य दैत्यपतेः पुत्राश्चत्वारः परमाद्‍भुताः ।
प्रह्लादोऽभून् महांन् तेषां गुणैर्महदुपासकः ॥ ३० ॥
ब्रह्मण्यः शीलसम्पन्नः सत्यसन्धो जितेन्द्रियः ।
आत्मवत्सर्वभूतानां एकः प्रियसुहृत्तमः ॥ ३१ ॥
दासवत्सन्नतार्याङ्‌घ्रिः पितृवद् दीनवत्सलः ।
भ्रातृवत्सदृशे स्निग्धो गुरुषु ईश्वरभावनः ॥ ३२ ॥
विद्यार्थरूपजन्माढ्यो मानस्तम्भविवर्जितः ॥ ३२ ॥
नोद्विग्नचित्तो व्यसनेषु निःस्पृहः
     श्रुतेषु दृष्टेषु गुणेष्ववस्तुदृक् ।
दान्तेन्द्रियप्राणशरीरधीः सदा
     प्रशान्तकामो रहितासुरोऽसुरः ॥ ३३ ॥

नारदजी कहते हैंसबके हृदयमें ज्ञानका सञ्चार करनेवाले भगवान्‌ने जब देवताओंको यह आदेश दिया, तब वे उन्हें प्रणाम करके लौट आये। उनका सारा उद्वेग मिट गया और उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि हिरण्यकशिपु मर गया ॥ २९ ॥
युधिष्ठिर ! दैत्यराज हिरण्यकशिपुके बड़े ही विलक्षण चार पुत्र थे। उनमें प्रह्लाद यों तो सबसे छोटे थे, परंतु गुणों में सबसे बड़े थे। वे बड़े संतसेवी थे ॥ ३० ॥ ब्राह्मणभक्त, सौम्यस्वभाव, सत्यप्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय थे तथा समस्त प्राणियों के साथ अपने ही समान समता का बर्ताव करते और सब के एकमात्र प्रिय और सच्चे हितैषी थे ॥ ३१ ॥ बड़े लोगों के चरणों में सेवक की तरह झुककर रहते थे। गरीबों पर पिता के समान स्नेह रखते थे। बराबरी वालों से भाई के समान प्रेम करते और गुरुजनों में भगवद्भाव रखते थे। विद्या, धन, सौन्दर्य और कुलीनता से सम्पन्न होनेपर भी घमंड और हेकड़ी उन्हें छू तक नहीं गयी थी ॥ ३२ ॥ बड़े-बड़े दु:खोंमें भी वे तनिक भी घबराते न थे। लोक-परलोक के विषयों को उन्होंने देखा-सुना तो बहुत था, परंतु वे उन्हें नि:सार और असत्य समझते थे। इसलिये उनके मनमें किसी भी वस्तुकी लालसा न थी। इन्द्रिय, प्राण, शरीर और मन उनके वशमें थे। उनके चित्तमें कभी किसी प्रकारकी कामना नहीं उठती थी। जन्मसे असुर होनेपर भी उनमें आसुरी सम्पत्तिका लेश भी नहीं था ॥ ३३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें