॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
हिरण्यकशिपु
के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न
श्रीनारद
उवाच
पौरोहित्याय
भगवान्वृतः काव्यः किलासुरैः
षण्डामर्कौ
सुतौ तस्य दैत्यराजगृहान्तिके ||१||
तौ
राज्ञा प्रापितं बालं प्रह्लादं नयकोविदम्
पाठयामासतुः
पाठ्यानन्यांश्चासुरबालकान् ||२||
यत्तत्र
गुरुणा प्रोक्तं शुश्रुवेऽनुपपाठ च
न
साधु मनसा मेने स्वपरासद्ग्रहाश्रयम् ||३||
नारदजी
कहते हैं—युधिष्ठिर! दैत्यों ने भगवान् श्रीशुक्राचार्य जी को अपना पुरोहित बनाया
था । उनके दो पुत्र थे—शण्ड और अमर्क । वे दोनों राजमहल के
पास ही रहकर हिरण्यकशिपु के द्वारा भेजे हुए नीतिनिपुण बालक प्रह्लाद को और दूसरे
पढ़ानेयोग्य दैत्य-बालकोंको राजनीति, अर्थनीति आदि पढ़ाया
करते थे ॥ १-२ ॥ प्रह्लाद गुरुजी का पढ़ाया हुआ पाठ सुन लेते थे और उसे ज्यों-का-
त्यों उन्हें सुना भी दिया करते थे। किन्तु वे उसे मन से अच्छा नहीं समझते थे ।
क्योंकि उस पाठ का मूल आधार था अपने और पराये का झूठा आग्रह ॥ ३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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