॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भक्ति का मर्म और काल की महिमा
मैत्रेय उवाच ।
इति मातुर्वचः श्लक्ष्णं प्रतिनन्द्य महामुनिः ।
आबभाषे कुरुश्रेष्ठ प्रीतस्तां करुणार्दितः ॥ ६ ॥
श्रीभगवानुवाच -
भक्तियोगो बहुविधो मार्गैर्भामिनि भाव्यते ।
स्वभावगुणमार्गेण पुंसां भावो विभिद्यते ॥ ७ ॥
अभिसन्धाय यो हिंसां दम्भं मात्सर्यमेव वा ।
संरम्भी भिन्नदृग्भावं मयि कुर्यात्स तामसः ॥ ८ ॥
विषयान् अभिसन्धाय यश ऐश्वर्यमेव वा ।
अर्चादौ अर्चयेद्यो मां पृथग्भावः स राजसः ॥ ९ ॥
कर्मनिर्हारमुद्दिश्य परस्मिन् वा तदर्पणम् ।
यजेद् यष्टव्यमिति वा पृथग्भावः स सात्त्विकः ॥ १० ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ! माता के ये मनोहर वचन सुनकर महामुनि कपिलजी ने उनकी प्रशंसा की और जीवों के प्रति दयासे द्रवीभूत हो बड़ी प्रसन्नता के साथ उनसे इस प्रकार बोले ॥ ६ ॥
श्रीभगवान् ने कहा—माताजी ! साधकोंके भाव के अनुसार भक्तियोगका अनेक प्रकार से प्रकाश होता है, क्योंकि स्वभाव और गुणोंके भेदसे मनुष्योंके भावमें भी विभिन्नता आ जाती है ॥ ७ ॥ जो भेददर्शी क्रोधी पुरुष हृदयमें हिंसा, दम्भ अथवा मात्सर्यका भाव रखकर मुझसे प्रेम करता है, वह मेरा तामस भक्त है ॥ ८ ॥ जो पुरुष विषय, यश और ऐश्वर्य की कामना से प्रतिमादि में मेरा भेदभाव से पूजन करता है, वह राजस भक्त है ॥ ९ ॥ जो व्यक्ति पापों का क्षय करने के लिये, परमात्मा को अर्पण करने के लिये और पूजन करना कर्तव्य है—इस बुद्धिसे मेरा भेदभाव से पूजन करता है, वह सात्त्विक भक्त है ॥ १० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🌺💟🌹🥀ॐश्रीपरमात्मने नमः 🙏 ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏 नारायण नारायण नारायण नारायण 🙏
जवाब देंहटाएं