॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन
ज्ञानं यदेतद् अदधात्कतमः स देवः
त्रैकालिकं स्थिरचरेष्वनुवर्तितांशः ।
तं जीवकर्मपदवीं अनुवर्तमानाः
तापत्रयोपशमनाय वयं भजेम ॥ १६ ॥
देह्यन्यदेहविवरे जठराग्निनासृग्
विण्मूत्रकूपपतितो भृशतप्तदेहः ।
इच्छन्नितो विवसितुं गणयन् स्चमासान्
निर्वास्यते कृपणधीर्भगवन् कदा नु ॥ १७ ॥
(जीव कहता है) मुझे जो यह त्रैकालिक ज्ञान हुआ है, यह भी उनके सिवा और किसने दिया है; क्योंकि स्थावर-जंगम समस्त प्राणियोंमें एकमात्र वे ही तो अन्तर्यामीरूप अंश से विद्यमान हैं । अत: जीवरूप कर्मजनित पदवी का अनुवर्तन करनेवाले हम अपने त्रिविध तापोंकी शान्तिके लिये उन्हींका भजन करते हैं ॥ १६ ॥
भगवन् ! यह देहधारी जीव दूसरी (माताके) देह के उदरके भीतर मल, मूत्र और रुधिर के कुएँ में गिरा हुआ है, उसकी जठराग्नि से इसका शरीर अत्यन्त सन्तप्त हो रहा है। उससे निकलनेकी इच्छा करता हुआ यह अपने महीने गिन रहा है। भगवन् ! अब इस दीनको यहाँसे कब निकाला जायगा ? ॥ १७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹🩷🥀ॐश्रीपरमात्मने नमः
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
हे गोविंद !! हे गोपाल !!
हे करुणामय दीनदयाल !!
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!