॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)
भक्ति का मर्म और काल की महिमा
यद् वनस्पतयो भीता लताश्चौषधिभिः सह ।
स्वे स्वे कालेऽभिगृह्णन्ति पुष्पाणि च फलानि च ॥ ४१ ॥
स्रवन्ति सरितो भीता नोत्सर्पत्युदधिर्यतः ।
अग्निरिन्धे सगिरिभिः भूर्न मज्जति यद्भतयात् ॥ ४२ ॥
नभो ददाति श्वसतां पदं यन्नियमाददः ।
लोकं स्वदेहं तनुते महान् सप्तभिरावृतम् ॥ ४३ ॥
गुणाभिमानिनो देवाः सर्गादिष्वस्य यद्भ्यात् ।
वर्तन्तेऽनुयुगं येषां वश एतच्चराचरम् ॥ ४४ ॥
सोऽनन्तोऽन्तकरः कालो अनादिरादिकृदव्ययः ।
जनं जनेन जनयन् मारयन् मृत्युनान्तकम् ॥ ४५ ॥
इसीसे (कालसे) भयभीत होकर ओषधियोंके सहित लताएँ और सारी वनस्पतियाँ समय-समयपर फल-फूल धारण करती हैं ॥ ४१ ॥ इसीके डरसे नदियाँ बहती हैं और समुद्र अपनी मर्यादासे बाहर नहीं जाता। इसीके भयसे अग्रि प्रज्वलित होती है और पर्वतोंके सहित पृथ्वी जलमें नहीं डूबती ॥ ४२ ॥ इसीके शासनसे यह आकाश जीवित प्राणियोंको श्वास-प्रश्वासके लिये अवकाश देता है और महत्तत्त्व अहंकाररूप शरीरका सात आवरणोंसे युक्त ब्रह्माण्डके रूपमें विस्तार करता है ॥ ४३ ॥ इस काल के ही भयसे सत्त्वादि गुणों के नियामक विष्णु आदि देवगण, जिनके अधीन यह सारा चराचर जगत् है, अपने जगत्-रचना आदि कार्यों में युगक्रम से तत्पर रहते हैं ॥ ४४ ॥ यह अविनाशी काल स्वयं अनादि किन्तु दूसरों का आदिकर्ता (उत्पादक) है तथा स्वयं अनन्त होकर भी दूसरोंका अन्त करनेवाला है। यह पितासे पुत्रकी उत्पत्ति कराता हुआ सारे जगत्की रचना करता है और अपनी संहारशक्ति मृत्युके द्वारा यमराजको भी मरवाकर इसका अन्त कर देता है ॥ ४५ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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