||श्रीहरि||
पुत्रगीता (पोस्ट 07)
मत्योर्वा मखमेतद वै या ग्रामे वसतो
रतिः।
देवानामेष वै गोष्ठो यदरण्यमिति श्रुतिः
॥ २५॥
निबन्धनी रज्जुरेषा या ग्रामे वसतो रतिः।
छित्त्वैतां सुकृतो यान्ति नैनां छिन्दन्ति
दुष्कृतः ॥२६॥
न हिंसयति यो जन्तून् मनोवाक्कायहेतुभिः।।
जीवितार्थापनयनैः प्राणिभिर्न स हिंस्यते॥२७॥
ग्राम या नगरमें रहकर जो स्त्री-पुत्र आदिमें
आसक्ति बढ़ायी जाती है, यह मृत्युको मुख ही है और जो वनका आश्रय
लेता है, यह इन्द्रियरूपी गौओंको बाँधनेके लिये गोशालाके समान
है, यह श्रुतिका कथन है॥ २५ ॥
ग्राम में रहने पर वहाँ के स्त्री-पुत्र
आदि विषयों में जो आसक्ति होती है, यह जीवको बाँधनेवाली रस्सीके
समान है। पुण्यात्मा पुरुष ही इसे काटकर निकल पाते हैं। पापी पुरुष इसे नहीं काट पाते
हैं॥ २६॥ जो मनुष्य मन, वाणी और शरीररूपी साधनों द्वारा प्राणियोंकी
हिंसा नहीं करता, उसकी भी जीवन और अर्थका नाश करनेवाले हिंसक
प्राणी हिंसा नहीं करते हैं॥ २७॥
----गीताप्रेस
गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-संग्रह’ पुस्तक (कोड
1958) से
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