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मंगलवार, 20 दिसंबर 2022

शिव और आसुरि को गोपीरूप से रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन (पोस्ट 04)


 

।। श्रीराधाकृष्णाभ्याम् नम: ।।

 

शिव और आसुरि को गोपीरूप से 

रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन

(पोस्ट 04)

 

श्रीनारद जी कहते हैं- राजन् ! आसुरि और शिव—दोनों ने दूर से ही जब श्रीकृष्ण को देखा तो हाथ जोड़ लिये । नृपश्रेष्ठ ! समस्त गोपसुन्दरियों के देखते-देखते श्रीकृष्ण- चरणारविन्द में मस्तक झुकाकर, आनन्दविह्वल हुए उन दोनों ने कहा ॥

दोनों बोले- कृष्ण ! महायोगी कृष्ण ! देवाधि-देव जगदीश्वर ! पुण्डरीकाक्ष ! गोविन्द ! गरुडध्वज ! आपको नमस्कार है । जनार्दन ! जगन्नाथ ! पद्मनाभ ! त्रिविक्रम ! दामोदर ! हृषीकेश ! वासुदेव ! आपको नमस्कार है ।

देव ! आप परिपूर्णतम साक्षात् भगवान् हैं । इन दिनों भूतल का भारी भार हरने और सत्पुरुषों का कल्याण करने के लिये अपने समस्त लोकों को पूर्णतया शून्य करके यहाँ नन्दभवन में प्रकट हुए हैं। वास्तव में तो आप परात्पर परमात्मा ही हैं । अंशांश, अंश, कला, आवेश तथा पूर्ण - समस्त अवतारसमूहों से संयुक्त हो, आप परिपूर्णतम परमेश्वर सम्पूर्ण विश्व की रक्षा करते हैं तथा वृन्दावन में सरस रासमण्डल को भी अलंकृत करते हैं ।

गोलोकनाथ ! गिरिराजपते ! परमेश्वर ! वृन्दावनाधीश्वर ! नित्यविहार – लीला का विस्तार करनेवाले राधावल्लभ ! व्रजसुन्दरियों के मुख से अपना यशोगान सुननेवाले गोविन्द ! गोकुलपते ! सर्वथा आपकी जय हो शोभाशालिनी निकुञ्जलताओं के विकास के लिये आप ऋतुराज वसन्त हैं। श्रीराधिका के वक्ष और कण्ठ को विभूषित करने- वाले रत्नहार हैं। श्रीरासमण्डल के पालक, व्रज- मण्डल के अधीश्वर तथा ब्रह्माण्ड-मण्डल की भूमि के संरक्षक हैं * ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तब श्रीराधा- सहित भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न हो मन्द मन्द मुसकराते हुए मेघगर्जन की-सी गम्भीर वाणी में मुनिसे बोले ॥

श्रीभगवान् ने कहा- तुम दोनों ने साठ हजार वर्षों तक निरपेक्षभाव से तप किया है, इसीसे तुम्हें मेरा दर्शन प्राप्त हुआ है। जो अकिंचन, शान्त तथा सर्वत्र शत्रुभावना से रहित है, वही मेरा सखा है। अतः तुम दोनों अपने मन के अनुसार अभीष्ट वर माँगो ।।

शिव और आसुरि बोले- भूमन् ! आपको नमस्कार हैं। आप दोनों प्रिया-प्रियतमके चरण- कमलों की संनिधि में सदा ही वृन्दावनके भीतर हमारा निवास हो । आपके चरण से भिन्न और कोई वर हमें नहीं रुचता है; अतः आप दोनों— श्रीहरि एवं श्रीराधिका को हमारा सादर नमस्कार है ॥

श्रीनारद जी कहते हैं— राजन् ! तब भगवान् ने 'तथास्तु' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। तभी से शिव और आसुरि मुनि मनोहर वृन्दावन में

वंशीवट के समीप रासमण्डल से मण्डित कालिन्दी के निकटवर्ती पुलिन पर निकुञ्ज के पास ही नित्य निवास करने लगे ।।

तदनन्तर श्रीकृष्ण ने जहाँ कमलपुष्पों के सौरभयुक्त पराग उड़ रहे थे और भ्रमर मँडरा रहे थे, उस पद्माकर वन में गोपाङ्गनाओं के साथ रासक्रीड़ा प्रारम्भ की। मिथिलेश्वर ! उस समय श्रीकृष्ण ने छः महीने की रात बनायी । परंतु उस रासलीला में सम्मिलित हुई गोपियों- के लिये वह सुख और आमोद से पूर्ण रात्रि एक क्षण के समान बीत गयी। राजन् ! उन सबके मनोरथ पूर्ण हो गये। अरुणोदय की वेला में वे सभी व्रजसुन्दरियाँ झुंड की झुंड एक साथ होकर अपने घर को लौटीं । श्रीनन्दनन्दन साक्षात् नन्दमन्दिर में चले गये और श्रीवृषभानुनन्दिनी तुरंत ही वृषभानुपुर में जा पहुँचीं ॥

इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र का यह मनोहर रासोपाख्यान सुनाया गया, जो समस्त पापों को हर लेनेवाला, पुण्यप्रद, मनोरथ पूरक तथा मङ्गल का धाम हैं साधारण लोगों को यह धर्म, अर्थ और काम प्रदान करता है तथा मुमुक्षुओं को मोक्ष देनेवाला है । राजन् ! यह प्रसङ्ग मैंने तुम्हारे सामने कहा। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ २०-३८ ।।

.....................................................

*कृष्ण कृष्ण महायोगिन् देवदेव जगत्पते ।

पुण्डरीकाक्ष गोविन्द गरुडध्वज ते नमः ||

जनार्दन जगन्नाथ पद्मनाभ त्रिविक्रम ।

दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥

अद्यैव देव परिपूर्णतमस्तु साक्षाद्

भूभूरिभारहरणाय सतां शुभाय ।

प्राप्तोऽसि नन्दभवने परतः परस्त्वं

कृत्वा हि सर्वनिजलोकमशेषशून्यम् ॥

अंशांशकांशककलाभिरुताभिरामं

वेशप्रपूर्णनिचयाभिरतीवयुक्तः ।

विश्वं विभर्षि रसरासमलङ्करोषि

वृन्दावनं च परिपूर्णतमः स्वयं त्वम् ॥

गोलोकनाथ गिरिराजपते परेश

वृन्दावनेश कृतनित्यविहारलील ।

राधापते व्रजवधूजनगीतकीर्ते

गोविन्द गोकुलपते किल ते जयोऽस्तु ।

श्रीमन्निकुञ्जलतिकाकुसुमाकरस्त्वं

श्रीराधिकाहृदयकण्ठविभूषणस्त्वम् ।

श्रीरासमण्डलपतिर्व्रजमण्डलेशो

ब्रह्माण्डमण्डलमहीपरिपालकोऽसि ॥

 

.....गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “श्रीगर्ग-संहिता” --पुस्तककोड 2260  (वृन्दावन खण्ड-अध्याय 25)

 



सोमवार, 19 दिसंबर 2022

शिव और आसुरि को गोपीरूप से रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन (पोस्ट 03)


 ।। श्रीराधाकृष्णाभ्याम् नम: ।।

 

शिव और आसुरि को गोपीरूप से 

रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन

(पोस्ट 03)

 

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! भगवान् शिव, आसुरि के साथ सम्पूर्ण हृदय से ऐसा निश्चय करके वहाँ से चले। वे दोनों श्रीकृष्णदर्शन के लिये व्रज – मण्डल में गये । वहाँ की भूमि दिव्य वृक्षों, लताओं, कुञ्जों और गुमटियोंसे सुशोभित थी । उस दिव्य भूमि का दर्शन करते हुए दोनों ही यमुनातटपर गये ।

उस समय अत्यन्त बलशालिनी गोलोकवासिनी गोप- सुन्दरियाँ हाथ में बेंत की छड़ी लिये वहाँ पहरा दे रही थीं । उन द्वारपालिकाओं ने मार्ग में स्थित होकर उन्हें बलपूर्वक रासमण्डल में जाने से रोका। वे दोनों बोले— 'हम श्रीकृष्णदर्शन की लालसा से यहाँ आये हैं।' नृपश्रेष्ठ ! तब राह रोककर खड़ी द्वारपालिकाओं ने उन दोनों से कहा ॥ १ –४ ॥

द्वारपालिकाएँ बोलीं- विप्रवरो ! हम कोटि- कोटि गोपाङ्गनाएँ वृन्दावन को चारों ओर से घेरकर निरन्तर रासमण्डल की रक्षा कर रही हैं । इस कार्य में श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने ही हमें नियुक्त किया है। इस एकान्त रासमण्डल में एकमात्र श्रीकृष्ण ही पुरुष हैं । उस पुरुषरहित एकान्त स्थान में गोपीयूथ के सिवा दूसरा कोई कभी नहीं जा सकता। मुनियो ! यदि तुम दोनों उनके दर्शनके अभिलाषी हो तो इस मानसरोवर में स्नान करो । वहाँ तुम्हें शीघ्र ही गोपीस्वरूप की प्राप्ति हो जायगी, तब तुम रासमण्डल के भीतर जा सकते हो ॥ ५-७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— द्वारपालिकाओं के यों कहनेपर वे मुनि और शिव मानसरोवर में स्नान करके, गोपी भाव को प्राप्त हो, सहसा रासमण्डल में गये ॥ ८ ॥

सुवर्णजटित पद्मरागमयी भूमि उस रासमण्डल की मनोहरता बढ़ा रही थी । वह सुन्दर प्रदेश माधवी लता- समूहों से व्याप्त और कदम्बवृक्षों से आच्छादित था। वसन्त ऋतु तथा चन्द्रमा की चाँदनी ने उसको प्रदीप्त कर रखा था। सब प्रकार की कौशलपूर्ण सजावट वहाँ दृष्टिगोचर होती थी । यमुनाजी की रत्नमयी सीढ़ियों तथा तोलिकाओं से रासमण्डल की अपूर्व शोभा हो रही थी।

मोर, हंस, चातक और कोकिल वहाँ अपनी मीठी बोली सुना रहे थे। वह उत्कृष्ट प्रदेश यमुनाजी के जलस्पर्श से शीतल-मन्द वायु के बहने से हिलते हुए तरुपल्लवों द्वारा बड़ी शोभा पा रहा था । सभामण्डपों और वीथियों से, प्राङ्गणों और खंभों की पंक्तियों से, फहराती हुई दिव्य पताकाओं से और सुवर्णमय कलशों से सुशोभित तथा श्वेतारुण पुष्पसमूहों से सज्जित तथा पुष्पमन्दिर और मार्गों से एवं भ्रमरों की गुंजारों और वाद्यों की मधुर ध्वनियों से व्याप्त रासमण्डल की शोभा देखते ही बनती थी ।

सहस्रदलकमलों की सुगन्ध से पूरित शीतल, मन्द एवं परम पुण्यमय समीर सब ओर से उस स्थान को सुवासित कर रहा था। रास- मण्डल के निकुञ्जमें कोटि-कोटि चन्द्रमाओं के समान प्रकाशित होनेवाली पद्मिनी नायिका हंसगामिनी श्रीराधा से सुशोभित श्रीकृष्ण विराजमान थे । रास मण्डल के भीतर निरन्तर स्त्रीरत्नों से घिरे हुए श्यामसुन्दरविग्रह श्रीकृष्ण का लावण्य करोड़ों कामदेवों को लज्जित करनेवाला था ।

हाथ में वंशी और बेंत लिये तथा श्रीअङ्ग पर पीताम्बर धारण किये वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। उनके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न,कौस्तुभमणि तथा वनमाला शोभा दे रही थी । झंकारते हुए नूपुर, पायजेब, करधनी और बाजूबंद से वे विभूषित थे। हार, कङ्कण तथा बालरवि के समान कान्तिमान् दो कुण्डलों से वे मण्डित थे। करोड़ों चन्द्रमाओं की कान्ति उनके आगे फीकी जान पड़ती थी । मस्तकपर मोरमुकुट धारण किये वे नन्द-नन्दन मनोरथदान-दक्ष कटाक्षों द्वारा युवतियों का मन हर लेते थे । ९–१९ ॥

 

....शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “श्रीगर्ग-संहिता” --पुस्तककोड 2260  (वृन्दावन खण्ड-अध्याय 25)

 




शिव और आसुरि को गोपीरूप से रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन (पोस्ट 02)


 

।। श्रीराधाकृष्णाभ्याम् नम: ।।

 

शिव और आसुरि को गोपीरूप से 

रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन

(पोस्ट 02)

 

नारद जी कहते हैं --मिथिलेश्वर ! कुछ गोपाङ्गनाएँ पुरुषवेष धारण- कर, मुकुट और कुण्डलों से मण्डित हो, स्वयं नायक बन जातीं और श्रीकृष्ण के सामने उन्हीं की तरह नृत्य करने लगती थीं। जिनकी मुख- कान्ति शत-शत चन्द्रमाओं- को तिरस्कृत करती थी, ऐसी गोपसुन्दरियाँ श्रीराधा का वेष धारण करके श्रीराधा तथा उनके प्राणवल्लभ को आनन्दित करती हुई उनके यश गाती थीं। कुछ व्रजाङ्गनाएँ स्तम्भ, स्वेद आदि सात्त्विक भावोंसे युक्त, प्रेम-विह्वल एवं परमानन्द में निमग्न हो, योगिजनों की भाँति समाधिस्थ होकर भूमिपर बैठ जाती थीं। कोई लताओं में, वृक्षों में, भूतल में, विभिन्न दिशाओं में तथा अपने-आप में भी भगवान् श्रीपति का दर्शन करती हुई मौनभाव धारण कर लेती थीं। इस प्रकार रासमण्डल में सर्वेश्वर, भक्तवत्सल गोविन्दकी शरण ले, वे सब गोप- सुन्दरियाँ पूर्णमनोरथ हो गयीं। महामते राजन् ! वहाँ गोपियोंको भगवान्‌ का जो कृपाप्रसाद प्राप्त हुआ, वह ज्ञानियोंको भी नहीं मिलता, फिर कर्मियोंको तो मिल ही कैसे सकता है ?

महामते ! इस प्रकार राधावल्लभ प्रभु श्यामसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्र के रास में जो एक विचित्र घटना हुई, उसे सुनो। श्रीकृष्ण के प्रिय भक्त एवं महातपस्वी एक मुनि थे, जिनका नाम 'आसुरि था। वे नारदगिरिपर श्रीहरिके ध्यान में तत्पर हो तपस्या करते थे । हृदय- कमलमें ज्योतिर्मण्डलके भीतर राधासहित मनोहर- मूर्ति श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका वे चिन्तन किया करते थे । एक समय रात में जब मुनि ध्यान करने लगे, तब श्रीकृष्ण उनके ध्यान में नहीं आये। उन्होंने बारंबार ध्यान लगाया, किंतु सफलता नहीं मिली। इससे वे महामुनि खिन्न हो गये। फिर वे मुनि ध्यान से उठकर श्रीकृष्णदर्शन की लालसा से बदरीखण्डमण्डित नारायणाश्रम को गये; किंतु वहाँ उन मुनीश्वर को नर-नारायण के दर्शन नहीं हुए। तब अत्यन्त विस्मित हो, वे ब्राह्मण देवता लोकालोक पर्वतपर गये; किंतु वहाँ सहस्र सिरवाले अनन्तदेव का भी उन्हें दर्शन नहीं हुआ।

तब उन्होंने वहाँके पार्षदोंसे पूछा- 'भगवान् यहाँ से कहाँ गये हैं ?' उन्होंने उत्तर दिया- 'हम नहीं जानते।' उनके इस प्रकार उत्तर देनेपर उस समय मुनि के मन में बड़ा खेद हुआ। फिर वे क्षीरसागर से सुशोभित श्वेतद्वीप में गये; किंतु वहाँ भी शेषशय्यापर श्रीहरि का दर्शन उन्हें नहीं हुआ। तब मुनि का चित्त और भी खिन्न हो गया । उनका मुख प्रेम से पुलकित दिखायी देता था । उन्होंने पार्षदों से पूछा - 'भगवान् यहाँ से कहाँ चले गये ?' पुनः वही उत्तर मिला- 'हम लोग नहीं जानते।' उनके यों कहनेपर मुनि भारी चिन्ता में पड़ गये और सोचने लगे- 'क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? कैसे श्रीहरि का दर्शन हो ?' ।।

यों कहते हुए मन के समान गतिशील आसुरि मुनि वैकुण्ठधाम में गये; किंतु वहाँ भी लक्ष्मी के साथ निवास करनेवाले भगवान् नारायण का दर्शन उन्हें नहीं हुआ। नरेश्वर ! वहाँके भक्तोंमें भी आसुरि मुनि ने भगवान्‌ को नहीं देखा। तब वे योगीन्द्र मुनीश्वर गोलोकमें गये; परंतु वहाँ के वृन्दावनीय निकुञ्ज में भी परात्पर श्रीकृष्णका दर्शन उन्हें नहीं हुआ । तब मुनि का चित्त खिन्न हो गया और वे श्रीकृष्ण-विरह से अत्यन्त व्याकुल हो गये। वहाँ उन्होंने पार्षदों से पूछा- 'भगवान् यहाँसे कहाँ गये हैं ?' तब वहाँ रहनेवाले पार्षद गोपोंने उनसे कहा - 'वामनावतार के ब्रह्माण्ड में, जहाँ कभी पृश्निगर्भ अवतार हुआ था, वहाँ साक्षात् भगवान् पधारे हैं ।' उनके यों कहने पर महामुनि आसुरि वहाँ से उस ब्रह्माण्डमें आये ।

[वहां भी] श्रीहरि का दर्शन न होने से तीव्र गति से चलते हुए मुनि कैलास पर्वत पर गये । वहाँ महादेव जी श्रीकृष्ण के ध्यान में तत्पर होकर बैठे थे । उन्हें नमस्कार करके रात्रि में खिन्न- चित्त हुए महामुनि ने  पूछा ।।

आसुरि बोले- भगवन् ! मैंने सारा ब्रह्माण्ड इधर-उधर छान डाला, भगवद्दर्शन की इच्छा से वैकुण्ठ से लेकर गोलोक तक का चक्कर लगा आया, किंतु कहीं भी देवाधिदेव का दर्शन मुझे नहीं हुआ। सर्वज्ञशिरोमणे ! बताइये, इस समय भगवान् कहाँ हैं ?

श्रीमहादेवजी बोले- आसुरे ! तुम धन्य हो । ब्रह्मन् ! तुम श्रीकृष्णके निष्काम भक्त हो । महामुने ! मैं जानता हूँ, तुमने श्रीकृष्णदर्शन की लालसा से महान् क्लेश उठाया है। क्षीरसागर में रहने वाले हंसमुनि बड़े कष्टमें पड़ गये थे। उन्हें उस क्लेश से मुक्त करने के लिये जो बड़ी उतावली के साथ वहाँ गये थे, वे ही भगवान् रसिकशेखर साक्षात् श्रीकृष्ण अभी-अभी वृन्दावन में आकर सखियोंके साथ रास-क्रीडा कर रहे हैं। मुने ! आज उन देवेश्वर ने अपनी माया से छः महीने के बराबर बड़ी रात बनायी है। मैं उसी रासोत्सव का दर्शन करने के लिये वहाँ जाऊँगा। तुम भी शीघ्र ही चलो, जिससे तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जाय ॥ २२ – ४९ ॥

 

.....शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “श्रीगर्ग-संहिता”  पुस्तककोड 2260  (वृन्दावन खण्ड-अध्याय 24)

 



रविवार, 18 दिसंबर 2022

शिव और आसुरि को गोपीरूप से रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन (पोस्ट 01)


 

।। श्रीराधाकृष्णाभ्याम् नम: ।।

 

शिव और आसुरि को गोपीरूप से 

रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन

(पोस्ट 01)

 

नारदजी कहते हैं -- गोपीगणों के साथ यमुनातट का दृश्य देखते हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण, रास-विहार के लिये मनोहर वृन्दावन में आये । श्रीहरि के वरदान से वृन्दावन की ओषधियाँ विलीन हो गयीं और वे सब की सब ब्रजाङ्गना होकर, एक यूथ के रूप में संघटित हो, रासगोष्ठी में सम्मिलित हो गयीं। मिथिलेश्वर ! लतारूपिणी गोपियों का समूह विचित्र कान्ति से सुशोभित था । उन सबके साथ वृन्दावनेश्वर श्रीहरि वृन्दावन में विहार करने लगे । कदम्ब–वृक्षों से आच्छादित कालिन्दी के सुरम्य तट पर सब ओर शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चलकर उस स्थान को सुगन्धपूर्ण कर रही थी । वंशीवट उस सुन्दर पुलिन की

रमणीयता को बढ़ा रहा था। रास के श्रम से थके हुए श्रीकृष्ण वहीं श्रीराधा के साथ आकर बैठे।

उस समय गोपाङ्गनाओं के साथ-साथ आकाशस्थित देवता भी वीणा, ताल, मृदङ्ग, मुरचंग आदि भाँति-भाँति के वाद्य बजा रहे थे तथा जय-जयकार करते हुए दिव्य फूल बरसा रहे थे। गोप- सुन्दरियाँ श्रीहरि को आनन्द प्रदान करती हुई उनके उत्तम यश गाने लगीं।

कुछ गोपियाँ मेघमल्लार नामक राग गातीं तो अन्य गोपियाँ दीपक राग सुनाती थीं । राजन्! कुछ गोपियों ने क्रमशः मालकोश, भैरव, श्रीराग तथा हिन्दोल राग का सात स्वरों के साथ गान किया । नरेश्वर ! उनमें से कुछ गोपियाँ तो अत्यन्त भोली-भाली थीं और कुछ मुग्धाएँ थीं । कितनी ही प्रेमपरायणा गोपसुन्दरियाँ प्रौढा नायिका की श्रेणी में आती थीं । उन सबके मन श्रीकृष्ण में लगे थे। कितनी ही गोपाङ्गनाएँ जारभावसे गोविन्द- की सेवा करती थीं।

कोई श्रीकृष्ण के साथ गेंद खेलने लगीं, कुछ श्रीहरि के साथ रहकर परस्पर फूलोंसे क्रीड़ा करने लगीं। कितनी ही गोपाङ्गनाएँ पैरों में नूपुर धारण करके परस्पर नृत्य-क्रीड़ा करती हुई नूपुरों की झंकार के साथ-साथ श्रीकृष्ण के अधरामृत का पान कर लेती थीं। कितनी ही गोपियाँ योगियों के लिये भी दुर्लभ श्रीकृष्ण को दोनों भुजाओं से पकड़कर हँसती हुई अत्यन्त निकट आ जातीं और उनका गाढ़ आलिङ्गन करती थीं ॥ १-१३ ॥

इस प्रकार परम मनोहर वृन्दावनाधीश्वर यदुराज भगवान् श्रीहरि केसर का तिलक धारण किये, गोपियों के साथ वृन्दावनमें विहार करने लगे। कुछ गोपाङ्गनाएँ वंशीधर की बाँसुरी के साथ वीणा बजाती थीं और कितनी ही मृदङ्ग बजाती हुई भगवान्‌ के गुण गाती थीं।

कुछ श्रीहरि के सामने खड़ी हो मधुर स्वर से खड़ताल बजातीं और बहुत-सी सुन्दरियाँ माधवी लताके नीचे चंग बजाती हुई श्रीकृष्णके साथ सुस्थिर- भावसे गीत गाती थीं । वे भूतल पर सांसारिक सुख को सर्वथा भुलाकर वहाँ रम रही थीं। कुछ गोपियाँ लतामण्डपों में श्रीकृष्ण के हाथ को अपने हाथ में लेकर इधर-उधर घूमती हुई वृन्दावन की शोभा निहारती थीं ।

किन्हीं गोपियों के हार लता – जाल से उलझ जाते, तब गोविन्द उनके वक्षःस्थल का स्पर्श करते हुए उन हारों को लता–जालों से पृथक् कर देते थे। गोप सुन्दरियों की नासिका में जो नकबेसरें थीं, उनमें मोती की लड़ियाँ पिरोयी गयी थीं। उनको तथा उनकी अलकावलियों को श्यामसुन्दर स्वयं सँभालते और धीरे-धीरे सुलझाकर सुशोभन बनाते रहते थे। माधव के चबाये हुए सुगन्धयुक्त ताम्बूल में से आधा लेकर तत्काल गोपसुन्दरियाँ भी चबाने लगती थीं। अहो ! उनका कैसा महान् तप था ! कितनी ही गोपियाँ हँसती हुई श्यामसुन्दर के कपोलोंपर अपनी दो अँगुलियों से धीरे-धीरे छूतीं और कोई हँसती हुई बलपूर्वक हलका-सा आघात कर बैठती थीं । कदम्ब वृक्षों के नीचे पृथक्-पृथक् सभी गोपाङ्गनाओं के साथ उनका क्रीडा-विनोद चल रहा था ॥ ०१ – २१ ॥

 

.............शेष आगामी पोस्ट में

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “श्रीगर्ग-संहिता”  पुस्तककोड 2260  (वृन्दावन खण्ड-अध्याय 24)



श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)

# श्रीहरि: #   श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)   शकटभञ्जन ; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार ; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्ण...