शनिवार, 30 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौथा अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध चौथा अध्याय..(पोस्ट०५)

नाभाग और अम्बरीष की कथा

आरिराधयिषुः कृष्णं महिष्या तुल्यशीलया ।
युक्तः सांवत्सरं वीरो दधार द्वादशीव्रतम् ॥ २९ ॥
व्रतान्ते कार्तिके मासि त्रिरात्रं समुपोषितः ।
स्नातः कदाचित् कालिन्द्यां हरिं मधुवनेऽर्चयत् ॥ ३० ॥
महाभिषेकविधिना सर्वोपस्करसम्पदा ।
अभिषिच्याम्बराकल्पैः गन्धमाल्यार्हणादिभिः ॥ ३१ ॥
तद्‍गतान्तरभावेन पूजयामास केशवम् ।
ब्राह्मणांश्च महाभागान् सिद्धार्थानपि भक्तितः ॥ ३२ ॥
गवां रुक्मविषाणीनां रूप्याङ्‌घ्रीणां सुवाससाम् ।
पयःशीलवयोरूप वत्सोपस्करसंपदाम् ॥ ३३ ॥
प्राहिणोत् साधुविप्रेभ्यो गृहेषु न्यर्बुदानि षट् ।
भोजयित्वा द्विजानग्रे स्वाद्वन्नं गुणवत्तमम् ॥ ३४ ॥
लब्धकामैः अनुज्ञातः पारणायोपचक्रमे ।
तस्य तर्ह्यतिथिः साक्षात् दुर्वासा भगवानभूत् ॥ ३५ ॥

राजा अम्बरीषकी पत्नी भी उन्हींके समान धर्मशील, संसार से विरक्त एवं भक्तिपरायण थीं। एक बार उन्होंने अपनी पत्नीके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी आराधना करनेके लिये एक वर्षतक द्वादशीप्रधान एकादशी-व्रत करनेका नियम ग्रहण किया ॥ २९ ॥ व्रतकी समाप्ति होनेपर कार्तिक महीनेमें उन्होंने तीन रातका उपवास किया और एक दिन यमुनाजीमें स्नान करके मधुवनमें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी पूजा की ॥ ३० ॥ उन्होंने महाभिषेककी विधिसे सब प्रकारकी सामग्री और सम्पत्ति द्वारा भगवान्‌का अभिषेक किया और हृदयसे तन्मय होकर वस्त्र, आभूषण, चन्दन, माला एवं अघ्र्य आदिके द्वारा उनकी पूजा की। यद्यपि महाभाग्यवान् ब्राह्मणोंको इस पूजाकी कोई आवश्यकता नहीं थी, स्वयं ही उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थींवे सिद्ध थेतथापि राजा अम्बरीषने भक्तिभावसे उनका पूजन किया। तत्पश्चात् पहले ब्राह्मणोंको स्वादिष्ट और अत्यन्त गुणकारी भोजन कराकर उन लोगोंके घर साठ करोड़ गौएँ सुसज्जित करके भेज दीं। उन गौओंके सींग सुवर्णसे और खुर चाँदीसे मढ़े हुए थे। सुन्दर-सुन्दर वस्त्र उन्हें ओढ़ा दिये गये थे। वे गौएँ बड़ी सुशील, छोटी अवस्थाकी, देखनेमें सुन्दर, बछड़ेवाली और खूब दूध देनेवाली थीं। उनके साथ दुहनेकी उपयुक्त सामग्री भी उन्होंने भेजवा दी थी ॥ ३१३४ ॥ जब ब्राह्मणोंको सब कुछ मिल चुका, तब राजाने उन लोगोंसे आज्ञा लेकर व्रतका पारण करनेकी तैयारी की। उसी समय शाप और वरदान देनेमें समर्थ स्वयं दुर्वासाजी भी उनके यहाँ अतिथिके रूपमें पधारे ॥ ३५ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)

नाभाग और अम्बरीष की कथा

पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे
     शिरो हृषीकेश पदाभिवन्दने ।
 कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया
     यथोत्तमश्लोक जनाश्रया रतिः ॥ २० ॥
 एवं सदा कर्मकलापमात्मनः
     परेऽधियज्ञे भगवत्यधोक्षजे ।
 सर्वात्मभावं विदधन्महीमिमां
     तन्निष्ठविप्राभिहितः शशास ह ॥ २१ ॥
 ईजेऽश्वमेधैरधियज्ञमीश्वरं
     महाविभूत्योपचितांगदक्षिणैः ।
 ततैर्वसिष्ठासितगौतमादिभिः
     धन्वन्यभिस्रोतमसौ सरस्वतीम् ॥ २२ ॥
 यस्य क्रतुषु गीर्वाणैः सदस्या ऋत्विजो जनाः ।
 तुल्यरूपाः चानिमिषा व्यदृश्यन्त सुवाससः ॥ २३ ॥
 स्वर्गो न प्रार्थितो यस्य मनुजैः अमरप्रियः ।
 श्रृण्वद्भिः उपगायद्‌भिः उत्तमश्लोकचेष्टितम् ॥ २४ ॥
 समर्द्धयन्ति तान् कामाः स्वाराज्यपरिभाविताः ।
 दुर्लभा नापि सिद्धानां मुकुन्दं हृदि पश्यतः ॥ २५ ॥
 स इत्थं भक्तियोगेन तपोयुक्तेन पार्थिवः ।
 स्वधर्मेण हरिं प्रीणन् संगान् सर्वान् शनैर्जहौ ॥ २६ ॥
 गृहेषु दारेषु सुतेषु बन्धुषु
     द्विपोत्तमस्यन्दन वाजिवस्तुषु ।
 अक्षय्यरत्‍नाभरणाम्बरादिषु
     अनन्तकोशेषु अकरोत् असन् मतिम् ॥ २७ ॥
 तस्मा अदाद् हरिश्चक्रं प्रत्यनीक-भयावहम् ।
 एकान्तभक्तिभावेन प्रीतो भृत्याभिरक्षणम् ॥ २८ ॥

अम्बरीष के पैर भगवान्‌ के क्षेत्र आदि की पैदल यात्रा करने में ही लगे रहते और वे सिर से भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरणकमलों की वन्दना किया करते। राजा अम्बरीष ने माला, चन्दन आदि भोग-सामग्री को भगवान्‌ की सेवामें समर्पित कर दयिा था। भोगनेकी इच्छासे नहीं, बल्कि इसलिये कि इससे वह भगवत्प्रेम प्राप्त हो, जो पवित्रकीर्ति भगवान्‌ के निज-जनों में ही निवास करता है ॥ २० ॥ इस प्रकार उन्होंने अपने सारे कर्म यज्ञपुरुष, इन्द्रियातीत भगवान्‌ के प्रति उन्हें सर्वात्मा एवं सर्वस्वरूप समझकर समर्पित कर दिये थे और भगवद्भक्त ब्राह्मणों की आज्ञा के अनुसार वे इस पृथ्वी का शासन करते थे ॥ २१ ॥ उन्होंने धन्वनाम के निर्जल देश में सरस्वती नदी के प्रवाहके सामने वसिष्ठ, असित, गौतम आदि भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा महान् ऐश्वर्य के कारण सर्वाङ्गपरिपूर्ण तथा बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले अनेकों अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञाधिपति भगवान्‌ की आराधना की थी ॥ २२ ॥ उनके यज्ञोंमें देवताओंके साथ जब सदस्य और ऋत्विज् बैठ जाते थे, तब उनकी पलकें नहीं पड़ती थीं और वे अपने सुन्दर वस्त्र और वैसे ही रूपके कारण देवताओंके समान दिखायी पड़ते थे ॥ २३ ॥ उनकी प्रजा महात्माओंके द्वारा गाये हुए भगवान्‌के उत्तम चरित्रोंका किसी समय बड़े प्रेमसे श्रवण करती और किसी समय उनका गान करती। इस प्रकार उनके राज्यके मनुष्य देवताओंके अत्यन्त प्यारे स्वर्गकी भी इच्छा नहीं करते ॥ २४ ॥ वे अपने हृदयमें अनन्त प्रेमका दान करनेवाले श्रीहरिका नित्य-निरन्तर दर्शन करते रहते थे। इसलिये उन लोगोंको वह भोग-सामग्री भी हर्षित नहीं कर पाती थी, जो बड़े-बड़े सिद्धोंको भी दुर्लभ है। वे वस्तुएँ उनके आत्मानन्दके सामने अत्यन्त तुच्छ और तिरस्कृत थीं ॥ २५ ॥ राजा अम्बरीष इस प्रकार तपस्यासे युक्त भक्तियोग और प्रजापालनरूप स्वधर्मके द्वारा भगवान्‌को प्रसन्न करने लगे और धीरे- धीरे उन्होंने सब प्रकारकी आसक्तियोंका परित्याग कर दिया ॥ २६ ॥ घर, स्त्री, पुत्र, भाई-बन्धु, बड़े-बड़े हाथी, रथ, घोड़े एवं पैदलोंकी चतुरङ्गिणी सेना, अक्षय रत्न, आभूषण और आयुध आदि समस्त वस्तुओं तथा कभी समाप्त न होनेवाले कोशोंके सम्बन्धमें उनका ऐसा दृढ़ निश्चय था कि वे सब-के-सब असत्य हैं ॥ २७ ॥ उनकी अनन्य प्रेममयी भक्तिसे प्रसन्न होकर भगवान्‌ने उनकी रक्षाके लिये सुदर्शन चक्रको नियुक्त कर दिया था, जो विरोधियोंको भयभीत करनेवाला एवं भगवद्भक्तोंकी रक्षा करनेवाला है ॥ २८ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

नाभाग और अम्बरीष की कथा

श्रीराजोवाच ।
भगवन् श्रोतुमिच्छामि राजर्षेः तस्य धीमतः ।
न प्राभूद् यत्र निर्मुक्तो ब्रह्मदण्डो दुरत्ययः ॥ १४ ॥

श्रीशुक उवाच ।
अंबरीषो महाभागः सप्तद्वीपवतीं महीम् ।
अव्ययां च श्रियं लब्ध्वा विभवं चातुलं भुवि ॥ १५ ॥
मेनेऽतिदुर्लभं पुंसां सर्वं तत् स्वप्नसंस्तुतम् ।
विद्वान् विभवनिर्वाणं तमो विशति यत् पुमान् ॥ १६ ॥
वासुदेवे भगवति तद्‍भक्तेषु च साधुषु ।
प्राप्तो भावं परं विश्वं येनेदं लोष्टवत् स्मृतम् ॥ १७ ॥
स वै मनः कृष्णपदारविन्दयोः
     वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने ।
 करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु
     श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ॥ १८ ॥
 मुकुन्दलिंगालयदर्शने दृशौ
     तद्‍भृत्यगात्रस्पर्शेङ्‌गसंगमम् ।
 घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे
     श्रीमत् तुलस्या रसनां तदर्पिते ॥ १९ ॥

राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! मैं परमज्ञानी राजर्षि अम्बरीषका चरित्र सुनना चाहता हूँ। ब्राह्मणने क्रोधित होकर उन्हें ऐसा दण्ड दिया, जो किसी प्रकार टाला नहीं जा सकता; परंतु वह भी उनका कुछ न बिगाड़ सका ॥ १४ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! अम्बरीष बड़े भाग्यवान् थे। पृथ्वीके सातों द्वीप, अचल सम्पत्ति और अतुलनीय ऐश्वर्य उनको प्राप्त था। यद्यपि ये सब साधारण मनुष्योंके लिये अत्यन्त दुर्लभ वस्तुएँ हैं, फिर भी वे इन्हें स्वप्नतुल्य समझते थे। क्योंकि वे जानते थे कि जिस धन-वैभवके लोभमें पडक़र मनुष्य घोर नरकमें जाता है, वह केवल चार दिनकी चाँदनी है। उसका दीपक तो बुझा-बुझाया है ॥ १५-१६ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णमें और उनके प्रेमी साधुओंमें उनका परम प्रेम था। उस प्रेमके प्राप्त हो जानेपर तो यह सारा विश्व और इसकी समस्त सम्पत्तियाँ मिट्टी के ढेले के समान जान पड़ती हैं ॥ १७ ॥ उन्होंने अपने मनको श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्द युगल में, वाणीको भगवद्गुणानुवर्णन में, हाथोंको श्रीहरिमन्दिर के मार्जन-सेवन में और अपने कानोंको भगवान्‌ अच्युतकी मङ्गलमयी कथाके श्रवणमें लगा रखा था ॥ १८ ॥ उन्होंने अपने नेत्र मुकुन्दमूर्ति एवं मन्दिरोंके दर्शनोंमें, अङ्ग-सङ्ग भगवद्भक्तोंके शरीर-स्पर्श में, नासिका उनके चरणकमलोंपर चढ़ी श्रीमती तुलसीके दिव्य गन्धमें और रसना (जिह्वा) को भगवान्‌ के प्रति अर्पित नैवेद्य-प्रसादमें संलग्र कर दिया था ॥ १९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)

नाभाग और अम्बरीष की कथा

तं कश्चित् स्वीकरिष्यन्तं पुरुषः कृष्णदर्शनः ।
 उवाचोत्तरतोऽभ्येत्य ममेदं वास्तुकं वसु ॥ ६ ॥
 ममेदं ऋषिभिः दत्तं इति तर्हि स्म मानवः ।
 स्यान्नौ ते पितरि प्रश्नः पृष्टवान् पितरं यथा ॥ ७ ॥
 यज्ञवास्तुगतं सर्वं उच्छिष्टं ऋषयः क्वचित् ।
 चक्रुर्विभागं रुद्राय स देवः सर्वमर्हति ॥ ८ ॥
 नाभागस्तं प्रणम्याह तवेश किल वास्तुकम् ।
 इत्याह मे पिता ब्रह्मन् शिरसा त्वां प्रसादये ॥ ९ ॥
 यत् ते पितावदद् धर्मं त्वं च सत्यं प्रभाषसे ।
 ददामि ते मन्त्रदृशे ज्ञानं ब्रह्म सनातनम् ॥ १० ॥
 गृहाण द्रविणं दत्तं मत्सत्रे परिशेषितम् ।
 इत्युक्त्वान्तर्हितो रुद्रो भगवान् सत्यवत्सलः ॥ ११ ॥
 य एतत् संस्मरेत् प्रातः सायं च सुसमाहितः ।
 कविर्भवति मंत्रज्ञो गतिं चैव तथाऽऽत्मनः ॥ १२ ॥
 नाभागाद् अंबरीषोऽभूत् महाभागवतः कृती ।
 नास्पृशद् ब्रह्मशापोऽपि यं न प्रतिहतः क्वचित् ॥ १३ ॥

जब नाभाग उस धनको लेने लगा, तब उत्तर दिशासे एक काले रंगका पुरुष आया। उसने कहा—‘इस यज्ञभूमिमें जो कुछ बचा हुआ है, वह सब धन मेरा है॥ ६ ॥
नाभागने कहा—‘ऋषियोंने यह धन मुझे दिया है, इसलिये मेरा है।इसपर उस पुरुषने कहा—‘हमारे विवादके विषयमें तुम्हारे पितासे ही प्रश्र किया जाय।तब नाभाग ने जाकर पितासे पूछा ॥ ७ ॥ पिताने कहा—‘एक बार दक्षप्रजापतिके यज्ञमें ऋषिलोग यह निश्चय कर चुके हैं कि यज्ञभूमिमें जो कुछ बच रहता है, वह सब रुद्रदेवका हिस्सा है। इसलिये वह धन तो महादेवजी को ही मिलना चाहिये॥ ८ ॥ नाभाग ने जाकर उन काले रंगके पुरुष रुद्रभगवान्‌ को प्रणाम किया और कहा कि प्रभो ! यज्ञभूमिकी सभी वस्तुएँ आपकी हैं, मेरे पिता ने ऐसा ही कहा है। भगवन् ! मुझसे अपराध हुआ, मैं सिर झुकाकर आपसे क्षमा माँगता हूँ॥ ९ ॥ तब भगवान्‌ रुद्रने कहा—‘तुम्हारे पिताने धर्मके अनुकूल निर्णय दिया है और तुमने भी मुझसे सत्य ही कहा है। तुम वेदोंका अर्थ तो पहलेसे ही जानते हो। अब मैं तुम्हें सनातन ब्रह्मतत्त्वका ज्ञान देता हूँ ॥ १० ॥ यहाँ यज्ञमें बचा हुआ मेरा जो अंश है, यह धन भी मैं तुम्हें ही दे रहा हूँ; तुम इसे स्वीकार करो।इतना कहकर सत्यप्रेमी भगवान्‌ रुद्र अन्तर्धान हो गये ॥ ११ ॥ जो मनुष्य प्रात: और सायंकाल एकाग्रचित्तसे इस आख्यानका स्मरण करता है, वह प्रतिभाशाली एवं वेदज्ञ तो होता ही है, साथ ही अपने स्वरूपको भी जान लेता है ॥ १२ ॥ नाभागके पुत्र हुए अम्बरीष। वे भगवान्‌ के बड़े प्रेमी एवं उदार धर्मात्मा थे। जो ब्रह्मशाप कभी कहीं रोका नहीं जा सका, वह भी अम्बरीषका स्पर्श न कर सका ॥ १३ ॥

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गुरुवार, 28 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)

नाभाग और अम्बरीष की कथा

श्रीशुक उवाच ।
 नाभागो नभगापत्यं यं ततं भ्रातरः कविम् ।
 यविष्ठं व्यभजन् दायं ब्रह्मचारिणमागतम् ॥ १ ॥
 भ्रातरोऽभाङ्‌क्त किं मह्यं भजाम पितरं तव ।
 त्वां ममार्यास्तताभाङ्‌क्षुः मा पुत्रक तदादृथाः ॥ २ ॥
 इमे अंगिरसः सत्रं आसतेऽद्य सुमेधसः ।
 षष्ठं षष्ठं उपेत्याहः कवे मुह्यन्ति कर्मणि ॥ ३ ॥
 तांन् त्वं शंसय सूक्ते द्वे वैश्वदेवे महात्मनः ।
 ते स्वर्यन्तो धनं सत्र परिशेषितमात्मनः ॥ ४ ॥
 दास्यन्ति तेऽथ तान् गच्छ तथा स कृतवान् यथा ।
 तस्मै दत्त्वा ययुः स्वर्गं ते सत्रपरिशेषणम् ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! मनुपुत्र नभग का पुत्र था नाभाग । जब वह दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्यका पालन करके लौटा, तब बड़े भाइयोंने अपनेसे छोटे किन्तु विद्वान् भाई को हिस्से में केवल पिता को ही दिया (सम्पत्ति तो उन्होंने पहले ही आपसमें बाँट ली थी) ॥ १ ॥ उसने अपने भाइयों से पूछा—‘भाइयो ! आपलोगों ने मुझे हिस्सेमें क्या दिया है ?’ तब उन्होंने उत्तर दिया कि हम तुम्हारे हिस्से में पिताजी को ही तुम्हें देते हैं।उसने अपने पिता से जाकर कहा—‘पिताजी ! मेरे बड़े भाइयोंने हिस्सेमें मेरे लिये आपको ही दिया है।पिताने कहा—‘बेटा ! तुम उनकी बात न मानो ॥ २ ॥ देखो, ये बड़े बुद्धिमान् आङ्गिरस-गोत्र के ब्राह्मण इस समय एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। परंतु मेरे विद्वान् पुत्र ! वे प्रत्येक छठे दिन अपने कर्ममें भूल कर बैठते हैं ॥ ३ ॥ तुम उन महात्माओंके पास जाकर उन्हें वैश्वदेवसम्बन्धी दो सूक्त बतला दो; जब वे स्वर्ग जाने लगेंगे, तब यज्ञसे बचा हुआ अपना सारा धन तुम्हें दे देंगे। इसलिये अब तुम उन्हींके पास चले जाओ।उसने अपने पिताके आज्ञानुसार वैसा ही किया। उन आङ्गिरसगोत्री ब्राह्मणों ने भी यज्ञका बचा हुआ धन उसे दे दिया और वे स्वर्ग में चले गये ॥ ४-५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

महर्षि च्यवन और सुकन्या का चरित्र, राजा शर्याति का वंश

अहो राजन् निरुद्धास्ते कालेन हृदि ये कृताः ।
तत्पुत्रपौत्र नप्तॄणां गोत्राणि च न श्रृण्महे ॥ ३२ ॥
कालोऽभियातस्त्रिणव चतुर्युगविकल्पितः ।
तद्‍गच्छ देवदेवांशो बलदेवो महाबलः ॥ ३३ ॥
कन्यारत्‍नमिदं राजन् नररत्‍नाय देहि भोः ।
भुवो भारावताराय भगवान् भूतभावनः ॥ ३४ ॥
अवतीर्णो निजांशेन पुण्यश्रवणकीर्तनः ।
इत्यादिष्टोऽभिवन्द्याजं नृपः स्वपुरमागतः ।
त्यक्तं पुण्यजनत्रासाद्‍भ्रातृभिर्दिक्ष्ववस्थितैः ॥ ३५ ॥
सुतां दत्त्वानवद्याङ्‌गीं बलाय बलशालिने ।
बदर्याख्यं गतो राजा तप्तुं नारायणाश्रमम् ॥ ३६ ॥



महाराज ! तुमने अपने मनमें जिन लोगोंके विषयमें सोच रखा था, वे सब तो काल के गालमें चले गये। अब उनके पुत्र, पौत्र अथवा नातियोंकी तो बात ही क्या है, गोत्रोंके नाम भी नहीं सुनायी पड़ते ॥ ३२ ॥ इस बीचमें सत्ताईस चतुर्युगीका समय बीत चुका है। इसलिये तुम जाओ। इस समय भगवान्‌ नारायणके अंशावतार महाबली बलदेवजी पृथ्वीपर विद्यमान हैं ॥ ३३ ॥ राजन् ! उन्हीं नररत्न को यह कन्यारत्न तुम समर्पित कर दो। जिनके नाम, लीला आदिका श्रवण-कीर्तन बड़ा ही पवित्र हैवे ही प्राणियोंके जीवनसर्वस्व भगवान्‌ पृथ्वीका भार उतारनेके लिये अपने अंशसे अवतीर्ण हुए हैं।राजा ककुद्मीने ब्रह्माजीका यह आदेश प्राप्त करके उनके चरणोंकी वन्दना की और अपने नगरमें चले आये। उनके वंशजोंने यक्षोंके भयसे वह नगरी छोड़ दी थी और जहाँ-तहाँ यों ही निवास कर रहे थे ॥ ३४-३५ ॥ राजा ककुद्मी ने अपनी सर्वाङ्गसुन्दरी पुत्री परम बलशाली बलरामजी को सौंप दी और स्वयं तपस्या करनेके लिये भगवान्‌ नर-नारायणके आश्रम बदरीवन की ओर चल दिये ॥ ३६ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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बुधवार, 27 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

महर्षि च्यवन और सुकन्या का चरित्र, राजा शर्याति का वंश

सोमेन याजयन् वीरं ग्रहं सोमस्य चाग्रहीत् ।
असोमपोः अपि अश्विनोः च्यवनः स्वेन तेजसा ॥ २४ ॥
हन्तुं तमाददे वज्रं सद्यो मन्युरमर्षितः ।
सवज्रं स्तम्भयामास भुजं इन्द्रस्य भार्गवः ॥ २५ ॥
अन्वजानन् ततः सर्वे ग्रहं सोमस्य चाश्विनोः ।
भिषजाविति यत् पूर्वं सोमाहुत्या बहिष्कृतौ ॥ २६ ॥
उत्तानबर्हिरानर्तो भूरिषेण इति त्रयः ।
शर्यातेरभवन् पुत्रा आनर्ताद् रेवतोऽभवत् ॥ २७ ॥
सोऽन्तःसमुद्रे नगरीं विनिर्माय कुशस्थलीम् ।
आस्थितोऽभुङ्‌क्त विषयान् आनर्तादीन् अरिन्दम ॥ २८ ॥
तस्य पुत्रशतं जज्ञे ककुद्मि ज्येष्ठमुत्तमम् ।
ककुद्मी रेवतीं कन्यां स्वां आदाय विभुं गतः ॥ २९ ॥
पुत्र्या वरं परिप्रष्टुं ब्रह्मलोकं अपावृतम् ।
आवर्तमाने गान्धर्वे स्थितोऽलब्धक्षणः क्षणम् ॥ ३० ॥
तदन्त आद्यमानम्य स्वाभिप्रायं न्यवेदयत् ।
तत् श्रुत्वा भगवान् ब्रह्मा प्रहस्य तमुवाच ह ॥ ३१ ॥

महर्षि च्यवन ने वीर शर्यातिसे सोमयज्ञ का अनुष्ठान करवाया और सोमपान के अधिकारी न होने पर भी अपने प्रभाव से अश्विनीकुमारोंको सोमपान कराया ॥ २४ ॥ इन्द्र बहुत जल्दी क्रोध कर बैठते हैं। इसलिये उनसे यह सहा न गया। उन्होंने चिढक़र शर्याति को मारनेके लिये वज्र उठाया। महर्षि च्यवनने वज्रके साथ उनके हाथको वहीं स्तम्भित कर दिया ॥ २५ ॥ तब सब देवताओंने अश्विनीकुमारोंको सोमका भाग देना स्वीकार कर लिया। उन लोगोंने वैद्य होनेके कारण पहले अश्विनीकुमारों का सोमपान से बहिष्कार कर रखा था ॥ २६ ॥
परीक्षित्‌ ! शर्याति के तीन पुत्र थेउत्तानबर्हि, आनर्त और भूरिषेण। आनर्त  से रेवत हुए ॥२७॥ महाराज ! रेवतने समुद्रके भीतर कुशस्थली नामकी एक नगरी बसायी थी। उसीमें रहकर वे आनर्त आदि देशोंका राज्य करते थे ॥ २८ ॥ उनके सौ श्रेष्ठ पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े थे ककुद्मी। ककुद्मी अपनी कन्या रेवतीको लेकर उसके लिये वर पूछनेके उद्देश्यसे ब्रह्माजीके पास गये। उस समय ब्रह्मलोकका रास्ता ऐसे लोगोंके लिये बेरोक-टोक था। ब्रह्मलोकमें गाने-बजानेकी धूम मची हुई थी। बातचीतके लिये अवसर न मिलनके कारण वे कुछ क्षण वहीं ठहर गये ॥ २९-३० ॥ उत्सवके अन्तमें ब्रह्माजीको नमस्कार करके उन्होंने अपना अभिप्राय निवेदन किया। उनकी बात सुनकर भगवान्‌ ब्रह्माजीने हँसकर उनसे कहा ॥ ३१ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

महर्षि च्यवन और सुकन्या का चरित्र, राजा शर्याति का वंश

यक्ष्यमाणोऽथ शर्यातिः च्यवनस्याश्रमं गतः ।
ददर्श दुहितुः पार्श्वे पुरुषं सूर्यवर्चसम् ॥ १८ ॥
राजा दुहितरं प्राह कृतपादाभिवन्दनाम् ।
आशिषश्चाप्रयुञ्जानो नातिप्रीतिमना इव ॥ १९ ॥
चिकीर्षितं ते किमिदं पतिस्त्वया
प्रलम्भितो लोकनमस्कृतो मुनिः ।
यत्त्वं जराग्रस्तमसत्यसम्मतं
विहाय जारं भजसेऽमुमध्वगम् ॥ २० ॥
कथं मतिस्तेऽवगतान्यथा सतां
कुलप्रसूते कुलदूषणं त्विदम् ।
बिभर्षि जारं यदपत्रपा कुलं
पितुश्च भर्तुश्च नयस्यधस्तमः ॥ २१ ॥
एवं ब्रुवाणं पितरं स्मयमाना शुचिस्मिता ।
उवाच तात जामाता तवैष भृगुनन्दनः ॥ २२ ॥
शशंस पित्रे तत् सर्वं वयोरूपाभिलम्भनम् ।
विस्मितः परमप्रीतः तनयां परिषस्वजे ॥ २३ ॥

कुछ समयके बाद यज्ञ करने की इच्छासे राजा शर्याति च्यवन मुनि के आश्रमपर आये। वहाँ उन्होंने देखा कि उनकी कन्या सुकन्याके पास एक सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष बैठा हुआ है ॥ १८ ॥ सुकन्याने उनके चरणोंकी वन्दना की। शर्याति ने उसे आशीर्वाद नहीं दिया और कुछ अप्रसन्न-से होकर बोले ॥ १९ ॥ दुष्टे ! यह तूने क्या किया ? क्या तूने सबके वन्दनीय च्यवन मुनिको धोखा दे दिया ! अवश्य ही तूने उनको बूढ़ा और अपने कामका न समझकर छोड़ दिया और अब तू इस राह चलते जार पुरुषकी सेवा कर रही है ॥ २० ॥ तेरा जन्म तो बड़े ऊँचे कुलमें हुआ था। यह उलटी बुद्धि तुझे कैसे प्राप्त हुई ? तेरा यह व्यवहार तो कुलमें कलङ्क लगानेवाला है। अरे राम-राम ! तू निर्लज्ज होकर जार पुरुषकी सेवा कर रही है और इस प्रकार अपने पिता और पति दोनोंके वंशको घोर नरकमें ले जा रही है॥ २१ ॥ राजा शर्यातिके इस प्रकार कहनेपर पवित्र मुसकानवाली सुकन्याने मुसकराकर कहा—‘पिताजी ! ये आपके जामाता स्वयं भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं॥ २२ ॥ इसके बाद उसने अपने पितासे महर्षि च्यवनके यौवन और सौन्दर्यकी प्राप्तिका सारा वृत्तान्त कह सुनाया। वह सब सुनकर राजा शर्याति अत्यन्त विस्मित हुए। उन्होंने बड़े प्रेमसे अपनी पुत्रीको गलेसे लगा लिया ॥ २३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

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