॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पहला अध्याय..(पोस्ट०७)
भगवान्
के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का
विवाह
और
कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों हत्या
श्रीवसुदेव
उवाच ।
न
ह्यस्यास्ते भयं सौम्य यद् वाक् आहाशरीरिणी ।
पुत्रान्
समर्पयिष्येऽस्या यतस्ते भयमुत्थितम् ॥ ५४ ॥
श्रीशुक
उवाच ।
स्वसुर्वधात्
निववृते कंसः तद्वाक्यसारवित् ।
वसुदेवोऽपि
तं प्रीतः प्रशस्य प्राविशद् गृहम् ॥ ५५ ॥
अथ
काल उपावृत्ते देवकी सर्वदेवता ।
पुत्रान्
प्रसुषुवे चाष्टौ कन्यां चैवानुवत्सरम् ॥ ५६ ॥
कीर्तिमन्तं
प्रथमजं कंसायानकदुन्दुभिः ।
अर्पयामास
कृच्छ्रेण सोऽनृताद् अतिविह्वलः ॥ ५७ ॥
किं
दुःसहं नु साधूनां विदुषां किं अपेक्षितम् ।
किं
अकार्यं कदर्याणां दुस्त्यजं किं धृतात्मनाम् ॥ ५८ ॥
दृष्ट्वा
समत्वं तत् शौरेः सत्ये चैव व्यवस्थितिम् ।
कंसस्तुष्टमना
राजन् प्रहसन् इदमब्रवीत् ॥ ५९ ॥
प्रतियातु
कुमारोऽयं न ह्यस्मादस्ति मे भयम् ।
अष्टमाद्
युवयोर्गर्भान् मृत्युर्मे विहितः किल ॥ ६० ॥
तथेति
सुतमादाय ययौ आनकदुन्दुभिः ।
नाभ्यनन्दत
तद्वाक्यं असतोऽविजितात्मनः ॥ ६१ ॥
वसुदेवजीने
कहा—सौम्य ! आपको देवकीसे तो कोई भय है नहीं, जैसा कि
आकाशवाणीने कहा है । भय है पुत्रोंसे, सो इसके पुत्र मैं
आपको लाकर सौंप दूँगा ॥ ५४ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! कंस जानता था कि वसुदेवजीके वचन झूठे नहीं होते और इन्होंने
जो कुछ कहा है, वह युक्तिसंगत भी है । इसलिये उसने अपनी बहिन
देवकीको मारनेका विचार छोड़ दिया । इससे वसुदेवजी बहुत प्रसन्न हुए और उसकी
प्रशंसा करके अपने घर चले आये ॥ ५५ ॥ देवकी बड़ी सती-साध्वी थी । सारे देवता उसके
शरीरमें निवास करते थे । समय आनेपर देवकीके गर्भसे प्रतिवर्ष एक-एक करके आठ पुत्र
तथा एक कन्या उत्पन्न हुई ॥ ५६ ॥ पहले पुत्रका नाम था कीर्तिमान् । वसुदेवजीने उसे
लाकर कंसको दे दिया । ऐसा करते समय उन्हें कष्ट तो अवश्य हुआ, परंतु उससे भी बड़ा कष्ट उन्हें इस बातका था कि कहीं मेरे वचन झूठे न हो
जायँ ॥ ५७ ॥ परीक्षित् ! सत्यसन्ध पुरुष बड़े-से-बड़ा कष्ट भी सह लेते हैं,
ज्ञानियोंको किसी बातकी अपेक्षा नहीं होती, नीच
पुरुष बुरे-से-बुरा काम भी कर सकते हैं और जो जितेन्द्रिय हैं—जिन्होंने भगवान् को हृदयमें धारण कर रखा है, वे सब
कुछ त्याग सकते हैं ॥ ५८ ॥ जब कंसने देखा कि वसुदेवजीका अपने पुत्रके जीवन और
मृत्युमें समान भाव है एवं वे सत्यमें पूर्ण निष्ठावान् भी हैं, तब वह बहुत प्रसन्न हुआ और उनसे हँसकर बोला ॥ ५९ ॥ वसुदेवजी ! आप इस
नन्हे-से-सुकुमार बालकको ले जाइये । इससे मुझे कोई भय नहीं है । क्योंकि
आकाशवाणीने तो ऐसा कहा था कि देवकी के आठवें गर्भसे उत्पन्न सन्तानके द्वारा मेरी
मृत्यु होगी ॥ ६० ॥ वसुदेवजीने कहा—‘ठीक है’ और उस बालकको लेकर वे लौट आये। परंतु उन्हें मालूम था कि कंस बड़ा दुष्ट
है और उसका मन उसके हाथमें नहीं है। वह किसी क्षण बदल सकता है। इसलिये उन्होंने
उसकी बातपर विश्वास नहीं किया ॥ ६१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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