रविवार, 30 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२६)

||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.२६)
देहासक्ति की निंदा
अनुक्षणं यत्परित्य कृत्य-
मनाद्यविद्याकृतबन्धमोक्षणम् ।
देहः परार्थोऽयममुष्य पोषणे
यः सज्जते स स्वमनेन हन्ति ॥ ८५ ॥
(जो अनादि अविद्याकृत बन्धन को छुडानारूप अपना कर्त्तव्य त्यागकर प्रतिक्षण इस परार्थ [अन्य के भोग्य रूप] देह के पोषण में ही लगा रहता है, वह [अपनी इस प्रवृत्ति से] स्वयं अपना घात करता है)
शरीरपोषणार्थी सन् य आत्मानं दिदृक्षति ।
ग्राहं दारुधिया धृत्वा नदीं तर्तुं स इच्छति ॥ ८६ ॥
(जो शरीर पोषण में लगा रहकर आत्मतत्त्व को देखना चाहता है, वह मानो काष्ट-बुद्धि से ग्राह को पकड़कर नदी पार करना चाहता है)
मोह एव महामृत्युर्मुमुक्षोर्वपुरादिषु ।
मोहो विनिर्जतो येन स मुक्तिपदमर्हति ॥ ८७ ॥
(शरीरादि में मोह रखना ही मुमुक्षु की बड़ी भारी मौत है; जिसने मोह को जीता है वही मुक्तिपद का अधिकारी है)
मोहं जहि महामृत्युं देहदारसुतादिषु ।
यं जित्वा मुनयो यान्ति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ८८ ॥
(देह,स्त्री और पुत्रादि में मोहरूप महामृत्यु को छोड़; जिसको जीतकर मुनिजन भगवान् के उस परम पद को प्राप्त होते हैं)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


बुधवार, 26 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२५)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.२५)

विषय निंदा

आपातवैराग्यवतो मुमुक्षून्
भवाब्धिपारं प्रतियातुमुद्यतान् ।
आशाग्रहो मज्जयतेऽन्तराले
विगृह्य कण्ठे विनिवर्त्य वेगात् ॥ ८१ ॥

(संसार-सागर को पार करने के लिए उद्यत हुए क्षणिक वैराग्य वाले मुमुक्षुओं को आशारूपी ग्राह अतिवेग से बीच ही में रोककर गला पकड़कर डुबो देता है)

विषयाख्यग्रहो येन सुविरक्तसिना हतः ।
सः गच्छति भवाम्भोधेः पारं प्रत्यूहवर्जितः ॥ ८२ ॥

(जिसने वैराग्यरूपी खड्ग से विषयैषणारूपी ग्राह को मार दिया है, वही निर्विघ्न संसार-समुद्र के उस पार जा सकता है)

विषमविषयमार्गैर्गच्छतोऽनच्छबुद्धेः
प्रतिपदमभियातो मृत्युरप्येष विद्धि ।
हितसुजनगुरूक्त्या गच्छतः स्वस्य युक्त्या
प्रभवति फलसिद्धिः सत्यमित्येव विद्धि ॥ ८३ ॥

(विषयरूपी विषममार्ग में चलनेवाले मलिनबुद्धि को पद-पद पर मृत्यु आती है—ऐसा जानो | और यह भी बिलकुल ठीक समझो कि हितैषी,सज्जन अथवा गुरु के कथनानुसार अपनी युक्ति से चलने वाले को फल-सिद्धि हो ही जाती है)

मोक्षस्य काङ्क्षा यदि वै तवास्ति
त्यजातिदूराद्विषयान् विषं यथा ।
पीयूषवत्तोषदयाक्षमार्जव-
प्रशान्तिदान्तीर्भज नित्यमादरात् ॥ ८४ ॥

(यदि तुझे मोक्ष की इच्छा है तो विषयों को विष के समान दूर ही से त्याग दे | और संतोष,दया,सरलता,शम और दम का अमृत के समान नित्य आदरपूर्वक सेवन कर )

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२४)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.२४)

विषय निंदा

शब्दादिभिः पञ्चभिरेव पंच
पञ्चत्वमापुः स्वगुणेन बद्धाः ।
कुरङ्गमातङ्गपतङ्गमीन-
भृङ्गा नरः पञ्चभिरञ्चितः किम् ॥ ७८ ॥

(अपने-अपने स्वभाव के अनुसार शब्दादि मंच विषयों में से केवल एक-एक से बंधे हुए हरिण, हाथी,पतंग,मछली और भौंरे मृत्यु को प्राप्त होते हैं, फिर इन पाँचों से जकडा हुआ मनुष्य कैसे बच सकता है ?)

दोषेण तीव्रो विषयः कृष्णसर्पविषादपि ।
विषं निहन्ति भोक्तारं द्रष्टारं चक्षुषाप्ययम् ॥ ७९ ॥

(दोष में- विषय काले सर्प के विष से भी अधिक तीव्र है, क्योंकि विष तो खाने वाले को ही मारता है, विषय तो आँख से देखने वाले को भी नहीं छोड़ते)

विषयाशामहापाशाद्यो विमुक्त: सुदुस्त्यजात् |
स एव कल्पते मुक्त्यै नान्य:षट्शास्त्रवेद्यपि ||८०||

(जो विषयों की आशारूप कठिन बन्धन से छुटा हुआ है,वही मोक्ष का भागी होता है और कोई नहीं; चाहे वह छहों दर्शनों का ज्ञाता क्यों न हो)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२३)


||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.२३)

स्थूल शरीर का वर्णन 

मज्जास्थिमेदःपलरक्तचर्म-
त्वगाह्वयैर्धातुभिरेभिरन्वितम् ।
पादोरुक्षोभुजपृष्ठमस्तकै
रङ्गैरुपाङ्गैरुपयुक्तमेतत् ॥ ७४ ॥
अहंममेति प्रथितं शरीरं
मोहास्पदं स्थूलमितीर्यते बुधैः ।

( मज्जा,अस्थि,मेद,मांस,रक्त चर्म और त्वचा- इन सात धातुओं से बने हुए तथा चरण, जंघा, वक्ष:स्थल (छाती) भुजा, पीठ और मस्तक आदि अङ्गोपाङ्गों से युक्त “ मैं और मेरा “ रूप से प्रसिद्ध इस मोह के आश्रयरूप देह को विद्वान लोग स्थूल शरीर कहते हैं )

नभोनभस्वद्दहनाम्बुभूमयः
सूक्ष्माणि भूतानि भवन्ति तानि ॥ ७५ ॥
परस्परांशैर्मिलितानि भूत्वा
स्थूलानि च स्थूलशरीरहेतवः ।
मात्रास्तदीया विषया भवन्ति
शब्दादयः पञ्च सुखाय भोक्तुः ॥ ७६ ॥

(आकाश,वायु, तेज,जल और पृथिवी—ये सूक्ष्म भूत हैं | इनके अंश परस्पर मिलने से स्थूल होकर स्थूलशरीर के हेतु होते हैं और इन्हीं की तन्मात्राएं भोक्ता जीव के भोगरूप सुख के लिए शब्दादि पांच विषय हो जाती हैं)

य एषु मूढा विषयेषु बद्धा 
रोगारुपाशेन सुदुर्दमेन ।
आयान्ति निर्यान्तध ऊर्ध्वमुच्चैः स्व-
कर्मदूतेन जवेन नीताः ॥ ७७ ॥

( जो मूढ़ इन विषयों में रागरूपी सुदृढ़ एवं विस्तृत बन्धन से बंध जाते हैं, वे अपने कर्मरूपी दूत के द्वारा वेग से प्रेरित होकर अनेक उत्तमाधम योनियों में आते जाते हैं)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में 
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.२२)

|श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.२२)
प्रश्न विचार
यस्त्वयाद्य कृतः प्रश्नौ वरीयाञ्छास्त्रविन्मतः ।
सूत्रप्रायो निगूढार्थो ज्ञातव्यश्च मुमुक्षुभिः ॥ ६९ ॥
([गुरु कहते हैं कि] तूने आज जो प्रश्न किया है, शास्त्रज्ञ जन उसको बहुत श्रेष्ठ मानते हैं | वह परे: सूत्ररूप (संक्षिप्त) है, तो भी गंभीर अर्थयुक्त और मुमुक्षुओं के जानने योग्य है)
श्रृणुष्वावहितो विद्वन्यन्मया समुदीर्यते ।
तदेतच्छ्वणात्सद्यो भवबन्धाद्विमोक्ष्यसे ॥ ७० ॥
(हे विद्वन् ! जो मैं कहता हूँ,सावधान होकर सुन ;उसको सुनाने से तू शीघ्र ही भवबन्धन से छूट जाएगा)
मोक्षस्य हेतुः प्रथमो निगद्यते
वैराग्यमत्यन्तमनित्यवस्तुषु ।
ततः शमश्चापि दमस्तितिक्षा
न्यासः प्रसक्ताखिलकर्मणां भृशम् ॥ ७१ ॥
ततः श्रुतिस्तन्मननं सतत्त्व-
ध्यानं चिरं चित्यनिरन्तरं मुनेः ।
ततोऽविकल्पं परमेत्य विद्वा-
निहैव निर्वाणसुखं समृच्छति ॥ ७२ ॥
(मोक्ष का प्रथम हेतु अनित्य वस्तुओं में अत्यन्त वैराग्य होना कहा है, तदनंतर शम, दम,तितिक्षा और सम्पूर्ण आसक्तियुक्त कर्मों का सर्वथा त्याग है | तदुपरांत मुनि को श्रवण, मनन और चिरकाल तक नित्य निरन्तर आत्म-तत्त्व का अध्यान करना चाहिए | तब वह विद्वान परम निर्विकल्पावस्था को प्राप्त होकर निर्वाण सुख को पाता है)
यद्वोद्धव्यं तवेदानीमात्मानात्मविवेचनम् ।
तदुच्यते मया सम्यक् श्रुत्वात्मन्यवधारय ॥ ७३ ॥
(जो आत्मानात्मविवेक अब तुझे जानना चाहिए वह मैं समझाता हूँ, उसे तू भलीभाँति सुनकर अपने चित्त में स्थिर कर)
नारायण ! नारायण !!
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मंगलवार, 25 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.21)

||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.21)
अपरोक्षानुभव की आवश्यकता
न गच्छति विना पानं व्याधिरौषधशब्दत: |
विनापरोक्षानुभवं ब्रह्मशब्दैर्न मुच्यते ||६४||
(औषध को बिना पिए केवल औषध – शब्द के उच्चारणमात्र से रोग नहीं जाता, इसी प्रकार अपरोक्षानुभव बिना, केवल ”ब्रह्म, ब्रह्म” कहने से कोई मुक्त नहीं हो सकता)
अकृत्वा दृश्यविलयमज्ञात्वा तत्त्वमात्मन: |
बाह्यशब्दै: कुतो मुक्तिरुक्तिमात्रफलैर्नृणाम् ||६५||
(बिना दृश्य-प्रपञ्च किये और आत्मतत्त्व को जाने,केवल बाह्य शब्दों से,जिनका फल केवल उच्चारणमात्र ही है, मनुष्यों की मुक्ति कैसे हो सकती है)
अकृत्वा शत्रुसंहारमगत्वाखिलभूश्रियम् |
राजाहमिति शब्दान्नो राजा भवतुमर्हति ||६६||
( बिना शत्रुओं का वध किये और बिना सम्पूर्ण पृथिवीमण्डल का ऐश्वर्य प्राप्त किये, “मैं राजा हूँ”-ऐसा कहने से ही कोई राजा नहीं हो जाता)
आप्तोक्तिं खननं तथोपरिशिलाद्युत्कर्षणं स्वीकृतिं
निक्षेप: समपेक्षते न हि बही: शब्दैस्तु निर्गच्छति |
तद्वद् ब्रह्मविदोपदेशमननध्यानादिभिर्लभ्यते
मायाकार्यतिरोहितं स्वममलं तत्त्वं न् दुर्युक्तिभि : ||६७||
( पृथ्वी में गडे हुए धन को प्राप्त करने के किये जैसे प्रथम किसी विश्वसनीय पुरुष के कथन की और फिर पृथ्वी को खोदने, कंकड-पत्थर आदि को हटाने तथा प्राप्त हुए धन को स्वीकार करने की आवश्यकता होती है- कोरी बातों से वह बाहर नहीं निकलता, उसी प्रकार समस्त मायिक प्रपंच से शून्य निर्मल आत्मतत्त्व भी ब्रह्मविद् गुरु के उपदेश तथा उसके मनन और निदिध्यासनादि से ही प्राप्त होता है, थोथी बातों से नहीं)
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन भवबन्धविमुक्तये |
स्वैरेव यत्न: कर्तव्यो रोगादाविव पण्डितै : ||६८||
( इस लिए रोग आदि के समान भव-बन्ध की निवृत्ति के लिए विद्वान् को अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर स्वयं ही प्रयत्न करना चाहिए)
नारायण ! नारायण !!
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सोमवार, 24 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.20)

||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.20)
आत्मज्ञान का महत्त्व
न योगेन न सांख्येन कर्मणा नो न विद्यया |
ब्रह्मात्वैकबोधेन मोक्ष: सिद्धयति नान्यथा || ५८||
(मोक्ष न योग से सिद्ध होता है, न सांख्य से, न कर्म से न विद्या से | वह केवल ब्रह्मात्यैक्य-बोध [ ब्रह्म और आत्मा की एकता के ज्ञान] से ही होता है और किसी प्रकार से नहीं)
वीणाया रूपसौन्दर्यं तंत्रीवादनसौष्ठवम् |
प्रजारञ्जन्मात्रं तन्न साम्राज्याय कल्पते ||५९||
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम् |
वैदुष्यं विदुषां तद्वद्भुक्तये न तु मुक्तये ||६०||
(जिस प्रकार वीणा का रूप-लावण्य तथा तंत्री को सुन्दर बजाने का ढंग मनुष्यों के मनोरंजन का ही कारण होता है, उससे कुछ साम्राज्य की प्राप्ति नहीं हो जाती; उसी प्रकार विद्ववानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र-व्याख्यान की कुशलता और विद्वत्ता भोग ही का कारण हो सकती है, मोक्ष का नहीं)
अविज्ञाते परे तत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला |
विज्ञातेऽपि परे तत्त्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला ||६१||
( परमतत्त्व को यदि न जाना तो शास्त्राध्ययन निष्फल (व्यर्थ) ही है और यदि परमतत्त्व को जान लिया तो भी शास्त्राध्ययन निष्फल [अनावश्यक] ही है)
शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम् |
अत: प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञातत्त्वमातन: ||६२||
(शब्दजाल तो चित्त को भटकाने वाला महान वन है, इस लिए किन्हीं तत्त्वज्ञानी महात्मा से प्रयत्नपूर्वक आत्मतत्त्व को जानना चाहिए)
अज्ञानसर्पदष्टस्य ब्रह्मज्ञानौषधं विना |
किमु वेदैश्चशास्त्रैश्च किमु मंत्री किमौषधैः ||६३||
( अज्ञानरूपी सर्प से डसे हुए को ब्रह्मज्ञानरूपी औषधी के बिना वेद से शास्त्र से, मन्त्र से और औषध से क्या लाभ ?)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
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रविवार, 23 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.१९)


||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.१९)

स्व-प्रयत्न की प्रधानता

ऋणमोचनकर्तार: पितु: सन्ति सुतादय: |
बन्धमोचनकर्ता तु स्वस्मादन्यो न कश्चन ||५३||

(पिता के ऋण को चुकाने वाले तो पुत्र आदि भी होते हैं, परन्तु भव-बन्धन से छुडाने वाला अपने से भिन्न और कोई नहीं है)

मस्तकन्यस्तभारादेर्दु:खमन्यैर्निवार्यते |
क्षुधादिकृतदु:खं तु विना स्वेन न केनचित् ||५४||

(जैसे सिरपर रखे हुए बोझ का दु:ख और भी दूर कर सकते हैं, परन्तु भूख-प्यास आदि का दु:ख अपने सिवा और कोई नहीं मिटा सकता )

पथ्यमौषधसेवा च क्रियते येन रोगिणा |
आरोग्यसिद्धिर्दृष्टास्य नान्यानुष्ठितकर्मणा ||५५||

(अथवा जैसे जो रोगी पथ्य और औषध का सेवन कर्ता है इसी को आरोग्य-सिद्धि होती ह्देखी जाती है, किसी और के द्वारा किये हुए कर्मों से कोई निरोग नहीं होता )

वस्तुस्वरूपं स्फुटबोधचक्षुषा
स्वेनैव वेद्यं ननु पण्डितेन |
चन्द्रस्वरूपं निजक्षुषैव
ज्ञातव्यमन्यैरवगम्यते किम् ||५६||

(वैसे ही विवेकी पुरुष को वस्तु का स्वरूप भी स्वयं अपने ज्ञाननेत्रों से ही जानना चाहिए [किसी अन्य के द्वारा नहीं] | चंद्रमा का स्वरूप अपने ही नेत्रों से देखा जाता है, दूसरों के द्वारा क्या जाना जा सकता है ? )

अविद्याकामकर्मादिपाशबन्धं विमोचितुम् |
क: शक्नुयाद्विनात्मानं कल्पकोटिशतैरपि ||५७||

(अविद्या, कामना और कर्मादि के जाल के बंधनों को सौ करोड कल्पों में भी अपने सिवा और कौन खोल सकता है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.१८)


||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.१८)

प्रश्न-निरूपण

शिष्य उवाच

कृपया श्रूयतां स्वामिन्प्रश्नोऽयं क्रियते मया |
तदुत्तरमहं श्रुत्वा कृतार्थ: स्यां भवन्मुखात् ||५०||

(शिष्य- हे स्वामिन् ! कृपया सुनिए; मैं यह प्रश्न करता हूँ | उसका उत्तर आपके श्रीमुख से सुनकर मैं कृतार्थ हो जाऊंगा )

को नाम बन्ध: कथमेष आगत:
कथं प्रतिष्ठास्य कथं विमोक्ष: |
कोऽसावनात्मा परम: क आत्मा
तयोर्विवेक: कथमेतदुच्यताम् ||५१||

(बन्ध क्या है ? यह कैसे हुआ? इसकी स्थिति कैसे है ? और इससे मोक्ष कैसे मिल सकता है ? अनात्मा क्या है ? और उनका विवेक (पार्थक्य-ज्ञान)कैसे होता है? कृपया यह सब कहिये)

शिष्य - प्रशंसा

श्रीगुरुरुवाच

धन्योऽसि कृतकृत्योऽसि पावित्र ते कुलं त्वया |
यद्विद्याबन्धमुक्त्या ब्रह्मीभवितुमिच्छसि ||५२||

(गुरु – तू धन्य है, कृतकृत्य है, तेरा कुल तुझ से पवित्र हो गया,क्योंकि तू अविद्यारूपी बन्धनसे छूटकर ब्रह्मभाव को प्राप्त होना चाहता है)

नारायण ! नारायण !!

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शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.१७)

||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.१७)
उपदेश विधि
वेदान्तार्थविचारेण जायते ज्ञानमुत्तमम् |
तेनात्यंतिकसंसारदु:खनाशो भवत्याणु ||४७||
वेदान्त-वाक्यों के अर्थ का विचार करने से उत्तम ज्ञान होता है, जिससे फिर संसार-दु:ख का आत्यन्तिक नाश हो जाता है)
श्रद्धाभक्तिध्यानयोगान्मुमुक्षो-
र्मुक्तेर्हेतून्वक्ति साक्षाच्छ्रुतेर्गी: |
यो वा एतेष्वेव तिष्ठत्यमुष्य
मोक्षोऽविद्याकल्पिताद्देहबन्धात् ||४८||
(श्रद्धा,भक्ति,ध्यान और योग इनको भगवती श्रुति मुमुक्षु की मुक्ति के साक्षात् हेतु बतलाती है | जो इन्हीं में स्थित हो जाता है उसका अविद्या-कल्पित देह-बन्धन से मोक्ष हो जाता है)
अज्ञानयोगात्परमात्मनस्तव
ह्यनात्मबंधस्तत एव संसृति: |
तयोर्विवेकोदितबोधवह्नि-
रज्ञानकार्यं प्रदहेत्समूलम् ||४९||
(तुझ परमात्मा का अनात्म-बन्धन अज्ञान के कारण ही है और उसी से तुझको [जन्म-मरणरूप] संसार प्राप्त हुआ है | अत: उन ( आत्मा और अनात्मा) के विवेक से उत्पन्न हुआ बोधरूप अग्नि अज्ञान के कार्यरूप संसार को मूल सहित भस्म कर देगा)
नारायण ! नारायण !!
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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.१६)

||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.१६)
उपदेश विधि
तथा वदन्तं शरणागतं स्वं
संसारदावानलतापतप्तम् |
निरीक्ष्य कारुण्यरसार्द्रदृष्ट्या
दद्यादभीतिं सहसा महात्मा ||४३||
(इस प्रकार कहते हुए अपनी शरण में आये संसारानल-सन्तप्त शिष्य को महात्मा गुरु करुणामयी दृष्टि से देखकर सहसा अभय प्रदान करे)
विद्वान्स तस्मा उपसत्तिमीयुषे
मुमुक्षवे साधु यथोक्तकारिणे |
प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय
तत्त्वोपदेशं कृपयैव कुर्यात् ||४४||
(शरणागति की इच्छा वाले उस मुमुक्षु, आज्ञाकारी, शान्तचित्त,शमादिसंयुक्त साधु शिष्य को गुरु कृपया [इस प्रकार] तत्वोपदेश करे)
श्री गुरुरुवाच
मा भैष्ट विद्वन्स्तव नास्त्यपाय:
संसारसिन्धोस्तरणेऽस्त्युपाय: |
येनैव याता यतयोऽस्य पारं
तमेव मार्गं तव निर्दिशामि ||४५||
(गुरु—हे विद्वन् ! तू डर मत तेरा नाश नहीं होगा | संसार सागर से तरने का उपाय है | जिस मार्ग से यतिजन इसके पार गए हैं, वही मार्ग में तुझे दिखाता हूँ)
अस्त्युपायो महान्कश्चित्संसारभयनाशन: |
एन तीर्त्वा भवाम्भोधिं परमानन्दमाप्स्यसि ||४६||
(संसाररूपी भय का नाश करने वाला कोई एक महान् उपाय है जिसके द्वारा तू संसार-सागर को पार करके परमानन्द प्राप्त करेगा)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
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बुधवार, 19 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.१५)

||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.१५)
साधन चतुष्टय
ब्रह्मानन्दरसानुभूतिकलितै: पूतैःसुशीतै:सितै-
र्युष्मदवाक्कलशोज्झितैः श्रुतिसुखैर्वाक्यामृतै: सेचय |
संतप्तं भवतापदावदहनज्ज्वालाभिरेनं प्रभो
धन्यास्ते भवदीक्षणक्षणगाते: पात्रीकृता:स्वीकृता: ||४१||
(हे प्रभो ! प्रचण्ड संसार-दावानल की ज्वाला से तपे हुए इस दीन- शरणापन्न को आप अपने ब्रह्मानन्दरसानुभव से युक्त परमपुनीत , सुशीतल,निर्मल औरर वाक्-रूपी स्वर्णकलश से निकले हुए श्रवणसुखद वचनामृतों से सींचिये [अर्थात् इसके ताप को शान्त कीजिये] | वे धन्य हैं जो आपके एक क्षण के करुणामय दृष्टिपथ के पात्र होकर अपना लिए गए हैं)
कथं तरेयं भवसिन्धुमेतं
का वा गतिर्मे कतमोऽस्त्युपाय: |
जाने न किञ्चित्कृपयाव मां भो
संसारदु:खक्षतिमातनुष्व ||४२||
( ‘मैं इस संसार-समुद्र को कैसे तरूंगा? मेरी क्या गति होगी ? उसका क्या उपाय है ?’ - यह मैं कुछ नहीं जानता | प्रभो ! कृपया मेरी रक्षा कीजिये और मेरे संसार-दु:ख के सही का आयोजन कीजिये)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
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मंगलवार, 18 सितंबर 2018

|श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.१४)

|श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.१४)
साधन चतुष्टय
शान्ता महान्तो निवसन्ति संतो
वसन्तवल्लोकहितं चरन्त: |
तीर्णा: स्वयं भीमभवार्णवं जना-
नहेतुनान्यानपि तारयन्त: || ३९||
(भयंकर संसार-सागर से स्वयं उत्तीर्ण हुए और अन्य जनों को भी बिना कारण ही तारते तथा लोकहित का आचरण करते अति शांत महापुरुष ऋतुराज वसंत के समान निवास करते हैं)
अयं स्वभाव: स्वत एव यत्पर-
श्रमापनोदप्रवणं महात्मनाम् |
सुधांशुरेष स्वयमर्ककर्कश –
प्रभाभितप्तामवति क्षितिं किल ||४०||
(महात्माओं का यह स्वभाव ही है कि वे स्वत: ही दूसरों का श्रम दूर करने में प्रवृत्त होते हैं | सूर्य के प्रचण्ड तेज से सन्तप्त पृथ्वीतल को चन्द्रदेव स्वयं ही शान्त कर देते हैं)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


सोमवार, 17 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.१३)


||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.१३)
गुरूपसत्ति और प्रश्नविधि
उक्तसाधनसंपन्नस्तत्वजिज्ञासुरात्मन: ||३३||
उपसीदेद्गुरुं प्राज्ञं यस्माद्बन्धविमोक्षणम् |
(उक्त साधन- चतुष्टय से संपन्न आत्म-तत्त्व का जिज्ञासु प्राज्ञ (स्थितप्रज्ञ) गुरु के निकट जाय, जिससे उसके भवबन्ध की निवृत्ति हो)
श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतो यो ब्रह्मवित्तम: ||३४||
ब्रह्मण्युपरत: शान्तो निरिन्धन इवानल : |
अहैतुकदयासिंधुर्बन्धुरानमतां सताम् ||३५||
तमाराध्य गुरुं भक्त्या प्रह्वप्रश्रय सेवनै: |
प्रसन्नं तमनुप्राप्य पृच्छेज्ज्ञातव्यमात्मनः ||३६||
(जो श्रोत्रिय हों,निष्पाप हों,कामनाओं से शून्य हों,ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ हों,ब्रह्मनिष्ठ हों,ईंधनरहित अग्नि के समान शान्त हों, अकारण दयासिन्धु हों और प्रणत (शरणापन्न) सज्जनों के बंधु (हितैषी) हों उन गुरुदेव की विनीत और विनम्र सेवा से भक्तिपूर्वक आराधना करके, उनके प्रसन्न होने पर निकट जाकर अपना ज्ञातव्य इस प्रकार पूछें --
स्वामिन्नमस्ते नतलोकबन्धो
कारुण्यसिन्धो पतितं भवाब्धौ |
मामुद्धरात्मीयकटाक्षदृष्टया
ॠज्र्व्यातिकारुण्यसुधाभिवृष्ट्या ||३७||
( हे शरणागतवत्सल करुणासागर, प्रभो ! आपको नमस्कार है | संसार-सागर में पड़े हुए मेरा आप अपनी सरल तथा अतिशय कारुण्यामृतवर्षिणी कृपाकटाक्ष से उद्धार कीजिये )
दुर्वारसंसारदवाग्नितप्तं
दोधूयमानं दुरदृष्टवातै: |
भीतं प्रपन्नं परिपाहि मृत्यो:
शरण्यमन्यं यदहं न जाने ||३८||
( जिससे छुटकारा पाना अति कठिन है उस संसार-दावानल से दग्ध तथा दुर्भाग्यरूपी प्रबल प्रभंजन (आँधी)- से अत्यन्त कम्पित और भयभीत हुए मुझ शरणागत की आप मृत्यु से रक्षा कीजिये; क्योंकि मैं इस समय किसी और शरण देने वाले को नहीं जानता)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे



रविवार, 16 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.१२)



||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.१२)

साधन चतुष्टय

वैराग्यं च मुमुक्षुत्वं तीव्रं यस्य तु विद्यते |
तस्मिन्नेवार्थवन्त: स्यु: फलवन्त: शमादय: ||३०||

(जिस पुरुष में वैराग्य और मुमुक्षुत्व तीव्र होते हैं, उसी में शमादि चरितार्थ और सफल होते हैं )

एतयोर्मन्दता यत्र विरक्तत्वमुमुक्षयो : |
मरौ   सलिलवत्तत्र समादेर्भासमात्रता ||३१||

(जहां इन वैराग्य और मुमुक्षुत्व की मन्दता है, वहाँ शमादि का भी मरुस्थल में जल-प्रतीति के समान आभासमात्र ही समझना चाहिये)

मोक्षकारणसामग्र्यां  भक्तिरेव गरीयसी |
स्वस्वरूपानुसंधानं भक्तिरित्यभिधीयते ||३२||
स्वात्मतत्वानुसन्धानं भक्तिरित्यपरे जगु:||

(मुक्ति की कारणरूप सामग्री में भक्ति ही सबसे बढ़कर है और अपने वास्तविक स्वरूप का अनुसंधान करना ही “भक्ति” कहलाता है | कोई कोई “स्वात्म-तत्त्व का अनुसंधान  ही भक्ति है”--ऐसा कहते हैं)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे



शनिवार, 15 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.११)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.११)

साधन चतुष्टय

सर्वदा स्थापनं बुद्धे: शुद्धे ब्रह्मणि सर्वथा |
तत्समाधानमित्युक्तं न् तु चित्तस्य लालनम् ||२७||

(अपनी बुद्धि को सब प्रकार शुद्ध ब्रह्म में ही सदा स्थिर रखना इसी को “समाधान” कहते हैं | चित्त की इच्छापूर्ति का नाम समाधान नहीं है)

अहंकारादिदेहान्तान्बन्धानज्ञानकल्पितान् |
स्वस्वरूपावबोधेन मोक्तुमिच्छा मुमुक्षुता ||२८||

(अहंकार से लेकर देहपर्यन्त जितने अज्ञानकल्पित बंधन हैं, उनको अपने स्वरूप के ज्ञान द्वारा त्यागने की इच्छा “मुमुक्षुता” है)

मन्दमध्यमरूपापि वैराग्येण शमादिना |
प्रसादेन गुरो: सेयं प्रवृद्धा सूयते फलम् ||२९||

(वह मुमुक्षता मंद और मध्यम भी हो तो भी वैराग्य तथा शमादि षट्-संपत्ति और गुरुकृपा से बढ़कर फल देती है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट .१०)

||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट .१०)
साधन चतुष्टय
सहनं सर्वदु:खानामप्रतीकारपूर्वकम् |
चिन्ताविलापरहितं सा तितिक्षा निगद्यते ||२५||
(चिंता और शोक से रहित होकर बिना कोई प्रतिकार किये सब प्रकार के कष्टों का सहन करना “तितिक्षा” कहलाती है)
शास्त्रस्य गुरुवाक्यस्य सत्यबुद्ध्यवधारणम् |
सा श्रद्धा कथिता सद्भिर्यया वस्तुपलभ्यते || २६||
(शास्त्र और गुरुवाक्यों में सत्यत्व बुद्धि करना- इसी को सज्जनों ने “श्रद्धा” कहा है, जिससे कि वस्तु की प्राप्ति होती है )
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
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गुरुवार, 13 सितंबर 2018

|श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.०९)

|श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.०९)
साधन चतुष्टय
तद्वैराग्यं जुगुप्सा या दर्शन-श्रवणादिभि: ||२१||
देहादिब्रह्मपर्यन्ते ह्यनित्ये भोगवस्तुनि |
(दर्शन और श्रवणादि के द्वारा देह से लेकर ब्रह्मलोकपर्यन्त सम्पूर्ण अनित्य भोग पदार्थों में जो घृणाबुद्धि है वही “ वैराग्य” है)
विरज्य विषयव्राताद्दोषदृष्ट्या मुहुर्मुहु: ||२२||
स्वलक्ष्ये नियतावस्था मनस: शम उच्यते |
(बारम्बार दोष-दृष्टि करने से विषय-समूह से विरक्त होकर चित्त का अपने लक्ष्य में स्थिर हो जाना ही “शम” है )
विषयेभ्य: परावर्त्य स्थापनं स्वस्वगोलके ||२३||
उभयेषामिन्द्रियाणां स दम: परिकीर्तित: |
बाह्यानालंबनं वृत्तेरेषोपरतिरुत्तमा ||२४||
(कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों को उनके विषयों से खींचकर अपने-अपने गोलकों में स्थित करना “दम” कहलाता है | वृत्तिका बाह्य विषयों का आश्रय न लेना यही उत्तम “उपरति” है)
नारायण ! नारायण !!
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बुधवार, 12 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.०८)

||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.०८)
साधन चतुष्टय
साधनान्यत्र चत्वारि कथितानि मनीषिभि: |
येषु सत्स्वेव सन्निष्ठा यदभावे न सिद्धयति ||१८||
(यहाँ मनस्वियों ने जिज्ञासा के चार साधन बताए हैं,उनके होने से ही सत्यस्वरूप आत्मा में स्थिति हो सकती है, उनके बिना नहीं )
आदौ नित्यानित्यवस्तुविवेक: परिगण्यते |
इहामुत्रफलभोगविरागस्तदनन्तरम् ||१९||
शमादिषट्कसम्पत्तिर्मुमुक्षुत्वमिति स्फुटम् |
( पहला साधन नित्यानित्य-वस्तु-विवेक गिना जाता है, दूसरा लौकिक एवं पारलौकिक सुख-भोग में वैराग्य होना है | तीसरा शम, दम, उपरति,तितिक्षा,श्रद्धा, समाधान –ये छ: सम्पत्तियां हैं , और चौथा मुमुक्षता है)
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्येत्येवं रूपो विनिश्चय: ||२०||
सोऽयं नित्यानित्यवस्तुविवेक: समुदाहृत: |
( “ ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है ”- ऐसा जो निश्चय है, यही नित्यानित्य-वस्तु-विवेक कहलाता है )
नारायण ! नारायण !!
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मंगलवार, 11 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.०७)



||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.०७)
अधिकारी निरूपण
अधिकारिणमाशास्ते फलसिद्धिर्विशेषत: |
उपाया देशकालाद्या: संत्यस्मिन्सहकारिण: ||१४||
(विशेषत: अधिकारी को ही फल सिद्धि होती है; देश, काल आदि उपाय भी उसमें सहायक अवश्य होते हैं )
अतो विचार: कर्तव्यो जिज्ञासोरात्मवस्तुन: |
समासाद्य दयासिंधुं गुरुं ब्रह्मविदुत्तमम् || १५||
(अत: ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ दयासागर गुरुदेव की शरण में जाकर जिज्ञासु को आत्मतत्त्व का विचार करना चाहिए)
मेधावी पुरुषो विद्वानूहापोहविचक्षण: |
अधिकार्यात्मविद्यायामुक्तलक्षणलक्षित: ||१६||
(जो बुद्धिमान हो,विद्वान हो और तर्क-वितर्क में कुशल हो, ऐसे लक्षणों वाला पुरुष ही आत्मविद्या का अधिकारी होता है)
विवेकिनो विरक्तस्य शमादिगुणशालिन: |
मुमुक्षोरेव हि ब्रह्मजिज्ञासायोग्यता मता ||१७||
(जो सदसद्विवेकी, वैराग्यवान,शम-दमादि षट्सम्पत्तियुक्त और मुमुक्षु हो उसी में ब्रह्मजिज्ञासा की योग्यता मानी गयी है)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
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सोमवार, 10 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.०६)


||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.०६)
ज्ञानोपलब्धि का उपाय
सम्यग्विचारत: सिद्धा रज्जुतत्त्वावधारणा |
भ्रान्त्योदितमहासर्पभयदु:खविनाशिनी ||१२||
(भलीभाँति विचार से शुद्ध हुआ रज्जुतत्त्व का निश्चय भ्रम से उत्पन्न हुए महान् सर्पभयरूपी दु:ख को नष्ट करने वाला होता है)
अर्थस्य निश्चयो दृष्टो विचारेण हितोक्तित: |
न स्नानेन न दानेन प्राणायामशतेन वा ||१३||
(कल्याणप्रद उक्तियों द्वारा विचार करने से वस्तु का निश्चय होता देखा जाता है; स्नान, दान अथवा सैंकडों प्राणायामों से नहीं)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


गुरुवार, 6 सितंबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.०५)


||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.०५)

ज्ञानोपलब्धि का उपाय 

संन्यस्य सर्वकर्माणि भवबन्धविमुक्तये |
यत्यतां पण्डितैर्धीरैरात्माभ्यास उपस्थितै : ||१०||

(आत्माभ्यास में तत्पर हुए धीर विद्वानों को सम्पूर्ण कर्मों को त्याग कर भवबंधन की निवृत्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए)

चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये |
वस्तुसिद्धिविचारेण न किंचित् कर्मकोटिभि: ||११||

(कर्म चित्त की शुद्धि के लिए ही है, वस्तूपलब्धि (तत्त्वदृष्टि)- के लिए नहीं | वस्तु-सिद्धि तो विचार से ही होती है, करोड़ों कर्मों से कुछ भी नहीं हो सकता)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में 
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम :|| विवेक चूडामणि (पोस्ट.०४)




||श्री परमात्मने नम :|| 
विवेक चूडामणि (पोस्ट.०४)


ज्ञानोपलब्धि का उपाय 

अतो विमुक्त्यै प्रयतेत विद्वान्
संन्यस्तबाह्यार्थसुखस्पृह: सन् |
सन्तं महान्तं समुपेत्य देशिकं
तेनोपदिष्टार्थसमाहितात्मा ||||

(इसलिए विद्वान सम्पूर्ण बाह्य भोगों की इच्छा त्याग कर सन्त शिरोमणि गुरुदेव की शरण जाकर उनके उपदेश किये हुए विषय में समाहित होकर मुक्ति के लिए प्रयत्न करे)

उद्धरेदात्मनात्मानं मग्नं संसारवारिधौ |
योगारूढ़त्वमासाद्य सम्यग्दर्शननिष्ठया || ||

(और निरन्तर सत्य वस्तु आत्मा के दर्शन में स्थित रहता हुआ योगारूढ होकर संसार-समुद्र में डूबे हुए अपनी आत्मा का आप ही उद्धार करें)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में 
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे



||श्री परमात्मने नम :|| विवेक चूडामणि (पोस्ट.०३)


||श्री परमात्मने नम :||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.०३)
ब्रह्मनिष्ठा का महत्त्व
वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान्
कुर्वन्तु कर्माणि भजन्ति देवता : |
आत्मैक्यबोधेन विना विमुक्ति-
र्न सिध्यति ब्रह्मशतान्तरेपि ||६||
( भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करें, देवताओं का यजन करें, नाना शुभकर्म करें अथवा देवताओं को भजें, तथापि जब तक ब्रह्म और आत्मा की एकता का बोध नहीं होता, तब तक सौ ब्रह्माओं के बीत जाने पर भी [अर्थात् सौ कल्पों में भी] मुक्ति नहीं हो सकती)
अमृतत्वस्य नाशास्ति वित्तेनेत्येव हि श्रुति: |
ब्रवीति कर्मणो मुक्तेरहेतुत्वं स्फुटं यात: || ७||
(क्योंकि ‘धन से अमृतत्व की आशा नहीं है’ यह श्रुति ‘मुक्ति का हेतु कर्म नहीं है’, यह बात स्पष्ट बतलाती है)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम :|| विवेक चूडामणि (पोस्ट.०२)



||श्री परमात्मने नम :||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.०२)


लब्ध्वा कथञ्चिन्नरजन्म दुर्लभं
तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारदर्शनम् |
य: स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढ़धी:
स ह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसद्ग्रहात् || ||

(किसी प्रकार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर और उसमें भी, जिसमें श्रुति के सिद्धात का ज्ञान होता है ऐसा पुरुषत्व पाकर जो मूढ़बुद्धि अपने आत्मा की मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता, वह निश्चय ही आत्मघाती है; वह असत् में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है)

इत: को न्वस्ति मूढात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति |
दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम् ||||

(दुर्लभ मनुष्य-देह और उसमें भी पुरुषत्व को पाकर जो स्वार्थ-साधन में प्रमाद करता है, उससे अधिक मूढ़ और कौन होगा ?)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में

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||श्री परमात्मने नम :|| विवेक चूडामणि (पोस्ट.०२)



||श्री परमात्मने नम :||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.०२)


लब्ध्वा कथञ्चिन्नरजन्म दुर्लभं
तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारदर्शनम् |
य: स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढ़धी:
स ह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसद्ग्रहात् || ||

(किसी प्रकार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर और उसमें भी, जिसमें श्रुति के सिद्धात का ज्ञान होता है ऐसा पुरुषत्व पाकर जो मूढ़बुद्धि अपने आत्मा की मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता, वह निश्चय ही आत्मघाती है; वह असत् में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है)

इत: को न्वस्ति मूढात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति |
दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम् ||||

(दुर्लभ मनुष्य-देह और उसमें भी पुरुषत्व को पाकर जो स्वार्थ-साधन में प्रमाद करता है, उससे अधिक मूढ़ और कौन होगा ?)

नारायण ! नारायण !!

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श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)

# श्रीहरि: #   श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)   शकटभञ्जन ; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार ; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्ण...