रविवार, 9 अक्तूबर 2022

कामना और आवश्यकता (पोस्ट 08)

 ।। श्रीहरिः ।।

 


कामना और आवश्यकता
(पोस्ट 08)

 

विचार के द्वारा यह अनुभव करें कि शरीर मेरा स्वरूप नहीं है । बचपन में हमारा शरीर जैसा था, वैसा आज नहीं है और जैसा आज है, वैसा आगे नहीं रहेगा, पर हम स्वयं वही हैं, जो बचपन में थे । तात्पर्य है कि शरीर तो बदल गया, पर हम नहीं बदले । अतः शरीर हमारा साथी नहीं है । हम निरन्तर रहते हैं, पर शरीर निरन्तर नहीं रहता, प्रत्युत निरन्तर मिटता रहता है । इस विवेक को महत्व देने से तत्त्वज्ञान हो जायगा अर्थात् हमारी आवश्यकता की पूर्ति हो जायगी । इसका नाम ज्ञानयोगहै ।

 

जब इच्छाओं को मिटाने में अथवा आवश्यकता की पूर्ति करने में अपनी शक्ति काम नहीं करती और साधक का यह विश्वास होता है कि केवल भगवान् ही अपने हैं और उनकी शक्ति से ही मेरी आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है, तब वह व्याकुल होकर भगवान्‌ को पुकारता है, प्रार्थना करता है । भगवान्‌ को पुकारने से उसकी इच्छाएँ मिट जाती हैं । इसका नाम भक्तियोगहै ।

 

संसार की सत्ता मानकर उसको महत्ता देनेसे तथा उसके साथ सम्बन्ध जोड़ने से ही जो अप्राप्त है, वह संसार प्राप्त दीखने लग गया और जो प्राप्त है, वह परमात्मतत्व अप्राप्त दीखने लग गया । इसी कारण संसार की भी इच्छा उत्पन्न हो गयी और परमात्मा की भी इच्छा (आवश्यकता) उत्पन्न हो गयी । अतः साधक को कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि किसी भी साधन से संसार की इच्छा को सर्वथा मिटाना है । संसार की इच्छा सर्वथा मिटते ही संसारकी सत्ता, महत्ता तथा सम्बन्ध नहीं रहेगा और जिनके हम अंश हैं, उन नित्यप्राप्त परमात्मा का अनुभव हो जायगा । फिर कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहेगा अर्थात् मनुष्यजन्म की पूर्णता हो जायगी ।

 

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

 

------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की सत्संग मुक्ताहारपुस्तकसे



शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

कामना और आवश्यकता (पोस्ट 07)

 

।। श्रीहरिः ।।

 


कामना और आवश्यकता
(पोस्ट 07)

 

हम नया-नया पकड़ते रहते हैं और भगवान् छुड़ाते रहते हैं ! यह भगवान्‌ की अत्यन्त कृपालुता है ! वे हमारा क्रियात्मक आवाहन करते हैं कि तुम संसार में न फँसकर मेरी तरफ चले आओ । अगर हम संसार को पकड़ना छोड़ दें तो महान् आनन्द मिल जायगा । जब कभी हमें शान्ति मिलेगी तो वह कामनाओं के त्याग से ही मिलेगी‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् (गीता १२ । १२) ।

 

दूसरों की सेवा करने से बड़ी सुगमता से इच्छा का त्याग होता है । गरीब, अपाहिज, बीमार, बालक, विधवा, गाय आदि की सेवा करनेसे इच्छाएँ मिटती हैं । एक साधु कहते थे कि जब मेरा विवाह हुआ था, एक दिन मेरे को एक आम मिला । पर मैंने वह आम अपनी स्त्री को दे दिया । इससे मेरे भीतर यह विचार उठा कि वह आम मैं खुद भी खा सकता था, पर मैंने खुद न खाकर स्त्रीको क्यों दिया ? इससे मेरेको यह शिक्षा मिली कि दूसरे को सुख पहुँचानेसे अपने सुखकी इच्छा मिटती है । इसका नाम कर्मयोगहै । संसार की इच्छा शरीर की प्रधानता से होती है । अतः विवेक-विचारपूर्वक शरीर के द्वारा दूसरों की सेवा करने से, दूसरों को सुख पहुँचाने से इच्छा सुगमतापूर्वक मिट जाती है । सृष्टि की रचना ही इस ढंग से हुई है कि एक-दूसरेको सुख पहुँचाने से, सेवा करने से कल्याण की प्राप्ति हो जाती है‒‘परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ (गीता ३ । ११) । शरीर संसार से ही पैदा हुआ है, संसा रसे ही पला है, संसार से ही शिक्षित हुआ है, संसार में ही रहता है और संसार में ही लीन हो जाता है अर्थात् संसार के सिवाय शरीर की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । अतः संसार से मिले हुएको ईमानदारी के साथ संसार की सेवा में अर्पित कर दें । जो कुछ करें, संसार के हित के लिये ही करें । केवल संसार के हित का ही चिन्तन करें, हित का ही भाव रखें, साथमें अपने आराम, मान-बड़ाई, सुख-सुविधा आदिकी इच्छा न रखें तो परमात्मा की प्राप्ति हो जायगी‒‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः (गीता १२ । ४) ।

 

दूसरों को सुख पहुँचाने की अपेक्षा भी किसी को दुःख न पहुँचाना बहुत ऊँची सेवा है । सुख पहुँचाने से सीमित सेवा होती है, पर दुःख न पहुँचाने से असीम सेवा होती है । भलाई करने से ऊपर से भलाई होती है, पर बुराई न करने से भीतर से भलाई अंकुरित होती है । बुराई का त्याग करने के लिये तीन बातों का पालन आवश्यक है‒(१) किसी को बुरा नहीं समझें (२) किसी का बुरा नहीं चाहें और (३) किसी का बुरा नहीं करें । इस प्रकार बुराई का सर्वथा त्याग करने से हमारी वास्तविक आवश्यकता की पूर्ति हो जायगी और मनुष्यजीवन सफल हो जायगा ।

 

नारायण ! नारायण !!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की सत्संग मुक्ताहारपुस्तकसे



कामना और आवश्यकता (पोस्ट 06)

 

।। श्रीहरिः ।।

 


कामना और आवश्यकता (पोस्ट 06)

 

भोग और संग्रह का, शरीर का त्याग तो अपने-आप हो रहा है । जैसे बालकपना चला गया, ऐसे ही जवानी भी चली जायगी, वृद्धावस्था भी चली जायगी, व्यक्ति भी चले जायँगे, पदार्थ भी चले जायेंगे । केवल उनकी इच्छा का त्याग करना है, उनको अस्वीकार करना है । परन्तु परमात्मा निरन्तर हमारे साथ रहते हैं । वे हमारी स्वीकृति-अस्वीकृतिपर निर्भर नहीं हैं । परमात्मा को मानें तो भी वे हैं, न मानें तो भी वे हैं, स्वीकार करें तो भी वे हैं, अस्वीकार करें तो भी वे हैं । परन्तु संसार हमारी स्वीकृति-अस्वीकृतिपर निर्भर करता है । संसार को स्वीकार करें तो वह है, अस्वीकार करें तो वह नहीं है । अगर संसार मनुष्य की स्वीकृति-अस्वीकृति पर निर्भर नहीं होता तो फिर कोई भी मनुष्य संसार से असंग नहीं हो सकता, साधु नहीं बन सकता । संसार निरन्तर अलग हो रहा है और परमात्मा कभी अलग नहीं होते । केवल संसार की इच्छा का त्याग करना है और परमात्मा की आवश्यकता का अनुभव करना है । फिर संसार का त्याग और परमात्मा की प्राप्ति स्वतः-सिद्ध है ।

 

किसी की भी ताकत नहीं है कि वह शरीर-संसार को अपने साथ रख सके अथवा खुद उनके साथ रह सके । न हम उनके साथ रह सकते हैं, न वे हमारे साथ रह सकते हैं क्योंकि वे हमारे नहीं हैं । संसार का कोई भी सुख सदा नहीं रहता; क्योंकि वह सुख हमारा नहीं है । उसकी इच्छा का त्याग करना ही पड़ेगा । संसार को सत्ता भी हमने ही दी है‒‘ययेदं धार्यते जगत् (गीता ७ । ५) । वास्तव में संसार की सत्ता है नहीं‒‘नासतो विद्यते भावः (गीता २ । १६) । संसार एक क्षण भी टिकता नहीं है । हमें वहम होता है कि हम जी रहे हैं, पर वास्तव में हम मर रहे हैं । मान लें, हमारी कुल आयु अस्सी वर्ष की है और उसमें से बीस वर्ष बीत गये तो अब हमारी आयु अस्सी वर्षकी नहीं रही, प्रत्युत साठ वर्ष की रह गयी । हम सोचते हैं कि हम इतने वर्ष बड़े हो गये हैं पर वास्तव में छोटे हो गये हैं । जितनी उम्र बीत रही है, उतनी ही मौत नजदीक आ रही है । जितने वर्ष बीत गये, उतने तो हम मर ही गये । अतः जो निरन्तर छूट रहा है, उसको ही छोड़ना है और जो निरन्तर विद्यमान है, उसको ही प्राप्त करना है ।

 

हमने जिद कर ली है कि हम संसार को पकड़ेंगे, छोड़ेंगे नहीं तो भगवान्‌ ने भी जिद कर ली है कि मैं छुड़ा दूँगा, रहने दूँगा नहीं । हम बालकपना पकड़ते हैं तो भगवान् उसको नहीं रहने देते, हम जवानी पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते, हम वृद्धावस्था पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते, हम धनवत्ता पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते, हम नीरोगता पकड़ते हैं तो उसको नहीं रहने देते ।

 

नारायण ! नारायण !!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की सत्संग मुक्ताहारपुस्तकसे



शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2022

कामना और आवश्यकता (पोस्ट 05)

 

।। श्रीहरिः ।।

 


कामना और आवश्यकता
(पोस्ट 05)

 

साधक अधिक-से-अधिक अपने मन को परमात्मा में लगाता है । मन तो प्रकृति का अंश होनेसे जड़ है और परमात्मा चेतन हैं । अतः मन परमात्मा में कैसे लगेगा ? जड़ तो जड़ में ही लगेगा, चेतन में कैसे लगेगा ? वास्तव में स्वयं (चेतन) ही परमात्मा में लगता है, मन नहीं लगता । जीव का स्वभाव है कि वह वहीं लगता है, जहाँ उसका मन लगता है । संसा रमें मन लगाने से वह संसार में लग गया । जब वह परमात्मा में मन लगाता है, तब मन तो परमात्मा में नहीं लगता, पर स्वयं परमात्मा में लग जाता है । मन को संसार से हटाकर परमात्मा में लगानेसे मन विलीन हो जाता है, खत्म हो जाता है । श्रीमद्भागवत में भगवान् कहते हैं

 

विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते ।

मामनुस्मरतश्चित्तं   मव्येव    प्रविलीयते

                                                 (११ । १४ । २७)

 

विषयों का चिन्तन करने से मन विषयों में फँस जाता है और मेरा स्मरण करनेसे मन मेरे में विलीन हो जाता है अर्थात् मन की सत्ता नहीं रहती ।

 

कामना की पूर्ति में तो भविष्य है, पर आवश्यकता की पूर्ति में भविष्य नहीं है । कारण कि सांसारिक पदार्थ सदा सब जगह विद्यमान नहीं हैं, पर परमात्मा सदा सब जगह विद्यमान हैं । अनुभव में न आये तो भी आँखें मीचकर, अन्धे होकर यह मान लें कि परमात्मा सब जगह मौजूद हैं‒‘बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च (गीता १३ । १५) वे परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर-भीतर परिपूर्ण हैं और चर-अचर प्राणियों के रूपमें भी वे ही हैं ।इस प्रकार सब जगह, सब समय, सब वस्तुओं में, सब व्यक्तियों में सब क्रियाओं में सब अवस्थाओं में, सब परिस्थितियों में परमात्मा को देखते रहने से इच्छा नष्ट हो जायगी और आवश्यकता की पूर्ति हो जायगी ।

 

शरीर और संसार एक ही जातिके हैं

 

छिति जल पावक गगन समीरा ।

पंच रचित अति अधम सरीरा ॥

                            (मानस, कि॰ ११ । २)

 

शरीर हमारे साथ एक क्षण भी नहीं रहता । यह निरन्तर हमारा त्याग कर रहा है । परन्तु भगवान् निरन्तर हमारे हृदय में विराजमान रहते हैं‒‘हृदि सर्वस्य विष्ठितम् (गीता १३ । १७) सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः (गीता १५ । १५) ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेsर्जुन तिष्ठति (गीता १८ । ६१) । तात्पर्य है कि हमें जिसका त्याग करना है, उसका निरन्तर त्याग हो रहा है और जिसको प्राप्त करना है, वह निरन्तर प्राप्त हो रहा है । केवल भोग भोगना और संग्रह करनाइन दो इच्छाओं का हमें त्याग करना है । ये दो इच्छाएँ ही परमात्मप्राप्तिमें खास बाधक हैं ।

 

नारायण ! नारायण !!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की सत्संग मुक्ताहारपुस्तकसे

 



कामना और आवश्यकता (पोस्ट 04)

 

।। श्रीहरिः ।।

 


कामना और आवश्यकता
(पोस्ट 04)

 

हम गृहस्थ का त्याग कर दें, रुपयों का त्याग कर दें शरीर का त्याग कर दें तो आवश्यकता की पूर्ति हो जायगीऐसी बात नहीं है । आवश्यकता की पूर्ति इनकी इच्छा का त्याग करने से होगी । गृहस्थ बना रहे, रुपये बने रहें, शरीर बना रहे, मान-बड़ाई बनी रहेयह असम्भव है । असम्भव की इच्छा कभी पूरी होगी ही नहीं, प्रत्युत इच्छा करते हुए मर जायँगे और जन्म-मरण के चक्कर में वैसे ही पड़े रहेंगे । इच्छा की कभी पूर्ति नहीं होगी और आवश्यकता का कभी त्याग नहीं होगा । कारण कि इच्छा शरीर (जड़) को लेकर है और उसका विषय नाशवान् है तथा आवश्यकता स्वयँ (चेतन) को लेकर है और उसका विषय अविनाशी है । अतः चाहे इच्छा का त्याग कर दें तो योग सिद्ध हो जायगा‒‘तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् और चाहे आवश्यकता की पूर्ति कर लें तो योग सिद्ध हो जायगा‒‘समत्वं योग उच्यते । जड़ता का त्याग भी योग है और समता की प्राप्ति भी योग है । जड़ता के त्याग से चिन्मयता की प्राप्ति हो जायगी और चिन्मयता की प्राप्ति से जड़ता का त्याग हो जायगा । दोनों एक साथ कभी रहेंगे नहीं ।

 

जैसे पानी से भरा हुआ घड़ा हो तो उसको खाली करना है और उसमें आकाश भरना हैये दो काम दीखते हैं । पर वास्तवमें दो काम नहीं हैं प्रत्युत एक ही काम हैघडे़ को खाली करना । घडे़ में से पानी निकाल दें तो आकाश अपने-आप भर जायगा । ऐसे ही संसार की कामना का त्याग करना और परमात्मा की आवश्यकता पूरी करनाये दो काम नहीं हैं । संसार की कामना का त्याग कर दें तो परमात्मा की आवश्यकता अपने-आप पूरी हो जायगी । केवल संसार की इच्छा से ही परमात्मा अप्राप्त हो रहे हैं ।

 

 जीव, जगत् और परमात्माये तीन ही वस्तुएँ हैं । जीव क्या है ? मैं जीव हूँ । जगत् क्या है ? यह जो दीख रहा है, यह जगत् है । परमात्मा क्या है ? जो जीव और जगत् दोनों का मालिक है, वह परमात्मा है । जीव और जगत्‌ का तो विचार होता है, पर परमात्मा का विचार नहीं होता, प्रत्युत विश्वास होता है । कारण कि विचार का विषय वह होता है, जिसके विषय में हम कुछ जानते हैं, कुछ नहीं जानते । जिसके विषय में कुछ नहीं जानते, उसपर विचार नहीं चलता । उसपर तो विश्वास ही किया जाता है । अतः विचार करके जगत्‌ का त्याग करना है और श्रद्धा-विश्वास करके परमात्मा को स्वीकार करना है । जड़ता का त्याग करने में कोई भी परतन्त्र नहीं है; क्योंकि जड़ता विजातीय है ।

 

नारायण ! नारायण !!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की सत्संग मुक्ताहारपुस्तकसे

 



गुरुवार, 6 अक्तूबर 2022

कामना और आवश्यकता (पोस्ट 03)

 


।। श्रीहरिः ।।

 

कामना और आवश्यकता (पोस्ट 03)

 

कामनाओं के त्याग से आवश्यकता की पूर्ति हो जाती हैयह नियम है । कामना का त्याग करने में हम स्वतन्त्र हैं । कामना किसी में भी निरन्तर नहीं रहती, प्रत्युत उत्पन्न-नष्ट होती रहती है । परन्तु आवश्यकता निरन्तर रहती है । हमें सत्ता चाहिये तो नित्य सत्ता चाहिये, ज्ञान चाहिये तो अनन्त ज्ञान चाहिये, सुख चाहिये तो अनन्त सुख चाहियेयह सत्-चित्-आनन्द की आवश्यकता हमारे में निरन्तर रहती है । निरन्तर न रहने वाली कामना को तो हम पकड़ लेते हैं, पर निरन्तर रहनेवाली आवश्यकता की तरफ हम ध्यान ही नहीं देतेयह हमारी भूल है ।

 

अगर हम कामनाओं का त्याग कर दें तो परमात्मा की प्राप्ति हो जायगी अथवा परमात्मा की प्राप्ति कर लें तो कामनाओं का त्याग हो जायगा । इन दोनों को ही गीता ने योगकहा है

 

तं विद्यादुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।

                                                                                  (६ । २३)

जिसमें दुःखोंके संयोगका ही वियोग है, उसीको योग नामसे जानना चाहिये ।

 

समत्वं योग उच्यते ।

                                                                  (२ । ४८)

                                समत्व ही योग कहा जाता है ।

 

तात्पर्य है कि जड़ता का त्याग करना भी योग है और चिन्मयता में स्थित होना भी योग है । दुःखरूप संसार से माना हुआ सम्बन्ध ही दुःखसंयोगहै । दुःखों का घर होनेसे संसार दुःखालयहै‒‘दुःखालयमशाश्वतम्’ (गीता ८ । १५) । जैसे पुस्तकालय में पुस्तकें मिलती हैं, वस्त्रालय में वस्त्र मिलता है, भोजनालय में भोजन मिलता है, ऐसें ही दुःखालय में दुःख-ही-दुःख मिलता है । दुःखालयमें  सुख ही नहीं मिलता, फिर आनन्द तो दूर रहा ! परन्तु परमात्मा में आनन्द-ही-आनन्द हैयं लब्ध्वा चापरं लाभ मन्यते नाधिकं ततः (गीता ६ । २२) । ऐसे महान् आनन्दकी ही हमें आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति के लिये ही हमें यह मनुष्यजन्म मिला है ।

 

मनुष्य अनन्तकाल तक जन्मता-मरता रहे तो भी उसकी आवश्यकता मिटेगी नहीं और कामना टिकेगी नहीं । बाल्यावस्था में खिलौनों की कामना होती है, फिर बड़े होने पर रुपयोंकी कामना हो जाती है, फिर स्त्री-पुत्र, मान-बड़ाई आदि की कामना हो जाती है । इस प्रकार कोई भी कामना टिकती नहीं, बदलती रहती है, पर आवश्यकता कभी मिटती नहीं, बदलती नहीं । उस आवश्यकता की पूर्ति के लिये ही कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग ध्यानयोग आदि साधन हैं ।

 

नारायण ! नारायण !!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की सत्संग मुक्ताहारपुस्तकसे



श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)

# श्रीहरि: #   श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)   शकटभञ्जन ; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार ; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्ण...