बुधवार, 19 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०७)

हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन

न्यस्तक्रीडनको बालो जडवत् तन्मनस्तया ।
कृष्णग्रहगृहीतात्मा न वेद जगदीदृशम् ॥ ३७ ॥
आसीनः पर्यटन् अश्नन् शयानः प्रपिबन् ब्रुवन् ।
नानुसन्धत्त एतानि गोविन्दपरिरम्भितः ॥ ३८ ॥
क्वचिद् रुदति वैकुण्ठ चिन्ताशबलचेतनः ।
क्वचिद् हसति तच्चिन्ता ह्लाद उद्‍गायति क्वचित् ॥ ३९ ॥
नदति क्वचिद् उत्कण्ठो विलज्जो नृत्यति क्वचित् ।
क्वचित्तद्‍भावनायुक्तः तन्मयोऽनुचकार ह ॥ ४० ॥

युधिष्ठिर ! प्रह्लाद बचपनमें ही खेल-कूद छोडक़र भगवान्‌ के ध्यान में जडवत् तन्मय हो जाया करते। भगवान्‌ श्रीकृष्ण के अनुग्रहरूप ग्रह ने उनके हृदय को इस प्रकार खींच लिया था कि उन्हें जगत् की कुछ सुध-बुध ही न रहती ॥ ३७ ॥ उन्हें ऐसा जान पड़ता कि भगवान्‌ मुझे अपनी गोद में लेकर आलिङ्गन कर रहे हैं। इसलिये उन्हें सोते-बैठते, खाते-पीते, चलते-फिरते और बातचीत करते समय भी इन बातों का ध्यान बिलकुल न रहता ॥ ३८ ॥ कभी-कभी भगवान्‌ मुझे छोडक़र चले गये, इस भावना में उनका हृदय इतना डूब जाता कि वे जोर-जोर से रोने लगते। कभी मन-ही-मन उन्हें अपने सामने पाकर आनन्दोद्रेक से ठठाकर हँसने लगते। कभी उनके ध्यान के मधुर आनन्द का अनुभव करके जोर से गाने लगते ॥ ३९ ॥ वे कभी उत्सुक हो बेसुरा चिल्ला पड़ते। कभी-कभी लोक-लज्जा का त्याग करके प्रेम में छककर नाचने भी लगते थे। कभी-कभी उनकी लीला के चिन्तन में इतने तल्लीन हो जाते कि उन्हें अपनी याद ही न रहती, उन्हीं का अनुकरण करने लगते ॥ ४० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

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