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मंगलवार, 10 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट..10)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

नारद-राम-संवाद

अरण्यकाण्ड में ऐसा वर्णन आया है‒श्रीरामजी लक्ष्मणजी के सहित,सीताजीके वियोग में घूम रहे थे । वे घूमते-घूमते पम्पा सरोवर पहुँच गये । तो नारदजीके मनमें बात आयी कि मेरे शापको स्वीकार करके भगवान् स्त्री-वियोगमें घूम रहे हैं । उन्होंने देखा कि अभी बड़ा सुन्दर मौका है, एकान्त है । इस समय जाकर पूछें, बात करें । नारदजीने भगवान्‌ को ऐसा शाप दिया कि आपने मेरा विवाह नहीं होने दिया तो आप भी स्त्री के लिये रोते फिरोगे । भगवान्‌ ने शाप स्वीकार कर लिया, परंतु नारदजीका अहित नहीं होने दिया ।

यहाँ नारदजीने पूछा‒‘महाराज ! उस समय आपने मेरा विवाह क्यों नहीं होने दिया ?’ तो भगवान्‌ने कहा‒‘भैया ! एक मेरे ज्ञानी भक्त होते हैं और दूसरे छोटे ‘दास’ भक्त होते हैं; परंतु उन दासोंकी, प्यारे भक्तोंकी मैं रखवाली करता हूँ ।’

करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी ।
जिमि बालक राखइ महतारी ॥
मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी ।
बालक सुत सम दास अमानी 
………………..(मानस, अरण्यकाण्ड, दोहा ४३ । ५, ८)

ज्ञानी भक्त बड़े बेटे हैं । अमानी भक्त छोटे बालकके समान हैं । जैसे, छोटे बालकका माँ विशेष ध्यान रखती है कि यह कहीं साँप, बिच्छू, काँटा न पकड़ ले,कहीं गिर न जाय । वह उसकी विशेष निगाह रखती है, ऐसे ही मैं अपने दासोंकी निगाह रखता हूँ । माँ प्यारसे बच्चेको खिलाती-पिलाती है, प्यार करती है, गोदमें लेती है । परंतु बच्चेको नुकसानवाली कोई बात नहीं करने देती । अपने मनकी बात न करने देनेसे बच्चा कभी-कभी क्या करता है कि गुस्सेमें आकर माँके स्तनको मुँहमें लेते समय काट लेता है, फिर भी माँ उसके मनकी बात नहीं होने देती । माँ इतनी हितैषिणी होती है कि उसका स्तन काटनेपर भी बालकपर स्नेह रखती है, गुस्सा नहीं करती । वह तो फिर भी दूध पिलाती है । वह उसकी परवाह नहीं करती और अहित नहीं होने देती ।

राम ! राम !! राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


सोमवार, 9 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 09)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

सहस नाम सम सुनि सिव बानी ।
जपि जेई पिय संग भवानी ॥
…………….(मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । ६)

‘राम’ नाम सहस्रनामके समान है, भगवान् शंकरके इस वचनको सुनकर पार्वतीजी सदा उनके साथ ‘राम’ नाम जपती रहती हैं । पद्मपुराणमें एक कथा आती है । पार्वतीजी सदा ही विष्णुसहस्रनामका पाठ करके ही भोजन किया करतीं । एक दिन भगवान् शंकर बोले‒‘पार्वती ! आओ भोजन करें ।’ तब पार्वतीजी बोलीं‒‘महाराज ! मेरा अभी सहस्रनामका पाठ बाकी है ।’

भगवान् शंकर बोले‒

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने ॥

पद्मपुराणके उस विष्णुसहस्रनाम में यह श्लोक आया है । राम, राम, राम‒ऐसे तीन बार कहनेसे पूर्णता हो जाती है । ऐसा जो ‘राम’ नाम है, हे वरानने ! हे रमे ! रामे मनोरमे, मैं सहस्रनामके तुल्य इस ‘राम’ नाम में ही रमण कर रहा हूँ । तुम भी उस ‘राम’ नामका उच्चारण करके भोजन कर लो । हर समय भगवान् शंकर राम, राम, राम जप करते रहते हैं । पार्वतीजीने भी फिर ‘राम’ नाम ले लिया और भोजन कर लिया ।

राम ! राम !! राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


रविवार, 8 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 08)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

भगवान् शंकर ने ‘राम’ नाम के प्रभाव से काशी में मुक्ति का क्षेत्र खोल दिया और इसी महामन्त्र के जप से ईश से ‘महेश’ हो गये । अब आगे गोस्वामीजी महाराज कहते हैं‒

महिमा जासु जान गनराऊ ।
प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ ॥
                  ………..………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । ४)

सम्पूर्ण त्रिलोकी की प्रदक्षिणा करके जो सबसे पहले आ जाय, वही सबसे पहले पूजनीय हो‒देवताओंमें ऐसी शर्त होनेसे गणेशजी निराश हो गये, पर नारदजीके कहनेसे गणेशजीने ‘राम’ नाम पृथ्वीपर लिखकर उसकी परिक्रमा कर ली । इस कारण उनकी सबसे पहले परिक्रमा मानी गयी । नामकी ऐसी महिमा जाननेसे गणेशजी सर्वप्रथम पूजनीय हो गये । आगे गोस्वामीजी कहते हैं‒

जान आदिकबि नाम प्रतापू ।
भयउ सुद्ध करि उलटा जापू ॥
                   …………… (मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । ५)

सबसे पहले श्रीवाल्मीकिजीने ‘रामायण’ लिखी है, इसलिये वे ‘आदिकवि’माने जाते हैं । उलटा नाम ( मरा-मरा) जप करके वाल्मीकिजी एकदम शुद्ध हो गये । उनके विषयमें ऐसी बात सुनी है कि वे लुटेरे थे । रास्तेमें जो कोई मिलता,उसको लूट लेते और मार भी देते । एक बार संयोगवश देवर्षि नारद उधर आ गये । उनको भी लूटना चाहा तो देवर्षिने कहा‒‘तुम क्यों लूट-मार करते हो ? यह तो बड़ा पाप है ।’ वह बोला‒‘मैं अकेला थोड़े ही हूँ, घरवाले सभी मेरी कमाई खाते हैं । सभी पापके भागीदार बनेंगे ।’ देवर्षिने कहा‒‘भाई, पाप करनेवालेको ही पाप लगता है । सुखके, पुण्यके, धनके भागी बननेको तो सभी तैयार हो जाते हैं; परंतु बदलेमें कोई भी पापका भागी बननेके लिये तैयार नहीं होगा । तू अपने माँ-बाप,स्त्री-बच्चोंसे पूछ तो आ ।’ वह अपने घर गया । उसके पूछनेपर माँ बोली‒‘तेरेको पाल-पोसकर बड़ा किया, अब भी तू हमें पाप ही देगा क्या ?’ उसने कहा‒‘माँ ! मैं आप लोंगोंके लिये ही तो पाप करता हूँ ।’ सब घरवाले बोले‒‘हम तो पापके भागीदार नहीं बनेंगे ।’

तब वह जाकर देवर्षिके चरणोंमें गिर गया और बोला‒‘महाराज ! मेरे पापका कोई भी भागीदार बननेको तैयार नहीं हैं ।’ देवर्षिने कहा‒‘भाई ! तुम भजन करो, भगवान्‌का नाम लो’, परंतु भयंकर पापी होनेके कारण मुँहसे प्रयास करनेपर भी ‘राम’ नाम उच्चारण नहीं कर सका । उसने कहा‒‘यह मरा, मरा, मरा । ऐसा मेरा अभ्यास है, इसलिये  ‘मरा’ तो मैं कह सकता हूँ ।’ देवर्षिने कहा कि ‘अच्छा, ऐसा ही तुम कहो ।’ तो  ‘मरा-मरा’ करने लगा । इस प्रकार उलटा नाम जपनेसे भी वे सिद्ध हो गये, महात्मा बन गये, आदिकवि बन गये । ‘राम’ नाम महामन्त्र है, उसे ठीक सुलटा जपनेसे तो पुण्य होता ही है, पर उलटे जपसे भी पुण्य होता है ।

उलटा नामु जपत जगु जाना ।
बालमीकि भए ब्रह्म समाना ॥
                          ………….. (मानस, अयोध्याकाण्ड, दोहा १९४ । ८)

राम !   राम !!   राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में  नाम-वन्दना” पुस्तकसे


शनिवार, 7 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट..07)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

 काशीमें ‘वरुणा’ और ‘असी’ दोनों नदियां गंगामें आकर मिलती हैं । उनके बीचका क्षेत्र ‘वाराणसी’ है । इस क्षेत्रमें ‘मण्डूकमतस्याः कृमयोऽपि काश्यां त्यक्त्वा शरीरं शिवमाप्नुवन्ति ।’ मछली हो या मेढक हो या अन्य कोई जीव-जन्तु हों,आकाशमें रहनेवाले हों या जलमें रहनेवाले हों या थलमें रहनेवाले जीव हों,उनको भगवान् शंकर मुक्ति देते हैं । यह है काशीवासकी महिमा ! काशीकी महिमा बहुत विशेष मानी गयी है । यहाँ रहनेवाले यमराजकी फाँसीसे दूर हो जायँ, इसके लिये शंकरभगवान् हरदम सजग रहते हैं । मेरी प्रजाको कालका दण्ड न मिले‒ऐसा विचार हृदयमें रखते हैं ।

अध्यात्मरामायणमें भगवान् श्रीरामकी स्तुति करते हुए भगवान् शंकर कहते है‒जीवोंकी मुक्तिके लिये आपका ‘राम’ नामरूपी जो स्तवन है, अन्त समयमें मैं इसे उन्हें सुना देता हूँ, जिससे उन जीवोंकी मुक्ति हो जाती है‒‘अहं हि काश्यां....दिशामि मन्त्रं तव रामनाम ॥’

जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं ।
अंत राम  कहि  आवत  नाहीं ॥

अन्त समयमें ‘राम’ कहनेसे वह फिर जन्मता-मरता नहीं । ऐसा ‘राम’ नाम है । भगवान्‌ने ऐसा मुक्तिका क्षेत्र खोल दिया । कोई भी अन्नका क्षेत्र खोले तो पासमें पूँजी चाहिये । बिना पूँजीके अन्न कैसे देगा ? भगवान् शंकर कहते हैं‒‘हमारे पास ‘राम’ नामकी पूँजी है । इससे जो चाहे मुक्ति ले लो ।’

मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अध हानि कर ।
जहँ  बस  संभु भवानि  सो  कासी  सेइअ  कस  न ॥

यह काशी भगवान् शंकर का मुक्ति-क्षेत्र है । यह  ‘राम’ नामकी पूँजी ऐसी है कि कम होती ही नहीं । अनन्त जीवोंकी मुक्ति कर देनेपर भी इसमें कमी नहीं आती । आवे भी तो कहोंसे ! वह अपार है, असीम है । नामकी महिमा कहते-कहते गोस्वामीजी महाराज हद ही कर देते हैं । वे कहते हैं‒

कहीं कहाँ लगि  नाम  बड़ाई ।
रामु न सकहिं नाम गुन गाई ॥
                                                …….(मानस, बालकाण्ड, दोहा २६ । ८)

भगवान् श्रीराम भी नामका गुण नहीं गा सकते । इतने गुण ‘राम’ नाममें हैं । ‘महामंत्र जोइ जपत महेसू’‒इसका दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि यह महामन्त्र इतना विलक्षण है कि महामन्त्र ‘राम’ नाम जपनेसे ‘ईश’ भी महेश हो गये । महामन्त्रका जप करनेसे आप भी महेशके समान हो सकते हैं । इसलिये बहिनों, माताओं एवं भाइयोंसे कहना है कि रात-दिन, उठते-बैठते, चलते-फिरते हरदम, ‘राम’ नाम लेते ही रहिये । भगवान्‌का नाम है तो सीधा-सादा; परन्तु इससे स्थिति बड़ी विलक्षण हो जाती है ।

राम !   राम !!   राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में  नाम-वन्दना” पुस्तकसे


शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट..06)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||


‘गुन निधान सो’ यह ‘नाम’ गुणोंका खजाना है, मानो ‘राम’ नाम लेनेसे कोई गुण बाकी नहीं रहता । बिना जाने ही उसमें सद्‌गुण, सदाचार अपने-आप आ जाते हैं ।‘राम’ नाम जपनेवाले जितने सन्त महात्मा हुए हैं । आप विचार करके देखो ! उनमें कितनी ऋद्धि-सिद्धि, कितनी अलौकिक विलक्षणता आ गयी थी !‘राम’ नाम जपमें अलौकिकता है, तब न उनमें आयी ? नहीं तो कहाँसे आती ?इसलिये यह ‘राम’ नाम गुणोंका खजाना है । यह सत्त्व, रज और तमसे रहित है और गुणोंके सहित भी है एवं व्यापक भी है । यहाँ इस प्रकार ‘राम’ नाम में ‘र’, ‘आ’ और ‘म’ इन तीन अक्षरोंकी महिमाका वर्णन हुआ और तीनोंकी महिमा कहकर उनकी विलक्षणता बतलायी । यहाँतक ‘राम’ नामके अवयवोंका एक प्रकरण हुआ । अब गोस्वामीजी ‘राम’ नामकी महिमा कहना प्रारम्भ करते हैं‒

महामन्त्रकी महिमा

महामंत्र जोइ जपत महेसू ।
कासीं मुकुति हेतु उपदेसू ॥
                           ……………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । ३)

यह ‘राम’ नाम महामन्त्र है, जिसे ‘महेश्वर’‒ भगवान् शंकर जपते हैं और उनके द्वारा यह ‘राम’ नाम-उपदेश काशीमें मुक्तिका कारण है । ‘र’, ‘आ’ और ‘म’‒इन तीन अक्षरोंके मिलनेसे यह ‘राम’ नाम तो हुआ ‘महामन्त्र’ और बाकी दूसरे सभी नाम हुए साधारण मन्त्र ।

सप्तकोट्यो महामन्त्राश्चित्तविभ्रमकारकाः ।
एक एव  परो  मन्त्रो ‘राम’ इत्यक्षरद्वयम् ॥

सात करोड़ मन्त्र हैं, वे चित्तको भ्रमित करनेवाले हैं । यह दो अक्षरोंवाला‘राम’ नाम परम मन्त्र है । यह सब मन्त्रोंमें श्रेष्ठ मन्त्र है । सब मन्त्र इसके अन्तर्गत आ जाते हैं । कोई भी मन्त्र बाहर नहीं रहता । सब शक्तियाँ इसके अन्तर्गत हैं ।
यह ‘राम’ नाम काशीमें मरनेवालोंकी मुक्तिका हेतु है । भगवान् शंकर मरनेवालोंके कानमें यह ‘राम’ नाम सुनाते हैं और इसको सुननेसे काशीमें उन जीवोंकी मुक्ति हो जाती है । एक सज्जन कह रहे थे कि काशीमें मरनेवालोंका दायाँ कान ऊँचा हो जाता है‒ऐसा मैंने देखा है । मानो मरते समय दायें कानमें भगवान् शंकर ‘राम’ नाम मन्त्र देते हैं । इस विषयमें सालगरामजीने भी कहा है‒

जग में जितेक जड़ जीव जाकी अन्त समय,
जम के जबर जोधा खबर लिये करे ।
काशीपति विश्वनाथ वाराणसी वासिन की,
फाँसी यम नाशन को शासन दिये करे ॥
मेरी प्रजा ह्वेके किम पे हैं काल दण्डत्रास,
सालग विचार महेश यही हिये करे ।
तारककी भनक पिनाकी यातें प्रानिन के,
प्रानके पयान समय कानमें किये करे ॥

जब प्राणोंका प्रयाण होता है तो उस समय भगवान् शंकर उस प्राणीके कानमें ‘राम’ नाम सुनाते हैं । क्यों सुनाते हैं ? वे यह विचार करते हैं कि भगवान्‌से विमुख जीवोंकी खबर यमराज लेते हैं, वे सबको दण्ड देते हैं; परन्तु मैं संसारभरका मालिक हूँ । लोग मुझे विश्वनाथ कहते हैं और मेरे रहते हुए मेरी इस काशीपुरीमें आकर यमराज दण्ड दे तो यह ठीक नहीं है । अरे भाई ! किसीको दण्ड या पुरस्कार देना तो मालिकका काम है । राजाकी राजधानीमें बाहरसे दूसरा आकर ऐसा काम करे तो राजाकी पोल निकलती है न ! सारे संसारमें नहीं तो कम-से-कम वाराणसीमें जहाँ मैं बैठा हूँ, यहाँ आकर यमराज दखल दे‒यह कैसे हो सकता है ।

राम !   राम !!   राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में  नाम-वन्दना” पुस्तकसे


गुरुवार, 5 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 05)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

‘अगुन अनूपम गुन निधान सो’‒यह ‘राम’ नाम निर्गुण अर्थात् गुण रहित है । सत्त्व, रज और तमसे अतीत है, उपमारहित है और गुणोंका भण्डार है, दया,क्षमा, सन्तोष आदि सद्‌गुणोंका खजाना है, नाम लेनेसे ये सभी आप-से-आप आ जाते हैं । यह ‘राम’ नाम सगुण और निर्गुण दोनोंका वाचक है । आगेके प्रकरणमें आयेगा‒

अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी ।
उभय  प्रबोधक  चतुर  दुभाषी ॥
                                 …….  (मानस, बालकाण्ड, दोहा २१ । ८)

यह  ‘राम’ नाम सगुण और निर्गुण‒दोनोंको जनाने-वाला है । इसलिये सगुण उपासक भी ‘राम’ नाम जपते और निर्गुण उपासक भी ‘राम’ नाम जपते हैं । सगुण-साकारके उपासक हों, चाहे निर्गुण-निराकारके उपासक हों । ‘राम’ नामका जप सबको करना चाहिये । यह दोनोंकी प्राप्ति करा देता है ।

‘राम’ नाम अमृतके समान है; जैसे, बढ़िया भोजनमें घी और दूध मिला दो तो वह भोजन बहुत बढ़िया बनता है । ऐसे ही ‘राम’ नामको दूसरे साधनोंके साथ करो, चाहे केवल ‘राम’ नामका जप करो, यह हमें निहाल कर देगा ।

‘राम’ नामके समान तो केवल ‘राम’ नाम ही है । यह सब साधनोंसे श्रेष्ठ है । नामके दस अपराधोंमें बताया गया है‒‘धर्मान्तरैः साम्यम्’[1] नामके साथ किसीकी उपमा दी जायगी तो वह नामापराध हो जायगा । मानो नाम अनुपम है । इसमें उपमा नहीं लग सकती । इसलिये ‘नाम’ को किसीके बराबर नहीं कह सकते ।

भगवान् श्रीराम शबरीके आश्रमपर पधारे और शबरीको कहने लगे‒

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं ।
सावधान सुनु  धरु  मन  माहीं ॥
                                     ………. (मानस, अरण्यकाण्ड, दोहा ३५ । ७)

--‒‘मैं तुझे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ । तू सावधान होकर सुन और मनमें धारण कर ।’ नवधा भक्ति कहकर अन्तमें कहते हैं‒‘सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ॥’ (मानस, अरण्यकाण्ड, दोहा ३६ । ७) ‘तेरेमें सब प्रकारकी भक्ति दृढ़ है ।’शबरीको भक्तिके प्रकारोंका पता ही नहीं; परंतु नवधा भक्ति उसके भीतर आ गयी । किस प्रभावसे ?  ‘राम’ नामके प्रभावसे ! ऐसी उसकी लगन लगी कि ‘राम’ नाम जपते हुए रामजीके आनेकी प्रतीक्षा निरन्तर करती ही रही । इस कारण ऋषि-मुनियोंको छोड़कर शबरीके आश्रमपर भगवान् खुद पधारते हैं ।
___________________________
[1] सन्निन्दाऽसति नामवैभवकथा श्रीशेशयो-
र्भेदधीरश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकगिरां नाम्न्यर्थवादभ्रमः ।
नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागौ हि
धर्मान्तरैः साम्यं नामजपे शिवस्य च हरेर्नामापराधा दश ॥

राम !   राम !!   राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


बुधवार, 4 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 04)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

अग्निवंशमें परशुरामजी, सूर्यवंशमें रामजी और चन्द्रवंशमें बलरामजी‒इस प्रकार तीनों वंशोंमें ही भगवान्‌ने अवतार लिये । ये तीनों अवतार ‘राम’ नामवाले हैं | इन तीनोंका हेतु ‘राम’ नाम ही है । इस प्रकार सब अक्षरोंमें ‘राम’ नाम प्राण है । कृसानु, भानु और हिमकर‒इन तीनोंमेंसे ‘राम’ नाम निकाल देनेपर वे कुछ कामके नहीं रहते हैं, उनमें कुछ भी तथ्य नहीं रहता । यहाँ नामके तीनों अवयवोंको बतानेका तात्पर्य यह है कि ‘राम’ नाम जपनेसे साधकके पापोंका नाश होता है, अज्ञानका नाश होता है और अन्धकार दूर होकर प्रकाश हो जाता है । अशान्ति, सन्ताप, जलन आदि मिटकर शान्तिकी प्राप्ति हो जाती है । ऐसा जो रघुनाथजी महाराजका ‘राम’ नाम है, उसकी मैं वन्दना करता हूँ । अब आगे गोस्वामीजी महाराज कहते हैं‒

बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो ।
अगुन अनूपम गुन निधान  सो ॥

                                                    (मानस, बालकाण्ड दोहा १९ । २)
यह ‘राम’ नाम ब्रह्मा, विष्णु और महेशमय है । विधि, हरि, हर‒सृष्टिमात्रकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाली, ये तीन शक्तियों हैं । इनमें ब्रह्माजी सृष्टिकी रचना करते हैं, विष्णुभगवान् पालन करते हैं और शंकरभगवान् संहार करते हैं ।
संसारमें ‘राम’ नामसे बढ़कर कुछ नहीं है । सब कुछ  शक्ति इसमें भरी हुई है । इसलिये सन्तोंने कहा है‒
“रामदास सुमिरण करो रिध सिध याके माँय ।“
ऋद्धि-सिद्धि सब इसके भीतर भरी हुई है । विश्वास न हो तो रात-दिन जप करके देखो । सब काम हो जायगा, कोई काम बाकी नहीं रहेगा ।
यह ‘राम’ नाम वेदोंके प्राणके समान है, शास्त्रोंका और वर्णमालाका भी प्राण है । प्रणवको वेदोंका प्राण माना गया है । प्रणव तीन मात्रावाला ‘ॐ’ कार पहले-ही-पहले प्रकट हुआ, उससे त्रिपदा गायत्री बनी और उससे वेदत्रय बना । ऋक्, साम, यजुः‒ये तीनों मुख्य वेद हैं । इन तीनोंका प्राकट्य गायत्रीसे,गायत्रीका प्राकट्य तीन मात्रावाले ‘ॐ’ कारसे और यह ‘ॐ’ कार‒प्रणव सबसे पहले हुआ । इस प्रकार यह ‘ॐ’ कार (प्रणव) वेदोंका प्राण है ।
यहाँपर ‘राम’ नामको वेदोंका प्राण कहनेमें तात्पर्य है कि ‘राम’ नामसे‘प्रणव’ होता है । प्रणवमेंसे ‘र’ निकाल तो ‘पणव’ हो जायगा और ‘पणव’ का अर्थ ढोल हो जायगा । ऐसे ही ‘ॐ’ मेंसे ‘म’ निकालकर उच्चारण करो वह शोकका वाचक हो जायगा । प्रणवमें ‘र’ और ‘ॐ’ में ‘म’ कहना आवश्यक है । इसलिये यह ‘राम’ नाम वेदोंका प्राण भी है ।
राम !   राम !!   राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


मंगलवार, 3 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 03)

 


|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

  

जब लग गज अपनो बल बरत्यो नेक सरयो नहीं काम ।

निरबल ह्वै  बलराम  पुकार्‌यो   आयो   आधे   नाम ॥

 

जैसे, गजराजने पूरा नाम भी उच्चारण नहीं किया, उसने केवल हे ना......(थ)आधा नाम लेकर पुकारा । उतनेमें भगवान्‌ने आकर रक्षा कर दी । शास्त्रीय विधियोंकी उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी इस तरह आर्त होकर पुकारनेकी है । इसलिये आर्त होकर, दुःखी होकर, भगवान्‌को अपना मानकर पुकारें और केवल उनका ही भरोसा, उनकी ही आशा, उनका ही विश्वास रखें और सब तरफसे मन हटाकर उनका ही नाम लें और उनको ही पुकारेंहे राम ! राम !! राम !!! आर्तका भाव तेज होता है, इससे भगवान् उसकी तरफ खिंच जाते हैं और उसके सामने प्रकट हो जाते हैं । तभी तो भगवान् प्रह्लादके लिये खम्भेमेंसे प्रकट हो गये । भीतरका जो आर्तभाव होता है, वही मुख्य होता है । रामनाम उच्चारण करनेकी बड़ी भारी महिमा है । उस रामनामका प्रकरण रामचरितमानसमें बड़े विलक्षण ढंगसे आया है ।

 

नाम-वन्दना

 

 बंदउँ नाम  राम  रघुबर  को ।

हेतु कृसानु भानु हिमकर को ॥

 

                                …………(मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । १)

 

नामकी वन्दना करते हुए श्रीगोस्वामीजी महाराज कहते हैं कि मैं रघुवंशमें श्रेष्ठ श्रीरघुनाथजीके उस रामनामकी वन्दना करता हूँ, जो कृसानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात् बीज है । बीजमें क्या होता है ?बीजमें सब गुण होते हैं । वृक्षके फलमें जो रस होता है, वह सब रस बीजमें ही होता है । बीजसे ही सारे वृक्षको तथा फलोंको रस मिलता है । अग्निवंशमें परशुरामजी, सूर्यवंशमें रामजी और चन्द्रवंशमें बलरामजीइस प्रकार तीनों वंशोंमें ही भगवान्‌ने अवतार लिये । ये तीनों अवतार रामनामवाले हैं, पर श्रीरघुनाथजी महाराजका जो रामनाम है, वह इन सबका कारण है । मैं रघुनाथजी महाराजके उसी रामनामकी वन्दना करता हूँ, जो अग्निका बीज ’,सूर्यका बीज और चन्द्रमाका बीज है । रामनाममें ’, ‘और ’‒ये तीन अवयव हैं । इन अवयवोंका वर्णन करनेके लिये कृसानु, भानु और हिमकरये तीन शब्द दिये हैं ।

 

यहाँ ये तीनों शब्द बड़े विचित्र एवं विलक्षण रीतिसे दिये गये हैं । कृसानुमें’, भानुमें और हिमकर में है । कृसानुशब्दमेंसे को निकाल दें तोक्सानुशब्द बचेगा, जिसका कोई अर्थ नहीं होगा । भानुशब्दमेंसे निकाल दें तो भ्नुका भी कोई अर्थ नहीं होगा । ऐसे ही हिमकरशब्दमेंसे को निकाल दें तो हिकरका भी कोई अर्थ नहीं निकलेगा; अर्थात् कृसानु भानु और हिमकरये तीनों मुर्देकी तरह हो जायँगे; क्योंकि इनमेंसे रामही निकल गया । इनके साथरामनाम रहनेसे कृसानुमें कृका अर्थ करना, ‘सानुका अर्थ शिखर है, ऐसे हीभानुमें भानाम प्रकाशका है, ‘नुनाम निश्चयका है और हिमकरमें हिमनाम बर्फका है और करनाम हाथका है ।

 

राम !   राम !!   राम !!!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की मानस में नाम-वन्दनापुस्तकसे



सोमवार, 2 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 02)

 

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

 

गिरा और बीचिये दोनों स्त्रीलिंग पद हैं, अरथ और जलये दोनों पुँल्लिंग पद हैं । ये दोनों दृष्टान्त सीता और रामकी परस्पर अभिन्नता बतानेके लिये दिये गये हैं । इनका उलट-पुलट करके प्रयोग किया है । पहले गिरास्त्रीलिंग पद कहकर अरथपुँल्लिंग पद कहा, यह तो ठीक है; क्योंकि पहले सीता और उसके बाद राम हैं, पर दूसरे उदाहरणमें उलट दिया अर्थात् जल’[*] पुँल्लिंग पद पहले रखा और उसके साथ बीचिस्त्रीलिंग पद बादमें रखा । इसका तात्पर्य रामसीताहुआ । इस प्रकार कहनेसे दोनोंकी अभिन्नता सिद्ध होती है । सीतारामसब लोग कहते हैं, पर रामसीताऐसा नहीं कहते हैं । जब भगवान्‌के प्रति विशेष प्रेम बढ़ता है, उस समय सीता और राम भिन्न-भिन्न नहीं दीखते । इस कारण किसको पहले कहें, किसको पीछे कहेंयह विचार नहीं रहता, तब ऐसा होता है । श्रीभरतजी महाराज जब चित्रकूट जा रहे हैं तो प्रयागमें प्रवेश करते समय कहते हैं

 

भरत  तीसरे  पहर   कहँ   कीन्ह   प्रबेसु   प्रयाग ।

कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग ॥

                                                    ………….(मानस, अयोध्याकाण्ड, दोहा २०३)

 

प्रेममें उमँग-उमँगकर रामसिय-रामसिय कहने लगते हैं । उस समय प्रेमकी अधिकताके कारण दोनोंकी एकताका अनुभव होता है । इसलिये चाहे श्रीसीताराम कहोचाहे रामसीता कहो, ये दोनों अभिन्न हैं । ऐसे श्रीसीतारामजीकी वन्दना करते हैं । अब इससे आगे नाम महाराजकी वन्दना करके नौ दोहोंमें नाममहिमाका वर्णन करते हैं ।

एक नाम-जप होता है और एक मन्त्र-जप होता है ।  रामनाम मन्त्र भी है और नाम भी है । नाममें सम्बोधन होता है तथा मन्त्रमें नमन और स्वाहा होता है । जैसे रामाय नमःयह मन्त्र है । इसका विधिसहित अनुष्ठान होता है और राम ! राम !! राम !!! ऐसे नाम लेकर केवल पुकार करते हैं ।  रामनामकी पुकार विधिरहित होती है । इस प्रकार भगवान्‌को सम्बोधन करनेका तात्पर्य यह है कि हम भगवान्‌को पुकारें, जिससे भगवान्‌की दृष्टि हमारी तरफ खिंच जाय ।

 

कैसा ही क्यों न जन नींद सोता ।

वो नाम लेते  ही  सुबोध  होता ॥

 

जैसे, सोये हुए किसी व्यक्तिको पुकारें तो वह अपना नाम सुनते ही नींदसे जग जाता है, ऐसे ही राम ! राम !! राम !!! करनेसे रामजी हमारी तरफ खिंच जाते हैं । जैसे, एक बच्चा माँ-माँ पुकारता है तो माताओंका चित्त उस बच्चेकी तरफ आकृष्ट हो जाता है । जिनके छोटे बालक हैं, उन सबका एक बार तो उस बालककी तरफ चित्त खिंचेगा, पर उठकर वही माँ दौड़ेगी, जिसको वह बच्चा अपनी माँ मानता है । माँ नाम तो उन सबका ही है, जिनके बालक हैं । फिर वे सब क्यों नहीं दौड़तीं ? सब कैसे दौड़ें ! वह बालक तो अपनी माँ को ही पुकारता है । दूसरी माताओंके कितने ही सुन्दर गहने हों, सुन्दर कपड़े हों, कितना ही अच्छा स्वभाव हो, पर उनको वह अपनी माँ नहीं मानता । वह तो अपनी माँको ही चाहता है,इसलिये उस बालककी माँ ही उसकी तरफ खिंचती है । ऐसे ही राम-रामहम आर्त होकर पुकारें और भगवान्‌को ही अपना मानें तो भगवान् हमारी तरफ खिंच जायेंगे ।

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[*] जलशब्द संस्कृत भाषाके अनुसार नपुंसकलिंग है, पर हिन्दी में जलशब्द पुँल्लिंग माना गया है । हिन्दी में नपुंसक लिंग होता ही नहीं ।

 

राम !   राम !!   राम !!!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की मानस में नाम-वन्दनापुस्तकसे




रविवार, 1 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 01)



|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

श्रीसीताराम-वन्दना

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न ।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न ॥
………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा १८)

गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज कथा प्रारम्भ करनेसे पहले सभी की वन्दना करते हैं । इस दोहे में श्रीसीतारामजी को नमस्कार करते हैं । इसके बाद नाम-वन्दना और नाम-महिमा को लगातार नौ दोहे और बहत्तर चौपाइयों में कहते हैं ।

श्रीगोस्वामी जी महाराज को यह नौ संख्या बहुत प्रिय लगती है । नौ संख्याको कितना ही गुणा किया जाय, तो उन अंकोंको जोड़नेपर नौ ही बचेंगे । जैसे, नौ संख्या को नौ से गुणा करने पर इक्यासी होते हैं । इक्यासी के आठ और एक, इन दोनों को जोड़ने पर फिर नौ हो जाते हैं । इस प्रकार कितनी ही लम्बी संख्या क्यों न हो जाय, पर अन्त में नौ ही रहेंगे; क्योंकि यह संख्या पूर्ण है ।

गोस्वामी जी महाराज को जहाँ-कहीं ज्यादा महिमा करनी होती है तो नौ तरह की उपमा और नौ तरह के उदाहरण देते हैं । नौ संख्या आखिरी हद है, इससे बढ़कर कोई संख्या नहीं है । यह नौ संख्या अटल है ।
संबत सोरह सै एकतीसा ।
करउँ कथा हरि पद धरि सीसा ॥
नौमी भौम बार मधुमासा ।
अवधपुरी यह चरित प्रकासा ॥
……………(मानस, बालकाण्ड, दोहा ३४ । ४,५)

रामजन्म तिथि बार सब जस त्रेता महँ भास ।
तस इकतीसा महँ को जोग लगन ग्रह रास ॥

भगवान् श्रीराम ने त्रेतायुगमें चैत्र मास, शुक्लपक्ष, नवमी तिथि,मंगलवार के दिन शुभ मुहूर्तके समय अयोध्या में अवतार लिया । भगवान्‌ के अवतारके दिन जैसा शुभ मुहूर्त था, ठीक वैसा ही शुभ मुहूर्त का संयोग संवत् १६३१ में भगवान्‌ के अवतार के दिन बना । श्रीगोस्वामीजी महाराज ने अयोध्या में उसी दिन श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ लिखना आरम्भ किया । जबतक ऐसा संयोग नहीं बना, तब तक वैसे शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा करते रहे । यहाँ अठारहवें दोहे में श्रीसीतारामजी के चरणोंकी वन्दना करते हैं । सीतारामजी की बहुत विलक्षणता है । ‘जिन्हहि परम प्रिय खिन्न’, दुःखी आदमी किसीको प्यारा नहीं लगता । दीन-दुःखीको सब दुत्कारते हैं, पर सीतारामजी को जो दुःखी होता है, वह ज्यादा प्यारा लगता है, वह उनका परमप्रिय है, उसपर विशेष कृपा करते हैं । उन श्रीसीतारामजीके चरणोंमें मैं प्रणाम करता हूँ ।

श्रीसीतारामजी अलग-अलग नहीं हैं । इस बातको समझानेके लिये दो दृष्टान्त देते हैं । जैसे, गिरा-अरथ और जल-बीचि कहनेका तात्पर्य है कि वाणी और उसका अर्थ कहनेमें दो हैं, पर वास्तवमें दो नहीं, एक हैं । वाणीसे कुछ भी कहोगे तो उसका कुछ-न-कुछ अर्थ होगा ही और किसीको कुछ अर्थ समझाना हो तो वाणीसे ही कहा जायगा‒ऐसे परस्पर अभिन्न हैं । इसी तरह जल होगा तो उसकी तरंग भी होगी । तरंग और जल कहने में दो हैं, पर जलसे तरंग या तरंगसे जल अलग नहीं है एक ही है ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे




श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥  श्रीमद्भागवतमहापुराण  प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५) विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और  गान्धारीका वनमे...