॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
राजा निमि के वंश का वर्णन
श्रीशुक उवाच ।
निमिरिक्ष्वाकुतनयो वसिष्ठं अवृतर्त्विजम् ।
आरभ्य सत्रं सोऽप्याह शक्रेण प्राग्वृतोऽस्मि भोः ॥ १ ॥
तं निर्वर्त्यागमिष्यामि तावन्मां प्रतिपालय ।
तूष्णीं आसीद् गृहपतिः सोऽपीन्द्रस्याकरोन् मखम् ॥ २ ॥
निमिश्चलमिदं विद्वान् सत्रमारभतामात्मवान् ।
ऋत्विग्भिः अपरैस्तावत् नागमद्यावता गुरुः ॥ ३ ॥
शिष्यव्यतिक्रमं वीक्ष्य तं निर्वर्त्य गुरुरागतः ।
अशपत् पतताद् देहो निमेः पण्डितमानिनः ॥ ४ ॥
निमिः प्रतिददौ शापं गुरवेऽधर्मवर्तिने ।
तवापि पतताद् देहो लोभाद् धर्ममजानतः ॥ ५ ॥
इत्युत्ससर्ज स्वं देहं निमिरध्यात्मकोविदः ।
मित्रावरुणयोर्जज्ञे उर्वश्यां प्रपितामहः ॥ ६ ॥
गन्धवस्तुषु तद् देहं निधाय मुनिसत्तमाः ।
समाप्ते सत्रयागेऽथ देवान् ऊचुः समागतान् ॥ ७ ॥
राज्ञो जीवतु देहोऽयं प्रसन्नाः प्रभवो यदि ।
तथेत्युक्ते निमिः प्राह मा भून्मे देहबन्धनम् ॥ ८ ॥
यस्य योगं न वाञ्छन्ति वियोगभयकातराः ।
भजन्ति चरणाम्भोजं मुनयो हरिमेधसः ॥ ९ ॥
देहं नावरुरुत्सेऽहं दुःखशोकभयावहम् ।
सर्वत्रास्य यतो मृत्युं मत्स्यानां उदके यथा ॥ १० ॥
देवा ऊचुः ।
विदेह उष्यतां कामं लोचनेषु शरीरिणाम् ।
उन्मेषणनिमेषाभ्यां लक्षितोऽध्यात्मसंस्थितः ॥ ११ ॥
अराजकभयं नॄणां मन्यमाना महर्षयः ।
देहं ममन्थुः स्म निमेः कुमारः समजायत ॥ १२ ॥
जन्मना जनकः सोऽभूद् वैदेहस्तु विदेहजः ।
मिथिलो मथनाज्जातो मिथिला येन निर्मिता ॥ १३॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! इक्ष्वाकु के पुत्र थे निमि। उन्होंने यज्ञ आरम्भ करके महर्षि वसिष्ठको ऋत्विज् के रूपमें वरण किया। वसिष्ठजी ने कहा कि ‘राजन् ! इन्द्र अपने यज्ञ के लिये मुझे पहले ही वरण कर चुके हैं ॥ १ ॥ उनका यज्ञ पूरा करके मैं तुम्हारे पास आऊँगा। तबतक तुम मेरी प्रतीक्षा करना।’ यह बात सुनकर राजा निमि चुप हो रहे और वसिष्ठजी इन्द्रका यज्ञ कराने चले गये ॥ २ ॥ विचारवान् निमिने यह सोचकर कि जीवन तो क्षणभङ्गुर है, विलम्ब करना उचित न समझा और यज्ञ प्रारम्भ कर दिया। जबतक गुरु वसिष्ठजी न लौटें, तबतकके लिये उन्होंने दूसरे ऋत्विजोंको वरण कर लिया ॥ ३ ॥ गुरु वसिष्ठजी जब इन्द्रका यज्ञ सम्पन्न करके लौटे, तो उन्होंने देखा कि उनके शिष्य निमि ने तो उनकी बात न मानकर यज्ञ प्रारम्भ कर दिया है। उस समय उन्होंने शाप दिया कि ‘निमिको अपनी विचारशीलता और पाण्डित्यका बड़ा घमंड है, इसलिये इसका शरीरपात हो जाय’ ॥ ४ ॥ निमि की दृष्टिमें गुरु वसिष्ठका यह शाप धर्मके अनुकूल नहीं, प्रतिकूल था। इसलिये उन्होंने भी शाप दिया कि ‘आपने लोभवश अपने धर्मका आदर नहीं किया, इसलिये आपका शरीर भी गिर जाय’ ॥ ५ ॥ यह कहकर आत्मविद्यामें निपुण निमिने अपने शरीर का त्याग कर दिया। परीक्षित् ! इधर हमारे वृद्ध प्रपितामह वसिष्ठजीने भी अपना शरीर त्याग कर मित्रावरुणके द्वारा उर्वशीके गर्भसे जन्म ग्रहण किया ॥ ६ ॥ राजा निमिके यज्ञमें आये हुए श्रेष्ठ मुनियोंने राजाके शरीरको सुगन्धित वस्तुओंमें रख दिया। जब सत्रयागकी समाप्ति हुई और देवतालोग आये, तब उन लोगोंने उनसे प्रार्थना की ॥ ७ ॥ ‘महानुभावो ! आपलोग समर्थ हैं। यदि आप प्रसन्न हैं तो राजा निमिका यह शरीर पुन: जीवित हो उठे।’ देवताओंने कहा—‘ऐसा ही हो।’ उस समय निमिने कहा—‘मुझे देहका बन्धन नहीं चाहिये ॥ ८ ॥ विचारशील मुनिजन अपनी बुद्धिको पूर्णरूपसे श्रीभगवान्में ही लगा देते हैं और उन्हींके चरणकमलोंका भजन करते हैं। एक- न-एक दिन यह शरीर अवश्य ही छूटेगा—इस भयसे भीत होनेके कारण वे इस शरीरका कभी संयोग ही नहीं चाहते; वे तो मुक्त ही होना चाहते हैं ॥ ९ ॥ अत: मैं अब दु:ख, शोक और भयके मूल कारण इस शरीरको धारण करना नहीं चाहता। जैसे जलमें मछलीके लिये सर्वत्र ही मृत्युके अवसर हैं, वैसे ही इस शरीरके लिये भी सब कहीं मृत्यु-ही-मृत्यु है’ ॥ १० ॥
देवताओंने कहा—‘मुनियो ! राजा निमि बिना शरीरके ही प्राणियोंके नेत्रोंमें अपनी इच्छाके अनुसार निवास करें। वे वहाँ रहकर सूक्ष्मशरीरसे भगवान्का चिन्तन करते रहें। पलक उठने और गिरनेसे उनके अस्तित्वका पता चलता रहेगा ॥ ११ ॥ इसके बाद महर्षियोंने यह सोचकर कि ‘राजाके न रहनेपर लोगोंमें अराजकता फैल जायगी’ निमिके शरीरका मन्थन किया। उस मन्थनसे एक कुमार उत्पन्न हुआ ॥ १२ ॥ जन्म लेनेके कारण उसका नाम हुआ जनक। विदेहसे उत्पन्न होनेके कारण ‘वैदेह’ और मन्थनसे उत्पन्न होनेके कारण उसी बालकका नाम ‘मिथिल’ हुआ। उसीने मिथिलापुरी बसायी ॥ १३ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जवाब देंहटाएं🌺🍂🌼 जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय