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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
अवधूतोपाख्यान—पृथ्वी से लेकर कबूतर
तक आठ गुरुओं की कथा
विसर्गाद्याः
श्मशानान्ता भावा देहस्य नात्मनः
कलानामिव
चन्द्रस्य कालेनाव्यक्तवर्त्मना ४८
कालेन
ह्योघवेगेन भूतानां प्रभवाप्ययौ
नित्यावपि
न दृश्येते आत्मनोऽग्नेर्यथार्चिषाम् ४९
गुणैर्गुणानुपादत्ते
यथाकालं विमुञ्चति
न
तेषु युज्यते योगी गोभिर्गा इव गोपतिः ५०
बुध्यते
स्वे न भेदेन व्यक्तिस्थ इव तद्गतः
लक्ष्यते
स्थूलमतिभिरात्मा चावस्थितोऽर्कवत् ५१
नातिस्नेहः
प्रसङ्गो वा कर्तव्यः क्वापि केनचित्
कुर्वन्विन्देत
सन्तापं कपोत इव दीनधीः ५२
कपोतः
कश्चनारण्ये कृतनीडो वनस्पतौ
कपोत्या
भार्यया सार्धमुवास कतिचित्समाः ५३
कपोतौ
स्नेहगुणितहृदयौ गृहधर्मिणौ
दृष्टिं
दृष्ट्याङ्गमङ्गेन बुद्धिं बुद्ध्या बबन्धतुः ५४
शय्यासनाटनस्थानवार्ताक्रीडाशनादिकम्
मिथुनीभूय
विश्रब्धौ चेरतुर्वनराजिषु ५५
यं
यं वाञ्छति सा राजन्तर्पयन्त्यनुकम्पिता
तं
तं समनयत्कामं कृच्छ्रेणाप्यजितेन्द्रियः ५६
कपोती
प्रथमं गर्भं गृह्णती काल आगते
अण्डानि
सुषुवे नीडे स्वपत्युः सन्निधौ सती ५७
तेषु
काले व्यजायन्त रचितावयवा हरेः
शक्तिभिर्दुर्विभाव्याभिः
कोमलाङ्गतनूरुहाः ५८
प्रजाः
पुपुषतुः प्रीतौ दम्पती पुत्रवत्सलौ
शृण्वन्तौ
कूजितं तासां निर्वृतौ कलभाषितैः ५९
तासां
पतत्रैः सुस्पर्शैः कूजितैर्मुग्धचेष्टितैः
प्रत्युद्गमैरदीनानां
पितरौ मुदमापतुः ६०
स्नेहानुबद्धहृदयावन्योन्यं
विष्णुमायया
विमोहितौ
दीनधियौ शिशून्पुपुषतुः प्रजाः ६१
एकदा
जग्मतुस्तासामन्नार्थं तौ कुटुम्बिनौ
परितः
कानने तस्मिन्नर्थिनौ चेरतुश्चिरम् ६२
दृष्ट्वा
तान्लुब्धकः कश्चिद्यदृच्छातो वनेचरः
जगृहे
जालमातत्य चरतः स्वालयान्तिके ६३
कपोतश्च
कपोती च प्रजापोषे सदोत्सुकौ
गतौ
पोषणमादाय स्वनीडमुपजग्मतुः ६४
कपोती
स्वात्मजान्वीक्ष्य बालकान्जालसंवृतान्
तानभ्यधावत्क्रोशन्ती
क्रोशतो भृशदुःखिता ६५
सासकृत्स्नेहगुणिता!
दीनचित्ताजमायया
स्वयं
चाबध्यत शिचा बद्धान्पश्यन्त्यपस्मृतिः ६६
कपोतः
स्वात्मजान्बद्धानात्मनोऽप्यधिकान्प्रियान्
भार्यां
चात्मसमां दीनो विललापातिदुःखितः ६७
अहो
मे पश्यतापायमल्पपुण्यस्य दुर्मतेः
अतृप्तस्याकृतार्थस्य
गृहस्त्रैवर्गिको हतः ६८
अनुरूपानुकूला
च यस्य मे पतिदेवता
शून्ये
गृहे मां सन्त्यज्य पुत्रैः स्वर्याति साधुभिः ६९
सोऽहं
शून्ये गृहे दीनो मृतदारो मृतप्रजः
जिजीविषे
किमर्थं वा विधुरो दुःखजीवितः ७०
तांस्तथैवावृतान्
शिग्भिर्मृत्युग्रस्तान्विचेष्टतः
स्वयं
च कृपणः शिक्षु पश्यन्नप्यबुधोऽपतत् ७१
तं
लब्ध्वा लुब्धकः क्रूरः कपोतं गृहमेधिनम्
कपोतकान्कपोतीं
च सिद्धार्थः प्रययौ गृहम् ७२
एवं
कुटुम्ब्यशान्तात्मा द्वन्द्वारामः पतत्रिवत्
पुष्णन्कुटुम्बं
कृपणः सानुबन्धोऽवसीदति ७३
यः
प्राप्य मानुषं लोकं मुक्तिद्वारमपावृतम्
गृहेषु
खगवत्सक्तस्तमारूढच्युतं विदुः ७४
मैंने चन्द्रमा से यह शिक्षा ग्रहण
की है कि यद्यपि जिसकी गति नहीं जानी जा सकती,
उस कालके प्रभावसे चन्द्रमाकी कलाएँ घटती-बढ़ती रहती हैं, तथापि चन्द्रमा तो चन्द्रमा ही है,
वह न घटता है और न बढ़ता ही है;
वैसे ही जन्मसे लेकर मृत्यु पर्यन्त जितनी भी अवस्थाएँ हैं, सब शरीरकी हैं, आत्मासे उनका कोई भी सम्बन्ध नहीं है ॥ ४८ ॥ जैसे आगकी लपट अथवा
दीपककी लौ क्षण-क्षणमें उत्पन्न और नष्ट होती रहती है—उनका यह क्रम निरन्तर चलता
रहता है, परन्तु दीख नहीं पड़ता—वैसे ही जलप्रवाहके समान वेगवान् कालके
द्वारा क्षण-क्षणमें प्राणियोंके शरीरकी उत्पत्ति और विनाश होता रहता है, परन्तु अज्ञानवश वह दिखायी नहीं पड़ता ॥ ४९ ॥
राजन् ! मैंने सूर्यसे यह शिक्षा
ग्रहण की है कि जैसे वे अपनी किरणोंसे पृथ्वीका जल खींचते और समयपर उसे बरसा देते
हैं, वैसे ही योगी पुरुष इन्द्रियोंके द्वारा समयपर विषयोंका ग्रहण करता
है और समय आनेपर उनका त्याग—उनका दान भी कर देता है। किसी भी समय उसे इन्द्रियके
किसी भी विषयमें आसक्ति नहीं होती ॥ ५० ॥ स्थूलबुद्धि पुरुषोंको जलके विभिन्न
पात्रोंमें प्रतिबिम्बित हुआ सूर्य उन्हींमें प्रविष्ट-सा होकर भिन्न-भिन्न दिखायी
पड़ता है। परन्तु इससे स्वरूपत: सूर्य अनेक नहीं हो जाता;
वैसे ही चल-अचल उपाधियोंके भेदसे ऐसा जान पड़ता है कि प्रत्येक
व्यक्तिमें आत्मा अलग-अलग है। परन्तु जिनको ऐसा मालूम होता है, उनकी बुद्धि मोटी है। असल बात तो यह है कि आत्मा सूर्यके समान एक
ही है। स्वरूपत: उसमें कोई भेद नहीं है ॥ ५१ ॥
राजन् ! कहीं किसीके साथ अत्यन्त स्नेह
अथवा आसक्ति न करनी चाहिये, अन्यथा उसकी बुद्धि अपना स्वातन्त्र्य खोकर दीन हो जायगी और उसे
कबूतरकी तरह अत्यन्त क्लेश उठाना पड़ेगा ॥ ५२ ॥ राजन् ! किसी जंगलमें एक कबूतर
रहता था, उसने एक पेड़पर अपना घोंसला बना रखा था। अपनी मादा कबूतरीके साथ वह
कई वर्षोंतक उसी घोंसलेमें रहा ॥ ५३ ॥ उस कबूतरके जोड़ेके हृदयमें निरन्तर
एक-दूसरेके प्रति स्नेहकी वृद्धि होती जाती थी। वे गृहस्थधर्ममें इतने आसक्त हो
गये थे कि उन्होंने एक-दूसरेकी दृष्टि-से-दृष्टि,
अङ्ग-से-अङ्ग और बुद्धि-से-बुद्धिको बाँध रखा था ॥ ५४ ॥ उनका
एक-दूसरेपर इतना विश्वास हो गया था कि वे नि:शङ्क होकर वहाँकी वृक्षावलीमें एक साथ
सोते, बैठते, घूमते-फिरते, ठहरते, बातचीत
करते, खेलते और खाते-पीते थे ॥ ५५ ॥ राजन् ! कबूतरीपर कबूतरका इतना प्रेम
था कि वह जो कुछ चाहती, कबूतर बड़े-से-बड़ा कष्ट उठाकर उसकी कामना पूर्ण करता; वह कबूतरी भी अपने कामुक पतिकी कामनाएँ पूर्ण करती ॥ ५६ ॥ समय
आनेपर कबूतरीको पहला गर्भ रहा। उसने अपने पतिके पास ही घोंसलेमें अंडे दिये ॥ ५७ ॥
भगवान्की अचिन्त्य शक्तिसे समय आनेपर वे अंडे फूट गये और उनमेंसे हाथ-पैरवाले
बच्चे निकल आये। उनका एक-एक अङ्ग और रोएँ अत्यन्त कोमल थे ॥ ५८ ॥ अब उन
कबूतर-कबूतरीकी आँखें अपने बच्चोंपर लग गयीं,
वे बड़े प्रेम और आनन्दसे अपने बच्चोंका लालन-पालन, लाड़-प्यार करते और उनकी मीठी बोली,
उनकी गुटर-गूँ सुन-सुनकर आनन्दमग्र हो जाते ॥ ५९ ॥ बच्चे तो
सदा-सर्वदा प्रसन्न रहते ही हैं; वे जब अपने सुकुमार पंखोंसे माँ-बापका स्पर्श करते, कूजते, भोली-भाली
चेष्टाएँ करते और फुदक-फुदककर अपने माँ-बापके पास दौड़ आते तब कबूतर-कबूतरी
आनन्दमग्र हो जाते ॥ ६० ॥ राजन् ! सच पूछो तो वे कबूतर- कबूतरी भगवान्की मायासे
मोहित हो रहे थे। उनका हृदय एक-दूसरेके स्नेहबन्धनसे बँध रहा था। वे अपने
नन्हें-नन्हें बच्चोंके पालन-पोषणमें इतने व्यग्र रहते कि उन्हें दीन-दुनिया, लोक-परलोककी याद ही न आती ॥ ६१ ॥ एक दिन दोनों नर-मादा अपने
बच्चोंके लिये चारा लाने जंगलमें गये हुए थे। क्योंकि अब उनका कुटुम्ब बहुत बढ़
गया था। वे चारेके लिये चिरकालतक जंगलमें चारों ओर विचरते रहे ॥ ६२ ॥ इधर एक
बहेलिया घूमता-घूमता संयोगवश उनके घोंसलेकी ओर आ निकला। उसने देखा कि घोंसलेके
आस-पास कबूतरके बच्चे फुदक रहे हैं; उसने जाल फैलाकर उन्हें पकड़ लिया ॥ ६३ ॥ कबूतर-कबूतरी बच्चोंको
खिलाने-पिलानेके लिये हर समय उत्सुक रहा करते थे। अब वे चारा लेकर अपने घोंसलेके
पास आये ॥ ६४ ॥ कबूतरीने देखा कि उसके नन्हें-नन्हें बच्चे, उनके हृदयके टुकड़े जालमें फँसे हुए हैं और दु:खसे चें-चें कर रहे
हैं। उन्हें ऐसी स्थितिमें देखकर कबूतरीके दु:खकी सीमा न रही। वह रोती-चिल्लाती
उनके पास दौड़ गयी ॥ ६५ ॥ भगवान्की मायासे उसका चित्त अत्यन्त दीन-दुखी हो रहा
था। वह उमड़ते हुए स्नेहकी रस्सीसे जकड़ी हुई थी;
अपने बच्चोंको जालमें फँसा देखकर उसे अपने शरीरकी भी सुध- बुध न
रही। और वह स्वयं ही जाकर जालमें फँस गयी ॥ ६६ ॥ जब कबूतरने देखा कि मेरे प्राणोंसे
भी प्यारे बच्चे जालमें फँस गये और मेरी प्राणप्रिया पत्नी भी उसी दशामें पहुँच
गयी, तब वह अत्यन्त दु:खित होकर विलाप करने लगा। सचमुच उस समय उसकी दशा
अत्यन्त दयनीय थी ॥ ६७ ॥ ‘मैं अभागा हूँ, दुर्मति हूँ। हाय, हाय ! मेरा तो सत्यानाश हो गया। देखो,
देखो, न
मुझे अभी तृप्ति हुई और न मेरी आशाएँ ही पूरी हुर्ईं। तबतक मेरा धर्म, अर्थ और कामका मूल यह गृहस्थाश्रम ही नष्ट हो गया ॥ ६८ ॥ हाय !
मेरी प्राणप्यारी मुझे ही अपना इष्टदेव समझती थी;
मेरी एक-एक बात मानती थी, मेरे इशारेपर नाचती थी, सब तरहसे मेरे योग्य थी। आज वह मुझे सूने घरमें छोडक़र हमारे
सीधे-सादे निश्छल बच्चोंके साथ स्वर्ग सिधार रही है ॥ ६९ ॥ मेरे बच्चे मर गये।
मेरी पत्नी जाती रही। मेरा अब संसारमें क्या काम है ?
मुझ दीनका यह विधुर जीवन— बिना गृहिणीका जीवन जलन का—व्यथा का जीवन है। अब मैं इस सूने घरमें किसके लिये
जीऊँ ? ॥ ७० ॥ राजन् ! कबूतर के बच्चे जाल में फँसकर तडफ़ड़ा रहे थे, स्पष्ट दीख रहा था कि वे मौत के पंजेमें हैं, परन्तु वह मूर्ख कबूतर यह सब देखते हुए भी इतना दीन हो रहा था कि
स्वयं जान- बूझकर जालमें कूद पड़ा ॥ ७१ ॥ राजन् ! वह बहेलिया बड़ा क्रूर था। गृहस्थाश्रमी
कबूतर-कबूतरी और उनके बच्चोंके मिल जानेसे उसे बड़ी प्रसन्नता हुई; उसने समझा मेरा काम बन गया और वह उन्हें लेकर चलता बना ॥ ७२ ॥ जो
कुटुम्बी है विषयों और लोगोंके सङ्ग-साथमें ही जिसे सुख मिलता है एवं अपने कुटुम्ब
के भरण-पोषण में ही जो सारी सुध-बुध खो बैठा
है, उसे कभी शान्ति नहीं मिल सकती। वह उसी कबूतर के समान अपने कुटुम्ब के
साथ कष्ट पाता है ॥ ७३ ॥ यह मनुष्य-शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है। इसे पाकर भी
जो कबूतरकी तरह अपनी घरगृहस्थी में ही फँसा हुआ है,
वह बहुत ऊँचेतक चढक़र गिर रहा है। शास्त्र की भाषा में वह
‘आरूढ़च्युत’ है ॥ ७४ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
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