गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌ का गर्भ-प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति

भगवानपि विश्वात्मा भक्तानामभयङ्करः
आविवेशांशभागेन मन आनकदुन्दुभेः ॥ १६ ॥
स बिभ्रत्पौरुषं धाम भ्राजमानो यथा रविः
दुरासदोऽतिदुर्धर्षो भूतानां सम्बभूव ह ॥ १७ ॥
ततो जगन्मङ्गलमच्युतांशं
समाहितं शूरसुतेन देवी
दधार सर्वात्मकमात्मभूतं
काष्ठा यथानन्दकरं मनस्तः ॥ १८ ॥
सा देवकी सर्वजगन्निवास-
निवासभूता नितरां न रेजे
भोजेन्द्र गेहेऽग्निशिखेव रुद्धा
सरस्वती ज्ञानखले यथा सती ॥ १९ ॥
तां वीक्ष्य कंसः प्रभयाजितान्तरां
विरोचयन्तीं भवनं शुचिस्मिताम्
आहैष मे प्राणहरो हरिर्गुहां
ध्रुवं श्रितो यन्न पुरेयमीदृशी ॥ २० ॥
किमद्य तस्मिन्करणीयमाशु मे
यदर्थतन्त्रो न विहन्ति विक्रमम्
स्त्रियाः स्वसुर्गुरुमत्या वधोऽयं
यशः श्रियं हन्त्यनुकालमायुः ॥ २१ ॥
स एष जीवन्खलु सम्परेतो
वर्तेत योऽत्यन्तनृशंसितेन
देहे मृते तं मनुजाः शपन्ति
गन्ता तमोऽन्धं तनुमानिनो ध्रुवम् ॥ २२ ॥
इति घोरतमाद्भावात्सन्निवृत्तः स्वयं प्रभुः
आस्ते प्रतीक्षंस्तज्जन्म हरेर्वैरानुबन्धकृत् ॥ २३ ॥
आसीनः संविशंस्तिष्ठन्भुञ्जानः पर्यटन्महीम्
चिन्तयानो हृषीकेशमपश्यत्तन्मयं जगत् ॥ २४ ॥

भगवान्‌ भक्तों को अभय करनेवाले हैं । वे सर्वत्र सब रूपमें हैं, उन्हें कहीं आना-जाना नहीं है । इसलिये वे वसुदेवजीके मनमें अपनी समस्त कलाओंके साथ प्रकट हो गये ॥ १६ ॥ उसमें विद्यमान रहनेपर भी अपनेको अव्यक्तसे व्यक्त कर दिया । भगवान्‌की ज्योतिको धारण करनेके कारण वसुदेवजी सूर्यके समान तेजस्वी हो गये, उन्हें देखकर लोगोंकी आँखें चौंधिया जातीं । कोई भी अपने बल, वाणी या प्रभावसे उन्हें दबा नहीं सकता था ॥ १७ ॥ भगवान्‌ के उस ज्योतिर्मय अंशको, जो जगत् का परम मङ्गल करनेवाला है, वसुदेवजीके द्वारा आधान किये जानेपर देवी देवकीने ग्रहण किया । जैसे पूर्वदिशा चन्द्रदेवको धारण करती है, वैसे ही शुद्ध सत्त्वसे सम्पन्न देवी देवकीने विशुद्ध मनसे सर्वात्मा एवं आत्मस्वरूप भगवान्‌को धारण किया ॥ १८ ॥ भगवान्‌ सारे जगत्  के  निवासस्थान हैं । देवकी उनका भी निवासस्थान बन गयी । परंतु घड़े आदिके भीतर बंद किये हुए दीपकका और अपनी विद्या दूसरेको न देनेवाले ज्ञानखलकी श्रेष्ठ विद्याका प्रकाश जैसे चारों ओर नहीं फैलता, वैसे ही कंसके कारागारमें बंद देवकीकी भी उतनी शोभा नहीं हुई ॥ १९ ॥ देवकीके गर्भमें भगवान्‌ विराजमान हो गये थे । उसके मुखपर पवित्र मुसकान थी और उसके शरीरकी कान्तिसे बंदीगृह जगमगाने लगा था । जब कंसने उसे देखा, तब वह मन-ही-मन कहने लगा—‘अबकी बार मेरे प्राणोंके ग्राहक विष्णुने इसके गर्भमें अवश्य ही प्रवेश किया है; क्योंकि इसके पहले देवकी कभी ऐसी न थी ॥ २० ॥ अब इस विषयमें शीघ्र-से-शीघ्र मुझे क्या करना चाहिये ? देवकीको मारना तो ठीक न होगा; क्योंकि वीर पुरुष स्वार्थवश अपने पराक्रमको कलङ्कित नहीं करते । एक तो यह स्त्री है, दूसरे बहिन और तीसरे गर्भवती है । इसको मारनेसे तो तत्काल ही मेरी कीर्ति, लक्ष्मी और आयु नष्ट हो जायगी ॥ २१ ॥ वह मनुष्य तो जीवित रहनेपर भी मरा हुआ ही है, जो अत्यन्त क्रूरताका व्यवहार करता है । उसकी मृत्युके बाद लोग उसे गाली देते हैं । इतना ही नहीं, वह देहाभिमानियोंके योग्य घोर नरकमें भी अवश्य-अवश्य जाता है ॥ २२ ॥ यद्यपि कंस देवकीको मार सकता था, किन्तु स्वयं ही वह इस अत्यन्त क्रूरताके विचारसे निवृत्त हो गया [*] । अब भगवान्‌ के प्रति दृढ़ वैरका भाव मनमें गाँठकर उनके जन्मकी प्रतीक्षा करने लगा ॥ २३ ॥ वह उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते और चलते-फिरतेसर्वदा ही श्रीकृष्णके चिन्तनमें लगा रहता । जहाँ उसकी आँख पड़ती, जहाँ कुछ खडक़ा होता, वहाँ उसे श्रीकृष्ण दीख जाते । इस प्रकार उसे सारा जगत् ही श्रीकृष्णमय दीखने लगा ॥ २४ ॥
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[*] जो कंस विवाह के मङ्गलचिह्नों को धारण की हुई देवकी का गला काटनेके उद्योगसे न हिचका, वही आज इतना सद्विचारवान् हो गया, इसका क्या कारण है ? अवश्य ही आज वह जिस देवकीको देख रहा है, उसके अन्तरङ्ग मेंगर्भ में श्रीभगवान्‌ हैं। जिसके भीतर भगवान्‌ हैं, उसके दर्शनसे सद्बुद्धिका उदय होना कोई आश्चर्य नहीं है।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

भगवान्‌ का गर्भ-प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति

श्रीशुक उवाच
प्रलम्बबकचाणूर तृणावर्तमहाशनैः
मुष्टिकारिष्टद्विविद पूतनाकेशीधेनुकैः ॥ १ ॥
अन्यैश्चासुरभूपालैर्बाणभौमादिभिर्युतः
यदूनां कदनं चक्रे बली मागधसंश्रयः ॥ २ ॥
ते पीडिता निविविशुः कुरुपञ्चालकेकयान्
शाल्वान्विदर्भान्निषधान्विदेहान्कोशलानपि ॥ ३ ॥
एके तमनुरुन्धाना ज्ञातयः पर्युपासते
हतेषु षट्सु बालेषु देवक्या औग्रसेनिना ॥ ४ ॥
सप्तमो वैष्णवं धाम यमनन्तं प्रचक्षते
गर्भो बभूव देवक्या हर्षशोकविवर्धनः ॥ ५ ॥
भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम्
यदूनां निजनाथानां योगमायां समादिशत् ॥ ६ ॥
गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोपगोभिरलङ्कृतम्
रोहिणी वसुदेवस्य भार्यास्ते नन्दगोकुले
अन्याश्च कंससंविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ॥ ७ ॥
देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाम मामकम्
तत्सन्निकृष्य रोहिण्या उदरे सन्निवेशय ॥ ८ ॥
अथाहमंशभागेन देवक्याः पुत्रतां शुभे
प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपत्न्यां भविष्यसि ॥ ९ ॥
अर्चिष्यन्ति मनुष्यास्त्वां सर्वकामवरेश्वरीम्
धूपोपहारबलिभिः सर्वकामवरप्रदाम् ॥ १० ॥
नामधेयानि कुर्वन्ति स्थानानि च नरा भुवि
दुर्गेति भद्र कालीति विजया वैष्णवीति च ॥ ११ ॥
कुमुदा चण्डिका कृष्णा माधवी कन्यकेति च
माया नारायणीशानी शारदेत्यम्बिकेति च ॥ १२ ॥
गर्भसङ्कर्षणात्तं वै प्राहुः सङ्कर्षणं भुवि
रामेति लोकरमणाद्बलभद्रं बलोच्छ्रयात् ॥ १३ ॥
सन्दिष्टैवं भगवता तथेत्योमिति तद्वचः
प्रतिगृह्य परिक्रम्य गां गता तत्तथाकरोत् ॥ १४ ॥
गर्भे प्रणीते देवक्या रोहिणीं योगनिद्र या
अहो विस्रंसितो गर्भ इति पौरा विचुक्रुशुः ॥ १५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कंस एक तो स्वयं बड़ा बली था और दूसरे, मगधनरेश जरासन्धकी उसे बहुत बड़ी सहायता प्राप्त थी । तीसरे, उसके साथी थेप्रलम्बासुर, बकासुर, चाणूर, तृणावर्त, अघासुर, मुष्टिक, अरिष्टासुर, द्विविद, पूतना, केशी और धेनुक। तथा बाणासुर और भौमासुर आदि बहुत-से दैत्य राजा उसके सहायक थे । इनको साथ लेकर वह यदुवंशियोंको नष्ट करने लगा ॥ १-२ ॥ वे लोग भयभीत होकर कुरु, पञ्चाल, केकय, शाल्व, विदर्भ, निषध, विदेह और कोसल आदि देशोंमें जा बसे ॥ ३ ॥ कुछ लोग ऊपर-ऊपरसे उसके मनके अनुसार काम करते हुए उसकी सेवामें लगे रहे । जब कंसने एक-एक करके देवकीके छ: बालक मार डाले, तब देवकीके सातवें गर्भमें भगवान्‌के अंशस्वरूप श्रीशेषजी[*] जिन्हें अनन्त भी कहते हैंपधारे । आनन्दस्वरूप शेषजीके गर्भमें आनेके कारण देवकीको स्वाभाविक ही हर्ष हुआ । परंतु कंस शायद इसे भी मार डाले, इस भयसे उनका शोक भी बढ़ गया ॥ ४-५ ॥
विश्वात्मा भगवान्‌ ने देखा कि मुझे ही अपना स्वामी और सर्वस्व माननेवाले यदुवंशी कंसके द्वारा बहुत ही सताये जा रहे हैं । तब उन्होंने अपनी योगमायाको यह आदेश दिया॥ ६ ॥ देवि ! कल्याणी ! तुम व्रजमें जाओ ! वह प्रदेश ग्वालों और गौओंसे सुशोभित है । वहाँ नन्दबाबाके गोकुलमें वसुदेवकी पत्नी रोहिणी निवास करती हैं । उनकी और भी पत्नियाँ कंससे डरकर गुप्त स्थानोंमें रह रही हैं ॥ ७ ॥ इस समय मेरा वह अंश जिसे शेष कहते हैं, देवकीके उदरमें गर्भरूपसे स्थित है । उसे वहाँसे निकालकर तुम रोहिणीके पेटमें रख दो ॥ ८ ॥ कल्याणी ! अब मैं अपने समस्त ज्ञान, बल आदि अंशोंके साथ देवकीका पुत्र बनूँगा और तुम नन्दबाबाकी पत्नी यशोदाके गर्भसे जन्म लेना ॥ ९ ॥ तुम लोगोंको मुँहमाँगे वरदान देनेमें समर्थ होओगी । मनुष्य तुम्हें अपनी समस्त अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाली जानकर धूप-दीप, नैवेद्य एवं अन्य प्रकारकी सामग्रियोंसे तुम्हारी पूजा करेंगे ॥ १० ॥ पृथ्वीमें लोग तुम्हारे लिये बहुत-से स्थान बनायेंगे और दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्या, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा और अम्बिका आदि बहुत-से नामोंसे पुकारेंगे ॥ ११-१२ ॥ देवकीके गर्भमेंसे खींचे जानेके कारण शेषजीको लोग संसारमें संकर्षणकहेंगे, लोकरंजन करनेके कारण रामकहेंगे और बलवानोंमें श्रेष्ठ होनेके कारण बलभद्रभी कहेंगे ॥ १३ ॥
जब भगवान्‌ ने इस प्रकार आदेश दिया, तब योगमायाने जो आज्ञा’—ऐसा कहकर उनकी बात शिरोधार्य की और उनकी परिक्रमा करके वे पृथ्वीलोकमें चली आयीं तथा भगवान्‌ने जैसा कहा था, वैसे ही किया ॥ १४ ॥ जब योगमाया ने देवकी का गर्भ ले जाकर रोहिणीके उदरमें रख दिया, तब पुरवासी बड़े दु:खके साथ आपस में कहने लगे—‘हाय ! बेचारी देवकी का यह गर्भ तो नष्ट ही हो गया॥ १५ ॥
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[*] शेष भगवान्‌ ने विचार किया कि रामावतार में मैं छोटा भाई बना, इसीसे मुझे बड़े भाई की आज्ञा माननी पड़ी और वन जानेसे मैं उन्हें रोक नहीं सका । श्रीकृष्णावतार में मैं बड़ा भाई बनकर भगवान्‌ की अच्छी सेवा कर सकूँगा ।इसलिये वे श्रीकृष्णसे पहले ही गर्भमें आ गये ।

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बुधवार, 29 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पहला अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पहला अध्याय..(पोस्ट०८)

भगवान्‌ के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का विवाह
और कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों  हत्या

नन्दाद्या ये व्रजे गोपा याश्चामीषां च योषितः ।
वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रियः ॥ ६२ ॥
सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत ।
ज्ञातयो बन्धुसुहृदो ये च कंसं अनुव्रताः ॥ ६३ ॥
एतत् कंसाय भगवान् शशंसाभ्येत्य नारदः ।
भूमेर्भारायमाणानां दैत्यानां च वधोद्यमम् ॥ ६४ ॥
ऋषेः विनिर्गमे कंसो यदून् मत्वा सुरान् इति ।
देवक्या गर्भसंभूतं विष्णुं च स्ववधं प्रति ॥ ६५ ॥
देवकीं वसुदेवं च निगृह्य निगडैर्गृहे ।
जातं जातं अहन् पुत्रं तयोः अजनशंकया ॥ ६६ ॥
मातरं पितरं भ्रातॄन् सर्वांश्च सुहृदस्तथा ।
घ्नन्ति ह्यसुतृपो लुब्धा राजानः प्रायशो भुवि ॥ ६७ ॥
आत्मानं इह सञ्जातं जानन् प्राग् विष्णुना हतम् ।
महासुरं कालनेमिं यदुभिः स व्यरुध्यत ॥ ६८ ॥
उग्रसेनं च पितरं यदुभोजान्धकाधिपम् ।
स्वयं निगृह्य बुभुजे शूरसेनान् महाबलः ॥ ६९ ॥

परीक्षित्‌ ! इधर भगवान्‌ नारद कंस के पास आये और उससे बोले कि कंस ! व्रज में रहनेवाले नन्द आदि गोप, उनकी स्त्रियाँ, वसुदेव आदि वृष्णिवंशी यादव, देवकी आदि यदुवंश की स्त्रियाँ और नन्द, वसुदेव दोनों के सजातीय बन्धु-बान्धव और सगे-सम्बन्धी सब-के-सब देवता हैं; जो इस समय तुम्हारी सेवा कर रहे हैं, वे भी देवता ही हैं ।उन्होंने यह भी बतलाया कि दैत्योंके कारण पृथ्वीका भार बढ़ गया है, इसलिये देवताओंकी ओरसे अब उनके वधकी तैयारी की जा रही है॥ ६२६४ ॥ जब देवर्षि नारद इतना कहकर चले गये, तब कंसको यह निश्चय हो गया कि यदुवंशी देवता हैं और देवकीके गर्भसे विष्णुभगवान्‌ ही मुझे मारनेके लिये पैदा होनेवाले हैं। इसलिये उसने देवकी और वसुदेवको हथकड़ी-बेड़ीसे जकडक़र कैदमें डाल दिया और उन दोनोंसे जो-जो पुत्र होते गये, उन्हें वह मारता गया। उसे हर बार यह शंका बनी रहती कि कहीं विष्णु ही उस बालकके रूपमें न आ गया हो ॥ ६५-६६ ॥ परीक्षित्‌ ! पृथ्वीमें यह बात प्राय: देखी जाती है कि अपने प्राणोंका ही पोषण करनेवाले लोभी राजा अपने स्वार्थके लिये माता-पिता, भाई-बन्धु और अपने अत्यन्त हितैषी इष्ट-मित्रोंकी भी हत्या कर डालते हैं ॥ ६७ ॥ कंस जानता था कि मैं पहले कालनेमि असुर था और विष्णुने मुझे मार डाला था। इससे उसने यदुवंशियोंसे घोर विरोध ठान लिया ॥ ६८ ॥ कंस बड़ा बलवान् था। उसने यदु, भोज और अन्धक वंशके अधिनायक अपने पिता उग्रसेनको कैद कर लिया और शूरसेन-देशका राज्य वह स्वयं करने लगा ॥ ६९ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे प्रथमोध्याऽयः ॥ १ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पहला अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पहला अध्याय..(पोस्ट०७)

भगवान्‌ के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का विवाह
और कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों  हत्या

श्रीवसुदेव उवाच ।
न ह्यस्यास्ते भयं सौम्य यद् वाक् आहाशरीरिणी ।
पुत्रान् समर्पयिष्येऽस्या यतस्ते भयमुत्थितम् ॥ ५४ ॥

श्रीशुक उवाच ।
स्वसुर्वधात् निववृते कंसः तद्वाक्यसारवित् ।
वसुदेवोऽपि तं प्रीतः प्रशस्य प्राविशद् गृहम् ॥ ५५ ॥
अथ काल उपावृत्ते देवकी सर्वदेवता ।
पुत्रान् प्रसुषुवे चाष्टौ कन्यां चैवानुवत्सरम् ॥ ५६ ॥
कीर्तिमन्तं प्रथमजं कंसायानकदुन्दुभिः ।
अर्पयामास कृच्छ्रेण सोऽनृताद् अतिविह्वलः ॥ ५७ ॥
किं दुःसहं नु साधूनां विदुषां किं अपेक्षितम् ।
किं अकार्यं कदर्याणां दुस्त्यजं किं धृतात्मनाम् ॥ ५८ ॥
दृष्ट्वा समत्वं तत् शौरेः सत्ये चैव व्यवस्थितिम् ।
कंसस्तुष्टमना राजन् प्रहसन् इदमब्रवीत् ॥ ५९ ॥
प्रतियातु कुमारोऽयं न ह्यस्मादस्ति मे भयम् ।
अष्टमाद् युवयोर्गर्भान् मृत्युर्मे विहितः किल ॥ ६० ॥
तथेति सुतमादाय ययौ आनकदुन्दुभिः ।
नाभ्यनन्दत तद्वाक्यं असतोऽविजितात्मनः ॥ ६१ ॥

वसुदेवजीने कहासौम्य ! आपको देवकीसे तो कोई भय है नहीं, जैसा कि आकाशवाणीने कहा है । भय है पुत्रोंसे, सो इसके पुत्र मैं आपको लाकर सौंप दूँगा ॥ ५४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कंस जानता था कि वसुदेवजीके वचन झूठे नहीं होते और इन्होंने जो कुछ कहा है, वह युक्तिसंगत भी है । इसलिये उसने अपनी बहिन देवकीको मारनेका विचार छोड़ दिया । इससे वसुदेवजी बहुत प्रसन्न हुए और उसकी प्रशंसा करके अपने घर चले आये ॥ ५५ ॥ देवकी बड़ी सती-साध्वी थी । सारे देवता उसके शरीरमें निवास करते थे । समय आनेपर देवकीके गर्भसे प्रतिवर्ष एक-एक करके आठ पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई ॥ ५६ ॥ पहले पुत्रका नाम था कीर्तिमान् । वसुदेवजीने उसे लाकर कंसको दे दिया । ऐसा करते समय उन्हें कष्ट तो अवश्य हुआ, परंतु उससे भी बड़ा कष्ट उन्हें इस बातका था कि कहीं मेरे वचन झूठे न हो जायँ ॥ ५७ ॥ परीक्षित्‌ ! सत्यसन्ध पुरुष बड़े-से-बड़ा कष्ट भी सह लेते हैं, ज्ञानियोंको किसी बातकी अपेक्षा नहीं होती, नीच पुरुष बुरे-से-बुरा काम भी कर सकते हैं और जो जितेन्द्रिय हैंजिन्होंने भगवान्‌ को हृदयमें धारण कर रखा है, वे सब कुछ त्याग सकते हैं ॥ ५८ ॥ जब कंसने देखा कि वसुदेवजीका अपने पुत्रके जीवन और मृत्युमें समान भाव है एवं वे सत्यमें पूर्ण निष्ठावान् भी हैं, तब वह बहुत प्रसन्न हुआ और उनसे हँसकर बोला ॥ ५९ ॥ वसुदेवजी ! आप इस नन्हे-से-सुकुमार बालकको ले जाइये । इससे मुझे कोई भय नहीं है । क्योंकि आकाशवाणीने तो ऐसा कहा था कि देवकी के आठवें गर्भसे उत्पन्न सन्तानके द्वारा मेरी मृत्यु होगी ॥ ६० ॥ वसुदेवजीने कहा—‘ठीक हैऔर उस बालकको लेकर वे लौट आये। परंतु उन्हें मालूम था कि कंस बड़ा दुष्ट है और उसका मन उसके हाथमें नहीं है। वह किसी क्षण बदल सकता है। इसलिये उन्होंने उसकी बातपर विश्वास नहीं किया ॥ ६१ ॥

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मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पहला अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पहला अध्याय..(पोस्ट०६)



भगवान्‌ के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का विवाह

और कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों  हत्या



श्रीशुक उवाच ।

एवं स सामभिर्भेदैः बोध्यमानोऽपि दारुणः ।

न न्यवर्तत कौरव्य पुरुषादान् अनुव्रतः ॥ ४६ ॥

निर्बन्धं तस्य तं ज्ञात्वा विचिन्त्यानकदुन्दुभिः ।

प्राप्तं कालं प्रतिव्योढुं इदं तत्रान्वपद्यत ॥ ४७ ॥

मृत्युर्बुद्धिमतापोह्यो यावद्‍बुद्धिबलोदयम् ।

यद्यसौ न निवर्तेत नापराधोऽस्ति देहिनः ॥ ४८ ॥

प्रदाय मृत्यवे पुत्रान् मोचये कृपणां इमाम् ।

सुता मे यदि जायेरन् मृत्युर्वा न म्रियेत चेत् ॥ ४९ ॥

विपर्ययो वा किं न स्याद् गतिर्धातुः दुरत्यया ।

उपस्थितो निवर्तेत निवृत्तः पुनरापतेत् ॥ ५० ॥

अग्नेर्यथा दारुवियोगयोगयोः

अदृष्टतोऽन्यन्न निमित्तमस्ति ।

एवं हि जन्तोरपि दुर्विभाव्यः

शरीर संयोगवियोगहेतुः ॥ ५१ ॥

एवं विमृश्य तं पापं यावद् आत्मनिदर्शनम् ।

पूजयामास वै शौरिः बहुमानपुरःसरम् ॥ ५२ ॥

प्रसन्न वदनाम्भोजो नृशंसं निरपत्रपम् ।

मनसा दूयमानेन विहसन् इदमब्रवीत् ॥ ५३ ॥



श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार वसुदेवजीने प्रशंसा आदि सामनीति और भय आदि भेदनीतिसे कंसको बहुत समझाया । परंतु वह क्रूर तो राक्षसोंका अनुयायी हो रहा था; इसलिये उसने अपने घोर संकल्पको नहीं छोड़ा ॥ ४६ ॥ वसुदेवजीने कंसका विकट हठ देखकर यह विचार किया कि किसी प्रकार यह समय तो टाल ही देना चाहिये । तब वे इस निश्चयपर पहुँचे ॥ ४७ ॥ बुद्धिमान् पुरुषको, जहाँतक उसकी बुद्धि और बल साथ दें, मृत्युको टालनेका प्रयत्न करना चाहिये । प्रयत्न करनेपर भी वह न टल सके, तो फिर प्रयत्न करनेवालेका कोई दोष नहीं रहता ॥ ४८ ॥ इसलिये इस मृत्युरूप कंसको अपने पुत्र दे देनेकी प्रतिज्ञा करके मैं इस दीन देवकीको बचा लूँ। यदि मेरे लडक़े होंगे और तबतक यह कंस स्वयं नहीं मर जायगा, तब क्या होगा ? ॥ ४९ ॥ सम्भव है, उलटा ही हो । मेरा लडक़ा ही इसे मार डाले ! क्योंकि विधाताके विधानका पार पाना बहुत कठिन है । मृत्यु सामने आकर भी टल जाती है और टली हुई भी लौट आती है ॥ ५० ॥ जिस समय वन में आग लगती है, उस समय कौन-सी लकड़ी जले और कौन-सी न जले, दूर की जल जाय और पास की बच रहेइन सब बातोंमें अदृष्टके सिवा और कोई कारण नहीं होता । वैसे ही किस प्राणीका कौन-सा शरीर बना रहेगा और किस हेतुसे कौन-सा शरीर नष्ट हो जायगाइस बातका पता लगा लेना बहुत ही कठिन है॥ ५१ ॥ अपनी बुद्धिके अनुसार ऐसा निश्चय करके वसुदेवजीने बहुत सम्मानके साथ पापी कंसकी बड़ी प्रशंसा की ॥ ५२ ॥ परीक्षित्‌ ! कंस बड़ा क्रूर और निर्लज्ज था; अत: ऐसा करते समय वसुदेवजी के मनमें बड़ी पीड़ा भी हो रही थी। फिर भी उन्होंने ऊपरसे अपने मुख-कमलको प्रफुल्लित करके हँसते हुए कहा॥ ५३ ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पहला अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पहला अध्याय..(पोस्ट०५)

भगवान्‌ के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का विवाह
और कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों  हत्या

श्रीवसुदेव उवाच ।
श्लाघनीयगुणः शूरैः भवान् भोज-यशस्करः ।
स कथं भगिनीं हन्यात् स्त्रियं उद्‌वाहपर्वणि ॥ ३७ ॥
मृत्युर्जन्मवतां वीर देहेन सह जायते ।
अद्य वाब्दशतान्ते वा मृत्युर्वै प्राणिनां ध्रुवः ॥ ३८ ॥
देहे पञ्चत्वमापन्ने देही कर्मानुगोऽवशः ।
देहान्तरं अनुप्राप्य प्राक्तनं त्यजते वपुः ॥ ३९ ॥
व्रजन् तिष्ठन् पदैकेन यथैवैकेन गच्छति ।
यथा तृणजलूकैवं देही कर्मगतिं गतः ॥ ४० ॥
स्वप्ने यथा पश्यति देहमीदृशं
मनोरथेन अभिनिविष्टचेतनः ।
दृष्टश्रुताभ्यां मनसानुचिन्तयन्
प्रपद्यते तत् किमपि ह्यपस्मृतिः ॥ ४१ ॥
यतो यतो धावति दैवचोदितं
मनो विकारात्मकमाप पञ्चसु ।
गुणेषु मायारचितेषु देह्यसौ
प्रपद्यमानः सह तेन जायते ॥ ४२ ॥
ज्योतिर्यथैव उदकपार्थिवेष्वदः ।
समीरवेगानुगतं विभाव्यते ।
एवं स्वमायारचितेष्वसौ पुमान् ।
गुणेषु रागानुगतो विमुह्यति ॥ ४३ ॥
तस्मात् न कस्यचिद् द्रोहं आचरेत् स तथाविधः ।
आत्मनः क्षेममन्विच्छन् द्रोग्धुर्वै परतो भयम् ॥ ४४ ॥
एषा तव अनुजा बाला कृपणा पुत्रिकोपमा ।
हन्तुं नार्हसि कल्याणीं इमां त्वं दीनवत्सलः ॥ ४५ ॥

वसुदेवजीने कहाराजकुमार ! आप भोजवंशके होनहार वंशधर तथा अपने कुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले हैं। बड़े-बड़े शूरवीर आपके गुणोंकी सराहना करते हैं। इधर यह एक तो स्त्री, दूसरे आपकी बहिन और तीसरे यह विवाहका शुभ अवसर! ऐसी स्थितिमें आप इसे कैसे मार सकते हैं ? ॥ ३७ ॥ वीरवर ! जो जन्म लेते हैं, उनके शरीरके साथ ही मृत्यु भी उत्पन्न होती है। आज हो या सौ वर्षके बादजो प्राणी है, उसकी मृत्यु होगी ही ॥ ३८ ॥ जब शरीरका अन्त हो जाता है, तब जीव अपने कर्मके अनुसार दूसरे शरीरको ग्रहण करके अपने पहले शरीरको छोड़ देता है। उसे विवश होकर ऐसा करना पड़ता है ॥ ३९ ॥ जैसे चलते समय मनुष्य एक पैर जमाकर ही दूसरा पैर उठाता है और जैसे जोंक किसी अगले तिनकेको पकड़ लेती है, तब पहलेके पकड़े हुए तिनकेको छोड़ती हैवैसे जीव भी अपने कर्मके अनुसार किसी शरीरको प्राप्त करनेके बाद ही इस शरीरको छोड़ता है ॥ ४० ॥ जैसे कोई पुरुष जाग्रत्-अवस्थामें राजाके ऐश्वर्यको देखकर और इन्द्रादिके ऐश्वर्यको सुनकर उसकी अभिलाषा करने लगता है और उसका चिन्तन करते-करते उन्हीं बातोंमें घुल-मिलकर एक हो जाता है तथा स्वप्नमें अपनेको राजा या इन्द्रके रूपमें अनुभव करने लगता है, साथ ही अपने दरिद्रावस्थाके शरीरको भूल जाता है। कभी-कभी तो जाग्रत् अवस्थामें ही मन-ही-मन उन बातोंका चिन्तन करते-करते तन्मय हो जाता है और उसे स्थूल शरीरकी सुधि नहीं रहती। वैसे ही जीव कर्मकृत कामना और कामनाकृत कर्मके वश होकर दूसरे शरीरको प्राप्त हो जाता है और अपने पहले शरीरको भूल जाता है ॥ ४१ ॥ जीवका मन अनेक विकारोंका पुञ्ज है। देहान्तके समय वह अनेक जन्मोंके सञ्चित और प्रारब्ध कर्मोंकी वासनाओंके अधीन होकर मायाके द्वारा रचे हुए अनेक पाञ्चभौतिक शरीरोंमेंसे जिस किसी शरीरके चिन्तनमें तल्लीन हो जाता है और मान बैठता है कि यह मैं हूँ, उसे वही शरीर ग्रहण करके जन्म लेना पड़ता है ॥ ४२ ॥ जैसे सूर्य, चन्द्रमा आदि चमकीली वस्तुएँ जलसे भरे हुए घड़ोंमें या तेल आदि तरल पदार्थोंमें प्रतिबिम्बित होती हैं और हवाके झोंकेसे उनके जल आदिके हिलने-डोलनेपर उनमें प्रतिबिम्बित वस्तुएँ भी चञ्चल जान पड़ती हैं । वैसे ही जीव अपने स्वरूपके अज्ञानद्वारा रचे हुए शरीरोंमें राग करके उन्हें अपना-आप मान बैठता है और मोहवश उनके आने-जानेको अपना आना-जाना मानने लगता है ॥ ४३ ॥ इसलिये जो अपना कल्याण चाहता है, उसे किसीसे द्रोह नहीं करना चाहिये; क्योंकि जीव कर्मके अधीन हो गया है और जो किसीसे भी द्रोह करेगा, उसको इस जीवनमें शत्रुसे और जीवनके बाद परलोकसे भयभीत होना ही पड़ेगा ॥ ४४ ॥ कंस ! यह आपकी छोटी बहिन अभी बच्ची और बहुत दीन है । यह तो आपकी कन्याके समान है । इसपर, अभी-अभी इसका विवाह हुआ है, विवाहके मङ्गलचिह्न भी इसके शरीर पर से नहीं उतरे हैं । ऐसी दशामें आप-जैसे दीनवत्सल पुरुषको इस बेचारीका वध करना उचित नहीं है ॥ ४५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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