|| ॐ नमो नारायणाय ||
विश्व के भक्तों में भक्तप्रवर श्रीप्रह्लाद और ध्रुव की भक्ति, प्रेम, सहिष्णुता अत्यन्त ही अलौकिक थी। दोनों प्रातःस्मरणीय भक्त श्रीभगवान् के विलक्षण प्रेमी थे। प्रह्लादजी के निष्काम भाव की महिमा कही नहीं जा सकती। आरंभ से ही इनमें पूर्ण निष्काम भाव था। जब भगवान् नृसिंहदेव ने इनसे वर मांगनेको कहा तब इन्होंने जवाब दिया कि ‘नाथ! मैं क्या लेन देन करनेवाला व्यापारी हूं? मैं तो आपका सेवक हूं, सेवक का काम मांगना नहीं है और स्वामी का कुछ दे दिलाकर सेवक को टाल देना नहीं है।’ परन्तु जब भगवान् ने फिर आग्रह किया तो प्रह्लाद ने एक वरदान तो यह मांगा कि ‘मेरे पिता ने आपसे द्वेष करके आपकी भक्ति में बाधा पहुंचाने के लिये मुझपर जो अत्याचार किये, हे प्रभो! आपकी कृपा से मेरे पिता उस दुष्कर्म से उत्पन्न हुए पाप से अभी छूट जायं।’
‘स्वत्प्रसादात् प्रभो सद्यस्तेन मुच्यते मे पिता।’
कितनी महानता है! दूसरा वरदान यह मांगा कि ‘प्रभो! यदि आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो यह दीजिये कि मेरे मन में कभी कुछ मांगने की अभिलाषा ही न हो।’
कितनी अद्भुत निष्कामता और दृढ़ता है। पिता ने कितना कष्ट दिया, परन्तु प्रह्लादजी सब कष्ट सुखपूर्वक सहते रहे, पितासे कभी द्वेष नहीं किया, और अन्तमें महान् निष्कामी होनेपर भी पिताका अपराध क्षमा करनेके लिये भगवान् से प्रार्थना की!
भक्तवर ध्रुवजी में एक बातकी और विशेषता है, उनमें अपनी सौतेली माता सुरुचीजीके लिये भगवान् से यह कहा कि ‘नाथ! मेरी माताने यदि मेरा तिरस्कार न किया होता तो आज आपके दुर्लभ दर्शनका अलभ्य लाभ मुझे कैसे मिलता? माता ने बड़ा ही उपकार किया है।’ इस तरह दोषमें उल्टा गुणका आरोप कर उन्होंने भगवान् से सौतेली माँ के लिये मुक्तिका वरदान मांगा। कितने मह्त्त्व की बात है!
पर इससे यह नहीं समझना चाहिये, कि भक्तवर प्रह्लादजी ने पिता में दोषारोपण कर भगवान् के सामने उसे अपराधी बतलाया, इससे उनका भाव नीचा है। ध्रुवजी की सौतेली माताने ध्रुवसे द्वेष किया था, उनके इष्टदेव भगवान् से नहीं, परन्तु प्रह्लादजी के पिता हिरण्यकशिपु ने तो प्रह्लाद के इष्टदेव भगवान् से द्वेष किया था। अपने प्रति किया हुआ दोष तो भक्त मानते ही नहीं, फिर माता-पिताद्वारा किया हुआ तिरस्कार तो उत्तम फलका कारण होता है। इसलिये ध्रुवजीका मातामें गुणका आरोप करना उचित ही था। परन्तु प्रह्लादजी के तो इष्टदेवका तिरस्कार था। प्रह्लादजीने अपनेको कष्ट देनेवाला जानकर पिताको दोषी नहीं बतलाया, उन्होंने भगवान् से उनका अपराध करनेके लिये क्षमा मांगकर पिताका उद्धार चाहा।
बहुतसी बातोंमें एकसे होनेपर भी प्रह्लादजी में निष्काम भावकी विशेषता थी और ध्रुवजीमें सौतेली माताके प्रति गुणारोप कर उसके लिये मुक्ति मांगनेकी ! वास्तवमें दोनों ही विलक्षण भक्त थे। भगवान् का दर्शन करनेके लिये दोनोंकी ही प्रतिज्ञा अटल थी, दोनोंने उसको बड़ी ही दृढ़ता और तत्परता से पूरा किया। प्रह्लादजी ने घरमें पिता के द्वारा दिये हुए कष्ट प्रसन्न मन से सहे, तो ध्रुवजी ने वनमें अनेक कष्टोंको सानन्द सहन किया। नियमोंसे कोई किसीप्रकार भी नहीं हटे, अपने सिद्धान्तपर दृढ़तासे डटे रहे, कोई भी भय या प्रलोभन उन्हें तनिक सा भी नहीं झुका सका।
वास्तवमें दोनों ही परम आदर्श और वन्दनीय हैं, हमें दोनों ही के जीवनसे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये।
...........००३. १२. आषाढ़ कृष्ण ११ सं०१९८६वि० कल्याण (पृ०१०५२ )