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रविवार, 20 अगस्त 2023

यमराज के कुत्ते


 

ऋग्वेद में आया है—

 

अति द्रव सारमेयौ श्वानौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा ।

अथपितृन्त्सुविदत्राँ उपेहि यमेन ये सधमादं मदन्ति ||

( ऋग्वेद-सं० १० । १४ । १० }

 

हे अग्निदेव ! प्रेतों के बाधक यमराज के दोनों कुत्तों का उल्लङ्घन करके इस प्रेत को ले जाइये और ले जा करके यम के साथ जो पितर प्रसन्नतापूर्वक विहार कर रहे हैं, उन अच्छे ज्ञानी पितरों के पास पहुँचा दीजिये; क्योंकि ये दोनों कुत्ते देवसुनी शर्माके लड़के हैं और इनकी दो नीचे और दो ऊपर चार आँखें हैं ।

 

यौ ते श्वानं यम रक्षितारौ चतुरक्षौ पथिरक्षी नृचक्षसौ ।

ताभ्यामेनं परि देहि राजन्त्स्वस्ति चास्मा अनमीत्रं च धेहि ॥

(ऋग्वेदसं० १० । १४ । ११ )

 

हे राजन् ! यस आपके घर की रखवाली करनेवाले आपके मार्ग की रक्षा करने वाले श्रुति-स्मृति-पुराणों के विद्वानों द्वारा ख्यापित चार आँखवाले अपने कुत्तों से इसकी रक्षा कीजिये तथा इसे नीरोग बनाइये |

 

उरुणसावसुतृपा उदुम्बलौ यमस्य दूतौ चरतो जनाँ अनु ।

तावस्मभ्यं दृशये सूर्याय पुनर्दातामसुमद्येह भद्रम् ॥

(ऋग्वेद-सं० १० । १४ । १२ )

 

यम के दूत दोनों कुत्ते लोगों को देखते हुए सर्वत्र घूमते हैं | बहुत दूर से सूंघकर पता लगा लेते हैं और दूसरे प्राण से तृप्त होते हैं, बड़े बलवान् है । वे दोनों दूत सूर्य के दर्शन के लिये हमें शक्ति दें ।


......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्मांक” पुस्तक से (कोड 572)

 

 



अन्नदान न करने के कारण ब्रह्मलोक जाने के बाद भी,अपने मुर्दे का मांस खाना पड़ा


 

विदर्भ देश के राजा श्वेत बड़े अच्छे पुरुष थे । राज्य से वैराग्य होने पर उन्होंने अरण्य में जाकर तक तप किया और तप के फलस्वरूप उन्हें ब्रह्मलोक की प्राप्ति हुई; परंतु उन्होंने जीवन में कभी किसी को भोजन दान नहीं किया था। इससे वे ब्रह्मलोक में भी भूख से पीड़ित रहे । ब्रह्माजी ने उनसे कहा-'तुमने किसी भिक्षुक को कभी भिक्षा नहीं दी । विविध भोगों से केवल अपने शरीर को ही पाला-पोसा और  तप किया । तप के फल से तुम मेरे लोकमें आ गये । तुम्हारा मृत शरीर धरतीपर पड़ा है। वह पुष्ट तथा  अक्षय कर दिया गया है । तुम उसीका मांस खाकर भूख मिटाओ  अगस्त्य ऋषि के मिलने पर उस घृणित भोजन से छूट सकोगे ।"

 

उन्हीं श्वेत राजा को ब्रह्मलोक से आकर अपने शव का मांस खाना पड़ता था । यह अन्नदान न देने का फल  है । फिर एक दिन उन्हें अगस्त्य ऋषि मिले । तब उनको इस अत्यन्त घृणित कार्य से छुटकारा मिला |

 

अतएव यहाँ अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान अवश्य करना चाहिये । यहाँ का दिया हुआ ही----परलोक में या पुनर्जन्म होने पर प्राप्त होता है । यह आवश्यक नहीं है कि कोई इतने परिमाण में दान करे | जिसके पास जो हो-उसी में से यथाशक्ति कुछ दान दिया करे ।

 

राजा श्वेत हुए अति वैभवशाली तपोनिष्ठ मतिमान 

पर न किया था कभी उन्होंने जीवन में भोजन का दान ॥

क्षुधा भयानक से पीड़ित वे आले प्रतिदिन चढ़े विमान 

धरतीपर खाते स्वमांस अपने ही शवका घृणित महान 

 

----गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्मांक“ पुस्तक से  (कोड 572)   




शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

श्राद्ध-तत्त्व - प्रश्नोत्तरी

 

 


श्रीहरि :

 

प्रश्न - श्राद्ध किसे कहते हैं ?

उत्तर ---- श्रद्धा से किया जानेवाला वह कार्य, जो पितरों के निमित्त किया जाता है, श्राद्ध कहलाता है ।


प्रश्न – कई लोग कहते हैं कि श्राद्धकर्म असत्य है और इसे ब्राह्मणोंने ही अपने लेने-खाने के लिये बनाया है । इस विषयपर आपका क्या विचार है ?

उत्तर - श्राद्धकर्म पूर्णरूपेण आवश्यक कर्म हैं और शास्त्रसम्मत है । हाँ, वर्तमानकाल में लोगों में ऐसी रीति ही चल पड़ी है कि जिस बात को वे समझ जायें, वह तो उनके लिये सत्य हैं; परंतु जो विषय उनकी समझ के बाहर हो, उने वे गलत कहने लगते हैं ।

कलिकाल के लोग प्रायः स्वार्थी हैं । उन्हें दूसरे का सुखी होना सुहाता नहीं । स्वयं तो मित्रों के बड़े-बड़े भोज - निमन्त्रण स्वीकार करते हैं, मित्रोंको अपने घर भोजनके लिये निमन्त्रित करते हैं, रात-दिन निरर्थक व्यय में आनन्द मनाते हैं; परंतु श्राद्धकर्म में एक ब्राह्मण ( जो हम से बड़ी जाति का है और पूजनीय है ) को भोजन कराने में भार अनुभव करते हैं । जिन माता - पिताकी जीवनभर सेवा करके भी ऋण नहीं चुकाया जा सकता, उनके पीछे भी उनके लिये श्राद्धकर्म करते रहना आवश्यक है ।

 

प्रश्न – श्राद्ध करने से क्या लाभ होता है ?

- मनुष्यमात्र के लिये शास्त्रों में देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण – ये तीन ऋण बताये गये हैं । इनमें श्राद्ध के द्वारा पितृ ऋण उतारा जाता है ।

विष्णुपुराण में कहा गया है कि श्राद्ध से तृप्त होकर पितृगण समस्त कामनाओं को पूर्ण कर देते हैं । ' ( | १५ | ५१ ) इसके अतिरिक्त आद्धकर्त्ता पुरुष से विश्वेदेवगण, पितृगण, मातामह तथा कुटुम्बीजन - सभी संतुष्ट रहते हैं । ( ३ । १५ । ५४) पितृपक्ष (आश्विनका कृष्णपक्ष ) में तो पितृगण स्वयं श्राद्ध प्रहण करने आते हैं तथा श्राद्ध मिलने पर प्रसन्न होते हैं और न मिलने पर निराश हो शाप देकर लौट जाते हैं । विष्णुपुराण सें पितृगण कहते हैं – “हमारे कुलमें क्या कोई ऐसा बुद्धिमान् धन्य पुरुष उत्पन्न होगा, जो धन के लोभ को  त्याग कर हमारे लिये पिण्डदान करेगा | १ ( ३ | १४ |

विष्णुपुराण में श्राद्धकर्म के सरल-से-सरल उपाय गये हैं । अतः इतनी सरलता से होनेवाले कार्य को त्यागना नहीं चाहिये ।

 

प्रश्न – पितरोंको श्राद्ध कैसे प्राप्त होता है ?

उत्तर - यदि हम चिट्ठीपर नाम-पता लिखकर बक्स में डाल दें तो वह अभीष्ट पुरुष को, वह जहाँ अवश्य मिल जायगी । इसी प्रकार जिनका नामोच्चारण किया गया है, उन पितरों को, वे जिस योनि में भी हों, श्राद्ध प्राप्त हो जाता है । जिस प्रकार सभी पत्र पहले बड़े  डाकघर में एकत्रित होते हैं और फिर उनका अलग विभाग होकर उन्हें अभीष्ट स्थानों में पहुँचाया जाता है, उसी प्रकार अर्पित पदार्थ का सूक्ष्म अंश सूर्य- रश्मियों के द्वारा सूर्यलोक में पहुँचता है और वहाँ से बँटवारा होता है तथा अभीष्ट पितरों को प्राप्त होता है ।

पितृपक्ष में विद्वान् ब्राह्मणों के द्वारा आवाहन जानेपर पितृगण स्वयं उनके शरीर में सूक्ष्मरूप से स्थित हो जाते हैं । अन्नका स्थूल अंश ब्राह्मण खाता है और सूक्ष्म अंश को पितर ग्रहण करते हैं ।

 

प्रश्न -- यदि पितर पशु-योनि में हों, तो उन्हें योनि के योग्य आहार हमारे द्वारा कैसे प्राप्त होगा ?

उत्तर—विदेशमें हम जितने रुपये भेजें,उतने ही रुपयोंका डालर आदि ( देशके अनुसार विभिन्न सिक्के ) होकर अभीष्ट व्यक्ति को प्राप्त हो जाते हैं  । उसी प्रकार श्रद्धापूर्वक अर्पित अन्न पितृगण को, वे जैसे  आहार के योग्य होते हैं, वैसा ही होकर उन्हें मिलता है |

 

प्रश्न- यदि पितर परमधाम में हों, जहाँ आनन्द ही आनन्द है, वहाँ तो उन्हें किसी वस्तु की भी आवश्यकता  नहीं है । फिर उनके लिये किया गया श्राद्ध क्या व्यर्थ चला जायगा ?

उत्तर—नहीं । जैसे, हम दूसरे शहर में अभीष्ट व्यक्ति को  कुछ रुपये भेजते हैं, परंतु रुपये वहाँ पहुँचने पर पता चले कि अभीष्ट व्यक्ति तो मर चुका है, तब वह रुपये हमारे ही नाम होकर हमें ही मिल जायेंगे ।

ऐसे ही परमधामवासी पितरोंके निमित्त किया गया श्राद्ध पुण्परूप से हमें ही मिल जाएगा अतः हमारा लाभ तो सब प्रकारसे ही होगा ।

 

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !

 .....गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनार्जन्मांक” पुस्तक (कोड ५७२) से

 



बुधवार, 22 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 19)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

आवागमन से छूटने का उपाय

तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जानेपर जीवनमुक्त पुरुष लोकदृष्टि में जीता हुआ और कर्म करता हुआ प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में उसका कर्म से सम्बन्ध नहीं होता। यदि कोई कहे कि, सम्बन्ध बिना उससे कर्म कैसे होते हैं ? इसका उत्तर यह है कि वास्तव में वह तो किसी कर्म का कर्ता है नहीं, पूर्व कृत शुभाशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध का जो शेष भाग अवशिष्ट है, उसके भोग के लिये उसी के वेग से, कुलाल के न रहने पर भी कुलालचक्र की भांति कर्ता के अभाव में भी परमेश्वरकी सत्ता-स्फूर्तिसे पूर्व-स्वभावानुसार कर्म होते रहते हैं, परन्तु वे कर्तॄत्व-अहंकारसे शून्य कर्म किसी पुण्य-पाप के उत्पादक न होनेके कारण वास्तव में कर्म ही नहीं समझे जाते ( गीता १८ । १७ )।
जो लोकदृष्टि में दीखता है, वह अन्तकाल में तत्त्वज्ञान के द्वारा तीनों शरीरों का अत्यन्त अभाव होने से जब शुद्ध सच्चिदानन्दघन में तद्रूपता को प्राप्त हो जाता है (गीता २।७२), तब उसे विदेहमुक्ति कहते हैं। जिस माया से कहीं भी नहीं आने जानेवाले निर्मल निर्गुण सच्चिदानन्दरूप आत्मा में भ्रमवश आने जाने की भावना होती है, भगवान्‌ की भक्ति के द्वारा उस माया से छूटकर इस परमपद की प्राप्ति के लिये ही हम सब को प्रयत्न करना चाहिये !

ॐ तत्सत् !

................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 18)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



आवागमन से छूटने का उपाय

जब तक परमात्मा की भक्ति उपासना निष्काम कर्मयोग आदि साधनोंद्वारा यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होकर उसकी अग्नि से अनन्त कर्मराशि सम्पूर्णतः भस्म नहीं हो जाती, तबतक उन्हें भोगने के लिये जीव को परवश होकर शुभाशुभ कर्मों के संस्कार, मूल प्रकृति और अन्तःकरण तथा इन्द्रियों को साथ लिये लगातार बारम्बार जाना आना पड़ता है। जाने और आने में यही वस्तुएं साथ जाती आती हैं। जीव के पूर्वजन्मकृत शुभाशुभ कर्म ही इसके गर्भ में आनेके हेतु हैं और अनेक जन्मार्जित संचित कर्मों के अंश विशेष निर्मित प्रारब्ध का भोग करना ही इसके जन्म का कारण है।

कर्म या तो भोग से नाश होते हैं या प्रायश्चित्त निष्काम कर्म उपासनादि साधनोंसे नष्ट होते हैं ।
इनका सर्वतोभाव से नाश परमात्मा की प्राप्ति से होता है । जो निष्काम भावसे सदा सर्वदा परमात्मा का स्मरण करते हुए मन-बुद्धि परमात्मा को अर्पण करके समस्त कार्य परमात्मा के लिये ही करते हैं, उनकी अन्त समयकी वासना परमात्माकी प्राप्ति होती है। भगवान्‌ कहते हैं--

तस्मात्‌ सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌॥
........( गीता ८ । ७ )

‘अतएव हे अर्जुन! तू सब समय निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर, इसप्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन बुद्धिसे युक्त हुआ तू निस्सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा।’

इस स्थितिमें तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होनेके कारण अज्ञानसहित पुरुषके सभी कर्म नाश हो जाते हैं। इनसे उसका आवागमन सदाके लिये मिट जाता है। यही मुक्ति है, इसीका नाम परमपदकी प्राप्ति है, यही जीवका चरम लक्ष्य है। इस मुक्तिके दो भेद हैं-एक सद्योमुक्ति और दूसरी क्रममुक्ति। इनमें क्रममुक्तिका वर्णन तो देवयान-मार्गके प्रकरणमें ऊपर आ चुका है। सद्योमुक्ति दो प्रकारकी होती है-जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 17)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:




सूक्ष्मदेह का आना जाना कर्मबन्धन न छूटने तक चला ही करता है |
प्रलयमें भी सूक्ष्म शरीर रहता है--

प्रलयकाल में भी जीवों के यह सत्रह तत्त्वों के शरीर ब्रह्माके समष्टि सूक्ष्मशरीरमें अपने अपने संचितकर्म-संस्कारों सहित विश्राम करते हैं और सृष्टिकी आदिमें उसीके द्वारा पुनः इनकी रचना हो जाती है; ( गीता ८ । १८ )। महाप्रलयमें ब्रह्मा सहित समष्टि व्यष्टि सम्पूर्ण सूक्ष्म शरीर ब्रह्मा के शान्त होनेपर शान्त हो जाते हैं, उस समय एक मूल प्रकृति रहती है, जिसको अव्याकृत माया कहते हैं। उसी महाकाल में जीवों के समस्त कारण शरीर अमुक कर्म-संस्कारों सहित अविकसित रूप से विश्राम पाते हैं। सृष्टिकी आदिमें सृष्टिके आदिपुरुष द्वारा ये सब पुनः रचे जाते हैं; ( गीता १४ । ३-४ )। अर्थात्‌ परमात्मारूप अधिष्ठाता के सकाश से प्रकृति ही चराचरसहित इस जगत्‌ को रचती है, इसी तरह यह संसार आवागमनरूप चक्र में घूमता रहता है; ( गीता ९ । १० )। महाप्रलय में पुरुष और उसकी शक्तिरूपा प्रकृति-- यह दो ही वस्तु रह जाती है, उस समय जीवों का प्रकृतिसहित पुरुष में लय हुआ करता है, इसीसे सृष्टि की आदि में उनका पुनरुत्थान होता है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 16)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

यहां यह एक शङ्का बाकी रह जाती है कि श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय के २२वें श्लोक में कहा है-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
‘जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नवीन वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त करता है।’

इसका यदि यह अर्थ समझा जाय कि इस शरीरसे वियोग होते ही जीव उसी क्षण दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है तो इससे दूसरा शरीर पहलेसे ही तैयार होना चाहिये और जब दूसरा तैयार ही है, तब कहीं आने जाने स्वर्ग नरकादि भोगने की बात कैसे सिद्ध होती है, परन्तु गीता स्वयं तीन गतियां निर्देश कर आना जाना स्वीकार करती है। इसमें परस्पर विरोध आता है, इसका क्या समाधान है?

इसका समाधान यह है कि यह शङ्का ही ठीक नहीं है। भगवान्‌ ने इस सम्बन्ध में यह नहीं कहा कि, मरते ही जीव को दूसरा ‘स्थूल’ देह ‘उसी समय तुरन्त ही’ मिल जाता है। एक मनुष्य कई जगह घूमकर घर आता है और घर आकर वह अपनी यात्रा का बयान करता हुआ कहता है ‘मैं बम्बई से कलकत्ते पहुंचा, वहां से कानपुर और कानपुर से दिल्ली चला आया।’ इस कथन से क्या यह अर्थ निकलता है कि वह बम्बई छोड़ते ही कलकत्ते में प्रवेश कर गया था या कानपुर से दिल्ली उसी दम आगया ? रास्ते का वर्णन स्पष्ट न होनेपर भी इसके अन्दर ही है, इसीप्रकार जीवका भी देह परिवर्तनके लिये लोकान्तरों में जाना समझना चाहिये। रही नयी देह मिलने की बात, सो देह तो अवश्य मिलती है परन्तु वह स्थूल नहीं होती है। समष्टि वायुके साथ सूक्ष्मशरीर मिलकर एक वायुमय देह बन जाता है, जो ऊर्ध्व-गामियोंका प्रकाशमय तैजस, नरक-गामियोंको तमोमय प्रेत पिशाच आदिका होता है। वह सूक्ष्म होनेसे हम लोगोंकी स्थूलदृष्टिसे दीखता नहीं। इसलिये यह शङ्का निरर्थक है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 15)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

चौबीस तत्त्वोंके स्थूल शरीरमेंसे निकलकर जब यह जीव बाहर आता है, तब स्थूल देह तो यहीं रह जाता है। प्राणमय कोषवाला सत्रह तत्त्वोंका सूक्ष्म शरीर इसमेंसे निकलकर अन्य शरीरमें चला जाता है। भगवान्‌ने कहा है-

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
शरीरं यदवाप्नोति यञ्चाप्युत्‌क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्‌॥
( गीता १५ । ७ - ८ )

इस देहमें यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन त्रिगुणमयी मायामें स्थित पांचों इन्द्रियोंको आकर्षित करता है। जैसे गन्धके स्थानसे वायु गन्धको ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिका स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीरको त्यागता है, उससे मनसहित इन इन्द्रियोंको ग्रहण करके, फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है।’

प्राण वायु ही उसका शरीर है, उसके साथ प्रधानता से पाँच ज्ञानेन्द्रियां और छठा मन (अन्तःकरण ) जाता है, इसीका विस्तार सत्रह तत्त्व हैं। यही सत्रह तत्त्वोंका शरीर शुभाशुभ कर्मोंके संस्कारके साथ जीवके साथ जाता है।

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रविवार, 19 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 14)

ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


मायासहित ब्रह्ममें लय होनेके कारण उस समय जीवका सम्बन्ध सुखसे होता है। इसीको आनन्दमय कोष कहते हैं। इसीसे इस अवस्थासे जागनेपर यह कहता है कि ‘मैं बहुत सुखसे सोया,’ उसे और किसी बातका ज्ञान नहीं था, यही अज्ञान है। इस अज्ञानका नाम ही माया-प्रकृति है। सुखसे सोया, इससे सिद्ध होता है कि उसे आनन्दका अनुभव था। सुखरूपमें नित्य स्थित होनेपर भी वह प्रकृति या अज्ञानमें रहने के कारण वापस आता है। घटमें जल भरकर उसका मुख अच्छी तरह बन्द करके उसे अनन्त जलके समुद्रमें छोड़ दिया गया और फिर वापस निकाला तब वह घड़ेके अन्दर ज्योंका त्यों बाहर निकल आया, घड़ा न होता तो वह जल समुद्र के अनन्त जलमें मिलकर एक हो जाता। इसीप्रकार अज्ञानमें रहनेके कारण सुखरूप ब्रह्ममें जानेपर भी जीवको ज्योंका त्यों लौट आना पड़ता है। अस्तु !

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................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३

 



जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 13)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



स्वप्नावस्था में जीव की स्थिति सूक्ष्म शरीर में रहती है, सूक्ष्म शरीर में सत्रह तत्त्व माने गये हैं---पांच प्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियां, उनके कारणरूप पांच सूक्ष्म तन्मात्राएं तथा मन और बुद्धि। यह सत्रह तत्त्व हैं। कोई कोई आचार्य पांच सूक्ष्म तन्मात्राओं की जगह पांच कर्मेन्द्रियां लेते हैं। पञ्च तन्मात्रा लेनेवाले कर्मेन्द्रियों को ज्ञानेन्द्रियों के अन्तर्गत मानते हैं और पांच कर्मेन्द्रियां माननेवाले पञ्च तन्मात्राओंको उनके कार्यरूप ज्ञानेन्द्रियोंके अन्तर्गत मान लेते हैं। किसी तरह भी मानें, अधिकांश मनस्वियोंने तत्त्व सत्रह ही बतलाये हैं, कहीं इनका ही कुछ विस्तार और कहीं कुछ संकोच कर दिया गया है।

इस सूक्ष्मशरीरके अन्तर्गत तीन कोश माने गये हैं-प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय। सब पांच कोश हैं , जिनमें स्थूल देह तो अन्नमय कोश है। यह पांचभौतिक शरीर पांच भूतोंका भण्डार है, इसके अन्दरके सूक्ष्मशरीरमें पहला प्राणमय कोश है, जिसमें पञ्च प्राण हैं। उसके अन्दर मनोमय कोष है, इसमें मन और इन्द्रियां हैं। उसके अन्दर विज्ञानमय ( बुद्धिरूपी ) कोश है, इसमें बुद्धि और पञ्च ज्ञानेन्द्रियां हैं। यही सत्रह तत्त्व हैं। स्वप्नमें इस सूक्ष्मरुपका अभिमानी जीव ही पूर्वकालमें देखे सुने पदार्थोंको अपने अन्दर सूक्ष्मरूपसे देखता है।

जब इसकी स्थिति कारण शरीर में होती है, तब अव्याकृत माया प्रकृतिरूपी एक तत्त्व से इसका सम्बन्ध हो जाता है। इस समय सभी तत्त्व उस कारणरूप प्रकृति में लय हो जाते हैं । इसीसे तब उस जीव को किसी बात का ज्ञान नहीं रहता। इसी गाढ़ निद्रावस्था को सुषुप्ति कहते हैं।

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................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


शनिवार, 18 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 12)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



जीव साथ क्या लाता, ले जाता है ?—

अब प्रधानतः यही बतलाना रहा कि जीव अपने साथ किन किन वस्तुओं को लेजाता है और किन को लाता है। जिस समय यह जीव जाग्रत अवस्था में रहता है, उस समय इसकी स्थिति स्थूल शरीर में रहती है। तब इसका सम्बन्ध पांच प्राणों सहित चौबीस तत्त्वों से रहता है। ( आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वीका सूक्ष्म भावरूप ) पांच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, मन, त्रिगुणमयी मूल प्रकृति, कान, त्वचा, आंख,जिह्वा, नाक यह पांच ज्ञानेन्द्रियां, वाणी, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा यह पांच कर्मेन्द्रियाँ एवं शब्द, स्पर्श रूप,रस और गन्ध यह इन्द्रियोंके पांच विषय। ( गीता १३ । ५ ) यही चौबीस तत्त्व हैं।
इन तत्त्वोंका निरूपण करने वाले आचार्यों ने प्राणों को इसीलिये अलग नहीं बतलाया कि प्राण वायु का ही भेद है, जो पञ्च महाभूतों के अन्दर आ चुका है। योग सांख्य वेदान्त आदि शास्त्रों के अनुसार प्रधानतः तत्त्व चौबीस ही माने गये हैं। प्राणवायु के अलग मानने की आवश्यकता भी नहीं है। भेद बतलानेके लिये ही प्राण अपान समान व्यान उदान नामक वायु के पांच रूप माने गये हैं ।
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................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 11)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



नीच गतिके दो भेद---

जो लोग आत्म-पतनके कारणभूत काम क्रोध लोभ रूपी इस त्रिविध नरक-द्वार में निवास करते हुए आसुरी, राक्षसी और मोहिनी सम्पत्ति की पूंजी एकत्र करते हैं, गीता के उपर्युक्त सिद्धान्तों के अनुसार उनकी गतिके प्रधानतः दो भेद हैं--
( १ ) बारम्बार तिर्यक्‌ आदि आसुरी योनियों में जन्म लेना और
( २ ) उनसे भी अधम भूत, प्रेत पिशाचादि गतियों का या कुम्भीपाक अवीचि असिपत्र आदि नरकों को प्राप्त होकर वहां की रोमाञ्चकारी दारुण यन्त्रणाओं को भोगना !

इनमें जो तिर्यगादि योनियों में जाते हैं, वे जीव तो मृत्युके पश्चात्‌ सूक्ष्मशरीर से समष्टि वायु के साथ मिलकर तिर्यगादि योनियों के खाद्य पदार्थों में मिलकर वीर्य द्वारा शरीर में प्रवेश करके गर्भ की अवधि बीतने पर उत्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार अण्डज प्राणियों की भी उत्पत्ति होती है। उद्भिज, स्वेदज जीवों की उत्पत्ति में भी वायुदेवता ही कारण होते हैं, जीवों के प्राणवायुको समष्टि वायु देवता अपनेरूप में भरकर जल पसीने आदि द्वारा स्वेदज प्राणियों को और वायु पृथ्वी जल आदिके साथ उनको सम्बन्धित कर बीजमें प्रविष्ट करवाकर पृथ्वीसे उत्पन्न होनेवाले वृक्षादि जड़ योनियों में उत्पन्न कराते हैं।
यह वायुदेवता ही यमराज के दूतके स्वरूपमें उस पापी को दीखते हैं, जो नारकी या प्रेतादि योनियों में जानेवाला होता है। इसीकी चर्चा गरुड़पुराण तथा अन्यान्य पुराणोंमें जहां पापों की गति का वर्णन है, वहां की गयी है। यह समस्त कार्य सबके स्वामी और नियन्ता ईश्वर की शक्ति से ऐसा नियमित होता है कि जिसमें कहीं किसी से भूल की गुञ्जाइश नहीं होती ! इसी परमात्मशक्ति की ओर से नियुक्त देवताओं द्वारा परवश होकर जीव अधम और उत्तम गतियों में जाता आता है। यह नियन्त्रण न होता तो, न तो कोई जीव, कम से कम व्यवस्थापक के अभाव में पापों का फल भोगने के लिये कहीं जाता और न भोग ही सकता। अवश्य ही सुख भोगने के लिये जीव लोकान्तर में जाना चाहता, पर वह भी लेजाने वाले के अभाव में मार्ग से अनभिज्ञ रहने के कारण नहीं जा पाता ।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 10)

 

ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


अधोगति---

अधःगतिको प्राप्त होनेवाले वे जीव हैं, जो अनेक प्रकारके पापोंद्वारा अपना समस्त जीवन कलङ्कित किये हुए होते हैं, उनके अन्तकालकी वासना कर्मानुसार तमोमयी ही होती है, इससे वे नीच गतिको प्राप्त होते हैं।

जो लोग अहंकार, बल, घमण्ड, काम और क्रोधादिके परायण रहते हैं, परनिन्दा करते हैं, अपने तथा पराये सभीके शरीरमें स्थित अन्तर्यामी परमात्मासे द्वेष करते हैं। ऐसे द्वेषी, पापाचारी, क्रूरकर्मी नराधम मनुष्य सृष्टिके नियन्त्रणकर्ता भगवान्‌के विधानसे बारम्बार आसुरी योनियोंमें उत्पन्न होते हैं और आगे चलकर वे उससे भी अति नीच गतिको प्राप्त होते हैं ( गीता १६ । १८ से २० )।

इस नीच गतिमें प्रधान हेतु काम, क्रोध और लोभ है। इन्हीं तीनोंसे आसुरी सम्पत्तिका संग्रह होता है। भगवान्‌ने इसीलिये इनका त्याग करनेकी आज्ञा दी है-

त्रिविधं - नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्त्था लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥
...............( गीता १६ । २१ )

काम-क्रोध तथा लोभ यह तीन प्रकारके नरकके द्वार अर्थात्‌ सब अनर्थोंके मूल और नरककी प्राप्तिमें हेतु हैं, यह आत्माका नाश करनेवाले यानी उसे अधोगतिमें ले जानेवाले हैं, इससे इन तीनोंको त्याग देना चाहिये।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 09)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:




ऊर्ध्व गति—

श्रुति कहती है-
‘तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन्ब्राह्मणोयोनिं व क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाऽथ य इह कपूयचरणा अभ्यासो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरञ्श्र्वयोनिं वा सूकरयोनिं व चाण्डालयोनिं वा।’
………..( छान्दोग्य उ० ५ । १० । ७ )

इनमें जिनका आचरण अच्छा होता है यानी जिनका पुण्य संचय होता है वे शीघ्र ही किसी ब्राह्मण क्षत्रिय या वैश्यकी रमणीय योनिको प्राप्त होता है। ऐसे ही जिनका आचरण बुरा होता है अर्थात्‌ जिनके पापका संचय होता है वे किसी श्वान, सूकर या चाण्डालकी अधम योनिको प्राप्त होते हैं।’

यह ऊर्ध्व गति के भेद और एक से वापस न आने और दूसरी से लौटकर आने का क्रम हुआ |

मध्य गति---
मध्यगति यह मनुष्यलोक को प्राप्त होनेवाले जीवोंकी रजोगुणकी वृद्धिमें मृत्यु होनेपर उनका प्राणवायु सूक्ष्मशरीर सहित समष्टि लौकिक वायुमें मिल जाता है। व्यष्टि प्राणवायुको समष्टि प्राणवायु अपनेमें मिलाकर इस लोकमें जिस योनिमें जीवको जाना चाहिये, उसीके खाद्य पदार्थमें उसे पहुंचा देता है, यह वायुदेवता ही इसके योनि परिवर्तन का प्रधान साधक होता है, जो सर्वशक्तिमान‌ ईश्वर की आज्ञा और उसके निर्भ्रान्त विधान के अनुसार जीव को उसके कर्मानुसार भिन्न भिन्न मनुष्यों के खाद्यपदार्थों द्वारा उनके पक्वाशय में पहुंचाकर उपर्युक्त प्रकार के वीर्यरूप में परिणत कर मनुष्यरूप में उत्पन्न कराता है।

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................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


गुरुवार, 16 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 08)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


ऊर्ध्व गति—

वापस लौटनेका क्रम—

स्वर्गादिसे वापस लौटनेका क्रम उपनिषदोंके अनुसार यह है--

तस्मिन्यावत्सम्पातमुषित्वाऽयैतमेवाध्वानं पुनर्निवर्त्तन्ते, यथैतमाकाशमाकाशाद्वायुं वायुर्भूत्वा धूमो भवति, धूमो भूत्वाऽभ्रं भवति। अभ्रं भूत्वा मेघो भवति, मेघो भूत्वा प्रवर्षति, त इह व्रीहियवा ओषधिवनस्पतयस्तिलमाषा इति जायन्तेऽतो वै खलु दुर्निष्प्रपतरं यो यो ह्यन्नमत्ति यो रेतः सिञ्चति तद्‌भूय एव भवति।’ .......( छान्दोग्य उ० ५ । १० । ५-६ )

कर्मयोग की अवधि तक देवभोगों को भोगने के बाद वहां से गिरते समय जीव पहले आकाशरूप होता है, आकाश से वायु, वायु से धूम, धूमसे अभ्र और अभ्र से मेघ होते हैं। मेघ से जलरूप में बरसते हैं और भूमि पर्वत नदी आदि में गिरकर, खेतों में वे व्रीहि, यव, औषधि वनस्पति, तिल, आदि खाद्य पदार्थोंमें सम्बन्धित होकर पुरुषोंके द्वारा खाये जाते हैं। इसप्रकार पुरुषके शरीरमें पहुंचकर रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा, अस्थि आदि होते हुए अन्तमें वीर्य में सम्मिलित होकर शुक्र-सिंचनके साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं, वहां गर्भकाल की अवधि तक माता के खाये हुए अन्न जल से पालित होते हुए समय पूरा होने पर अपान वायु की प्रेरणा से मल मूत्र की तरह वेग पाकर स्थूलरूप में बाहर निकल आते हैं। कोई कोई ऐसा भी मानते हैं कि गर्भ में शरीर पूरा निर्माण हो जानेपर उसमें जीव आता है परन्तु यह बात ठीक नहीं मालूम होती। बिना चैतन्य के गर्भ में बालक का बढ़ना संभव नहीं । यह लौटकर आनेवाले जीव कर्मानुसार मनुष्य या पशु आदि योनियों को प्राप्त होते हैं।

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................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 07)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



ऊर्ध्व गति—

ये धूम, रात्रि और अर्चि, दिन नामक भिन्न भिन्न लोकों के अभिमानी देवता हैं, जिनका रूप भी उन्हीं नामों के अनुसार है। जीव इन देवताओं के समान रूप को प्राप्तकर क्रमशः आगे बढ़ता है। इनमेंसे अर्चिमार्गवाला प्रकाशमय लोकोंके मार्गसे प्रकाशपथके अभिमानी देवताओंद्वारा ले जाया जाकर क्रमशः विद्युत लोकतक पहुंचकर अमानव पुरुषके द्वारा बड़े सम्मानके साथ भगवान्‌ के सर्वोत्तम दिव्य परमधाममें पहुंच जाता है। इसीको ब्रह्मोपासक ब्रह्मलोक का शेष भाग-सर्वोच्च गति, श्रीकृष्ण के उपासक दिव्य गोलोक, श्रीराम के उपासक दिव्य साकेतलोक, शैव शिवलोक, जैन मोक्षशिला, मुसलमान सातवाँ आसमान और ईसाई स्वर्ग कहते हैं।

इस दिव्य धाम में पहुंचने वाला महापुरुष सारे लोकों और मार्गों को लाँघता हुआ एक प्रकाशमय दिव्य स्थानमें स्थित होता है, जहां उसमें सभी सिद्धियां और सभी प्रकार की शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं । वह कल्पपर्यन्त अर्थात्‌ ब्रह्मा के आयु तक वहां दिव्यभाव से रहकर अन्त में भगवान्‌ में मिल जाता है । अथवा भगवदिच्छा से भगवान्‌ के अवतार की ज्यों बन्धनमुक्त अवस्था में ही लोकहितार्थ संसार में आ भी सकता है। ऐसे ही महात्मा को कारक पुरुष कहते हैं ।

धूममार्ग के अभिमानी देवगण और इनके लोक भी सभी प्रकाशमय हैं, परन्तु इनका प्रकाश अर्चिमार्गवालोंकी अपेक्षा बहुत कम है तथा ये जीवको मायामय विषयभोग भोगनेवाले मार्गोंमें ले जाकर ऐसे लोकमें पहुंचाते हैं, जहांसे वापस लौटना पड़ता है, इसीसे यह अन्धकारके अभिमानी बतलाये गये हैं। इस मार्गमें भी जीव देवताओंकी तद्रूपताको प्राप्त करता हुआ चन्द्रमाकी रश्मियोंके रूपमें होकर उन देवताओंके द्वार ले जाया हुआ अन्तमें चन्द्रलोकको प्राप्त होता है और वहांसे भोग भोगकर पुण्यक्षय होते ही वापस लौट आता है।

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................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


बुधवार, 15 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 06)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



ऊर्ध्व गति—

श्रुति कहती है-
‘ते य एवमेतद्विदुः ये चामी अरण्ये श्रद्धाँ सत्यमुपासते तेऽर्च्चिरभिसम्भवन्ति, अर्चिषोऽहरह्न, आपूर्य्यमाणपक्षमापूर्य्यमाणपक्षाद्यान्‌ षण्मासानुदड्‌ङादित्य एति मासेभ्यो देवलोकं देवलोकादादित्यमादित्याद्वेद्युतं, तान्‌ वैद्युतान्‌ पुरुषो मानस एत्य ब्रह्मलोकान्‌ गमयति ते ते ब्रह्मलोकेषु पराः। परावतो वसन्ति तेषां न पुनरावृत्तिः॥’
………( बृहदारण्य उ० २ । ६ )

‘जिनको ज्ञान होता है, जो अरण्य में श्रद्धायुक्त होकर सत्य की उपासना करते हैं, वे अर्चिरूप होते हैं, अर्चि से दिन रूप होते हैं, दिन से शुक्लपक्षरूप होते हैं, शुक्लपक्ष से उत्तरायणरूप होते हैं, उत्तरायण से देवलोकरूप होते हैं, देवलोक से आदित्यरूप होते हैं, आदित्य से विद्युतरूप होते हैं, यहां से अमानव पुरुष उन्हें ब्रह्मलोक में ले जाते हैं। वहां अनन्त वर्षों तक वह रहते हैं, उनको वापस नहीं लौटना पड़ता ।’ यह देवयान मार्ग है । एवं--

‘अथ ये यज्ञेन दानेन तपसा लोकाञ्जयन्ति ते धूममभिसम्भवन्ति धूमाद्रात्रिँ रात्रेरपक्षीयमाणपक्षमपक्षीयमाणपक्षाद्यान्‌ षण्मासान्‌ दक्षिणाऽऽदित्य एति मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकाञ्चन्द्रं ते चन्द्रं प्राप्यान्नं भवन्ति ताँस्तत्र देवा यथा सोमँराजाननाप्यायस्वापक्षीयस्त्वेत्येवमनाँस्तत्र भक्षयन्ति.....।’
……..( बृहदारण्यक उ० २ । ६ )

जो सकाम भाव से यज्ञ-दान तथा तपद्वारा लोकों पर विजय प्राप्त करते हैं, वे धूम को प्राप्त होते हैं, धूम से रात्रिरूप होते हैं, रात्रि से कृष्णपक्षरूप होते हैं, कृष्णपक्ष से दक्षिणायन को प्राप्त होते हैं, दक्षिणायन से पितृलोक को और वहां से चन्द्रलोक को प्राप्त होते हैं। चन्द्रलोक प्राप्त होनेपर वे अन्नरूप होते हैं...और देवता उनको भक्षण करते हैं।’ यहां ‘अन्न’ होने और ‘भक्षण’ करनेसे यह मतलब है कि वे देवताओं की खाद्य वस्तु में प्रविष्ट होकर उनके द्वारा खाये जाते हैं और फिर उनसे देवरूप में उत्पन्न होते हैं। अथवा ‘अन्न’ शब्द से उन जीवों को देवताओं का आश्रयी समझना चाहिये। नौकर को भी अन्न कहते हैं, सेवा करने वाले पशुओं को भी अन्न कहते हैं-- "पशवः अन्नम्‌" आदि वाक्यों से यह सिद्ध है। वे देवताओं के नौकर होने से अपने सुखों से वञ्चित नहीं हो सकते। यह पितृयान मार्ग है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........

................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥  श्रीमद्भागवतमहापुराण  प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५) विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और  गान्धारीका वनमे...