बुधवार, 30 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

सोऽहं वसन्नपि विभो बहुदुःखवासं
     गर्भान्न निर्जिगमिषे बहिरन्धकूपे ।
यत्रोपयातमुपसर्पति देवमाया
     मिथ्या मतिर्यदनु संसृतिचक्रमेतत् ॥ २० ॥
तस्मादहं विगतविक्लव उद्धरिष्य
     आत्मानमाशु तमसः सुहृदाऽऽत्मनैव ।
भूयो यथा व्यसनमेतदनेकरन्ध्रं
     मा मे भविष्यदुपसादितविष्णुपादः ॥ २१ ॥

भगवन् ! इस अत्यन्त दु:खसे भरे हुए गर्भाशयमें यद्यपि मैं बड़े कष्टसे रह रहा हूँ, तो भी इससे बाहर निकलकर संसारमय अन्धकूपमें गिरनेकी मुझे बिलकुल इच्छा नहीं है; क्योंकि उसमें जानेवाले जीवको आपकी माया घेर लेती है। जिसके कारण उसकी शरीरमें अहंबुद्धि हो जाती है और उसके परिणाम में उसे फिर इस संसारचक्र में ही पडऩा होता है ॥ २० ॥ अत: मैं व्याकुलता को छोडक़र हृदयमें श्रीविष्णुभगवान्‌ के चरणोंको स्थापितकर अपनी बुद्धिकी सहायतासे ही अपनेको बहुत शीघ्र इस संसाररूप समुद्र के पार लगा दूँगा, जिससे मुझे अनेक प्रकारके दोषोंसे युक्त यह संसार-दु:ख फिर न प्राप्त हो ॥ २१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💖🌹 जय श्रीहरि: !!🙏
    ॐ श्रीपरमात्मने नमः
    श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव !!
    हरि:शरणम् !! हरि:शरणम् !!
    हरि: शरणम् ही केवलम ‼️

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

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