बुधवार, 31 जनवरी 2018

कलिजुग सम जुग आन नहिं




कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास।।

(यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है। क्योंकि इस युगमें श्रीरामजीके निर्मल गुणोंसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाता है )



गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 05)



❈ श्री हरिः शरणम् ❈

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 05)

( सम्पादक-कल्याण ) 

सरलता-कठिनता तो उपासनाकी है, इससे उपासकमें उत्तम मध्यमका भेद क्यों होने लगा? व्यक्तोपासक केवल उत्तम ही नहीं, योगवित्तम है, योग जाननेवालोंमें श्रेष्ठ है। उपासनाकी सुगमताके कारण आरामकी इच्छासे कठिन मार्गको त्यागकर सरलका ग्रहण करनेवाला श्रेष्ठ योगवेत्ता कैसे हो गया। अवश्य ही इसमें कोई रहस्य छिपा होना चाहिये और वह यह है--

अव्यक्तोपासक उपासनाके फलस्वरूप अन्तमें भगवान्‌को प्राप्त होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं। परन्तु व्यक्तोपासकके तो त्रिभुवन-मोहन साकार-रूप-धारी भगवान्‌ आरम्भसे ही साथ रहते हैं। अव्यक्तोपासक अपनी ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की ज्ञान-नौकापर सवार होकर यदि मार्ग में अहंकार, मान, लोकैषणा आदि विघ्नोंसे बचकर अगे बढ़ जाता है, तो अन्तमें संसार-सागरके पार पहुँच जाता है। परन्तु व्यक्तोपासक तो पहलेसे ही भगवान्‌की कृपारूपी नौकापर सवार होता है और भगवान्‌ स्वयं उसे खेकर पार करते हैं। नौकापर सवार होते ही उसे केवट कृष्णका साथ मिल जाता है। पार पहुँचनेके बाद तो दोनोंके आनन्दकी स्थिति समान है ही, परन्तु यह तो मार्गमें भी पल-पलमें परम कारुणिक मोहनकी माधुरी मूरति के देवदुर्लभ दर्शन कर पुलकित होता है, इसे उनकी मधुर वाणी, विश्व-विमोहिनी वंशीकी ध्वनि सुननेको एवं उनकी सुन्दर और शक्तिमयी क्रियाएँ देखनेको मिलती है। यह निश्चिन्त बैठा हुआ उनके स्वरूप और उनकी लीलाका मजा लूटता है। इसके सिवा एक महत्त्वकी बात और होती है। भगवान्‌ किस मार्गसे क्योंकर नौका चलाते हैं, वह इस बातको भी ध्यानपूर्वक देखता है, जिससे वह भी परमधामके इस सुगम मार्गको और भव-तारण-कलाको सीख जाता है। ऐसे तारण-कलामें निपुण विश्वासपात्र भक्तको यदि भगवान्‌ कृपापूर्वक अपने परम धामका अधिकारी स्वीकार कर और जगत्‌के लोगोंको तारनेका अधिकार देकर, अपने कार्यमें सहायक बनने या अपनी लोक-कल्याणकारिणी लीलामें सम्मिलित रखनेके लिये नौका देकर वापस संसारमें भेज देते हैं तो वह मुक्त हुआ भी भगवान्‌की ही भाँति जगत्‌ के यथार्थ हितका कार्य करता है और एक चतुर विश्वासपात्र सेवक की भाँति भगवान्‌ के लीलाकार्य में भी साथ रहता है। ऐसे ही स्थिति के महापुरुष कारक बनकर जगत्‌में आविर्भूत हुआ करते हैं। 

शेष आगामी पोस्ट में .................

…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 04)


❈ श्री हरिः शरणम् ❈

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 04)

( सम्पादक-कल्याण ) 

यहाँ भगवान्‌ ने जो साकारोपासक की श्रेष्ठता बतलायी है उसका कारण भी भगवान्‌ ने अगले तीन श्लोकोंमें स्पष्ट कर दिया है-

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्‌।
अव्यक्ता हि गतिर्दुखं देहवद्भिरवाप्यते॥
..........( गी० १२ । ५ )
‘जिनका मन तो अव्यक्तकी ओर आसक्त है, परन्तु जिनके हृदयमें देहाभिमान बना हुआ है, ऐसे लोगोंके लिये अव्यक्त ब्रह्मकी उपासनामें चित्त टिकाना विशेष क्लेशसाध्य है। वास्तवमें निराकारकी गति दुःखपूर्वक ही प्राप्त होती है।’ भगवान्‌के साकार-व्यक्तस्वरूपको एक आधार रहता है, जिसका सहारा लेकर ही कोई साधन-मार्गपर आरूढ़ हो सकता है, परन्तु निराकारका साधक तो बिना केवटकी नावकी भाँति निराधार अपने ही बलपर चलता है। अपार संसार-सागरमें विषय-वासनाकी भीषण तरंगोंसे तरीको बचाना, भोगोंके प्रचण्ड तूफानसे नावकी रक्षा करना और बिना किसी मददगारके लक्ष्यपर स्थिर रहते हुए आप ही डाँड़ चलाते जाना बड़ा ही कठिन कार्य है। परन्तु इसके विपरीत-

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्‌।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्‌॥
...............( गी० १२ । ६-७ )

‘जो लोग मेरे ( भगवान्‌के ) परायण होकर, मुझको ही अपनी परमगति, परम आश्रय, परम शक्ति, परम लक्ष्य मानते हुए सम्पूर्ण कर्म मुझमें अर्पण करके मुझ साकार ईश्वरकी अनन्य योगसे निरन्तर उपासना करते हैं, उन मुझमें चित्त लगानेवाले भक्तोंको मृत्युशील संसार-सागरसे बहुत ही शीघ्र सुखपूर्वक मैं पार कर देता हूँ।’ उनको न तो अनन्त अम्बुधि की क्षुब्ध उत्ताल तरंगोंका भय है और न भीषण झञ्झावातके आघातसे नौकाके ध्वंस होने या डूबनेका ही डर है। वे तो बस, मेरी कृपासे आच्छादित सुन्दर सुसज्जित दृढ़ ‘बजरे’में बैठकर केवल सर्वात्मभावसे मेरी ओर निर्निमेष-दृष्टिसे ताकते रहें, मेरी लीलाएँ देख-देखकर प्रफुल्लित होते रहें, मेरी वंशीध्वनि सुन-सुनकर आनन्द में डूबते रहें। उनकी नावका खेवनहार केवट बनकर मैं उन्हें ‘नचिरात्‌’ इसी जन्म में अपने हाथों डाँड़ चलाकर संसार-सागरके उस पार परम धाममें पहुँचा दूँगा। जो भाग्यवान्‌ भक्त भगवान्‌ के इन वचनोंपर विश्वास कर समस्त शक्तियों के आधार, सम्पूर्ण ज्ञान के भण्डार, अखिल ऐश्वर्य के आकर, सौन्दर्य, प्रभुत्व, बल और प्रेमके अनन्त निधि उस परमात्माको अपनी जीवन-नौका का खेवनहार बना लेता है, जो अपनी बाँह उसे पकड़ा देता है, उनके अनायास ही पार उतरनेमें कोई खटका कैसे रह सकता है? उसको न तो नावके टकराने, टूटने और डूबनेका भय है, न चलाने का कष्ट है और न पार पहुँचने में ही तनिक-सा सन्देह है। पार तो अव्यक्तोपासक भी पहुँचता है, परन्तु उसका मार्ग कठिन है। इसप्रकार दोनोंका फल एक ही होनेके कारण सुगमता की वजह से यदि भगवान्‌ के अव्यक्तोपासक की अपेक्षा व्यक्तोपासक को श्रेष्ठ या योगवित्तम बतलाया तो उनका ऐसा कहना सर्वथा उचित ही है, परन्तु बात इतनी ही नहीं है। 

शेष आगामी पोस्ट में .................

…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 03)


❈ श्री हरिः शरणम् ❈

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 03)

( सम्पादक-कल्याण )

भगवान्‌ ने अर्जुन से कहा--

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥
( गी० १२ । २ )

‘हे अर्जुन ! जो मुझ साकाररूप परमेश्वरमें मन लगाकर निश्चल परम श्रद्धासे युक्त हो निरन्तर मेरी ही उपासनामें लगे रहते हैं, मेरे मतसे वे ही परम उत्तम योगी हैं।’ उत्तर भी स्पष्ट है-भगवान्‌ कहते हैं, मेरे द्वारा बतलायी हुई विधिके अनुसार मुझमें निरन्तर चित्त एकाग्र करके जो परम श्रद्धासे मेरी उपासना करते हैं, मेरे मतमें वे ही श्रेष्ठ हैं। यहाँ प्रथम श्लोकके ‘त्वां’ और इस श्लोकके ‘मां’ शब्द अव्यक्त-निराकारवाचक न होकर साकार वाचक ही हैं। क्योंकि अगले श्लोकोंमें अव्यक्तोपासनाका स्पष्ट वर्णन है, जो ‘तु’ शब्दसे इससे सर्वथा पृथक कर दिया गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि भगवानके मतमें उनके साकाररूपके उपासक ही अतिश्रेष्ठ योगी हैं एवं एकादश अध्यायके अन्तिम श्लोकके अनुसार उनको भगवत्‌प्राप्ति होना निश्चित है, परन्तु इससे कोई यह न समझे कि अव्यक्तोपासना निम्न-श्रेणीकी है या उन्हें भगवत्प्राप्ति नहीं होती। इसी भ्रमकी गुंजायशको सर्वथा मिटा देनेके लिये भगवान्‌ स्वयमेव कहते हैं।

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्‌॥
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥
( गीता १२ । ३-४ )

‘जो पुरुष समस्त इन्द्रियोंको वशमें करके सर्वत्र समबुद्धि-सम्पन्न हो जीवमात्रके हितमें रत रहते हुए अचिन्त्य ( मन-बुद्धिसे परे ) सर्वत्रग ( सर्वव्यापी ) अनिर्देश्य ( अकथनीय ) कूटस्थ ( नित्य एक रस ) ध्रुव ( नित्य ) अचल, अव्यक्त ( निराकार ) अक्षर ब्रह्मस्वरूपकी निरन्तर उपासना करते हैं, वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’
इस कथन से यह निश्चय हो गया कि दोनों ही उपासनाओंका फल एक है, तो फिर अव्यक्तोपासकसे व्यक्तोपासकको उत्तम क्यों बतलाया? क्या बिना ही कारण भगवान्‌ने ऐसी बात कह दी? क्या मन्दबुद्धि मुमुक्षुओंको सगुणोपासनाकी प्रवृत्ति को सिद्धिके लिये उन्हें युक्ततम बतला दिया या उन्हें उत्साही बनाये रखने के लिये व्यक्तोपासनाकी रोचक स्तुति कर दी अथवा अर्जुनको साकारका मन्द अधिकारी समझकर उसीके लिये व्यक्तोपासनाको श्रेष्ठ करार दे दिया ? भगवान्‌ का क्या अभिप्राय था सो तो भगवान्‌ ही जानें, परन्तु मेरा मन तो यही कहता है कि भगवान्‌ ने जहाँ पर जो कुछ कहा है सो सभी यथार्थ है। उनके शब्दोंमें रोचक-भयानककी कल्पना करना कदापि उचित नहीं । भगवान्‌ ने न तो किसीकी अयथार्थ स्तुति की है और न अयथार्थ किसी को कोसा ही है।

शेष आगामी पोस्ट में .................

…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 02)


❈ श्री हरिःशरणम् ❈

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 02)

( सम्पादक-कल्याण ) 

भगवान्‌ ने कृपापूर्वक अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदानकर अपना विराट स्वरूप दिखलाया। उस विकराल कालस्वरूपको देखकर अर्जुनके घबराकर प्रार्थना करनेपर अपने चतुर्भुज रूपके दर्शन कराये, तदन्तर मनुष्य-देह-धारी सौम्य रसिकशेखर श्यामसुन्दर श्रीकृष्णरूप दिखाकर उनके चित्तमें प्रादुर्भूत भय और अशान्तिका नाश कर उन्हें सुखी किया। इस प्रसंगमें भगवान्‌ने अपने विराट और चतुर्भुज-स्वरूपकी महिमा गाते हुए इनके दर्शन प्राप्त करनेवाले अर्जुनके प्रेमकी प्रशंसा की और कहा कि मेरे इन स्वरूपोंको प्रत्यक्ष नेत्रों द्वारा देखना, इनके तत्त्वको समझना और इनमें प्रवेश करना केवल ‘अनन्य भक्ति’से ही सम्भव है। इसके बाद अनन्य भक्तिका स्वरूप और उसका फल अपनी प्राप्ति बतलाकर भगवान्‌ने अपना वक्तव्य समाप्त किया। एकादश अध्याय यहीं पूरा हो गया। अर्जुन अबतक भगवान्‌के अव्यक्त और व्यक्त दोनों ही स्वरूपोंकी और दोनोंके ही उपासकोंकी प्रशंसा और दोनोंसे ही परमधामकी प्राप्ति होनेकी बात सुन चुके हैं। अब वे इस समबन्धमें एक स्थिर निश्चयात्मक सिद्धान्त-वाक्य सुनना चाहते हैं, अतएव उन्होंने विनम्र शब्दोंमें भगवानसे प्रार्थना करते हुए पूछा-

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥
............( गी० १२ । १ )

हे नाथ! जो अनन्य भक्त आपके द्वारा कथित विधिके अनुसार निरन्तर मन लगाकर आप व्यक्त साकाररूप मनमोहन श्यामसुन्दरकी उपासना करते हैं, एवं जो अविनाशी सच्चिदानन्दघन अव्यक्त-निराकाररूपकी उपासना करते हैं, इन दोनोंमें अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं? प्रश्न स्पष्ट है | अर्जुन कहते हैं, आपने अपने व्यक्त रूपकी दुर्लभता बताकर केवल अनन्यभक्तिसे ही उस रूपके प्रत्यक्ष दर्शन, उसका तत्त्वज्ञान और उसमें एकत्व प्राप्त करना सम्भव बतलाया तथा फिर उस अनन्यता के लक्षण बतलाये। परन्तु इससे पहले आप कई बार अपने अव्यक्तोपासकों की भी प्रशंसा कर चुके हैं। अब आप निर्णयपूर्वक एक निश्चित मत बतलाइये कि इन दोनों प्रकारकी उपासना करनेवालोंमें श्रेष्ठ कौन-से हैं? 

शेष आगामी पोस्ट में .................

…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 01)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 01)
( सम्पादक-कल्याण )
श्रीमद्भगवद्गीता साक्षात्‌ सच्चिदानन्दघन परमात्मा प्रभु श्रीकृष्ण की दिव्य वाणी है। जगत्‌ में इसकी जोड़ी का कोई भी शास्त्र नहीं । सभी श्रेणी के लोग इससे अपने-अपने अधिकारानुसार भगवत्‌प्राप्ति के सुगम साधन प्राप्त कर सकते हैं। इसमें सभी मुख्य-मुख्य साधनों का विशद वर्णन है, परन्तु कोई भी एक-दूसरेका विरोधी नहीं है, सभी परस्पर सहायक हैं। ऐसा सामञ्जस्यपूर्ण ग्रन्थ केवल गीता ही है । कर्म, भक्ति और ज्ञान इन तीन प्रधान सिद्धान्तों की जैसी उदार, पूर्ण, निर्मल, उज्ज्वल, सरल एवं अन्तर और बाह्य लक्षणों से युक्त हृदयस्पर्शी सुन्दर व्यावहारिक व्याख्या इस ग्रन्थमें मिलती है, वैसी अन्यत्र कहीं नहीं । प्रत्येक मनुष्य अपनी रुचिके अनुसार किसी एक मार्गपर आरूढ़ होकर अनायास ही अपने चरम लक्ष्य तक पहुँच सकता है।
"श्रीमद्भगवद्गीता को हम ‘निष्काम कर्मयोगयुक्त, भक्तिप्रधान और ज्ञानपूर्ण अध्यात्मशास्त्र कह सकते हैं ।" यह सभी प्रकार के मार्गों में संरक्षक, सहायक, मार्गदर्शक, प्रकाशदाता और पवित्र पाथेय का प्रत्यक्ष व्यावहारिक काम दे सकता है । गीता के प्रत्येक साधन में कुछ ऐसे दोषनाशक प्रयोग बतलाये गये हैं जिनका उपयोग करने से दोष समूल नष्ट होकर साधन सर्वथा शुद्ध और उपादेय बन जाता है । इसीलिये गीता का कर्म, गीता का ज्ञान, गीता का ध्यान और गीता की भक्ति सभी सर्वथा पापशून्य, दोषरहित, पवित्र और पूर्ण हैं । किसी में तनिक भी पोलकी गुंजायश नहीं। आज गीतोक्त व्यक्तोपासनाके विषयमें कुछ देखना है।
गीता के बारहवें अध्याय का नाम भक्तियोग है, इसमें कुल बीस श्लोक हैं । पहले श्लोक में भक्तवर अर्जुनका प्रश्न है और शेष उन्नीस श्लोकों में भगवान्‌ उसका उत्तर देते हैं। इनमें प्रथम ११ श्लोकों में तो भगवान्‌ के व्यक्त ( साकार ) और अव्यक्त ( निराकार ) स्वरूप के उपासकों की उत्तमता का निर्णय किया गया है एवं भगवत्प्राप्ति के कुछ उपाय बतलाये गये हैं । अगले आठ श्लोकों में परमात्मा के परम प्रिय भक्तों के स्वाभाविक लक्षणों का वर्णन है ।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


||श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:||

||श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:||

जिस घर में नित्यप्रति श्रीमद्भागवत की कथा होती है, वह तीर्थरूप हो जाता है और जो लोग उसमें रहते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ॥

“कथा भागवतस्यापि नित्यं भवति यद्‌गृहे ।
तद्‌गृहं तीर्थरूपं हि वसतां पापनाशनम् ॥ “

...... (श्रीमद्भागवतमाहात्म्य ०३/२९)


“मुकुंद माधव गोविन्द बोल | केशव माधव हरि हरि बोल || हरि हरि बोल हरि हरि बोल | कृष्ण कृष्ण बोल कृष्ण कृष्ण बोल ||”

“मुकुंद माधव गोविन्द बोल | केशव माधव हरि हरि बोल ||
हरि हरि बोल हरि हरि बोल | कृष्ण कृष्ण बोल कृष्ण कृष्ण बोल ||”

विवेकीजन सङ्ग या आसक्ति को ही आत्मा का अच्छेद्य बन्धन मानते हैं; किन्तु वही सङ्ग या आसक्ति जब संतों-महापुरुषों के प्रति हो जाती है, तो मोक्ष का खुला द्वार बन जाती है ॥ 
{प्रसङ्गमजरं पाशं आत्मनः कवयो विदुः ।
स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारं अपावृतम् ॥}
....श्रीमद्भागवत..३|२५|२३


नामका प्रभाव (02)



|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
नामका प्रभाव (02)
अमर कैसे हों ? ‘नाम-प्रसाद’‒नामकी कृपासे भगवान् शंकर अविनाशी हो गये । उनका साज देखा जाय तो महाराज ! सर्प है, मुर्देकी राख है, मुण्डमाला है । ऐसा अमंगल साज है, विचित्र ढंगका साज है ।
भगवान् शंकरके साज विचित्र हैं ! भगवान् शंकरके साज अमंगल हैं, केवल इतनी ही बात नहीं है, बड़ी आफत है महाराज ! इधर तो खुदका गहना साँप है और उधर गणेशजीका वाहन चूहा है । इधर आपका वाहन बैल है तो भवानीका वाहन सिंह है । इस प्रकार घरमें एक-दूसरेकी कितनी कलह है, इसको तो वे ही जानें । भगवान् शंकर ही निभाते हैं । विरोधी-ही-विरोधी इकट्ठे हुए हैं सभी । सर्प गलेमें बैठा है तो कार्तिकेयके मयूर है । मयूर साँपको खाने दौड़े तो साँप चूहेको खाने दौड़े । ऐसे एक-एक के वैरी हैं । यह दशा है घरमें । ऐसे साज हैं अमंगलराशि ! फिर भी मंगलराशि हैं । ‘शिव-शिव’ कहने से कल्याण हो जाय, उद्धार हो जाय, मंगल हो जाय । सदा ही सबके मंगल कर दे । इसमें कारण क्या है ? यह नाम महाराजकी कृपा है ।
“सनकादि सिद्ध मुनि जोगी ।
नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी ॥“
………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा २६ । २)
शुकदेव मुनि, वही तोता जिसने अमरकथा सुनी और सनकादि सिद्ध, मुनि और योगी लोग हरदम भगवान्‌का नाम लेते हुए भगवान्‌के चरणोंमें ही रहते हैं । सनकादि हमेशा पाँच वर्षकी बालक-अवस्थामें ही रहते हैं । ये ब्रह्माजीसे सबसे पहले प्रकट हुए सृष्टि पीछे हुई, ऐसे इतने पुराने; परंतु देखनेमें छोटे-छोटे बच्चे, चार-पाँच वर्षके । वे सदा नग्न रहनेवाले महात्माकी तरह घूमते फिरते हैं । सदैव ‘हरिः शरणम्’ ऐसे रटते रहते हैं । वे नामके प्रसाद से ब्रह्मसुख लेते हैं ।
“नारद जानेउ नाम प्रतापू ।
जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू ॥“
…………(मानस, बालकाण्ड, दोहा २६ । ३)
संसार को तो विष्णु भगवान् प्यारे लगते हैं, वे संसार का पालन-पोषण करने वाले हैं । जैसे बालकको माँ बड़ी प्यारी लगती है ‘मात्रा समं नास्ति शरीरपोषणम्’‒ शरीरका पालन करनेमें माँ के समान कोई नहीं है । कोई आफत हो तो बालक को माँ याद आती है । हम भाई-बहन जितने हैं, हम सबका पालन-पोषण माँ ने ही किया है । माँ की तरह संसारमात्रका पालन करनेवाली शक्ति (माँ) है भगवान् हरि (विष्णु) । नारदजी भगवान्‌के नामका कीर्तन करते हैं । इस नामके कारण भगवान् विष्णुको और भगवान् शंकरको भी प्यारे लगने लगे । इस प्रकार सबको प्रिय लगनेवाले नारदजी महाराज हो गये ।
राम ! राम !! राम !!!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


नामका प्रभाव (02)



|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
नामका प्रभाव (02)
अमर कैसे हों ? ‘नाम-प्रसाद’‒नामकी कृपासे भगवान् शंकर अविनाशी हो गये । उनका साज देखा जाय तो महाराज ! सर्प है, मुर्देकी राख है, मुण्डमाला है । ऐसा अमंगल साज है, विचित्र ढंगका साज है ।
भगवान् शंकरके साज विचित्र हैं ! भगवान् शंकरके साज अमंगल हैं, केवल इतनी ही बात नहीं है, बड़ी आफत है महाराज ! इधर तो खुदका गहना साँप है और उधर गणेशजीका वाहन चूहा है । इधर आपका वाहन बैल है तो भवानीका वाहन सिंह है । इस प्रकार घरमें एक-दूसरेकी कितनी कलह है, इसको तो वे ही जानें । भगवान् शंकर ही निभाते हैं । विरोधी-ही-विरोधी इकट्ठे हुए हैं सभी । सर्प गलेमें बैठा है तो कार्तिकेयके मयूर है । मयूर साँपको खाने दौड़े तो साँप चूहेको खाने दौड़े । ऐसे एक-एक के वैरी हैं । यह दशा है घरमें । ऐसे साज हैं अमंगलराशि ! फिर भी मंगलराशि हैं । ‘शिव-शिव’ कहने से कल्याण हो जाय, उद्धार हो जाय, मंगल हो जाय । सदा ही सबके मंगल कर दे । इसमें कारण क्या है ? यह नाम महाराजकी कृपा है ।
“सनकादि सिद्ध मुनि जोगी ।
नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी ॥“
………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा २६ । २)
शुकदेव मुनि, वही तोता जिसने अमरकथा सुनी और सनकादि सिद्ध, मुनि और योगी लोग हरदम भगवान्‌का नाम लेते हुए भगवान्‌के चरणोंमें ही रहते हैं । सनकादि हमेशा पाँच वर्षकी बालक-अवस्थामें ही रहते हैं । ये ब्रह्माजीसे सबसे पहले प्रकट हुए सृष्टि पीछे हुई, ऐसे इतने पुराने; परंतु देखनेमें छोटे-छोटे बच्चे, चार-पाँच वर्षके । वे सदा नग्न रहनेवाले महात्माकी तरह घूमते फिरते हैं । सदैव ‘हरिः शरणम्’ ऐसे रटते रहते हैं । वे नामके प्रसाद से ब्रह्मसुख लेते हैं ।
“नारद जानेउ नाम प्रतापू ।
जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू ॥“
…………(मानस, बालकाण्ड, दोहा २६ । ३)
संसार को तो विष्णु भगवान् प्यारे लगते हैं, वे संसार का पालन-पोषण करने वाले हैं । जैसे बालकको माँ बड़ी प्यारी लगती है ‘मात्रा समं नास्ति शरीरपोषणम्’‒ शरीरका पालन करनेमें माँ के समान कोई नहीं है । कोई आफत हो तो बालक को माँ याद आती है । हम भाई-बहन जितने हैं, हम सबका पालन-पोषण माँ ने ही किया है । माँ की तरह संसारमात्रका पालन करनेवाली शक्ति (माँ) है भगवान् हरि (विष्णु) । नारदजी भगवान्‌के नामका कीर्तन करते हैं । इस नामके कारण भगवान् विष्णुको और भगवान् शंकरको भी प्यारे लगने लगे । इस प्रकार सबको प्रिय लगनेवाले नारदजी महाराज हो गये ।
राम ! राम !! राम !!!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


गुरुवार, 11 जनवरी 2018

नाम जप में मन क्यों नहीं लगता ?

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
नाम जप में मन क्यों नहीं लगता ?
बहुतसे लोग कह देते हैं—‘तुम नाम-जपते हो तो मन लगता है कि नहीं लगता है ? अगर मन नहीं लगता है तो कुछ नहीं, तुम्हारे कुछ फायदा नहीं—ऐसा कहनेवाले वे भाई भोले हैं, वे भूलमें हैं, इस बातको जानते ही नहीं; क्योंकि उन्होंने कभी नाम-जप करके देखा ही नहीं । पहले मन लगेगा, पीछे जप करेंगे—ऐसा कभी हुआ है ? और होगा कभी ? ऐसी सम्भावना है क्या ? पहले मन लग जाय और पीछे ‘राम-राम’ करेंगे—ऐसा नहीं होता । नाम जपते-जपते ही नाम-महाराजकी कृपासे मन लग जाता है ‘हरिसे लागा रहो भाई । तेरी बिगड़ी बात बन जाई, रामजीसे लागा रहो भाई ॥’ इसलिये नाम-महाराजकी शरण लेनी चाहिये । जीभसे ही ‘राम-राम’ शुरू कर दो, मनकी परवाह मत करो । ‘परवाह मत करो’—इसका अर्थ यह नहीं है कि मन मत लगाओ । इसका अर्थ यह है कि हमारा मन नहीं लगा, इससे घबराओ मत कि हमारा जप नहीं हुआ । यह बात नहीं है । जप तो हो ही गया, अपने तो जपते जाओ । हमने सुना है—
माला तो करमें फिरे, जीभ फिरे मुख माहिं ।
मनवाँ तो चहुँ दिसि फिरे, यह तो सुमिरन नाहिं ॥
‘भजन होगा नहीं’—यह कहाँ लिखा है ? यहाँ तो ‘सुमिरन नाहिं’—ऐसा लिखा है । सुमिरन नहीं होगा, यह बात तो ठीक है; क्योंकि ‘मनवा तो चहुँ दिसि फिरे’ मन संसारमें घूमता है तो सुमिरन कैसे होगा ? सुमिरन मनसे होता है; परन्तु ‘यह तो जप नाहिं’—ऐसा कहाँ लिखा है ? जप तो हो ही गया । जीभमात्रसे भी अगर हो गया तो नाम-जप तो हो ही गया ।
हमें एक सन्त मिले थे । वे कहते थे कि परमात्माके साथ आप किसी तरहसे ही अपना सम्बन्ध जोड़ लो । ज्ञानपूर्वक जोड़ लो, और मन-बुद्धिपूर्वक जोड़ लो तब तो कहना ही क्या है ? और नहीं तो जीभसे ही जोड़ लो । केवल ‘राम’ नामका उच्चारण करके भी सम्बन्ध जोड़ लो । फिर सब काम ठीक हो जायगा ।
राम ! राम !! राम !!!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


नामका प्रभाव (01)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
नामका प्रभाव (01)
आगे भगवान्‌ के नाम लेने वाले भक्तों को गिनाते हैं । उन लोगों ने कैसे नाम लिया, वह भी बताते हैं ।
“नाम प्रसाद संभु अबिनासी ।
साजु अमंगल मंगल रासी ॥“
………….(मानस, बालकाण्ड, दोहा २६ । १)
नामके प्रसादसे ही शिवजी अविनाशी हैं और अमंगल वेषवाले होनेपर भी मंगलकी राशि हैं । शंकर अविनाशी किससे हुए ? तो कहते हैं ‘नाम-प्रसाद’‒नामके प्रभावसे ।
एक बार नारदजीने पार्वती के शंका पैदा कर दी कि ‘भोले बाबा से पूछो तो सही कि ये रुण्डमाला जो पहने हुए हैं, यह माला क्या है ?’ पार्वतीने पूछा‒‘महाराज ! आपने यह माला पहन रखी है यह क्या है ?’ शंकर टालने लगे । ‘क्या करोगी पूछकर ?’ पर उसने कहा‒‘नहीं महाराज ! आप बताओ ।’ तो शंकर कहने लगे‒‘बात यह है कि तुम्हारे इतने जन्म हुए हैं । तुम्हारा एक-एक मस्तक लेकर इतनी माला बना ली हमने ।’ पार्वतीको आश्चर्य हुआ । वह बोली‒‘महाराज ! मेरे तो इतने जन्म हो गये और आप वही रहे, इसमें क्या कारण है ?’ उन्होंने बताया कि हम अमरकथा जानते हैं । ‘फिर तो अमरकथा हमें भी जरूर सुनाओ ।’ हठ कर लिया ज्यादा, तो एकान्त में जाकर कहा‒‘अच्छा तुम को सुनायेंगे, पर हरेक को नहीं सुनायेंगे ।’ भगवान् शंकर सुनाने लगे, भगवान्‌ का नाम और भगवान्‌ का चरित्र । अमरकथा यही है । भगवान् शंकर ने सब पक्षियों को उड़ाने के लिये तीन बार ताली बजायी । उस समय और दूसरे सभी पक्षी उड़ गये, पर एक सड़ा गला तोते का अण्डा पड़ा था, उसने इस कथा को सुन लिया । पार्वती ने हठ तो कर लिया; परंतु उसे नींद आ गयी ।
एक तो प्रेम से सुनने की स्वयं की उत्कण्ठा होती है और एक दूसरे की प्रेरणा से इच्छा की जाती है । पार्वती ने नारदजी की प्रेरणा से इच्छा की थी, इस कारण नींद आ गयी । जिसके स्वयं की लगन होती है, उसको नींद नहीं आती । पार्वती को नींद आ गयी, तोता सुनते-सुनते हाँ-हाँ कहने लगा । भगवान् शंकर मस्त होकर भगवान्‌ का चरित्र कहे जा रहे हैं और उसी में मस्त हो रहे हैं । आँख खोलकर जब देखा तो तोता बैठा है और सुन रहा है । ‘अरे ! इसने चोरी से नाम सुन लिया !’ वह वहाँ से उड़ा, शंकर भगवान् पीछे भागे । त्रिशूल हाथ में लिये हुए पीछे-पीछे गये । उस समय वेदव्यास जी की स्त्री सिर गुँथा रही थी । उसको भी नींद आ रही थी थोड़ी । उसका मुख खुला था । वह मुखके भीतर प्रवेश कर गया । वे ही शुकदेव हुए शुकदेव मुनि जो राजा परीक्षित्‌ को मुक्ति दिलाने वाले, भागवतसप्ताह सुनाने वाले हुए । वे शुकदेव जी माँ के पेट में ही नाम-जपमें लग गये । शुकदेव मुनि इस तरह से श्रेष्ठ हुए । पार्वती को अमरकथा सुनायी, जिससे पार्वती भी अमर हो गयी ।
राम ! राम !! राम !!!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


नाम में अरुचिका कारण

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
नाम में अरुचिका कारण
वाल्मीकिजी को अल्पप्राणवाला नाम भी क्यों नहीं आया ? कारण क्या था ? ध्यान दें ! ‘राम’ नाम उच्चारण करने में सुगम है; परन्तु जिसके पाप अधिक हैं, उस पुरुष द्वारा नाम-उच्चारण कठिन हो जाता है । एक कहावत है—
मजाल क्या है जीव की, जो राम-नाम लेवे ।
पाप देवे थाप की, जो मुण्डो फोर देवे ॥
जिनका अल्प पुण्य होता है, वे ‘राम’ नाम ले नहीं सकते । श्रीमद्भगवद्गीतामें आया है—
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥
.............(७ । २८)
जिनके पाप नष्ट हो गये हैं, वे ही दृढ़व्रत होकर भगवान्‌के भजनमें लग सकते हैं ।
राम ! राम !! राम !!!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


संसारकूप में पड़ा प्राणी

|| श्रीहरि :||
संसारकूप में पड़ा प्राणी
संसारकूपे पतितोऽत्यगाधे मोहान्धपूर्णे विषयाभितप्ते |
करावालम्बं मम देहि विष्णो गोविन्द दामोदर माधवेति ||
(जो मोहरूपी अन्धकार से व्याप्त और विषयों की ज्वाला से संतप्त है, ऐसे अथाह संसाररूपी कूप में मैं पड़ा हुआ हूँ | ‘हे मेरे मधुसूदन! हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव!, मुझे अपने हाथ का सहारा दीजिये)
भव-कूप—यह एक पौराणिक रूपक है, और है सर्वथा परिपूर्ण | इस संसार के कूप में पडा प्राणी कूप-मण्डूक से भी अधिक अज्ञान के अन्धकार से ग्रस्त होरहा है | अहंता और ममता के घेरे में घिरा प्राणी—समस्त चराचर में परिव्याप्त एक ही आत्मतत्त्व है, इस परमसत्य की बात स्वप्न में भी नहीं सोच पाता |
कितना भयानक है यह संसार-कूप—यह सूखा कुआँ है | इस अंधकूप में जल का नाम नहीं है | इस दु:खमय संसार में जल-रस कहाँ है | जल तो रस है, जीवन है; किन्तु संसार में तो न सुख है, न जीवन है | यहाँ का सुख और जीवन—एक मिथ्या भ्रम है | सुख से सर्वथा रहित है, संसार और मृत्यु से ग्रस्त है—अनित्य है |
मनुष्य इस रसहीन सूखे कुँए में गिर रहा है | कालरूपी हाथी के भय से भागकर वह कुँए के मुखपर उगी लताओं को पकड़कर लटक गया है कुँए में | लेकिन कबतक लटका रहेगा वह ? उसके दुर्बल बाहु कबतक देह का भार सम्हाले रहेंगे | कुँएके ऊपर मदांध गज उसकी प्रतीक्षा कर रहा है –बाहर निकला और गज ने कुचल दिया पैरों से |
कुँए में ही गिर जाता--कूद जाता; किन्तु वहां तो महाविषधर फण उठाए फूत्कार कर रहा है | क्रुद्ध सर्प प्रस्तुत ही है की मनुष्य गिरे और उसके शरीर में पैंने दन्त तीक्ष्ण विष उँडेल दें | अभागा मनुष्य—वह देर तक लटका भी नहीं रह सकता | जिस लता को पकड़कर वह लटक रहा है, दो चूहे--काले और श्वेत रंग के दो चूहे उस लता को कुतरने में लगे हैं | वे उस लता को ही काट रहे हैं | लेकिन मूर्ख मानव को मुख फाड़े सिर पर और नीचे खादी मृत्यु दीखती ही कहाँ है | वह तो मग्न है | लता में लगे शहद के छत्ते से जो मधुबिंदु यदाकदा टपकपड़ते हैं, उन सीकरों को चाट लेने में ही वह अपने को कृतार्थ मान रहा है |
यह न रूपक है न कहानी है | यह तो जीवन है—संसार के रसहीन कूप में पड़े सभी प्राणी यही जीवन बिता रहे हैं | मृत्यु से चरों ओर से ग्रस्त यह जीवन—कालरूपी कराल हाथी कुचल देने की प्रतीक्षा में है इसे | मौतरूपे सर्प अपना फण फैलाए प्रस्तुत है | कहीं भी मनुष्य का मृत्यु से छुटकारा नहीं | जीवन के दिन—आयु की लता जो उसका सहारा है, कटती जारही है | दिन और रात्रिरूपी सफ़ेद तथा काले चूहे उसे कुतर रहे हैं | क्षण-क्षण आयु क्षीण हो रही है | इतने पर भी मनुष्य मोहान्ध हो रहा है | उसे मृत्यु दीखती नहीं | विषय-सुखरूपी मधुकण जो यदाकदा उसे प्राप्त होजाते हैं, उन्हीं में रम रहा है वह—उन्हीं को पाने की चिंता में व्यग्र है वह !
----------कल्याण, वर्ष ९०, अंक ११-नवम्बर,२०१६


“राम अनंत अनंत गुनानी”

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
“राम अनंत अनंत गुनानी”
माँ इतनी हितैषिणी होती है कि उसका स्तन काटनेपर भी बालकपर स्नेह रखती है, गुस्सा नहीं करती । वह तो फिर भी दूध पिलाती है । वह उसकी परवाह नहीं करती और अहित नहीं होने देती । इसी तरह भगवान्‌ने नारदजीके मनकी बात नहीं होने दी तो उन्होंने भगवान्‌को ही शाप दे दिया । छोटे बालक ही तो ठहरे ! काट गये । फिर भी माँ प्यार करती है और थप्पड़ भी देती है तो प्यारभरे हाथसे देती है । माँ गुस्सा नहीं करती है कि काटता क्यों है ! ऐसे ही पहले नारदजीने शाप तो दे दिया; परंतु फिर पश्चात्ताप करके बोले‒‘प्रभु ! मेरा शाप व्यर्थ हो जाय । मेरी गलती हुई, मुझे माफ कर दो ।’ भगवान्‌ने कहा‒‘मम इच्छा कह दीनदयाला’‒मेरी ऐसी ही इच्छा थी । भगवान् इस प्रकार कृपा करते हैं ।
पम्पा सरोवरपर भगवान्‌की वाणी सुनकर नारदजीको लगा कि भगवान् प्रसन्न हैं । अभी मौका है । तब बोले कि ‘मुझे एक वर दीजिये ।’ भगवान् बोले‒‘कहो भाई ! क्या वरदान चाहते हो?’ नारदजीने कहा‒
राम सकल नामन्ह ते अधिका ।
होउ नाथ अघ खग गन बधिका ॥
………(मानस, अरण्यकाण्ड, ४२ । ८)
आपका जो नाम है, वह सब नामोंसे अधिक हो जाय और बधिक के समान पापरूपी पक्षियोंका नाश करनेवाला हो जाय । भगवान्‌के हजारों नाम हैं, उन नामोंकी गणना नहीं की जा सकती । ‘हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता’ (मानस,बालकाण्ड १४० । ५) भगवान् अनन्त हैं, भगवान्‌की कथा अनन्त है तो भगवान्‌के नाम सान्त (सीमित) कैसे हो जायँगे ?
राम अनंत अनंत गुनानी ।
जन्म कर्म अनंत नामानी ॥
……………(मानस, उत्तरकाण्ड, दोहा ५२ । ३)
विष्णुसहस्रनाममें आया है‒
यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः ।
भगवान्‌के गुण आदिको लेकर कई नाम आये हैं । उनका जप किया जाय तो भगवान्‌के गुण, प्रभाव, तत्त्व, लीला आदि याद आयेंगे । भगवान्‌के नामोंसे भगवान्‌के चरित्र याद आते हैं । भगवान्‌के चरित्र अनन्त हैं । उन चरित्रोंको लेकर नाम भी अनन्त होंगे । गुणोंको लेकर जो नाम हैं, वे भी अनन्त होंगे । अनन्त नामोंमें सबसे मुख्य ‘राम’ नाम है । वह खास भगवान्‌का ‘राम’ नाम हमें मिल गया तो समझना चाहिये कि बहुत बड़ा काम हो गया ।
राम ! राम !! राम !!!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


गुरुवार, 4 जनवरी 2018

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


कलौ भागवती वार्ता भवरोगविनाशिनी ॥

(इस कलियुगमें भागवत की कथा भवरोग की रामबाण औषध है)




बुधवार, 3 जनवरी 2018

सच्चा सुधारक गोस्वामी तुलसीदासजी (पोस्ट 02)

*श्रीजानकीवल्लभो विजयते**
सच्चा सुधारक
गोस्वामी तुलसीदासजी (पोस्ट 02)
( बाबा राघवदासजी )
दिनरात भजनमें संलग्न रहनेपर भी आप (तुलसीदास जी) कहते हैं-
तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पापपुञ्जहारी॥
कितना बड़ा आत्म-विश्लेषण है !
हम आजकल तनिकसा पूजा-पाठ करके अपनेको कृतार्थ समझ लेते हैं और उस कृतकृत्यकी आड़में मनमाने पाप करनेमें भी नहीं सकुचाते। इतना होनेपर भी लोगों के सामने बड़े भक्त, सदाचारी और निर्दोष बनने का दावा करते हैं। पर गोस्वामीजी महाराज जैसे परम पवित्र महापुरुष जीवनभर सच्ची भक्ति और मानसिक भजन में लगे रहने पर भी अपनी मानवीय दुर्बलताओं को अपने इष्टदेव श्रीराम के सामने कितनी स्पष्टता से प्रकट करते हैं। यही उनके सच्चे सुधारक होनेका ज्वलन्त प्रमाण है। आप बड़े ही आर्त्त भावसे कहते हैं-
कौन जतन बिनती करिये।
निज आचरन बिचारि हारि हिय मानि जानि डरिये॥
जेहि साधन हरि द्रवहु जानि जन सो हठि परिहरिये।
जाते विपत्ति-जाल निसिदिन दुख तोहि पथ अनुसरिये॥
जानत हूं मन बचन करम पर-हित कीन्हें तरिये।
सो विपरीत देखि परसुख बिनु कारन ही जरिये॥
स्रुति पुरान सबको मत यह सत्संग सुदृढ़ धरिये।
निज अभिमान मोह ईर्षावस तिनहिं न आदरिये॥
संतत सोइ प्रिय मोहिं सदा जाते भवनिधि परिये।
कहो, अब नाथ! कौन बलतें संसार-सोक हरिये॥
जब कब निज करुना-सुभावतें द्रवहु तो निस्तरिये।
तुलसिदास बिस्वास आन नहिं कत पचि पचि मरिये॥
अपने दोषोंके वर्णन के साथ ही करुणामय नाथ पर कितना भरोसा है। दूसरों को उपदेश देकर उनका सुधार करनेवाले और भगवान्‌ के आश्रय की उपेक्षा करने वाले आत्म-विस्मृत हम लोगों को गोस्वामीजी महाराज की इस विनय से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये।
गोस्वामी जी महाराज के इस आत्मसंशोधन के कार्य को उनके सद्‌ग्रन्थों द्वारा जानकर हमें अपनी दुर्बलताओं का अनुभव करके एकमात्र सर्वगुणाधार सर्वनियन्ता सर्वशक्तिमान भगवान्‌ की शरण ग्रहण करनेके लिये तैयार हो जाना चाहिये । भगवान्‌ की शरणसे समस्त पापों का नाश होकर सारा सुधार स्वयमेव हो जायगा ।
भगवान्‌की यह घोषणा याद रखनी चाहिये-
सर्वधर्मान्‌ परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
जय सियाराम !
------००४. ०२. भाद्रपद कृष्ण ११ सं० १९८६वि०. कल्याण ( पृ० ५७१ )


गीतामें धर्म (पोस्ट ०२)

।। श्रीहरिः ।।

गीतामें धर्म (पोस्ट ०२)

शम, दम, तप, क्षमा आदि ब्राह्मणके स्वधर्म हैं (१८ । ४२) । इनके अतिरिक्त पढ़ना-पढ़ाना, दान देना-लेना आदि भी ब्राह्मणके स्वधर्म हे । शौर्य, तेज आदि क्षत्रियके स्वधर्म हैं (१८।४३) । इनके अतिरिक्त परिस्थितिके अनुसार प्राप्त कर्तव्यका ठीक पालन करना भी क्षत्रियका स्वधर्महै । खेती करना, गायोंका पालन करना और व्यापार करना वैश्यके स्वधर्महैं (१८ । ४४) । इनके अतिरिक्त परिस्थितिके अनुसार कोई आवश्यक कार्य सामने आ जाय तो उसे सुचारुरूपसे करना भी वैश्यका स्वधर्महै । सबकी सेवा करना शूद्रका स्वधर्महै (१८ । ४४) । इसके अतिरिक्त परिस्थितिके अनुसार प्राप्त और भी कर्मोंको सांगोपागं करना शूद्रका स्वधर्महै ।

भगवान्‌ ने कृपाके परवश होकर अर्जुनके माध्यमसे सभी मनुष्योंको एक विशेष बात बतायी है कि तुम (उपर्युक्त कहे हुए) सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छो‍ड़कर केवल एक मेरी शरणमें आ जाओ तो मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तुम चिन्ता मत करो (१८ । ६६) । तात्पर्य यह है कि अपने-अपने वर्ण-आश्रमक‌ी मर्यादामें रहनेके लिये, अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये उपर्युक्त सभी धर्मोंका पालन करना बहुत आवश्यक है और संसार-चक्रको दृष्टिमें रखकर इनका पालन करना ही चाहिये (३ । १४१६); परंतु इनका आश्रय नहीं लेना चाहिये । आश्रय केवल भगवान्‌का ही लेना चाहिये । कारण कि वास्तवमें ये स्वयंके धर्म नहीं हैं, प्रत्युत शरीरको लेकर होनेसे परधर्म ही हैं ।

भगवान्‌ने स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य’ (२ । ४०) पदोंसे समताको, ‘धर्मस्यास्य’ (९ । ३) पदसे ज्ञान-विज्ञानको और धर्म्यामृतम्’ (१२ । २०) पदसे सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको भी धर्मकहा है । इनको धर्म कहनेका तात्पर्य यह है कि परमात्माका स्वरूप होनेसे समता सभी प्राणियोंका स्वधर्म (स्वयंका धर्म) है । परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला होनेसे ज्ञान-विज्ञान भी साधकका स्वधर्म है और स्वतःसिद्ध होनेसे सिद्ध भक्तोंके लक्षण भी सबके स्वधर्म हैं ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


-- गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-दर्पणपुस्तक से


गीतामें धर्म (पोस्ट ०१)

।। श्रीहरिः ।।

गीतामें धर्म (पोस्ट ०१)

वर्णे तु यस्मिन् मनुजः प्रजातस्तत्रत्यकार्यं कथितः स्वधर्मः ।
शास्त्रेण तस्मान्नियतं हि  कर्म कर्तव्यमित्यत्र विधानमस्ति ॥

गीतामें धर्मका वर्णन मुख्य है । अगर गीताके आरम्भ और अन्तके अक्षरोंका प्रत्याहार बनाया जाय अर्थात् आरम्भके धर्मक्षेत्रे’ (१ । १) पदसे धर्और अन्तके मतिर्मम’ (१८ । ७८) पदसे लिया जाय, तो धर्मप्रत्याहार बन जाता है । अतः पूरी गीता ही धर्मके अन्तर्गत आ जाती है ।

गीता ने कुलधर्माः सनातनाः’ (१ । ४०), ‘जातिधर्माः’ (१ । ४३) पदोंसे सदासे चलती आयी कुलकी मर्यादाओं, रीतियों, परम्पराओं और जातिकी रिवाजोंको भी धर्मकहा है; ‘धर्मसम्मूढचेताः’ (२ । ७), ‘स्वधर्मम्, धर्म्यात्’ (२ । ३१), ‘धर्म्यम्, स्वधर्मम्’ (२ । ३३), ‘स्वधर्मः’, (३ ।३५; १८ ।४७) आदि पदोंसे अपने-अपने वर्णके अनुसार शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मोंको भी धर्मअथवा स्वधर्मकहा है; और त्रयीधर्मम्’ (९ । २१) पदसे वैदिक अनुष्ठानोंको भी धर्मकहा है । इन सभी धर्मोंको कर्तव्यमात्र समझकर निष्कामभावपूर्वक तत्परतासे किया जाय, तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है (१८ । ४५) ।

 जो मनुष्य जिस वर्णमें पैदा हुआ है उस वर्णके अनुसार शास्त्रने उसके लिये कर्तव्यरूपसे जो कर्म नियत कर दिया है, वह कर्म उसके लिये स्वधर्महै । परंतु शास्त्रने जिसके लिये जिस कर्मका निषेध कर दिया है, वह कर्म दूसरे वर्णवालेके लिये विहित होनेपर भी (जिसके लिये निषेध किया है) उसके लिये परधर्महै । अच्छी तरहसे अनुष्ठानमें लाये हुए परधर्मकी अपेक्षा गुण‌ोंकी कमीवाला भी अपना धर्म श्रेष्ठ है । अपने धर्मका पालन करते हुए मृत्यु भी हो जाय, तो भी अपना धर्म कल्याण करनेवाला है; परंतु परधर्मका आचरण करना भयको देनेवाला है (३ । ३५) ।
वर्ण-आश्रमके कर्मके अतिरिक्त मनुष्यको परिस्थितिरूपसे जो कर्तव्य प्राप्त हो जाय, उस कर्तव्यका पालन करना भी मनुष्यका स्वधर्म है । जैसेकोई विद्यार्थी है तो तत्परतासे विद्या पढ़ना उसका स्वधर्म है; कोई शिक्षक है तो विद्यार्थीको पढ़ाना उसका स्वधर्म है; कोई नौकर है तो अपने कर्तव्यका पालन करना उसका स्वधर्म है आदि-आदि । जो स्वीकार किये हुए कर्म-(स्वधर्म-) का निष्कामभावसे पालन करता है, उसको परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है (१८ । ४५) ।

    शेष आगामी पोस्ट में........


-- गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-दर्पणपुस्तक से


सोमवार, 1 जनवरी 2018

श्री हरि

: नारायण हरि :
“तस्मिन्प्रसन्ने सकलाशिषां प्रभौ
किं दुर्लभं ताभिरलं लवात्मभिः ।
अनन्यदृष्ट्या भजतां गुहाशयः
स्वयं विधत्ते स्वगतिं परः पराम् ॥“
भगवान्‌ तो सभी कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं, उनके प्रसन्न होने पर संसार में क्या दुर्लभ है। किन्तु उन तुच्छ कामनाओं की आवश्यकता ही क्या है ? जो लोग उनका अनन्यभाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे अन्तर्यामी परमात्मा स्वयं अपना परम पद ही दे देते हैं ॥
…..श्रीमद्भागवत ३.१३.४९


श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)

# श्रीहरि: #   श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)   शकटभञ्जन ; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार ; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्ण...