॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – चौथा
अध्याय..(पोस्ट०६)
हिरण्यकशिपु
के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन
यस्मिन्महद्गुणा
राजन् गृह्यन्ते कविभिर्मुहुः ।
न
तेऽधुना पिधीयन्ते यथा भगवतीश्वरे ॥ ३४ ॥
यं
साधुगाथासदसि रिपवोऽपि सुरा नृप ।
प्रतिमानं
प्रकुर्वन्ति किमुतान्ये भवादृशाः ॥ ३५ ॥
गुणैरलमसंख्येयै
माहात्म्यं तस्य सूच्यते ।
वासुदेवे
भगवति यस्य नैसर्गिकी रतिः ॥ ३६ ॥
जैसे
भगवान्के गुण अनन्त हैं,
वैसे ही प्रह्लादके श्रेष्ठ गुणों की भी कोई सीमा नहीं है। महात्मा लोग
सदा से उनका वर्णन करते और उन्हें अपनाते आये हैं। तथापि वे आज भी ज्यों-के-त्यों
बने हुए हैं ॥ ३४ ॥ युधिष्ठिर ! यों तो देवता उनके शत्रु हैं; परंतु फिर भी भक्तोंका चरित्र सुननेके लिये जब उन लोगोंकी सभा होती है,
तब वे दूसरे भक्तों को प्रह्लाद के समान कहकर उनका सम्मान करते हैं।
फिर आप-जैसे अजातशत्रु भगवद्भक्त उनका आदर करेंगे, इसमें तो
सन्देह ही क्या है ॥ ३५ ॥ उनकी महिमा का वर्णन करने के लिये अगणित गुणों के
कहने-सुनने की आवश्यकता नहीं। केवल एक ही गुण—भगवान्
श्रीकृष्ण के चरणों में स्वाभाविक, जन्मजात प्रेम उनकी महिमा
को प्रकट करने के लिये पर्याप्त है ॥ ३६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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