मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

शकटभञ्जन; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन

 

बाला ऊचुः -
प्रेंखस्थोऽयं क्षिपन्पादौ रुदन्दुग्धार्थमेव हि ।
तताड पादं शकटे तेनेदं पतितं खलु ॥१४॥
श्रद्धां न चक्रुर्बालोक्ते गोपा गोप्यश्च विस्मिताः ।
त्रैमासिकः क्व बालोऽयं क्व चैतद्‌भारभृत्त्वनः ॥१५॥
बालमंके सा गृहित्वा यशोदा ग्रहशंकिता ।
कारयामास विधिवद्यज्ञं विप्रैः सुतर्पितैः ॥१६॥


श्रीबहुलाश्व उवाच -
कोऽयं पूर्वं तु कुशली दैत्य उत्कचनामभाक् ।
अहो कृष्णपदस्पर्शाद्‌गतो मोक्षं महामुने ॥१७॥


श्रीनारद उवाच -
हिरण्याक्षसुतो दैत्य उत्कचो नाम मैथिल ।
लोमशस्याश्रमे गच्छन् वृक्षांश्चूर्णीचकार ह ॥१८॥
तं दृष्ट्वा स्थूलदेहाढ्यमुत्कचाख्यं महाबलम् ।
शशाप रोषयुग्विप्रो विदेहो भव दुर्मते ॥१९॥
सर्पकंचुकवद्देहोऽपतत्कर्मविपाकतः ।
सद्यस्तच्चरणोपांते पतित्वा प्राह दैत्यराट् ॥२०॥


उत्कच उवाच -
हे मुने हे कृपासिंधो कृपां कुरु ममोपरि ।
ते प्रभावं न जानामि देहं मे देहि हे प्रभो ॥२१॥


श्रीनारद उवाच -
तदा प्रसन्नः स मुनिर्दृष्टं नयशतं विधेः ।
सतां रोषोऽपि वरदो वरो मोक्षार्थदः किमु ॥२२॥


श्रीलोमश उवाच -
वातदेहस्तु ते भूयातद्‌व्यतीते चाक्षुषांतरे ।
वैवस्वतांतरे मुक्तिः भविता च पदा हरेः ॥२३॥

बालकोंने कहा- पालनेपर सोया हुआ यह बालक दूध पीनेके लिये रोते-रोते ही पैर फेंक रहा था। वही पैर छकड़ेसे टकराया, इसीसे यह छकड़ा उलट गया । व्रजबालकोंकी इस बातपर गोप और गोपियोंको विश्वास नहीं हुआ। वे सभी आश्चर्यमग्न होकर सोचने लगे- 'कहाँ तो तीन महीनेका यह छोटा-सा बालक और कहाँ इतने विशाल बोझवाला यह छकड़ा !' यशोदाको यह शङ्का हो गयी कि बच्चेको कोई बालग्रह लग गया है। अतः उन्होंने बालकको गोदमें लेकर ब्राह्मणोंद्वारा विधिपूर्वक ग्रहयज्ञ करवाया। उसमें उन्होंने ब्राह्मणोंको धन आदिसे पूर्णतया तृप्त कर दिया ॥। १४ – १६ ॥

श्रीबहुलाश्वने पूछा- महामुने ! इस 'उत्कच' नामके राक्षसने पूर्वजन्ममें कौन-सा पुण्यकर्म किया था, जिसके फलस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णके चरणका स्पर्श पाकर वह तत्काल मोक्षका भागी हो गया ? ॥ १७ ॥

श्रीनारदजीने कहा- मिथिलेश्वर ! यह उत्कच पूर्वजन्ममें हिरण्याक्षका पुत्र था। एक दिन वह लोमशजीके आश्रमपर गया और वहाँ उसने आश्रमके वृक्षोंको चूर्ण कर दिया । स्थूलदेहसे युक्त महाबली उत्कचको खड़ा देख ब्राह्मण ऋषिने रोष- युक्त होकर उसे शाप दे दिया- 'दुर्मते ! तू देह- रहित हो जा।' उसी कर्मके परिपाकसे उसका वह शरीर सर्प- शरीरसे केंचुलकी भाँति छूटकर गिर पड़ा। यह देख वह महान् दानव मुनिके चरणों में गिर पड़ा और बोला ॥। १८ - २० ॥

उत्कचने कहा- मुने ! आप कृपाके सागर हैं। मेरे ऊपर अनुग्रह कीजिये । भगवन् ! मैंने आपके प्रभावको नहीं जाना । आप मेरी देह मुझे दे दीजिये ॥ २१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर वे मुनि लोमश प्रसन्न हो गये। जिन्होंने विधाताकी सौ नीतियाँ देखी हैं, अर्थात् जिनके सामने सौ ब्रह्मा बीत चुके हैं, ऐसे संतोंका रोष भी वरदायक होता है। फिर उनका वरदान मोक्षप्रद हो, इसके लिये तो कहना ही क्या है ॥२२॥

लोमशजी बोले - चाक्षुष - मन्वन्तरतक तो तेरा शरीर वायुमय रहेगा। इसके बीत जानेपर वैवस्वत- मन्वन्तर आयेगा । उसी समयमें (अट्ठाईसवें द्वापरके अन्तमें) भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंका स्पर्श होनेसे तेरी मुक्ति होगी ।। २३ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

युधिष्ठिर उवाच ।

अपि स्मरथ नो युष्मत् पक्षच्छायासमेधितान् ।
विपद्‍गणाद् विषाग्न्यादेः मोचिता यत्समातृकाः ॥ ८ ॥
कया वृत्त्या वर्तितं वः चरद्‌भिः क्षितिमण्डलम् ।
तीर्थानि क्षेत्रमुख्यानि सेवितानीह भूतले ॥ ९ ॥
भवद्विधा भागवताः तीर्थभूताः स्वयं विभो ।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदाभृता ॥ १० ॥
अपि नः सुहृदस्तात बान्धवाः कृष्णदेवताः ।
दृष्टाः श्रुता वा यदवः स्वपुर्यां सुखमासते ॥ ११ ॥
इत्युक्तो धर्मराजेन सर्वं तत् समवर्णयत् ।
यथानुभूतं क्रमशो विना यदुकुलक्षयम् ॥ १२ ॥
नन्वप्रियं दुर्विषहं नृणां स्वयमुपस्थितम् ।
नावेदयत् सकरुणो दुःखितान् द्रष्टुमक्षमः ॥ १३ ॥

युधिष्ठिर ने (विदुरजी से) कहा—चाचाजी ! जैसे पक्षी अपने अंडों को पंखों की छाया के नीचे रखकर उन्हें सेते और बढ़ाते हैं, वैसे ही आपने अत्यन्त वात्सल्य से अपने कर-कमलों की छत्रछाया में हमलोगों को पाला-पोसा है। बार-बार आपने हमें और हमारी माता को विषदान और लाक्षागृहके दाह आदि विपत्तियोंसे बचाया है। क्या आप कभी हमलोगोंकी भी याद करते रहे हैं ? ॥ ८ ॥ आपने पृथ्वीपर विचरण करते समय किस वृत्तिसे जीवन-निर्वाह किया ? आपने पृथ्वीतलपर किन-किन तीर्थों और मुख्य क्षेत्रोंका सेवन किया ? ॥ ९ ॥ प्रभो ! आप-जैसे भगवान्‌के प्यारे भक्त स्वयं ही तीर्थस्वरूप होते हैं। आपलोग अपने हृदयमें विराजमान भगवान्‌ के द्वारा तीर्थोंको  भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं ॥ १० ॥ चाचाजी ! आप तीर्थयात्रा करते हुए द्वारका भी अवश्य ही गये होंगे। वहाँ हमारे सुहृद् एवं भाई-बन्धु यादवलोग, जिनके एकमात्र आराध्यदेव श्रीकृष्ण हैं, अपनी नगरीमें सुखसे तो हैं न ? आपने यदि जाकर देखा नहीं होगा तो सुना तो अवश्य ही होगा ॥ ११ ॥ युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर विदुरजीने तीर्थों और यदुवंशियोंके सम्बन्धमें जो कुछ देखा, सुना और अनुभव किया था, सब क्रमसे बतला दिया, केवल यदुवंशके विनाश की बात नहीं कही ॥ १२ ॥ करुणहृदय विदुरजी पाण्डवोंको दुखी नहीं देख सकते थे। इसलिये उन्होंने यह अप्रिय एवं असह्य घटना पाण्डवोंको नहीं सुनायी; क्योंकि वह तो स्वयं ही प्रकट होनेवाली थी ॥ १३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


सोमवार, 29 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

शकटभञ्जन; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन

 

इत्येवं कथितं दिव्यं श्रीकृष्णचरितं वरम् ।
यं शृणोति नतो भक्त्या स कृतार्थो न संशयः ॥१॥


श्रीशौनक उवाच -
सुधाखंडात्परं मिष्टं श्रीकृष्णचरितं शुभम् ।
श्रुत्वा त्वन्मुखतः साक्षात्कृतार्थाः स्मो वयं मुने ॥२॥
श्रीकृष्णभक्तः शांतात्मा बहुलाश्वः सतां वरः ।
अथो मुनिं किं पप्रच्छ तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥३॥


श्रीगर्ग उवाच -
अथ राजा मैथिलेंद्रो हर्षितः प्रेमविह्वलः ।
नारदं प्राह धर्मात्मा परिपूर्णतमं स्मरन् ॥४॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
धन्योऽहं च कृतार्थोऽहं भवता भूरिकर्मणा ।
संगो भगवदीयानां दुर्लभो दुर्घटोऽस्ति हि ॥५॥
श्रीकृष्णस्त्वर्भकः साक्षादद्‌भुतो भक्तवत्सलः ।
अग्रे चकार किं चित्रं चरित्रं वद मे मुने ॥६॥


श्रीनारद उवाच -
साधु पृष्टं त्वया राजन् भवता कृष्णधर्मिणा ।
संगमः खलु साधूनां सर्वेषां वितनोति शम् ॥७॥
एकदा कृष्णजन्मर्क्षे यशोदा नंदगेहिनी ।
गोपीगोपान्समाहूय मंगलं चाकरोद्‌द्विजैः ॥८॥
रक्तांबरं कनकभूषणभूषिताङ्गं
बालं प्रगृह्य कलितांजनपद्मनेत्रम् ।
श्यामं स्फुरद्धरिनखावृतचंद्रहारं
देवान् प्रणम्य सुधनं प्रददौ द्विजेभ्यः ॥९॥
प्रेंखे निधाय निजमात्मजमाशु गोपी
संपूज्य मंगलदिने प्रतिगोपिकास्ताः ।
नैवाशृणोत्सुरुदितस्य सुतस्य शब्दं
गोपेषु मंगलगृहेषु गतागतेषु ॥१०॥
तत्रैव कंसखलनोदित उत्कचाख्यो
दैत्यः प्रभंजनतनुः शकटं स एत्य ।
बालस्य मूर्ध्नि परिपातयितुं प्रवृत्तः
कृष्णोऽपि तं किल तताड पदारुणेन ॥११॥
चूर्ण गतेथ शकटे पतिते च दैत्ये
त्यक्त्वा प्रभंजनतनुं विमलो बभूव ।
नत्वा हरिं शतहयेन रथेन युक्तो
गोलोकधाम निजलोकमलं जगाम ॥१२॥
नंदादयो व्रजजना व्रजगोपिकाश्च
सर्वे समेत्य युगपत्पृथुकान् तदाहुः ।
एष स्वयं च पतितः शकटः कथं हि
जानीथ हे व्रजसुताः सुगताश्च यूयम् ॥१३॥

श्रीगर्गजीने कहा- शौनक ! इस प्रकार मैंने भगवान् श्रीकृष्णके सर्वोत्कृष्ट दिव्य चरित्रका वर्णन किया। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका श्रवण करता है, वह कृतार्थ है, उसे परम पुरुषार्थ प्राप्त हो गया—इसमें संशय नहीं है ॥ १ ॥

श्रीशौनकजी बोले- मुने ! भगवान् श्रीकृष्ण- का मङ्गलमय चरित्र अमृत रससे तैयार की हुई परम मधुर खाँड़ है। इसे साक्षात् आपके मुखसे सुनकर हम कृतार्थ हो गये। तपोधन ! संतोंमें श्रेष्ठ राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्णके परम भक्त थे । उनके मनमें सदा शान्ति बनी रहती थी। इसके बाद उन्होंने मुनिवर नारदजीसे कौन-सी बात पूछी, यह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ॥ २-३ ॥

श्रीगर्गजीने कहा— शौनक ! तदनन्तर मिथिलाके महाराज बहुलाश्व हर्षसे उत्फुल्ल और प्रेमसे विह्वल हो गये। फिर उन धर्मात्मा नरेशने परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन करते हुए नारदजीसे कहा ॥ ४ ॥

राजा बहुलाश्व बोले- मुने ! आपने भूरि-भूरि पुण्यकर्म किये हैं। आपके सम्पर्कसे मैं धन्य और कृतार्थ हो गया; क्योंकि भगवान्‌के भक्तोंका सङ्ग दुर्लभ और दुस्साध्य है । मुने! अद्भुत भक्तवत्सल साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने बाल्यावस्थामें आगे चलकर कौन-सी विचित्र लीला की, यह मुझे बताइये ॥ ५-६ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तुम श्रीकृष्ण- सम्मत धर्मके पालक हो, तुमने यह बहुत उत्तम प्रश्न किया है। निश्चय ही संत पुरुषोंका सङ्ग सबके कल्याणका विस्तार करनेवाला होता है ॥ ७ ॥

एक दिन, जब भगवान् श्रीकृष्णके जन्मका नक्षत्र प्राप्त हुआ था, नन्दरानी श्रीयशोदाजीने गोप और गोपियोंको अपने यहाँ बुलाकर ब्राह्मणोंके बताये अनुसार मङ्गल-विधान सम्पन्न किया। उस समय श्याम सलोने बालक श्रीकृष्णको लाल रंगका वस्त्र पहनाया गया। अङ्गोंको सुवर्णमय भूषणोंसे भूषित किया गया। उन्हें गोदमें लेकर मैयाने उनके विकसित कमल-सदृश कमनीय नेत्रोंमें काजल लगाया और गलेमें बघनखायुक्त चन्द्रहार धारण कराया तथा देवताओंको नमस्कार करके ब्राह्मणोंके लिये उत्तम धनका दान दिया ॥ ८- ९ ॥

तदनन्तर गोपी यशोदाजीने शीघ्र ही अपने लालाको पालनेपर लिटा दिया और मङ्गल- दिवसपर गोपियोंमेंसे प्रत्येकका अलग-अलग स्वागत किया । उस मङ्गल-भवनमें उस दिन बहुत-से गोपोंका आना-जाना लगा रहा, अतः उन्हींके सत्कारमें व्यस्त रहनेके कारण वे अपने रोते हुए बालकका रुदन - शब्द सुन न सकीं। उसी क्षण पापात्मा कंसका भेजा हुआ एक राक्षस आया। उसका नाम 'उत्कच' था। वह वायुमय शरीर धारण किये रहता था। वह आकर छकड़ेपर ( जिसपर बड़े-बड़े वजनदार दही-दूधके मटके रखे जाते थे) बैठ गया और बालकके मस्तक- पर उस शकटको उलटकर गिरानेके प्रयासमें लगा। इतनेमें ही श्रीकृष्णने रोते-रोते ही उस शकटपर पैरसे प्रहार कर दिया। फिर तो वह बड़ा छकड़ा टूक-टूक हो गया और दैत्य मरकर नीचे आ गिरा। ऐसी स्थितिमें वह वायुमय शरीर छोड़कर निर्मल दिव्य देहसे सम्पन्न हो गया और भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करके सौ घोड़ोंसे जुते हुए दिव्य विमानपर बैठकर भगवान्‌ के निजी परमधाम गोलोकको चला गया ॥ १०- १२ ॥

उस समय व्रजवासी नन्द आदि गोप तथा गोपियाँ सब-के-सब एक साथ वहाँ आ गये और बालकोंसे पूछने लगे- 'व्रजकुमारो ! यह शकट अपने आप ही गिर पड़ा या किसीने इसे गिराया है? कैसे इसकी यह दशा हुई है, तुम जानते हो तो बताओ ॥ १३ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

सूत उवाच ।

विदुरस्तीर्थयात्रायां मैत्रेयादात्मनो गतिम् ।
ज्ञात्वागाt हास्तिनपुरं तयावाप्तविवित्सितः ॥ १ ॥
यावतः कृतवान् प्रश्नान् क्षत्ता कौषारवाग्रतः ।
जातैकभक्तिः गोविन्दे तेभ्यश्चोपरराम ह ॥ २ ॥
तं बन्धुमागतं दृष्ट्वा धर्मपुत्रः सहानुजः ।
धृतराष्ट्रो युयुत्सुश्च सूतः शारद्वतः पृथा ॥ ३ ॥
गान्धारी द्रौपदी ब्रह्मन् सुभद्रा चोत्तरा कृपी ।
अन्याश्च जामयः पाण्डोः ज्ञातयः ससुताः स्त्रियः ॥ ४ ॥
प्रत्युज्जग्मुः प्रहर्षेण प्राणं तन्व इवागतम् ।
अभिसङ्‌गम्य विधिवत् परिष्वङ्‌गाभिवादनैः ॥ ५ ॥
मुमुचुः प्रेमबाष्पौघं विरहौत्कण्ठ्य कातराः ।
राजा तमर्हयां चक्रे कृतासन परिग्रहम् ॥ ६ ॥
तं भुक्तवन्तं विश्रान्तं आसीनं सुखमासने ।
प्रश्रयावनतो राजा प्राह तेषां च श्रृण्वताम् ॥ ७ ॥

सूतजी कहते हैं—विदुरजी तीर्थयात्रामें महर्षि मैत्रेयसे आत्माका ज्ञान प्राप्त करके हस्तिनापुर लौट आये। उन्हें जो कुछ जाननेकी इच्छा थी, वह पूर्ण हो गयी थी ॥ १ ॥ विदुरजीने मैत्रेय ऋषिसे जितने प्रश्र किये थे, उनका उत्तर सुननेके पहले ही श्रीकृष्णमें अनन्य भक्ति हो जानेके कारण वे उत्तर सुननेसे उपराम हो गये ॥ २ ॥ शौनकजी ! अपने चाचा विदुरजीको आया देख धर्मराज युधिष्ठिर, उनके चारों भाई, धृतराष्ट्र, ययुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, कृपी तथा पाण्डव-परिवारके अन्य सभी नर-नारी और अपने पुत्रोंसहित दूसरी स्त्रियाँ—सब-के-सब बड़ी प्रसन्नतासे, मानो मृत शरीरमें प्राण आ गया हो—ऐसा अनुभव करते हुए उनकी अगवानीके लिये सामने गये। यथायोग्य आलिङ्गन और प्रणामादिके द्वारा सब उनसे मिले और विरहजनित उत्कण्ठासे कातर होकर सबने प्रेमके आँसू बहाये। युधिष्ठिरने आसनपर बैठाकर उनका यथोचित सत्कार किया ॥ ३—६ ॥ जब वे भोजन एवं विश्राम करके सुखपूर्वक आसनपर बैठे थे तब युधिष्ठिरने विनयसे झुककर सबके सामने ही उनसे कहा ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


रविवार, 28 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

तेरहवाँ अध्याय  (पोस्ट 02)

 

पूतनाका उद्धार

 

गोप्य ऊचुः -
श्रीकृष्णस्ते शिरः पातु वैकुण्ठः कण्ठमेव हि ।
श्वेतद्वीपपतिः कर्णौ नासिकां यज्ञरूपधृक् ॥१५॥
नृसिंहो नेत्रयुग्मं च जिह्वां दशरथात्मजः ।
अधराववतां ते तु नरनाराणावृषी ॥१६॥
कपोलौ पातु ते साक्षात्सनकाद्याः कला हरेः ।
भालं ते श्वेतवाराहो नारदो भ्रूलतेऽवतु ॥१७॥
चिबुकं कपिलः पातु दत्तात्रेय उरोऽवतु ।
स्कंधौ द्वावृषभः पातु करौ मत्स्यः प्रपातु ते ॥१८॥
दोर्दण्डं सततं रक्षेत्पृथुः पृथुलविक्रमः ।
उदरं कमठः पातु नाभिं धन्वन्तरिश्च ते ॥१९॥
मोहिनी गुह्यदेशं च कटिं ते वामनोऽवतु ।
पृष्ठं परशुरामश्च तवोरू बादरायणः ॥२०॥
बलो जानुद्वयं पातु जंघे बुद्धः प्रपातु ते ।
पादौ पातु सगुल्फौ च कल्किर्धर्मपतिः प्रभुः ॥२१॥
सर्वरक्षाकरं दिव्यं श्रीकृष्णकवचं परम् ।
इदं भगवता दत्तं ब्रह्मणे नाभिपंकजे ॥२२॥
ब्रह्मणा शंभवे दत्तं शंभुर्दुर्वाससे ददौ ।
दुर्वासाः श्रीयशोमत्यै प्रादाच्छ्रीनन्दमन्दिरे ॥२३॥
अनेन रक्षां कृत्वास्य गोपीभिः श्रीयशोमती ।
पाययित्वा स्तनं दानं विप्रेभ्यः प्रददौ महत् ॥२४॥
तदा नंदादयो गोपा आगता मथुरापुरात् ।
दृष्ट्वा घोरां पूतनाख्यां बभूवुर्भयविह्वलाः ॥२५॥
छित्वा कुठारैस्तद्देहं गोपाः श्रीयमुनातटे ।
अनेकाश्च चिताः कृत्वा दाहयामासुरेव ताम् ॥२६॥
एलालवंगश्रीखंडतगरागरुगंधिभृत् ।
धूमो दग्धस्य देहस्य पवित्रस्य समुत्थितः ॥२७॥
अहो कृष्णमृते कं वा व्रजाम शरणं त्विह ।
पूतनायै मोक्षगतिं ददौ पतितपावनः ॥२८॥


श्रीबहुलाश्व उवाच -
केयं वा राक्षसी पूर्वं पूतना बालघातिनी ।
विषस्तना दुष्टभावा परं मोक्षं कथं गता ॥२९॥


श्रीनारद उवाच -
बलियज्ञे वामनस्य दृष्ट्वा रूपमतः परम् ।
बलिकन्या रत्‍नमाला पुत्रस्नेहं चकार ह ॥३०॥
एतादृशो यदि भवेद्‌बालस्तं हि शुचिस्मितम् ।
पाययामि स्तनं तेन प्रसन्नं मे मनस्तदा ॥३१॥
बलेः परमभक्तस्य सुतायै वामनो हरिः ।
मनोरथस्तु ते भूयान् मनस्यपि वरं ददौ ॥३२॥
यः पूतनामोक्षमिमं शृणोति
कृष्णस्य देवस्य परात्परस्य ।
भक्तिर्भवेत्प्रेमयुतापि तस्य
त्रिवर्गशुद्धिः किमु मैथिलेंद्र ॥३४॥

श्रीगोपियाँ बोलीं- मेरे लाल ! श्रीकृष्ण तेरे सिरकी रक्षा करें और भगवान् वैकुण्ठ कण्ठकी। श्वेतद्वीप के स्वामी दोनों कानों की, यज्ञरूपधारी श्रीहरि नासिका की, भगवान् नृसिंह दोनों नेत्रों की, दशरथ- नन्दन श्रीराम जिह्वा की और नर-नारायण ऋषि तेरे अधरों की रक्षा करें ।। १५-१६ ॥     

 

साक्षात् श्रीहरिके कलावतार सनक सनन्दन आदि चारों महर्षि तेरे दोनों कपोलोंकी रक्षा करें। भगवान् श्वेतवाराह तेरे भालदेशकी तथा नारद दोनों भ्रूलताओंकी रक्षा करें। भगवान् कपिल तेरी ठोढ़ीको और दत्तात्रेय तेरे वक्षःस्थलको सुरक्षित रखें। भगवान् ऋषभ तेरे दोनों कंधोंकी और मत्स्य- भगवान् तेरे दोनों हाथोंकी रक्षा करें ।। १७-१८ ॥    

पृथुल-पराक्रमी राजा पृथु सदा तेरे बाहुदण्डोंको सुरक्षित रखें। भगवान् कच्छप उदरको और धन्वन्तरि तेरी नाभिकी रक्षा करें। मोहिनी रूपधारी भगवान् तेरे गुह्यदेशको और वामन तेरी कटिको हानिसे बचायें । परशुरामजी तेरे पृष्ठभागकी और बादरायण व्यासजी तेरी दोनों जाँघोंकी रक्षा करें ।। १९-२० ॥     

बलभद्र दोनों घुटनोंकी और बुद्ध- देव तेरी पिंडलियोंकी रक्षा करें। धर्मपालक भगवान् कल्कि गुल्फोंसहित तेरे दोनों पैरोंको सकुशल रखें। यह सबकी रक्षा करनेवाला परम दिव्य 'श्रीकृष्ण- कवच' है। इसका उपदेश भगवान् विष्णुने अपने नाभि-कमलमें विद्यमान ब्रह्माजीको दिया था ।। २१-२२ ॥     

ब्रह्माजी ने शम्भु को शम्भु ने दुर्वासा को और दुर्वासा ने नन्द – मन्दिर में आकर श्रीयशोदाजी को इसका उपदेश दिया था । इस कवचके द्वारा गोपियोंसहित श्रीयशोदा- ने नन्दनन्दनकी रक्षा करके उन्हें अपना स्तन पिलाया और ब्राह्मणों को प्रचुर धन दिया  ॥ २३ – २४ ॥

उसी समय नन्द आदि गोप मथुरापुरी से गोकुल में लौट आये। पूतना के भयानक शरीर को देखकर वे सब- के-सब भयसे व्याकुल हो गये। गोपों ने कुठारों से उसके शरीर को काट-काटकर यमुनाजी के किनारे कई चिताएँ बनायीं और उसका दाह संस्कार किया । पूतना का शरीर परम पवित्र हो गया था। जलाने पर उससे जो धुआँ निकला, उसमें इलाइची - लवङ्ग, चन्दन, तगर और अगर की सुगन्ध भरी हुई थी। अहो ! जिन पतित- पावन ने पूतना को मोक्षगति प्रदान की, उन श्रीकृष्ण को छोड़कर हम यहाँ किसकी शरण में जायँ ।। २५-२८ ॥

बहुलाश्व ने पूछा- देवर्षे ! यह बालघातिनी राक्षसी पूतना पूर्वजन्ममें कौन थी ? इसके स्तनमें विष लगा हुआ था तथा उसके भीत रका भाव भी दूषित ही था; तथापि इसे उत्तम मोक्ष की प्राप्ति कैसे हुई ? ॥ २९ ॥

श्रीनारदजी बोले- पूर्वकाल में राजा बलि के यज्ञ में भगवान् वामन के परम उत्तम रूप को देखकर बलि-कन्या रत्नमाला ने उनके प्रति पुत्रोचित स्नेह किया था। उसने मन-ही-मन यह संकल्प किया था कि 'यदि मेरे भी ऐसा ही बालक उत्पन्न हो और उस पवित्र मुसकानवाले शिशुको मैं अपना स्तन पिला सकूँ तो उससे मेरा चित्त प्रसन्न हो जायगा ।' बलि भगवान्‌के परम भक्त हैं, अतः उनकी पुत्री को वामन- भगवान् ने यह वर दिया कि 'तेरे मनमें जो मनोरथ है, वह पूर्ण हो ' ॥ ३०-३२ ॥

वही रत्नमाला द्वापरके अन्तमें पूतना नामसे विख्यात राक्षसी हुई। भगवान् श्रीकृष्णके स्पर्शसे उसका उत्तम मनोरथ सफल हो गया। मिथिलानरेश ! जो मनुष्य परात्पर भगवान् श्रीकृष्णके इस पूतनोद्धारसम्बन्धी प्रसङ्गको सुनता है, उसको भगवान्‌ की प्रेमपूर्ण भक्ति प्राप्त हो जाती है; फिर उसे धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्गकी उपलब्धि हो जाय इसके लिये तो कहना ही क्या है । ३३ - ३४ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'पूतना-मोक्ष' नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

परीक्षित् का जन्म

स राजपुत्रो ववृधे आशु शुक्ल इवोडुपः ।
आपूर्यमाणः पितृभिः काष्ठाभिरिव सोऽन्वहम् ॥ ३१ ॥
यक्ष्यमाणोऽश्वमेधेन ज्ञातिद्रोहजिहासया ।
राजा लब्धधनो दध्यौ अन्यत्र करदण्डयोः ॥ ३२ ॥
तदभिप्रेतमालक्ष्य भ्रातरोऽच्युतचोदिताः ।
धनं प्रहीणमाजह्रुः उदीच्यां दिशि भूरिशः ॥ ३३ ॥
तेन सम्भृतसम्भारो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ।
वाजिमेधैः त्रिभिर्भीतो यज्ञैः समयजत् हरिम् ॥ ३४ ॥
आहूतो भगवान् राज्ञा याजयित्वा द्विजैर्नृपम् ।
उवास कतिचित् मासान् सुहृदां प्रियकाम्यया ॥ ३५ ॥
ततो राज्ञाभ्यनुज्ञातः कृष्णया सहबन्धुभिः ।
ययौ द्वारवतीं ब्रह्मन् सार्जुनो यदुभिर्वृतः ॥ ३६ ॥

जैसे शुक्लपक्ष में दिन-प्रतिदिन चन्द्रमा अपनी कलाओं से पूर्ण होता हुआ बढ़ता है, वैसे ही वह राजकुमार(परीक्षित्) भी अपने गुरुजनोंके लालन-पालनसे क्रमश: अनुदिन बढ़ता हुआ शीघ्र ही सयाना हो गया ॥ ३१ ॥ इसी समय स्वजनोंके वध का प्रायश्चित्त करनेके लिये राजा युधिष्ठिरने अश्वमेध-यज्ञके द्वारा भगवान्‌की आराधना करनेका विचार किया, परन्तु प्रजासे वसूल किये हुए कर और दण्ड (जुर्माने) की रकमके अतिरिक्त और धन न होनेके कारण वे बड़ी चिन्तामें पड़ गये ॥ ३२ ॥ उनका अभिप्राय समझकर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्रेरणासे उनके भाई उत्तर दिशामें राजा मरुत्त और ब्राह्मणोंद्वारा छोड़ा हुआ [*] बहुत-सा धन ले आये ॥ ३३ ॥ उससे यज्ञकी सामग्री एकत्र करके धर्मभीरु महाराज युधिष्ठिरने तीन अश्वमेध-यज्ञोंके द्वारा भगवान्‌की पूजा की ॥ ३४ ॥ युधिष्ठिरके निमन्त्रणसे पधारे हुए भगवान्‌ ब्राह्मणोंद्वारा उनका यज्ञ सम्पन्न कराकर अपने सुहृद् पाण्डवोंकी प्रसन्नताके लिये कई महीनोंतक वहीं रहे ॥ ३५ ॥ शौनकजी ! इसके बाद भाइयोंसहित राजा युधिष्ठिर और द्रौपदीसे अनुमति लेकर अर्जुनके साथ यदुवंशियोंसे घिरे हुए भगवान्‌ श्रीकृष्णने द्वारकाके लिये प्रस्थान किया ॥ ३६ ॥
...........................................
 [*] पूर्वकालमें महाराज मरुत्त ने ऐसा यज्ञ किया था, जिसमें सभी पात्र सुवर्णके थे। यज्ञ समाप्त हो जानेपर उन्होंने वे पात्र उत्तर दिशामें फिंकवा दिये थे। उन्होंने ब्राह्मणोंको भी इतना धन दिया कि वे उसे ले जा न सके; वे भी उसे उत्तर दिशामें ही छोडक़र चले आये। परित्यक्त धनपर राजाका अधिकार होता है, इसलिये उस धनको मँगवाकर भगवान्‌ ने युधिष्ठिरका यज्ञ कराया।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने परीक्षिज्जन्माद्युत्कर्षो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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शनिवार, 27 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

तेरहवाँ अध्याय  (पोस्ट 01)

 

पूतनाका उद्धार

 

शौर्यनामयपृच्छार्थं करं दातुं नृपस्य च ।
पुत्रोत्सवं कथयितुं नंदे श्रीमथुरां गते ॥१॥
कंसेन प्रेषिता दुष्टा पूतना घातकारिणी ।
पुरेषु ग्रामघोषेषु चरंती घर्घरस्वना ॥२॥
अथ गोकुलमासाद्य गोपगोपीगणाकुलम् ।
रूपं दधार सा दिव्यं वपुः षोडशवार्षिकम् ॥३॥
न केऽपि रुरुधुर्गोपाः सुंदरीं तां च गोपिकाः ।
शचीं वाणीं रमां रंभां रतिं च क्षिपतीमिव ॥४॥
रोहिण्यां च यशोदायां धर्षितायां स्फुरत्कुचा ।
अंकमादाय तं बालं लालयंती पुनः पुनः ॥५॥
ददौ शिशोर्महाघोरा कालकूटावृतं स्तनम् ।
प्राणैः सार्द्धं पपौ दुग्धं कटुं रोषावृतो हरिः ॥६॥
मुंच मुंच वदंतीत्थं धावन्ती पीडितस्तना ।
नीत्वा बहिर्गता तं वै गतमाया बभूव ह ॥७॥
पतन्नेत्रा श्वेतगात्रा रुदन्ती पतिता भुवि ।
ननाद तेन ब्रह्माण्डं सप्तलोकैर्बिलैः सह ॥८॥
चचाल वसुधा द्वीपैः तदद्‌भुतमिवाभवत् ।
षट्क्रोशं सा दृढान् दीर्घान् वृक्षान् पृष्ठतले गतान् ॥९॥
चूर्णीचकार वपुषा वज्रांगेण नृपेश्वर ।
वदन्तस्ते गोपगणा वीक्ष्य घोरं वपुर्महत् ॥१०॥
अस्या अङ्गुलिगो बालो न जीवति कदाचन ।
तस्या उरसि सानन्दं क्रीडन्तं सुस्मितं शिशुम् ॥११॥
दुग्धं पीत्वा जृंभमाणं तं दृष्ट्वा जगृहुः स्त्रियः ।
यशोदया च रोहिण्या निधायोरसि विस्मिताः ॥१२॥
सर्वतो बालकं नीत्वा रक्षां चक्रुर्विधानतः ।
कालिंदीपुण्यमृत्तोयैर्गोपुच्छभ्रमणादिभिः ॥१३॥
गोमूत्रगोरजोभिश्च स्नापयित्वा त्विदं जगुः ॥१४॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! नन्दजी राजा कंसका कर चुकाने, वसुदेवजीकी कुशल पूछने और उन्हें अपने यहाँके पुत्रोत्सवका समाचार देनेके लिये मथुरा चले गये। उसी समय कंसकी भेजी हुई बाल- घातिनी 'घर्घर' ध्वनि वाली

दुष्टा राक्षसी पूतना नगरों, गाँवों और गोष्ठों में विचरती हुई गोप और गोपियों से भरे हुए गोकुल में आ पहुँची ।। १-२ ॥    

गोकुल के निकट आनेपर उसने मायासे दिव्य रूप धारण कर लिया। वह सोलह वर्षकी अवस्थावाली तरुणी बन गयी। उसका सौन्दर्य इतना दिव्य था कि वह अपनी अङ्गकान्ति से शची, सरस्वती, लक्ष्मी, रम्भा तथा रतिको भी तिरस्कृत कर रही थी, इसलिए उसे वहां के गोपों और गोपियों ने रोका भी नहीं  ।। ३-४ ॥    

चलते समय उसके उन्नत कुच दिव्य आभासे झलकते और हिलते थे। उसे देखकर रोहिणी तथा यशोदा भी हतप्रतिभ हो गयीं। उसने आते ही बालगोपाल को गोद में ले लिया और बारंबार लाड़ लड़ाती हुई उस महाघोर दानवीने शिशुके मुखमें हलाहल विषसे लिप्त अपना स्तन दे दिया। यह देख तीक्ष्ण रोषसे आवृत हो श्रीहरिने उसका सारा दूध उसके प्राणोंसहित पी लिया ।। ५-६ ॥    

उसके स्तनोंमें जब असह्य पीड़ा हुई, तब 'छोड़ो-छोड़ो' कहते हुए वह उठकर भागी । बच्चेको लिये लिये घरसे बाहर निकल गयी। बाहर जानेपर उसकी माया नष्ट हो गयी और वह अपने असली रूपमें दिखायी देने लगी। उसके नेत्र बाहर निकल आये। सारा शरीर सफेद पड़ गया और वह रोती- चिल्लाती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ी। उसकी चिल्लाहटसे सातों लोक और सातों पाताल सहित सारा ब्रह्माण्ड गूँज उठा ।। ७-८ ॥   

 

 

द्वीपोंसहित सारी पृथ्वी डोलने लगी। वह एक अद्भुत-सी घटना हुई। नृपेश्वर ! पूतनाका विशाल शरीर छः कोस लंबा और वज्रके समान सुदृढ़ था। उसके गिरनेसे उसकी पीठके नीचे आये हुए बड़े-बड़े वृक्ष पिसकर चकनाचूर हो गये। उस समय गोपगण उस दानवीके भयंकर और विशाल शरीरको देखकर परस्पर कहने लगे- 'इसकी गोदमें गया हुआ बालक कदाचित् जीवित नहीं होगा ।' परंतु वह अद्भुत बालक उसकी छातीपर बैठा हुआ आनन्दसे खेलता और मुसकराता था ।। ९-११ ॥     

वह पूतना का दूध पीकर जम्हाई ले रहा था । उसे उस अवस्थामें देखकर यशोदा तथा रोहिणीके साथ जाकर स्त्रियोंने उठा लिया और छातीसे लगाकर वे सब की सब बड़े विस्मयमें पड़ गयीं। बच्चेको ले जाकर गोपियोंने सब ओरसे विधिपूर्वक उसकी रक्षा की । यमुनाजीकी पवित्र मिट्टी लगाकर उसके ऊपर यमुना-जलका छींटा दिया, फिर उसके ऊपर गायकी पूँछ घुमायी । गोमूत्र और गोरजमिश्रित जलसे उसको नहलाया और निम्नाङ्कित रूपसे कवचका पाठ किया - ॥ १२-१४ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

परीक्षित् का जन्म

आहर्तैषोऽश्वमेधानां वृद्धानां पर्युपासकः ॥ २५ ॥
राजर्षीणां जनयिता शास्ता चोत्पथगामिनाम् ।
निग्रहीता कलेरेष भुवो धर्मस्य कारणात् ॥ २६ ॥
तक्षकादात्मनो मृत्युं द्विजपुत्रोपसर्जितात् ।
प्रपत्स्यत उपश्रुत्य मुक्तसङ्‌गः पदं हरेः ॥ २७ ॥
जिज्ञासितात्म याथार्थ्यो मुनेर्व्याससुतादसौ ।
हित्वेदं नृप गङ्‌गायां यास्यत्यद्धा अकुतोभयम् ॥ २८ ॥
इति राज्ञ उपादिश्य विप्रा जातककोविदाः ।
लब्धापचितयः सर्वे प्रतिजग्मुः स्वकान् गृहान् ॥ २९ ॥
स एष लोके विख्यातः परीक्षिदिति यत्प्रभुः ।
पूर्वं दृष्टमनुध्यायन् परीक्षेत नरेष्विह ॥ ३० ॥

(ब्राह्मण युधिष्ठिर से कह रहे हैं कि यह बालक) धैर्य में बलिके समान और भगवान्‌ श्रीकृष्ण के प्रति दृढ़ निष्ठा में यह प्रह्लादके समान होगा। यह बहुत-से अश्वमेध- यज्ञोंका करनेवाला और वृद्धोंका सेवक होगा ॥ २५ ॥ इसके पुत्र राजर्षि होंगे। मर्यादाका उल्लङ्घन करनेवालोंको यह दण्ड देगा। यह पृथ्वीमाता और धर्मकी रक्षाके लिये कलियुगका भी दमन करेगा ॥ २६ ॥ ब्राह्मण-कुमारके शापसे तक्षकके द्वारा अपनी मृत्यु सुनकर यह सबकी आसक्ति छोड़ देगा और भगवान्‌के चरणोंकी शरण लेगा ॥ २७ ॥ राजन् ! व्यासनन्दन शुकदेवजीसे यह आत्माके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान प्राप्त करेगा और अन्तमें गङ्गातटपर अपने शरीरको त्यागकर निश्चय ही अभयपद प्राप्त करेगा ॥ २८ ॥
ज्यौतिषशास्त्र के विशेषज्ञ ब्राह्मण राजा युधिष्ठिरको इस प्रकार बालकके जन्मलग्रका फल बतलाकर और भेंट-पूजा लेकर अपने-अपने घर चले गये ॥ २९ ॥ वही यह बालक संसारमें परीक्षित्‌के नामसे प्रसिद्ध हुआ; क्योंकि वह समर्थ बालक गर्भमें जिस पुरुषका दर्शन पा चुका था, उसका स्मरण करता हुआ लोगोंमें उसीकी परीक्षा करता रहता था कि देखें इनमेंसे कौन-सा वह है ॥ ३० ॥ 

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शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)

 

श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की धूम; गोप-गोपियों का उपायन लेकर आना; नन्द और यशोदा-रोहिणीद्वारा सबका यथावत् सत्कार; ब्रह्मादि देवताओंका भी श्रीकृष्णदर्शनके लिये आगमन

 

वन्दिभ्यो मागधेभ्यश्च सर्वेभ्यो बहुलं धनम् ।
ववर्ष घनवद्‌गोपो नंदराजो व्रजेश्वरः ॥३८॥
निधिः सिद्धिश्च वृद्धिश्च भुक्तिर्मुक्तिर्गृहे गृहे ।
वीथ्यां वीथ्यां लुठन्तीव तदिच्छा कस्यचिन्न हि ॥३९॥
सनत्कुमारः कपिलः शुकव्यासादिभिः सह ।
हंसदत्तपुलस्त्याद्यैर्मया ब्रह्मा जगाम ह ॥४०॥
हंसारूढो हेमवर्णो मुकुटी कुण्डली स्फुरन् ।
चतुर्मुखो वेदकर्ता द्योतयन्मंडलं दिशाम् ॥४१॥
तथा तमनु भुताढ्यो वृषारूढो महेश्वरः ।
रथारूढो रविः साक्षात्‌गजारूढः पुरंदरः ॥४२॥
वायुश्च खंजनारूढो यमो महिषवाहनः ।
धनदः पुष्पकारूढो मृगारूढः क्षपेश्वरः ॥४३॥
अजारूढो वीतिहोत्रो वरुणो मकरस्थितः ।
मयूरस्थः कार्तिकेयो भारती हंसवाहिनी ॥४४॥
लक्ष्मी च गरुडारूढा दुर्गाख्या सिंहवाहिनी ।
गोरूपधारिणी पृथ्वी विमानस्था समाययौ ॥४५॥
दोलारूढा दिव्यवर्णा मुख्याः षोडशमातृकाः ।
षष्ठी च शिबिकारूढा खड्‌गिनी यष्टिधारिणी ॥४६॥
मंगलो वानरारूढो भासारूढो बुधः स्मृतः ।
गीष्पतिः कृष्णसारस्थः शुक्रो गवयवाहनः ॥४७॥
शनिश्च मकरारूढ उष्ट्रस्थः सिंहिकासुतः ।
कोटिबालार्कसंकाश आययौ नन्दमन्दिरम् ॥४८॥
कोलाहलसमायुक्तं गोपगोपीगणाकुलम् ।
नन्दमन्दिरमभ्येत्य क्षणं स्थित्वा ययुः सुराः ॥४९॥
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं बालरूपिणम् ।
नत्वा दृष्ट्वा तदा देवाश्चक्रुस्तस्य स्तुतिं पराम् ॥५०॥
वीक्ष्य कृष्णं तदा देवा ब्रह्माद्या ऋषिभिः सह ।
स्वधामानि ययुः सर्वे हर्षिताः प्रेमविह्वलाः ॥५१॥

समस्त बंदियों तथा मागधजनों को धनी गोप व्रजेश्वर नन्दरायने बहुत धन दिया । धनराशिकी वर्षा कर दी । व्रजकी गली-गलीमें, घर- घरमें निधि, सिद्धि, वृद्धि, भुक्ति और मुक्ति — ये लोटती-सी दिखायी देती थीं। उन्हें पानेकी इच्छा वहाँ किसीके भी मनमें नहीं होती थी ॥ ३८–३९ ॥

उस समय सनत्कुमार, कपिल, शुक और व्यास आदिको तथा हंस, दत्तात्रेय, पुलस्त्य और मुझ (नारद) को साथ ले ब्रह्माजी वहाँ गये । ब्रह्माजीका वर्ण तप्त सुवर्णके समान था। उनके मस्तकोंपर मुकुट तथा कानोंमें कुण्डल जगमगा रहे थे। वे वेदकर्ता चतुर्मुख ब्रह्मा हंसपर आरूढ़ हो सम्पूर्ण दिङ्मण्डलको देदीप्यमान करते हुए वहाँ आये थे ।। ४०-४१ ॥   

उनके पीछे भूतों से घिरे हुए वृषभारूढ़ महेश्वर पधारे। फिर रथपर चढ़े हुए साक्षात् सूर्य, ऐरावत हाथीपर सवार देवराज इन्द्र, खञ्जरीटपर चढ़े हुए वायुदेव, महिषवाहन यम, पुष्पकारूढ़ कुबेर, मृगवाहन चन्द्रमा, बकरेपर बैठे हुए अग्निदेव, मगरपर आरूढ़ वरुण, मयूरवाहन कार्तिकेय, हंसवाहिनी सरस्वती, गरुडारूढ़ लक्ष्मी, सिंहवाहिनी दुर्गा तथा गोरूपधारिणी पृथ्वी, जो विमानपर बैठी थीं, ये सब वहाँ आये ।। ४२-४५ ॥   

दिव्यकान्तिवाली मुख्य-मुख्य सोलह मातृकाएँ पालकीपर बैठकर आयी थीं । खड्ग, चक्र तथा यष्टि धारण करनेवाली षष्ठीदेवी शिबिकापर सवार हो वहाँ पहुँची थीं । मङ्गल देवता वानरपर और बुध देवता भास नामक पक्षीपर चढ़कर वहाँ पधारे थे। काले मृगपर बैठे बृहस्पति, गवयपर चढ़े शुक्राचार्य, मगर पर आरूढ़ शनि देव और ऊँट पर आरूढ़ सिंहिकाकुमार राहु — ये सभी ग्रह, जो करोड़ों बाल सूर्यो के समान तेजस्वी थे, नन्दमन्दिर में पधारे ।। ४६-४९ ॥   

वह नन्दभवन झुंड के झुंड गोपों और गोपियोंसे भरा हुआ था। देवतालोग वहाँ पहुँचकर क्षणभर रुके और फिर चले गये । बालरूपधारी परिपूर्णतम परमात्मा साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णको देखकर, उन्हें मस्तक नवाकर, देवताओंने उस समय उनका उत्तम स्तवन किया। ब्रह्मा आदि सब देवता ऋषियोंसहित वहाँ श्रीकृष्णका दर्शन करके प्रेमविह्वल और हर्षविभोर होकर अपने-अपने धाम को चले गये । ४० - ५१ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीकृष्णदर्शनार्थ ब्रह्मादि देवताओंका आगमन' नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

परीक्षित् का जन्म

युधिष्ठिर उवाच ।

अप्येष वंश्यान् राजर्षीन् पुण्यश्लोकान् महात्मनः ।
अनुवर्तिता स्विद्यशसा साधुवादेन सत्तमाः ॥ १८ ॥

ब्राह्मणा ऊचुः ।

पार्थ प्रजाविता साक्षात् इक्ष्वाकुरिव मानवः ।
ब्रह्मण्यः सत्यसन्धश्च रामो दाशरथिर्यथा ॥ १९ ॥
एष दाता शरण्यश्च यथा ह्यौशीनरः शिबिः ।
यशो वितनिता स्वानां दौष्यन्तिरिव यज्वनाम् ॥ २० ॥
धन्विनामग्रणीरेष तुल्यश्चार्जुनयोर्द्वयोः ।
हुताश इव दुर्धर्षः समुद्र इव दुस्तरः ॥ २१ ॥
मृगेन्द्र इव विक्रान्तो निषेव्यो हिमवानिव ।
तितिक्षुर्वसुधेवासौ सहिष्णुः पितराविव ॥ २२ ॥
पितामहसमः साम्ये प्रसादे गिरिशोपमः ।
आश्रयः सर्वभूतानां यथा देवो रमाश्रयः ॥ २३ ॥
सर्वसद्‍गुणमाहात्म्ये एष कृष्णमनुव्रतः ।
रन्तिदेव इवोदारो ययातिरिव धार्मिकः ॥ २४ ॥

युधिष्ठिरने कहा—महात्माओ ! यह बालक क्या अपने उज्ज्वल यशसे हमारे वंशके पवित्रकीर्ति महात्मा राजर्षियोंका अनुसरण करेगा ? ॥ १८ ॥
ब्राह्मणोंने कहा—धर्मराज ! यह मनुपुत्र इक्ष्वाकु के समान अपनी प्रजाका पालन करेगा तथा दशरथनन्दन भगवान्‌ श्रीरामके समान ब्राह्मणभक्त और सत्यप्रतिज्ञ होगा ॥ १९ ॥ यह उशीनर- नरेश शिबिके समान दाता और शरणागतवत्सल होगा तथा याज्ञिकोंमें दुष्यन्तके पुत्र भरतके समान अपने वंशका यश फैलायेगा ॥ २० ॥ धनुर्धरोंमें यह सहस्रबाहु अर्जुन और अपने दादा पार्थके समान अग्रगण्य होगा। यह अग्निके समान दुर्धर्ष और समुद्रके समान दुस्तर होगा ॥ २१ ॥ यह सिंहके समान पराक्रमी, हिमाचलकी तरह आश्रय लेनेयोग्य, पृथ्वीके सदृश तितिक्षु और माता- पिताके समान सहनशील होगा ॥ २२ ॥ इसमें पितामह ब्रह्माके समान समता रहेगी, भगवान्‌ शङ्करकी तरह यह कृपालु होगा और सम्पूर्ण प्राणियोंको आश्रय देनेमें यह लक्ष्मीपति भगवान्‌ विष्णुके समान होगा ॥ २३ ॥ यह समस्त सद्गुणोंकी महिमा धारण करनेमें श्रीकृष्णका अनुयायी होगा, रन्तिदेवके समान उदार होगा और ययातिके समान धार्मिक  होगा ॥ २४ ॥ 

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गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की धूम; गोप-गोपियों का उपायन लेकर आना; नन्द और यशोदा-रोहिणीद्वारा सबका यथावत् सत्कार; ब्रह्मादि देवताओंका भी श्रीकृष्णदर्शनके लिये आगमन

 

श्रीनन्दराजसुतसंभवमद्‌भुतं च
श्रुत्वा विसृज्य गृहकर्म तदैव गोप्यः ।
तूर्णं ययुः सबलयो व्रजराजगेहा-
नुद्यत्प्रमोदपरिपूरितहृन्महोऽङ्‌गाः ॥२३॥
आनन्दमंदिरपुरात्स्वगृहोन् व्रजन्त्यः
सर्वा इतस्तत उत त्वरमाव्रजन्त्यः ।
यानश्लथद्‌वसनभूषणकेशबन्धा
रेजुर्नरेन्द्र पथि भूपरिमुक्तमुक्ताः ॥२४॥
झंकारनूपुरनवांगदहेमचीर-
मञ्जीरहारमणिकुंडलमेखलाभिः ।
श्रीकंठसूत्रभुजकंकणबिंदुकाभिः
पूर्णेन्दुमंडलनवद्युतिभिर्विरेजुः ॥२५॥
श्रीराजिकालवणरात्रिविशेषचूर्णै-
र्गोधूमसर्षपयवैः करलालनैश्च ।
उत्तार्य बालकमुखोपरि चाशिषस्ताः
सर्वा ददुर्नृप जगुर्जगदुर्यशोदाम् ॥२६॥


गोप्य ऊचुः -
साधु साधु यशोदे ते दिष्ट्या दिष्ट्या व्रजेश्वरि ।
धन्या धन्या परा कुक्षिर्ययाऽयं जनितः सुतः ॥२७॥
इच्छा युक्तं कृतं ते वै देवेन बहुकालतः ।
रक्ष बालं पद्मनेत्रं सुस्मितं श्यामसुन्दरम् ॥२८॥


श्रीयशोदा उवाच -
भवदीयदयाशीर्भिर्जातः सौख्यं परं च मे ।
भवतीनामपि परं दिष्ट्या भूयादतः परम् ॥२९॥
हे रोहिणि महाबुद्धे पूजनं तु व्रजौकसाम् ।
आगतानां सत्कुलानां यथेष्टं हीप्सितं कुरु ॥३०॥


श्रीनारद उवाच -
रोहिणी राजकन्याऽपि तत्करौ दानशीलिनौ ।
तत्रापि नोदिता दाने ददावतिमहामनाः ॥३१॥
गौरवर्णा दिव्यवासा रत्‍नाभरणभूषिता ।
व्यचरद्रोहिणी साक्षात्पूजयंती व्रजौकसः ॥३२॥
परिपूर्णतमे साक्षाच्छ्रीकृष्णे व्रजमागते ।
नदत्सु नरतूर्येषु जयध्वनिरभून्महान् ॥३३॥
दधिक्षीरघृतैर्गोपा गोप्यो हैयंगवैर्नवैः ।
सिषिचुर्हर्षितास्तत्र जगुरुच्चैः परस्परम् ॥३४॥
बहिरन्तपुरेः जाते सर्वतो दधिकर्दमे ।
वृद्धाश्च स्थूलदेहाश्च पेतुर्हास्यं कृतं परैः ॥३५॥
सूताः पौराणिकाः प्रोक्ता मागधा वंशशंसकाः ।
वन्दिनस्त्वमलप्रज्ञाः प्रस्तावसदृशोक्तयः ॥३६॥
तेभ्यो नंदो महाराजः सहस्रं गाः पृथक् पृथक् ।
वासोऽलंकाररत्‍नानि हयेभानखिलान्ददौ ॥३७॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीनन्दरायजीके यहाँ पुत्र होनेका अद्भुत समाचार सुनकर गोपियोंके हर्षकी सीमा न रही। उनके हृदय, उनके तन-मन परमानन्द से परिपूर्ण हो गये। वे घर के सारे काम-काज तत्काल छोड़कर भेंट-सामग्री लिये तुरंत व्रजराज के भवन में जा पहुँचीं । नरेन्द्र ! अपने घरसे नन्दमन्दिर तक इधर-उधर बड़ी उतावली के साथ आती जातीं सब गोपियाँ रास्ते की भूमिपर मोती लुटाती चलती थीं। शीघ्रतापूर्वक आने-जानेसे उनके वस्त्र, आभूषण तथा केशोंके बन्धन भी ढीले पड़ गये थे; उस दशामें उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। झनकारते हुए नूपुर, नये बाजूबंद, सुनहरे लहँगे, मञ्जीर, हार, मणिमय कुण्डल, करधनी, कण्ठसूत्र, हाथोंके कंगन तथा भालदेशमें लगी हुई बेंदियोंकी नयी-नयी छटाओंसे उनकी छवि देखते ही बनती थी। नरेश्वर ! वे सब की सब राई - नोन, हल्दीके विशेष चूर्ण, गेहूंके आटे, पीली सरसों तथा जौ आदि हाथोंमें लेकर बड़े लाड़से लालाके मुखपर उतारती हुई उसे आशीर्वाद देती थीं। यह सब करके उन्होंने यशोदाजी से कहा – ॥ २३–२६॥

गोपियाँ बोलीं- यशोदाजी ! बहुत उत्तम, बहुत अच्छा हुआ । अहोभाग्य ! आज परम सौभाग्यका दिन है। आप धन्य हैं और आपकी कोख धन्य है, जिसने ऐसे बालकको जन्म दिया। दीर्घकालके बाद दैवने आज आपकी इच्छा पूरी की है। कैसे कमल- जैसे नेत्र हैं इस श्यामसुन्दर बालकके ! कितनी मनोहर मुसकान है इसके होठोंपर बड़ी सँभालके साथ इसका लालन-पालन कीजिये ।। २७-२८ ॥

श्रीयशोदा ने कहा - बहिन ! आप सबकी दया और आशीर्वादसे ही मेरे घरमें यह सुख आया है, यह आनन्दोत्सव प्राप्त हुआ है। मेरे ऊपर आपकी सदा ही बड़ी दया रही है। इसके बाद आप सबको भी दैव- कृपासे ऐसा ही परम सुख प्राप्त हो – यह मेरी मङ्गल- कामना है । बहिन रोहिणी ! तुम बड़ी बुद्धिमती हो । सब कार्य बड़े अच्छे ढंगसे करती हो। अपने घर आयी हुई ये व्रजवासिनी गोपियाँ बड़े उत्तम कुलकी हैं। तुम इनका पूजन — स्वागतसत्कार करो। अपनी इच्छाके अनुसार इन सबकी मनोवाञ्छा पूर्ण करो ।। २९-३० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! रोहिणी जी भी राजा की बेटी थीं। उनके हाथ तो स्वभाव से ही दानशील थे, उसपर भी यशोदाजी ने दान करनेकी प्ररेणा दे दी। फिर क्या था ? उन्होंने अत्यन्त उदारचित्त होकर दान देना आरम्भ किया। उनकी अङ्गकान्ति गौर वर्णकी थी शरीर पर दिव्य वस्त्र शोभा पाते थे और वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थीं । रोहिणी जी साक्षात् लक्ष्मी की भाँति व्रजाङ्गनाओं का सत्कार करती हुई सब ओर विचरने लगीं ।। ३१-३२ ॥   

साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णके व्रजमें पधारनेपर सब ओर मानव - वाद्य बजने लगे ।

बड़े जोर-जोरसे जै-जैकारकी ध्वनि होने लगी। उस समय गोप दही, दूध और घीसे तथा गोपाङ्गनाएँ ताजे माखनके लौंदों से एक-दूसरेको हर्षोल्लाससे भिगोने और उच्चस्वरसे गीत गाने लगीं। नन्दभवनके बाहर और भीतर सब ओर दहीकी कीच मच गयी । उसमें बूढ़े और मोटे शरीरवाले लोग फिसलकर गिर पड़ते थे और दूसरे लोग खूब ताली पीट-पीटकर हँसते थे ।। ३३-३५ ॥   

महाराज ! वहाँ जो पौराणिक सूत, वंशोंके प्रशंसक मागध और निर्मल बुद्धिवाले तथा अवसरके अनुरूप बातें कहनेवाले बंदीजन पधारे थे, उन सबको नन्द- रायजीने प्रत्येकके लिये अलग-अलग एक-एक हजार गौएँ प्रदान कीं । वस्त्र, आभूषण, रत्न, घोड़े और हाथी आदि सब कुछ दिये ।। ३६-३७ ॥   

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

परीक्षित् का जन्म

ततः सर्वगुणोदर्के सानुकूल ग्रहोदये ।
जज्ञे वंशधरः पाण्डोः भूयः पाण्डुरिवौजसा ॥ १२ ॥
तस्य प्रीतमना राजा विप्रैर्धौम्य कृपादिभिः ।
जातकं कारयामास वाचयित्वा च मङ्‌गलम् ॥ १३ ॥
हिरण्यं गां महीं ग्रामान् हस्त्यश्वान् नृपतिर्वरान् ।
प्रादात्स्वन्नं च विप्रेभ्यः प्रजातीर्थे स तीर्थवित् ॥ १४ ॥
तमूचुर्ब्राह्मणास्तुष्टा राजानं प्रश्रयान्वितम् ।
एष ह्यस्मिन् प्रजातन्तौ पुरूणां पौरवर्षभ ॥ १५ ॥
दैवेनाप्रतिघातेन शुक्ले संस्थामुपेयुषि ।
रातो वोऽनुग्रहार्थाय विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ १६ ॥
तस्मान्नाम्ना विष्णुरात इति लोके बृहच्छ्रवाः ।
भविष्यति न सन्देहो महाभागवतो महान् ॥ १७ ॥

तदनन्तर अनुकूल ग्रहोंके उदयसे युक्त समस्त सद्गुणोंको विकसित करनेवाले शुभ समयमें पाण्डुके वंशधर परीक्षित्‌का जन्म हुआ। जन्मके समय ही वह बालक इतना तेजस्वी दीख पड़ता था, मानो स्वयं पाण्डुने ही फिरसे जन्म लिया हो ॥ १२ ॥ पौत्रके जन्मकी बात सुनकर राजा युधिष्ठिर मनमें बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने धौम्य, कृपाचार्य आदि ब्राह्मणोंसे मङ्गलवाचन और जातकर्म-संस्कार करवाये ॥ १३ ॥ महाराज युधिष्ठिर दानके योग्य समयको जानते थे। उन्होंने प्रजातीर्थ [*] नामक कालमें अर्थात् नाल काटनेके पहले ही ब्राह्मणोंको सुवर्ण, गौएँ, पृथ्वी, गाँव, उत्तम जातिके हाथी- घोड़े और उत्तम अन्नका दान दिया ॥ १४ ॥ ब्राह्मणोंने सन्तुष्ट होकर अत्यन्त विनयी युधिष्ठिरसे कहा—‘पुरुवंश-शिरोमणे ! कालकी दुर्निवार गतिसे यह पवित्र पुरुवंश मिटना ही चाहता था, परन्तु तुमलोगोंपर कृपा करनेके लिये भगवान्‌ विष्णुने यह बालक देकर इसकी रक्षा कर दी ॥ १५-१६ ॥ इसीलिये इसका नाम विष्णुरात होगा। निस्सन्देह यह बालक संसारमें बड़ा यशस्वी, भगवान्‌का परम भक्त और महापुरुष होगा’ ॥ १७ ॥
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[*] नालच्छेदनसे पहले सूतक नहीं होता, जैसे कहा है—‘यावन्न छिद्यते नालं तावन्नाप्नोति सूतकम्। छिन्ने नाले तत: पश्चात् सूतकं तु विधीयते ॥’ इसी समयको ‘प्रजातीर्थ’ काल कहते हैं। इस समय जो दान दिया जाता है, वह अक्षय होता है। स्मृति कहती है—‘पुत्रे जाते व्यतीपाते दत्तं भवति चाक्षयम्।’ अर्थात् ‘पुत्रोत्पत्ति और व्यतीपातके समय दिया हुआ दान अक्षय होता है।’

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


बुधवार, 24 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

बारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की धूम; गोप-गोपियों का उपायन लेकर आना; नन्द और यशोदा-रोहिणीद्वारा सबका यथावत् सत्कार; ब्रह्मादि देवताओंका भी श्रीकृष्णदर्शनके लिये आगमन

 

श्रुत्वा पुत्रोत्सवं तस्य वृषभानुवरस्तथा ।
कलावत्या गजारूढो नन्दमंदिरमाययौ ॥११॥
नन्दा नवोपनन्दाश्च तथा षड्वृषभानवः ।
नानोपायनसंयुक्ताः सर्वे तेऽपि समाययुः ॥१२॥
उष्णीषोपरि मालाढ्याः पीतकंचुकशोभिताः ।
बर्हगुंजाबद्धकेशा वनमालाविभूषणाः ॥१३॥
वंशीधरा वेत्रहस्ताः सुपत्रतिलकार्चिताः ।
बद्धवर्णाः परिकरा गोपास्तेऽपि समाययुः ॥१४॥
नृत्यन्तः परिगायंतो धुन्वंतो वसनानि च ।
नानोपायनसंयुक्ताः श्मश्रुलाः शिशवः परे ॥१५॥
हैयंगवीनदुग्धानां दध्याज्यानां बलीन्बहून् ।
नीत्वा वृद्धा यष्टिहस्ता नन्दमंदिरमाययुः ॥१६॥
पुत्रोत्सवं व्रजेशस्य कथयन्तः परस्परम् ।
प्रेमविह्वलभावैः स्वैरानन्दाश्रुसमाकुलाः ॥१७॥
जाते पुत्रोत्सवे नन्दः स्वानंदाश्रुकुलेक्षणः ।
पूजयामास तान् सर्वांस्तिलकाद्यैर्विधानतः ॥१८॥


गोपा ऊचुः -
हे व्रजेश्वर हे नन्द जातः पुत्रोत्सवस्तथा ।
अनपत्यस्येच्छतोऽलमतः किं मंगलं परम् ॥१९॥
दैवेन दर्शितं चेदं दिनं वो बहुभिर्दिनैः ।
कृतकृत्याश्च भूताः स्मो दृष्ट्वा श्रीनन्दनन्दनम् ॥२०॥
हे मोहनेति दुरात्तमंकं नीत्व गदिष्यसि ।
यदा लालनभावेब भविता नस्तदा सुखम् ॥२१॥


श्रीनन्द उवाच -
भवतामाशिषः पुण्याज्जातं सौख्यमिदं शुभम् ।
आज्ञावर्ती ह्यहं गोपा गोपानां व्रजवासिनाम् ॥२२॥

नन्दरायजीके यहाँ पुत्रोत्सवका समाचार सुनकर वृषभानुवर रानी कलावती (कीर्तिदा) के साथ हाथीपर चढ़कर नन्दमन्दिरमें आये । व्रजमें जो नौ नन्द, नौ उपनन्द तथा छः वृषभानु थे, वे सब भी नाना प्रकारकी भेंट-सामग्री के साथ वहाँ आये। वे सिरपर पगड़ी तथा उसके ऊपर माला धारण किये, पीले रंगके जामे पहने, केशोंमें मोरपंख और गुञ्जा बाँधे तथा वनमालासे विभूषित थे। हाथोंमें वंशी और बेंतकी छड़ी लिये, सुन्दर पत्ररचनाके साथ तिलक लगाये, कमर में मोरपंख बाँधे गोपालगण भी वहाँ आ गये। वे नाचते-गाते और वस्त्र हिलाते थे । मूँछवाले तरुण और बिना मूँछके बालक भी भाँति-भाँतिकी भेंट लेकर वहाँ आये ।। ११-१५ ॥   

बूढ़े लोग हाथ में डंडा लिये अपने साथ माखन, दूध, दही और घीकी भेंट लेकर नन्दभवनमें उपस्थित हुए। वे आपसमें व्रजराज के यहाँ पुत्रोत्सव का संवाद सुनाते हुए प्रेम से विह्वल हो नेत्रों से आनन्द के आँसू बहाते थे । पुत्रोत्सव होनेपर श्रीनन्दरायजी का आनन्द चरम सीमाको पहुँच गया था, उनके नेत्र हर्षके आँसुओंसे भरे हुए थे । उन्होंने अपने द्वारपर आये हुए समस्त गोपोंका तिलक आदिके द्वारा विधिवत् सत्कार किया ।। १६ – १८ ॥

गोप बोले- हे व्रजेश्वर ! हे नन्दराज ! आपके यहाँ जो पुत्रोत्सव हुआ है, यह संतानहीनता के कलङ्क- को मिटानेवाला है। इससे बढ़कर परम मङ्गल की बात और क्या हो सकती है ? दैवने बहुत दिनों के बाद आज आपको यह दिन दिखाया है, हमलोग श्रीनन्द- नन्दनका दर्शन करके कृतार्थ हो जायँगे। जब आप दूरसे आकर पुत्रको गोदमें लेकर मोदपूर्वक लाड़ लड़ाते हुए 'हे मोहन !' कहकर पुकारेंगे, उस समय हमें बड़ा सुख मिलेगा ॥ १९–२१ ॥

श्रीनन्द ने कहा— बन्धुओ ! आपलोगोंके आशीर्वाद और पुण्यसे आज यह आनन्ददायक शुभ दिवस प्राप्त हुआ है, मैं तो व्रजवासी गोप-गोपियोंका आज्ञापालक सेवक हूँ ॥ २२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥  श्रीमद्भागवतमहापुराण  प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५) विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और  गान्धारीका वनमे...