॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
भगवान् श्रीराम की लीलाओं का
वर्णन
रक्षःपतिः स्वबलनष्टिमवेक्ष्य रुष्ट ।
आरुह्य यानकमथाभिससार रामम् ॥
स्वःस्यन्दने द्युमति मातलिनोपनीते ।
विभ्राजमानमहनन्निशितैः क्षुरप्रैः ॥ २१ ॥
रामस्तमाह पुरुषादपुरीष यन्नः ।
कान्तासमक्षमसतापहृता श्ववत् ते ॥
त्यक्तत्रपस्य फलमद्य जुगुप्सितस्य ।
यच्छामि काल इव कर्तुरलंघ्यवीर्यः ॥ २२ ॥
एवं क्षिपन्धनुषि संधितमुत्ससर्ज ।
बाणं स वज्रमिव तद्हृदयं बिभेद ॥
सोऽसृग् वमन् दशमुखैर्न्यपतद् विमानाद् ।
हाहेति जल्पति जने सुकृतीव रिक्तः ॥ २३ ॥
जब राक्षसराज रावणने देखा कि मेरी सेनाका तो नाश हुआ जा रहा है, तब वह क्रोध में भरकर पुष्पक विमानपर आरूढ़ हो भगवान् श्रीरामके सामने आया। उस समय इन्द्रका सारथि मातलि बड़ा ही तेजस्वी दिव्य रथ लेकर आया और उसपर भगवान् श्रीरामजी विराजमान हुए। रावण अपने तीखे बाणों से उनपर प्रहार करने लगा ॥ २१ ॥ भगवान् श्रीरामजी ने रावण से कहा—‘नीच राक्षस ! तुम कुत्तेकी तरह हमारी अनुपस्थितिमें हमारी प्राणप्रिया पत्नीको हर लाये। तुमने दुष्टताकी हद कर दी ! तुम्हारे-जैसा निर्लज्ज तथा निन्दनीय और कौन होगा। जैसे कालको कोई टाल नहीं सकता—कर्तापनके अभिमानीको वह फल दिये बिना रह नहीं सकता, वैसे ही आज मैं तुम्हें तुम्हारी करनीका फल चखाता हूँ’ ॥ २२ ॥ इस प्रकार रावणको फटकारते हुए भगवान् श्रीरामने अपने धनुषपर चढ़ाया हुआ बाण उसपर छोड़ा। उस बाणने वज्रके समान उसके हृदयको विदीर्ण कर दिया। वह अपने दसों मुखोंसे खून उगलता हुआ विमानसे गिर पड़ा—ठीक वैसे ही, जैसे पुण्यात्मालोग भोग समाप्त होनेपर स्वर्गसे गिर पड़ते हैं। उस समय उसके पुरजन-परिजन ‘हाय-हाय’ करके चिल्लाने लगे ॥ २३ ॥
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से