मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

दस नामापराध (पोस्ट ०२)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: |

‘असति नामवैभवकथा’‒(२) जो भगवन्नाम नहीं लेता, भगवान्‌ की महिमा नहीं जानता, भगवान्‌ की निन्दा करता है, जिसकी नाममें रुचि नहीं है, उसको जबरदस्ती भगवान्‌के नामकी महिमा मत सुनाओ । वह सुननेसे तिरस्कार करेगा तो नाम महाराज का अपमान होगा । वह एक अपराध बन जायगा । इस वास्ते उसके सामने भगवान्‌ के नामकी महिमा मत कहो । साधारण कहावत आती है -

हरि हीराँ री गाठडी, गाहक बिना मत खोल ।
आसी हीराँ पारखी, बिकसी मँहगे मोल ॥

भगवान्‌ के ग्राहक के बिना नाम-हीरा सामने क्यों रखे भाई ? वह तो आया है दो पैसों की मूँगफली लेने के लिये और आप सामने रखो तीन लाख रत्न-दाना ? क्या करेगा वह रतन का ? उसके सामने भगवान्‌ का नाम क्यों रखो भाई ? ऐसे कई सज्जन होते हैं जो नामकी महिमा सुन नहीं सकते । उनके भीतर अरुचि पैदा हो जाती है ।

अन्नसे पले हैं, इतने बड़े हुए; परन्तु भीतर पित्त का जोर होता है तो मिश्री खराब लगती है, अन्न की गन्ध आती है । वह भाता नहीं, सुहाता नहीं । अगर अन्न अच्छा नहीं है तो इतनी बड़ी अवस्था कैसे हो गयी ? अन्न खाकर तो पले हो,फिर भी अन्न अच्छा नहीं लगता ? कारण क्या है ? पेट खराब है । पित्तका जोर है ।

तुलसी पूरब पाप ते, हरिचर्चा न सुहात ।
जैसे जुरके जोरसे, भोजनकी रुचि जात ॥

ज्वर में अन्न अच्छा नहीं लगता । ऐसे ही पापी को बुखार है, इस वास्ते उसे नाम अच्छा नहीं लगता । तो उसको नाम मत सुनाओ । मिश्री कड़वी लगती है सज्जनो ! और मिश्री कड़वी है तो क्या कुटक, चिरायता मीठा होगा ? परन्तु पित्तके जोरसे जीभ खराब है । पित्तकी परवाह नहीं मिश्री खाना शुरू कर दो । खाते-खाते पित्त शान्त हो जायगा और मिश्री मीठी लगने लग जायगी ।

ऐसे किसीका विचार हो, रुचि न हो तो नाम-जप करना शुरू कर दे इस भाव से कि यह भगवान्‌ का नाम है । हमें अच्छा नहीं लगता है, हमारी अरुचि है तो हमारी जीभ खराब है । यह नाम तो अच्छा ही है‒ऐसा भाव रखकर नाम लेना शुरू कर दें और भगवान्‌ से प्रार्थना करें कि हे नाथ ! आपके चरणोंमें रुचि हो जाय, आपका नाम अच्छा लगे । ऐसे भगवान्‌से कहता रहे, प्रार्थना करता रहे तो ठीक हो जायगा ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में)
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे


सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

दस नामापराध (पोस्ट ०१)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||


सन्निन्दासति     नामवैभवकथा    श्रीशेशयोर्भेदधी-
रश्रद्धा    श्रुतिशास्त्रदैशिकगिरां   नाम्न्यर्थवादभ्रमः ।
नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागौ च धर्मान्तरैः
साम्यं  नामजपे  शिवस्य  च  हरेर्नामापराधा  दश ॥

भगवन्नाम-जपमें दस अपराध होते हैं । उन दस अपराधोंसे रहित होकर हम नाम जपें । कई ऐसा कहते हैं‒

राम नाम सब कोई कहे  दशरथ  कहे न कोय ।
एक बार दशरथ कहे तो कोटि यज्ञ फल होय ॥

और कई तो ‘दशरथ कहे न कोय’ की जगह ‘दशऋत कहे न कोय’ कहते हैं अर्थात् ‘दशऋत’‒दस अपराधोंसे रहित नहीं करते । साथ-साथ अपराध करते रहते हैं । उस नामसे भी फायदा होता है । पर नाम महाराजकी शक्ति उन अपराधोंके नाश होनेमें खर्च हो जाती है । अपराध करता है तो नाम महाराज प्रसन्न नहीं होते । वे रुष्ट होते हैं । ये अपराध हमारेसे न हों । इसके लिये खयाल रखें । दस अपराध बताये जाते हैं । वे इस प्रकार हैं‒

‘सन्निन्दा’‒(१) पहला अपराध तो यह माना है कि श्रेष्ठ पुरुषोंकी निन्दा की जाय । अच्छे-पुरुषों की, भगवान्‌ के प्यारे भक्तों की जो निन्दा करेंगे, भक्तों का अपमान करेंगे तो उससे नाम महाराज रुष्ट हो जायेंगे । इस वास्ते किसीकी भी निन्दा न करें; क्योंकि किसीके भले-बुरे का पता नहीं लगता है ।

ऐसे-ऐसे छिपे हुए सन्त-महात्मा होते हैं कि गृहस्थ-आश्रममें रहनेवाले, मामूली वर्ण में, मामूली आश्रम में, मामूली साधारण स्त्री-पुरुष दीखते हैं, पर भगवान्‌ के बड़े प्रेमी और भगवान्‌ का नाम लेनेवाले होते हैं । उनका तिरस्कार कर दें,अपमान कर दें, निन्दा कर दें तो कहीं भगवान्‌ के भक्त की निन्दा हो गयी तो नाम महाराज प्रसन्न नहीं होंगे ।

नाम चेतन कू चेत भाई । नाम चौथे कूँ मिलाई ।

नाम चेतन है । भगवान्‌ का नाम दूसरे नामों की तरह होता है, ऐसा नहीं है । वह जड़ नहीं है, वह चेतन है । भगवान्‌ का श्रीविग्रह चिन्मय होता है‒‘चिदानंदमय देह तुम्हारी ।’ हमारे शरीर जड़ होते हैं, शरीर में रहनेवाला चेतन होता है । पर भगवान्‌ का शरीर भी चिन्मय होता है । उनके गहने-कपड़े आदि भी चिन्मय होते हैं । उनका नाम भी चिन्मय है । यदि ऐसे चिन्मय नाम महाराज की कृपा चाहते हो, उसकी मेहरबानी चाहते हो तो जो अच्छे पुरुष हैं और जो नाम लेनेवाले हैं, उनकी निन्दा मत करो ।

नारायण !     नारायण !!     

 (शेष आगामी पोस्ट में)
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे


रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम:

“चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् |
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ||”

( श्री रघुनाथ जी का चरित्र सौ करोड विस्तार वाला है और उसका एक एक अक्षर भी मनुष्यों के महान् पापों को नाश करने वाला है )


मातृदेवो भव ! पितृदेवो भव !!



माता-पिता की सेवा का तात्पर्य कृतज्ञता में है । माता-पिता ने बच्चे के लिये जो कष्ट सहे हैं उसका पुत्रपर ऋण है । उस ऋण को पुत्र कभी उतार नहीं सकता । माँ ने पुत्र की जितनी सेवा की है, उतनी सेवा पुत्र कर ही नहीं सकता । अगर कोई पुत्र यह कहता है कि मैं अपनी चमड़ी से माँ के लिये जूती बना दूँ तो उससे हम पूछते हैं कि यह चमड़ी तुम कहाँ से लाये ? यह भी तो माँ ने ही दी है ! उसी चमड़ी की जूती बनाकर माँ को दे दी तो कौन-सा बड़ा काम किया ? केवल देने का अभिमान ही किया है ! ऐसे ही शरीर खास पिता का अंश है । पिता के उद्योग से ही पुत्र पढ़-लिखकर योग्य बनता है, उसको रोटी-कपड़ा मिलता है । इसका बदला कैसे चुकाया जा सकता है ! अतः केवल माता-पिता की सेवा करनेसे, उनकी प्रसन्नता लेने से वह ऋण अदा तो नहीं होता, पर माफ हो जाता है ।

........गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तक से


रविवार, 26 फ़रवरी 2023

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

होइहि सोइ जो राम रचि राखा । को करि तर्क बढ़ावै साखा॥

रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम् |
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजश्रीः ||
इत्थं विचारयति कोषगते द्विरेफे |
हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार ||

रात्रि बीतेगी सुन्दर प्रभात होगा ! सूर्य निकलेगा, कमलों का समूह खिलेगा ! --इस प्रकार कमल की डोडी में बैठे हुए भौंरा सोच ही रहा था कि उसके ऐसा सोचते-सोचते.... हाय ! बड़ा दु:ख है कि हाथी, उसी कमलिनी को उखाड़ कर ले गया !! 

उसे क्या पता था कि उसके भाग्य में क्या लिखा है ?

मनुष्य भी इसी प्रकार दु:ख के समय में सुख के लिए कितनी ही मधुर कल्पनाएँ करता रहता है , किन्तु उसका दु:ख समाप्त हो नहीं पाता कि काल उसे ग्रस लेता है --उसके ऊपर कुछ भी निर्भर नही होता | होता वही है जो ईश्वर चाहता है !!


बुधवार, 22 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 19)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

आवागमन से छूटने का उपाय

तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जानेपर जीवनमुक्त पुरुष लोकदृष्टि में जीता हुआ और कर्म करता हुआ प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में उसका कर्म से सम्बन्ध नहीं होता। यदि कोई कहे कि, सम्बन्ध बिना उससे कर्म कैसे होते हैं ? इसका उत्तर यह है कि वास्तव में वह तो किसी कर्म का कर्ता है नहीं, पूर्व कृत शुभाशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध का जो शेष भाग अवशिष्ट है, उसके भोग के लिये उसी के वेग से, कुलाल के न रहने पर भी कुलालचक्र की भांति कर्ता के अभाव में भी परमेश्वरकी सत्ता-स्फूर्तिसे पूर्व-स्वभावानुसार कर्म होते रहते हैं, परन्तु वे कर्तॄत्व-अहंकारसे शून्य कर्म किसी पुण्य-पाप के उत्पादक न होनेके कारण वास्तव में कर्म ही नहीं समझे जाते ( गीता १८ । १७ )।
जो लोकदृष्टि में दीखता है, वह अन्तकाल में तत्त्वज्ञान के द्वारा तीनों शरीरों का अत्यन्त अभाव होने से जब शुद्ध सच्चिदानन्दघन में तद्रूपता को प्राप्त हो जाता है (गीता २।७२), तब उसे विदेहमुक्ति कहते हैं। जिस माया से कहीं भी नहीं आने जानेवाले निर्मल निर्गुण सच्चिदानन्दरूप आत्मा में भ्रमवश आने जाने की भावना होती है, भगवान्‌ की भक्ति के द्वारा उस माया से छूटकर इस परमपद की प्राप्ति के लिये ही हम सब को प्रयत्न करना चाहिये !

ॐ तत्सत् !

................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने । प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नम:॥



जिनके हृदय में निरन्तर प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है, वे शुद्धान्त:करण पुरुष स्वप्नमें भी यमराजको नहीं देखते ॥ जिनके हृदयमें भक्ति महारानीका निवास है, उन्हें प्रेत, पिशाच, राक्षस या दैत्य आदि स्पर्श करनेमें भी समर्थ नहीं हो सकते ॥ भगवान्‌ तप, वेदाध्ययन, ज्ञान और कर्म आदि किसी भी साधनसे वशमें नहीं किये जा सकते; वे केवल भक्तिसे ही वशीभूत होते हैं। इसमें श्रीगोपीजन प्रमाण हैं ॥ मनुष्योंका सहस्रों जन्मके पुण्य-प्रतापसे भक्तिमें अनुराग होता है। कलियुगमें केवल भक्ति, केवल भक्ति ही सार है। भक्तिसे तो साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र सामने उपस्थित हो जाते हैं ॥ 

येषां चित्ते वसेद्‌भक्तिः सर्वदा प्रेमरूपिणी ।
नते पश्यन्ति कीनाशं स्वप्नेऽप्यमलमूर्तयः ॥ 
न प्रेतो न पिशाचो वा राक्षसो वासुरोऽपि वा ।
भक्तियुक्तमनस्कानां स्पर्शने न प्रभुर्भवेत् ॥ 
न तपोभिर्न वेदैश्च न ज्ञानेनापि कर्मणा ।
हरिर्हि साध्यते भक्त्या प्रमाणं तत्र गोपिकाः ॥ 
नृणां जन्मसहस्रेण भक्तौ प्रीतिर्हि जायते ।
कलौ भक्तिः कलौ भक्तिः भक्त्या कृष्णः पुरः स्थितः ॥ 

………. (श्रीमद्भागवतमाहात्म्य २|१६-१९)


मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 18)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



आवागमन से छूटने का उपाय

जब तक परमात्मा की भक्ति उपासना निष्काम कर्मयोग आदि साधनोंद्वारा यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होकर उसकी अग्नि से अनन्त कर्मराशि सम्पूर्णतः भस्म नहीं हो जाती, तबतक उन्हें भोगने के लिये जीव को परवश होकर शुभाशुभ कर्मों के संस्कार, मूल प्रकृति और अन्तःकरण तथा इन्द्रियों को साथ लिये लगातार बारम्बार जाना आना पड़ता है। जाने और आने में यही वस्तुएं साथ जाती आती हैं। जीव के पूर्वजन्मकृत शुभाशुभ कर्म ही इसके गर्भ में आनेके हेतु हैं और अनेक जन्मार्जित संचित कर्मों के अंश विशेष निर्मित प्रारब्ध का भोग करना ही इसके जन्म का कारण है।

कर्म या तो भोग से नाश होते हैं या प्रायश्चित्त निष्काम कर्म उपासनादि साधनोंसे नष्ट होते हैं ।
इनका सर्वतोभाव से नाश परमात्मा की प्राप्ति से होता है । जो निष्काम भावसे सदा सर्वदा परमात्मा का स्मरण करते हुए मन-बुद्धि परमात्मा को अर्पण करके समस्त कार्य परमात्मा के लिये ही करते हैं, उनकी अन्त समयकी वासना परमात्माकी प्राप्ति होती है। भगवान्‌ कहते हैं--

तस्मात्‌ सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌॥
........( गीता ८ । ७ )

‘अतएव हे अर्जुन! तू सब समय निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर, इसप्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन बुद्धिसे युक्त हुआ तू निस्सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा।’

इस स्थितिमें तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होनेके कारण अज्ञानसहित पुरुषके सभी कर्म नाश हो जाते हैं। इनसे उसका आवागमन सदाके लिये मिट जाता है। यही मुक्ति है, इसीका नाम परमपदकी प्राप्ति है, यही जीवका चरम लक्ष्य है। इस मुक्तिके दो भेद हैं-एक सद्योमुक्ति और दूसरी क्रममुक्ति। इनमें क्रममुक्तिका वर्णन तो देवयान-मार्गके प्रकरणमें ऊपर आ चुका है। सद्योमुक्ति दो प्रकारकी होती है-जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 17)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:




सूक्ष्मदेह का आना जाना कर्मबन्धन न छूटने तक चला ही करता है |
प्रलयमें भी सूक्ष्म शरीर रहता है--

प्रलयकाल में भी जीवों के यह सत्रह तत्त्वों के शरीर ब्रह्माके समष्टि सूक्ष्मशरीरमें अपने अपने संचितकर्म-संस्कारों सहित विश्राम करते हैं और सृष्टिकी आदिमें उसीके द्वारा पुनः इनकी रचना हो जाती है; ( गीता ८ । १८ )। महाप्रलयमें ब्रह्मा सहित समष्टि व्यष्टि सम्पूर्ण सूक्ष्म शरीर ब्रह्मा के शान्त होनेपर शान्त हो जाते हैं, उस समय एक मूल प्रकृति रहती है, जिसको अव्याकृत माया कहते हैं। उसी महाकाल में जीवों के समस्त कारण शरीर अमुक कर्म-संस्कारों सहित अविकसित रूप से विश्राम पाते हैं। सृष्टिकी आदिमें सृष्टिके आदिपुरुष द्वारा ये सब पुनः रचे जाते हैं; ( गीता १४ । ३-४ )। अर्थात्‌ परमात्मारूप अधिष्ठाता के सकाश से प्रकृति ही चराचरसहित इस जगत्‌ को रचती है, इसी तरह यह संसार आवागमनरूप चक्र में घूमता रहता है; ( गीता ९ । १० )। महाप्रलय में पुरुष और उसकी शक्तिरूपा प्रकृति-- यह दो ही वस्तु रह जाती है, उस समय जीवों का प्रकृतिसहित पुरुष में लय हुआ करता है, इसीसे सृष्टि की आदि में उनका पुनरुत्थान होता है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 16)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

यहां यह एक शङ्का बाकी रह जाती है कि श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय के २२वें श्लोक में कहा है-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
‘जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नवीन वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त करता है।’

इसका यदि यह अर्थ समझा जाय कि इस शरीरसे वियोग होते ही जीव उसी क्षण दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है तो इससे दूसरा शरीर पहलेसे ही तैयार होना चाहिये और जब दूसरा तैयार ही है, तब कहीं आने जाने स्वर्ग नरकादि भोगने की बात कैसे सिद्ध होती है, परन्तु गीता स्वयं तीन गतियां निर्देश कर आना जाना स्वीकार करती है। इसमें परस्पर विरोध आता है, इसका क्या समाधान है?

इसका समाधान यह है कि यह शङ्का ही ठीक नहीं है। भगवान्‌ ने इस सम्बन्ध में यह नहीं कहा कि, मरते ही जीव को दूसरा ‘स्थूल’ देह ‘उसी समय तुरन्त ही’ मिल जाता है। एक मनुष्य कई जगह घूमकर घर आता है और घर आकर वह अपनी यात्रा का बयान करता हुआ कहता है ‘मैं बम्बई से कलकत्ते पहुंचा, वहां से कानपुर और कानपुर से दिल्ली चला आया।’ इस कथन से क्या यह अर्थ निकलता है कि वह बम्बई छोड़ते ही कलकत्ते में प्रवेश कर गया था या कानपुर से दिल्ली उसी दम आगया ? रास्ते का वर्णन स्पष्ट न होनेपर भी इसके अन्दर ही है, इसीप्रकार जीवका भी देह परिवर्तनके लिये लोकान्तरों में जाना समझना चाहिये। रही नयी देह मिलने की बात, सो देह तो अवश्य मिलती है परन्तु वह स्थूल नहीं होती है। समष्टि वायुके साथ सूक्ष्मशरीर मिलकर एक वायुमय देह बन जाता है, जो ऊर्ध्व-गामियोंका प्रकाशमय तैजस, नरक-गामियोंको तमोमय प्रेत पिशाच आदिका होता है। वह सूक्ष्म होनेसे हम लोगोंकी स्थूलदृष्टिसे दीखता नहीं। इसलिये यह शङ्का निरर्थक है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 15)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

चौबीस तत्त्वोंके स्थूल शरीरमेंसे निकलकर जब यह जीव बाहर आता है, तब स्थूल देह तो यहीं रह जाता है। प्राणमय कोषवाला सत्रह तत्त्वोंका सूक्ष्म शरीर इसमेंसे निकलकर अन्य शरीरमें चला जाता है। भगवान्‌ने कहा है-

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
शरीरं यदवाप्नोति यञ्चाप्युत्‌क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्‌॥
( गीता १५ । ७ - ८ )

इस देहमें यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन त्रिगुणमयी मायामें स्थित पांचों इन्द्रियोंको आकर्षित करता है। जैसे गन्धके स्थानसे वायु गन्धको ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिका स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीरको त्यागता है, उससे मनसहित इन इन्द्रियोंको ग्रहण करके, फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है।’

प्राण वायु ही उसका शरीर है, उसके साथ प्रधानता से पाँच ज्ञानेन्द्रियां और छठा मन (अन्तःकरण ) जाता है, इसीका विस्तार सत्रह तत्त्व हैं। यही सत्रह तत्त्वोंका शरीर शुभाशुभ कर्मोंके संस्कारके साथ जीवके साथ जाता है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


रविवार, 19 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 14)

ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


मायासहित ब्रह्ममें लय होनेके कारण उस समय जीवका सम्बन्ध सुखसे होता है। इसीको आनन्दमय कोष कहते हैं। इसीसे इस अवस्थासे जागनेपर यह कहता है कि ‘मैं बहुत सुखसे सोया,’ उसे और किसी बातका ज्ञान नहीं था, यही अज्ञान है। इस अज्ञानका नाम ही माया-प्रकृति है। सुखसे सोया, इससे सिद्ध होता है कि उसे आनन्दका अनुभव था। सुखरूपमें नित्य स्थित होनेपर भी वह प्रकृति या अज्ञानमें रहने के कारण वापस आता है। घटमें जल भरकर उसका मुख अच्छी तरह बन्द करके उसे अनन्त जलके समुद्रमें छोड़ दिया गया और फिर वापस निकाला तब वह घड़ेके अन्दर ज्योंका त्यों बाहर निकल आया, घड़ा न होता तो वह जल समुद्र के अनन्त जलमें मिलकर एक हो जाता। इसीप्रकार अज्ञानमें रहनेके कारण सुखरूप ब्रह्ममें जानेपर भी जीवको ज्योंका त्यों लौट आना पड़ता है। अस्तु !

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३

 



जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 13)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



स्वप्नावस्था में जीव की स्थिति सूक्ष्म शरीर में रहती है, सूक्ष्म शरीर में सत्रह तत्त्व माने गये हैं---पांच प्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियां, उनके कारणरूप पांच सूक्ष्म तन्मात्राएं तथा मन और बुद्धि। यह सत्रह तत्त्व हैं। कोई कोई आचार्य पांच सूक्ष्म तन्मात्राओं की जगह पांच कर्मेन्द्रियां लेते हैं। पञ्च तन्मात्रा लेनेवाले कर्मेन्द्रियों को ज्ञानेन्द्रियों के अन्तर्गत मानते हैं और पांच कर्मेन्द्रियां माननेवाले पञ्च तन्मात्राओंको उनके कार्यरूप ज्ञानेन्द्रियोंके अन्तर्गत मान लेते हैं। किसी तरह भी मानें, अधिकांश मनस्वियोंने तत्त्व सत्रह ही बतलाये हैं, कहीं इनका ही कुछ विस्तार और कहीं कुछ संकोच कर दिया गया है।

इस सूक्ष्मशरीरके अन्तर्गत तीन कोश माने गये हैं-प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय। सब पांच कोश हैं , जिनमें स्थूल देह तो अन्नमय कोश है। यह पांचभौतिक शरीर पांच भूतोंका भण्डार है, इसके अन्दरके सूक्ष्मशरीरमें पहला प्राणमय कोश है, जिसमें पञ्च प्राण हैं। उसके अन्दर मनोमय कोष है, इसमें मन और इन्द्रियां हैं। उसके अन्दर विज्ञानमय ( बुद्धिरूपी ) कोश है, इसमें बुद्धि और पञ्च ज्ञानेन्द्रियां हैं। यही सत्रह तत्त्व हैं। स्वप्नमें इस सूक्ष्मरुपका अभिमानी जीव ही पूर्वकालमें देखे सुने पदार्थोंको अपने अन्दर सूक्ष्मरूपसे देखता है।

जब इसकी स्थिति कारण शरीर में होती है, तब अव्याकृत माया प्रकृतिरूपी एक तत्त्व से इसका सम्बन्ध हो जाता है। इस समय सभी तत्त्व उस कारणरूप प्रकृति में लय हो जाते हैं । इसीसे तब उस जीव को किसी बात का ज्ञान नहीं रहता। इसी गाढ़ निद्रावस्था को सुषुप्ति कहते हैं।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


शनिवार, 18 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 12)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



जीव साथ क्या लाता, ले जाता है ?—

अब प्रधानतः यही बतलाना रहा कि जीव अपने साथ किन किन वस्तुओं को लेजाता है और किन को लाता है। जिस समय यह जीव जाग्रत अवस्था में रहता है, उस समय इसकी स्थिति स्थूल शरीर में रहती है। तब इसका सम्बन्ध पांच प्राणों सहित चौबीस तत्त्वों से रहता है। ( आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वीका सूक्ष्म भावरूप ) पांच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, मन, त्रिगुणमयी मूल प्रकृति, कान, त्वचा, आंख,जिह्वा, नाक यह पांच ज्ञानेन्द्रियां, वाणी, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा यह पांच कर्मेन्द्रियाँ एवं शब्द, स्पर्श रूप,रस और गन्ध यह इन्द्रियोंके पांच विषय। ( गीता १३ । ५ ) यही चौबीस तत्त्व हैं।
इन तत्त्वोंका निरूपण करने वाले आचार्यों ने प्राणों को इसीलिये अलग नहीं बतलाया कि प्राण वायु का ही भेद है, जो पञ्च महाभूतों के अन्दर आ चुका है। योग सांख्य वेदान्त आदि शास्त्रों के अनुसार प्रधानतः तत्त्व चौबीस ही माने गये हैं। प्राणवायु के अलग मानने की आवश्यकता भी नहीं है। भेद बतलानेके लिये ही प्राण अपान समान व्यान उदान नामक वायु के पांच रूप माने गये हैं ।
शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 11)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



नीच गतिके दो भेद---

जो लोग आत्म-पतनके कारणभूत काम क्रोध लोभ रूपी इस त्रिविध नरक-द्वार में निवास करते हुए आसुरी, राक्षसी और मोहिनी सम्पत्ति की पूंजी एकत्र करते हैं, गीता के उपर्युक्त सिद्धान्तों के अनुसार उनकी गतिके प्रधानतः दो भेद हैं--
( १ ) बारम्बार तिर्यक्‌ आदि आसुरी योनियों में जन्म लेना और
( २ ) उनसे भी अधम भूत, प्रेत पिशाचादि गतियों का या कुम्भीपाक अवीचि असिपत्र आदि नरकों को प्राप्त होकर वहां की रोमाञ्चकारी दारुण यन्त्रणाओं को भोगना !

इनमें जो तिर्यगादि योनियों में जाते हैं, वे जीव तो मृत्युके पश्चात्‌ सूक्ष्मशरीर से समष्टि वायु के साथ मिलकर तिर्यगादि योनियों के खाद्य पदार्थों में मिलकर वीर्य द्वारा शरीर में प्रवेश करके गर्भ की अवधि बीतने पर उत्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार अण्डज प्राणियों की भी उत्पत्ति होती है। उद्भिज, स्वेदज जीवों की उत्पत्ति में भी वायुदेवता ही कारण होते हैं, जीवों के प्राणवायुको समष्टि वायु देवता अपनेरूप में भरकर जल पसीने आदि द्वारा स्वेदज प्राणियों को और वायु पृथ्वी जल आदिके साथ उनको सम्बन्धित कर बीजमें प्रविष्ट करवाकर पृथ्वीसे उत्पन्न होनेवाले वृक्षादि जड़ योनियों में उत्पन्न कराते हैं।
यह वायुदेवता ही यमराज के दूतके स्वरूपमें उस पापी को दीखते हैं, जो नारकी या प्रेतादि योनियों में जानेवाला होता है। इसीकी चर्चा गरुड़पुराण तथा अन्यान्य पुराणोंमें जहां पापों की गति का वर्णन है, वहां की गयी है। यह समस्त कार्य सबके स्वामी और नियन्ता ईश्वर की शक्ति से ऐसा नियमित होता है कि जिसमें कहीं किसी से भूल की गुञ्जाइश नहीं होती ! इसी परमात्मशक्ति की ओर से नियुक्त देवताओं द्वारा परवश होकर जीव अधम और उत्तम गतियों में जाता आता है। यह नियन्त्रण न होता तो, न तो कोई जीव, कम से कम व्यवस्थापक के अभाव में पापों का फल भोगने के लिये कहीं जाता और न भोग ही सकता। अवश्य ही सुख भोगने के लिये जीव लोकान्तर में जाना चाहता, पर वह भी लेजाने वाले के अभाव में मार्ग से अनभिज्ञ रहने के कारण नहीं जा पाता ।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 10)

 

ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


अधोगति---

अधःगतिको प्राप्त होनेवाले वे जीव हैं, जो अनेक प्रकारके पापोंद्वारा अपना समस्त जीवन कलङ्कित किये हुए होते हैं, उनके अन्तकालकी वासना कर्मानुसार तमोमयी ही होती है, इससे वे नीच गतिको प्राप्त होते हैं।

जो लोग अहंकार, बल, घमण्ड, काम और क्रोधादिके परायण रहते हैं, परनिन्दा करते हैं, अपने तथा पराये सभीके शरीरमें स्थित अन्तर्यामी परमात्मासे द्वेष करते हैं। ऐसे द्वेषी, पापाचारी, क्रूरकर्मी नराधम मनुष्य सृष्टिके नियन्त्रणकर्ता भगवान्‌के विधानसे बारम्बार आसुरी योनियोंमें उत्पन्न होते हैं और आगे चलकर वे उससे भी अति नीच गतिको प्राप्त होते हैं ( गीता १६ । १८ से २० )।

इस नीच गतिमें प्रधान हेतु काम, क्रोध और लोभ है। इन्हीं तीनोंसे आसुरी सम्पत्तिका संग्रह होता है। भगवान्‌ने इसीलिये इनका त्याग करनेकी आज्ञा दी है-

त्रिविधं - नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्त्था लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥
...............( गीता १६ । २१ )

काम-क्रोध तथा लोभ यह तीन प्रकारके नरकके द्वार अर्थात्‌ सब अनर्थोंके मूल और नरककी प्राप्तिमें हेतु हैं, यह आत्माका नाश करनेवाले यानी उसे अधोगतिमें ले जानेवाले हैं, इससे इन तीनोंको त्याग देना चाहिये।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 09)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:




ऊर्ध्व गति—

श्रुति कहती है-
‘तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन्ब्राह्मणोयोनिं व क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाऽथ य इह कपूयचरणा अभ्यासो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरञ्श्र्वयोनिं वा सूकरयोनिं व चाण्डालयोनिं वा।’
………..( छान्दोग्य उ० ५ । १० । ७ )

इनमें जिनका आचरण अच्छा होता है यानी जिनका पुण्य संचय होता है वे शीघ्र ही किसी ब्राह्मण क्षत्रिय या वैश्यकी रमणीय योनिको प्राप्त होता है। ऐसे ही जिनका आचरण बुरा होता है अर्थात्‌ जिनके पापका संचय होता है वे किसी श्वान, सूकर या चाण्डालकी अधम योनिको प्राप्त होते हैं।’

यह ऊर्ध्व गति के भेद और एक से वापस न आने और दूसरी से लौटकर आने का क्रम हुआ |

मध्य गति---
मध्यगति यह मनुष्यलोक को प्राप्त होनेवाले जीवोंकी रजोगुणकी वृद्धिमें मृत्यु होनेपर उनका प्राणवायु सूक्ष्मशरीर सहित समष्टि लौकिक वायुमें मिल जाता है। व्यष्टि प्राणवायुको समष्टि प्राणवायु अपनेमें मिलाकर इस लोकमें जिस योनिमें जीवको जाना चाहिये, उसीके खाद्य पदार्थमें उसे पहुंचा देता है, यह वायुदेवता ही इसके योनि परिवर्तन का प्रधान साधक होता है, जो सर्वशक्तिमान‌ ईश्वर की आज्ञा और उसके निर्भ्रान्त विधान के अनुसार जीव को उसके कर्मानुसार भिन्न भिन्न मनुष्यों के खाद्यपदार्थों द्वारा उनके पक्वाशय में पहुंचाकर उपर्युक्त प्रकार के वीर्यरूप में परिणत कर मनुष्यरूप में उत्पन्न कराता है।

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गुरुवार, 16 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 08)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


ऊर्ध्व गति—

वापस लौटनेका क्रम—

स्वर्गादिसे वापस लौटनेका क्रम उपनिषदोंके अनुसार यह है--

तस्मिन्यावत्सम्पातमुषित्वाऽयैतमेवाध्वानं पुनर्निवर्त्तन्ते, यथैतमाकाशमाकाशाद्वायुं वायुर्भूत्वा धूमो भवति, धूमो भूत्वाऽभ्रं भवति। अभ्रं भूत्वा मेघो भवति, मेघो भूत्वा प्रवर्षति, त इह व्रीहियवा ओषधिवनस्पतयस्तिलमाषा इति जायन्तेऽतो वै खलु दुर्निष्प्रपतरं यो यो ह्यन्नमत्ति यो रेतः सिञ्चति तद्‌भूय एव भवति।’ .......( छान्दोग्य उ० ५ । १० । ५-६ )

कर्मयोग की अवधि तक देवभोगों को भोगने के बाद वहां से गिरते समय जीव पहले आकाशरूप होता है, आकाश से वायु, वायु से धूम, धूमसे अभ्र और अभ्र से मेघ होते हैं। मेघ से जलरूप में बरसते हैं और भूमि पर्वत नदी आदि में गिरकर, खेतों में वे व्रीहि, यव, औषधि वनस्पति, तिल, आदि खाद्य पदार्थोंमें सम्बन्धित होकर पुरुषोंके द्वारा खाये जाते हैं। इसप्रकार पुरुषके शरीरमें पहुंचकर रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा, अस्थि आदि होते हुए अन्तमें वीर्य में सम्मिलित होकर शुक्र-सिंचनके साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं, वहां गर्भकाल की अवधि तक माता के खाये हुए अन्न जल से पालित होते हुए समय पूरा होने पर अपान वायु की प्रेरणा से मल मूत्र की तरह वेग पाकर स्थूलरूप में बाहर निकल आते हैं। कोई कोई ऐसा भी मानते हैं कि गर्भ में शरीर पूरा निर्माण हो जानेपर उसमें जीव आता है परन्तु यह बात ठीक नहीं मालूम होती। बिना चैतन्य के गर्भ में बालक का बढ़ना संभव नहीं । यह लौटकर आनेवाले जीव कर्मानुसार मनुष्य या पशु आदि योनियों को प्राप्त होते हैं।

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जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 07)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



ऊर्ध्व गति—

ये धूम, रात्रि और अर्चि, दिन नामक भिन्न भिन्न लोकों के अभिमानी देवता हैं, जिनका रूप भी उन्हीं नामों के अनुसार है। जीव इन देवताओं के समान रूप को प्राप्तकर क्रमशः आगे बढ़ता है। इनमेंसे अर्चिमार्गवाला प्रकाशमय लोकोंके मार्गसे प्रकाशपथके अभिमानी देवताओंद्वारा ले जाया जाकर क्रमशः विद्युत लोकतक पहुंचकर अमानव पुरुषके द्वारा बड़े सम्मानके साथ भगवान्‌ के सर्वोत्तम दिव्य परमधाममें पहुंच जाता है। इसीको ब्रह्मोपासक ब्रह्मलोक का शेष भाग-सर्वोच्च गति, श्रीकृष्ण के उपासक दिव्य गोलोक, श्रीराम के उपासक दिव्य साकेतलोक, शैव शिवलोक, जैन मोक्षशिला, मुसलमान सातवाँ आसमान और ईसाई स्वर्ग कहते हैं।

इस दिव्य धाम में पहुंचने वाला महापुरुष सारे लोकों और मार्गों को लाँघता हुआ एक प्रकाशमय दिव्य स्थानमें स्थित होता है, जहां उसमें सभी सिद्धियां और सभी प्रकार की शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं । वह कल्पपर्यन्त अर्थात्‌ ब्रह्मा के आयु तक वहां दिव्यभाव से रहकर अन्त में भगवान्‌ में मिल जाता है । अथवा भगवदिच्छा से भगवान्‌ के अवतार की ज्यों बन्धनमुक्त अवस्था में ही लोकहितार्थ संसार में आ भी सकता है। ऐसे ही महात्मा को कारक पुरुष कहते हैं ।

धूममार्ग के अभिमानी देवगण और इनके लोक भी सभी प्रकाशमय हैं, परन्तु इनका प्रकाश अर्चिमार्गवालोंकी अपेक्षा बहुत कम है तथा ये जीवको मायामय विषयभोग भोगनेवाले मार्गोंमें ले जाकर ऐसे लोकमें पहुंचाते हैं, जहांसे वापस लौटना पड़ता है, इसीसे यह अन्धकारके अभिमानी बतलाये गये हैं। इस मार्गमें भी जीव देवताओंकी तद्रूपताको प्राप्त करता हुआ चन्द्रमाकी रश्मियोंके रूपमें होकर उन देवताओंके द्वार ले जाया हुआ अन्तमें चन्द्रलोकको प्राप्त होता है और वहांसे भोग भोगकर पुण्यक्षय होते ही वापस लौट आता है।

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श्रीकृष्णाय वयं नुम:


नाथ ! 

आप स्वरूप से निष्क्रिय होनेपर भी माया के द्वारा सारे संसार का व्यवहार चलानेवाले हैं तथा थोड़ी-सी उपासना करनेवाले पर भी समस्त अभिलषित वस्तुओं की वर्षा करते रहते हैं। आपके चरणकमल वन्दनीय हैं, मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ 

तं त्वानुभूत्योपरतक्रियार्थं
     स्वमायया वर्तितलोकतन्त्रम् ।
नमाम्यभीक्ष्णं नमनीयपाद
     सरोजमल्पीयसि कामवर्षम् ॥ २१ ॥

(श्रीमद्भागवत ३|२१|२१)


बुधवार, 15 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 06)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



ऊर्ध्व गति—

श्रुति कहती है-
‘ते य एवमेतद्विदुः ये चामी अरण्ये श्रद्धाँ सत्यमुपासते तेऽर्च्चिरभिसम्भवन्ति, अर्चिषोऽहरह्न, आपूर्य्यमाणपक्षमापूर्य्यमाणपक्षाद्यान्‌ षण्मासानुदड्‌ङादित्य एति मासेभ्यो देवलोकं देवलोकादादित्यमादित्याद्वेद्युतं, तान्‌ वैद्युतान्‌ पुरुषो मानस एत्य ब्रह्मलोकान्‌ गमयति ते ते ब्रह्मलोकेषु पराः। परावतो वसन्ति तेषां न पुनरावृत्तिः॥’
………( बृहदारण्य उ० २ । ६ )

‘जिनको ज्ञान होता है, जो अरण्य में श्रद्धायुक्त होकर सत्य की उपासना करते हैं, वे अर्चिरूप होते हैं, अर्चि से दिन रूप होते हैं, दिन से शुक्लपक्षरूप होते हैं, शुक्लपक्ष से उत्तरायणरूप होते हैं, उत्तरायण से देवलोकरूप होते हैं, देवलोक से आदित्यरूप होते हैं, आदित्य से विद्युतरूप होते हैं, यहां से अमानव पुरुष उन्हें ब्रह्मलोक में ले जाते हैं। वहां अनन्त वर्षों तक वह रहते हैं, उनको वापस नहीं लौटना पड़ता ।’ यह देवयान मार्ग है । एवं--

‘अथ ये यज्ञेन दानेन तपसा लोकाञ्जयन्ति ते धूममभिसम्भवन्ति धूमाद्रात्रिँ रात्रेरपक्षीयमाणपक्षमपक्षीयमाणपक्षाद्यान्‌ षण्मासान्‌ दक्षिणाऽऽदित्य एति मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकाञ्चन्द्रं ते चन्द्रं प्राप्यान्नं भवन्ति ताँस्तत्र देवा यथा सोमँराजाननाप्यायस्वापक्षीयस्त्वेत्येवमनाँस्तत्र भक्षयन्ति.....।’
……..( बृहदारण्यक उ० २ । ६ )

जो सकाम भाव से यज्ञ-दान तथा तपद्वारा लोकों पर विजय प्राप्त करते हैं, वे धूम को प्राप्त होते हैं, धूम से रात्रिरूप होते हैं, रात्रि से कृष्णपक्षरूप होते हैं, कृष्णपक्ष से दक्षिणायन को प्राप्त होते हैं, दक्षिणायन से पितृलोक को और वहां से चन्द्रलोक को प्राप्त होते हैं। चन्द्रलोक प्राप्त होनेपर वे अन्नरूप होते हैं...और देवता उनको भक्षण करते हैं।’ यहां ‘अन्न’ होने और ‘भक्षण’ करनेसे यह मतलब है कि वे देवताओं की खाद्य वस्तु में प्रविष्ट होकर उनके द्वारा खाये जाते हैं और फिर उनसे देवरूप में उत्पन्न होते हैं। अथवा ‘अन्न’ शब्द से उन जीवों को देवताओं का आश्रयी समझना चाहिये। नौकर को भी अन्न कहते हैं, सेवा करने वाले पशुओं को भी अन्न कहते हैं-- "पशवः अन्नम्‌" आदि वाक्यों से यह सिद्ध है। वे देवताओं के नौकर होने से अपने सुखों से वञ्चित नहीं हो सकते। यह पितृयान मार्ग है।

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जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 05)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


ऊर्ध्व गति—

भगवान्‌ कहते हैं-
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्ल षण्मासा उत्तरायणम‌्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥
धूमो रात्रिस्तया कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्‌।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥
.....................( गीता ८ । २४ से २६ )

‘दो प्रकार के मार्गों में से जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि अभिमानी देवता, दिनका अभिमानी देवता, शुक्लपक्ष का अभिमानी देवता और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है। उस मार्ग में मरकर गये हुए ब्रह्मवेत्ता अर्थात्‌ परमेश्वर की उपासना से परमेश्वर को परोक्षभाव से जानने वाले योगीजन उपर्युक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गये हुए ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।’ तथा जिस मार्ग में धूमाभिमानी देवता, रात्रि अभिमानी देवता, कृष्णपक्ष का अभिमानी देवता और दक्षिणायन के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्गसे मरकर गया हुआ सकाम कर्मयोगी उपर्युक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गया हुआ चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर, स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर वापस आता है। जगत्‌ के यह शुक्ल और कृष्ण नामक दो मार्ग सनातन माने गये हैं। इनमेंसे एक ( शुक्ल मार्ग ) द्वारा गया हुआ वापस न लौटनेवाली परम गतिको प्राप्त होता है और दूसरे ( कृष्ण मार्ग ) के द्वारा गया हुआ वापस आता है, अर्थात्‌ जन्म मृत्युको प्राप्त होता है।

शुक्ल-अर्चि या देवयान मार्गसे गये हुए योगी नहीं लौटते और कृष्ण-धूम या पितृयान मार्गसे गये हुए योगियों को लौटना पड़ता है।

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मंगलवार, 14 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 04)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


तीन प्रकारकी गति

जब साधक ध्यान करने बैठता है--कुछ समय स्वस्थ और एकान्त चित्त से परमात्मा का चिन्तन करना चाहता है, तब यह देखा जाता है कि पूर्व के अभ्यास के कारण उसे प्रायः उन्हीं कार्यों या भावों की स्फुरणा होती है, जैसे कार्यों में वह सदा लगा रहता है। वह साधक बार बार मन को विषयोंसे हटाने का प्रयत्न करता है, उसे धिक्कारता है, बहुत पश्चाताप भी करता है तथापि पूर्व का अभ्यास उसकी वृत्तियों को सदाके कार्यों की ओर खींच ले जाता है। जब मनुष्य सावधान अवस्थामें भी मन की साधना को सहसा अपनी इच्छानुसार नहीं बना सकता, तब जीवनभर के अभ्यास के विरुद्ध मृत्युकाल में हमारी वासना अनायास ही शुभ हो जायगी, यह समझना भ्रमके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। भगवान्‌ भी कहते हैं--सदा तद्भावभावितः।’

यदि ऐसा ही होता तो शनैः शनैः उपरामताको प्राप्त करने और बुद्धिद्वारा मन को परमात्मा में लगाने की आज्ञा भगवान्‌ कैसे देते? ( गीता ६ । २५ )। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्यके कर्मोंके अनुसार ही उसकी भावना होती है, जैसी अन्तकालकी भावना होती है--जिस गुणमें उसकी स्थिति होती है, उसीके अनुसार परवश होकर जीवको कर्मफल भोगनेके लिये दूसरी योनि में जाना पड़ता है !

ऊर्ध्वगति के दो भेद-इस ऊर्ध्व गति के दो भेद हैं। एक ऊर्ध्व गति से वापस लौटकर आना पड़ता है। इसी को गीता में शुक्लकृष्ण गति और उपनिषदों में देवयान पितॄयान कहा है। सकाम भावसे वेदोक्त कर्म करने वाले, स्वर्ग-प्राप्तिके प्रतिबन्धक देव ऋणरूप पापसे छूटे हुए पुण्यात्मा पुरुष धूममार्ग से पुण्यलोकों को प्राप्त होकर वहां दिव्य देवताओं के विशाल भोग भोगकर , पुण्य क्षीण होते ही पुनः मृत्युलोक में लौट आते हैं और निष्कामभाव से भगवद्भक्ति या ईश्वरार्पण बुद्धिसे भेदज्ञानयुक्त श्रौत-स्मार्त कर्म करनेवाले-परोक्षभाव से परमेश्वर को जानने वाले योगीजन क्रम से ब्रह्म को प्राप्त होजाते हैं।
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................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 03)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



तीन प्रकारकी गति

यहां यह प्रश्न होता है कि यदि वासना के अनुसार ही अच्छे बुरे लोकों की प्राप्ति होती है तो कोई मनुष्य अशुभ वासना ही क्यों करेगा ? सभी कोई उत्तम लोकों को पाने के लिये उत्तम वासना ही करेंगे ? इसका उत्तर यह है कि अन्तकाल की वासना या कामना अपने आप नहीं होती, वह प्रायः उसके तात्कालिक कर्मों के अनुसार ही हुआ करती है। आयु के शेष काल में या अन्तकाल के समय मनुष्य जैसे कर्मों में लिप्त रहता है, करीब करीब उन्हीं के अनुसार उसकी मरण-काल की वासना होती है। मृत्यु का कोई पता नहीं, कब आ जाय, इससे मनुष्य को सदा सर्वदा उत्तम कर्मों में ही लगे रहना चाहिये। सर्वदा शुभ कर्मों में लगे रहनेसे वासना भी शुद्ध रहेगी, सर्वथा शुद्ध वासना रहना ही सत्त्वगुणी स्थिति है क्योंकि देह के सभी द्वारों में चेतनता और बोध-शक्ति का उत्पन्न होना ही सत्त्वगुण की वृद्धि का लक्ष्ण है ( गीता १४ । ११ ) और इस स्थिति में होनेवाली मृत्यु ही ऊर्ध्वलोकों की प्राप्ति का कारण है।
जो लोग ऐसा समझते हैं कि अन्तकालमें सात्त्विक वासना कर ली जायगी, अभी से उसकी क्या आवश्यकता है ? वे बड़ी भूल करते हैं । अन्तकाल में वही वासना होगी, जैसी पहले से होती रही होगी ।

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सोमवार, 13 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 02)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:  

जीव अपनी पूर्वकी योनिसे, योनिके अनुसार साधनोंद्वारा प्रारब्ध कर्मका फल भोगनेके लिये पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मराशि के अनन्त संस्कारोंको साथ लेकर सूक्ष्म शरीरसहित परवश नयी योनिमें आता है। गर्भसे पैदा होनेवाला जीव अपनी योनिका गर्भकाल पूरा होनेपर प्रसूतिरूप अपान वायुकी प्रेरणासे बाहर निकलता है और प्राण निकलनेपर सूक्ष्म शरीर और शुभाशुभ कर्मराशिके संस्कारोंसहित कर्मानुसार भिन्न भिन्न साधनों और मार्गों द्वारा मरणकाल की कर्मजन्य वासना के अनुसार परवशता से भिन्न भिन्न गतियोंको प्राप्त होता है। संक्षेपमें यही सिद्धान्त है। परन्तु इतने शब्दोंसे ही यह बात ठीक समझमें नहीं आती ।
शास्त्रोंके विविध प्रसंगोंमें भिन्न भिन्न वर्णन पढ़कर भ्रमसा हो जाता है, इसलिये कुछ विस्तार से विवेचन किया जाता है-
तीन प्रकारकी गति
भगवान्‌ने श्रीगीताजीमें मनुष्यकी तीन गतियां बतलायी हैं।---अधः, मध्य और ऊर्ध्व । तमोगुणसे नीची, रजोगुणसे बीचकी और सतोगुणसे ऊंची गति प्राप्त होती है। भगवान्‌ने कहा है-
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥
……………( गीता १४ । १८ )
‘सत्त्वगुणमें स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकोंको जाते हैं, रजोगुणमें स्थित राजस पुरुष मध्यमें अर्थात्‌ मनुष्य लोकमें ही रहते हैं एवं तमोगुणके कार्यरूप निद्रा प्रमाद और आलस्यादिमें स्थित हुए तामस पुरुष, अधोगति अर्थात्‌ कीट, पशु आदि नीच योनियोंको प्राप्त होते हैं।’ यह स्मरण रखना चाहिये कि, तीनों गुणोंमेंसे किसी एक या दो का सर्वथा नाश नहीं होता , संग और कर्मोंके अनुसार कोईसा एक गुण बढ़कर शेष दोनों गुणोंको दबा लेता है। तमोगुणी पुरुषोंकी संगति और तमोगुणी कार्योंसे तमोगुण बढ़कर रज और सत्त्वको दबाता है, रजोगुणी संगति और कार्योंसे रजोगुण बढ़कर तम और सत्त्वको दबा लेता है तथा इसीप्रकार सतोगुणी संगति और कार्योंसे सत्त्वगुण बढ़कर रज और तमको दबा लेता है ( गीता १४ । १० )। जिस समय जो गुण बढ़ा हुआ होता है, उसीमें मनुष्यकी स्थिति समझी जाती है और जिस स्थितिमें मृत्यु होती है, उसीके अनुसार उसकी गति होती है। यह नियम है कि अन्तकालमें मनुष्य जिस भावका स्मरण करता हुआ शरीरका त्याग करता है, उसीप्रकारके भावको वह प्राप्त होता है। ( गीता ८ । ६ )। सतोगुणमें स्थिति होनेसे ही अन्तकालमें शुभ भावना या वासना होती है। शुभ वासनामें सत्त्वगुणकी वृद्धिमें मृत्यु होनेसे मनुष्य निर्मल ऊर्ध्वके लोकोंको जाता है।
शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)

# श्रीहरि: #   श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)   शकटभञ्जन ; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार ; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्ण...