|| श्रीहरि: ||
पुरुषसूक्त
(शुक्लयजुर्वेदीय)
वेदों में प्राप्त सूक्तों में ‘पुरुषसूक्त' का अत्यन्त महनीय स्थान है। आध्यात्मिक तथा दार्शनिक दृष्टिसे इस सूक्त का बड़ा महत्व है। इसीलिये यह सूक्त ऋग्वेद (१०वें मण्डल का ९०वाँ सूक्त), यजुर्वेद (३१वाँ अध्याय), अथर्ववेद (१९वें काण्डका छठा सूक्त), तैत्तिरीयसंहिता, शतपथब्राह्मण तथा तैत्तिरीय आरण्यक आदिमें किंचित् शब्दान्तर के साथ प्राय: यथावत् प्राप्त होता है। मुद्गलोपनिषद् में भी पुरुषसूक्त प्राप्त हैं, जिसमें दो मन्त्र अतिरिक्त हैं। पुरुषसूक्त में सोलह मन्त्र हैं। ऋग्वेदीय पुरुषसूक्त के ऋषि नारायण तथा देवता 'पुरुष' हैं। वेदोक्त पूजा-अर्चा में पुरुषसूक्त के सोलह मन्त्रों का प्रयोग भगवान् के षोडशोपचार-पूजन तथा यजन में सर्वत्र होता है। इस सूक्त में विराट् पुरुष परमात्माकी महिमा निरूपित है और सृष्टि-निरूपणकी प्रक्रिया बतायी गयी है। उस विराट् पुरुषको अनन्त सिर, नेत्र और चरणवाला बताया गया है 'सहस्रशीर्षा पुरुषः।' इस सूक्तमें बताया गया है कि यह सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड उनको एकपाद्विभूति है अर्थात् चतुर्थांश है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ,कैलास,साकेत आदि) हैं। इस सूक्त में यज्ञपुरुष नारायण की यज्ञद्वारा यजनकी प्रक्रिया भी बतायी गयी है। यहाँपर शुक्लयजुर्वेदीय तथा मुद्गलोपनिषद में प्राप्त पुरुषसूक्त का भावार्थ दिया जा रहा है—
हरिः ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिꣳ सर्वत स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १॥
पुरुष एवेदꣳ सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ २॥
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३॥
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥ ४॥
ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥ ५॥
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥ ६॥
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दाꣳसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥ ७॥
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ॥ ८॥
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥ ९॥
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥ १०॥
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याꣳ शूद्रो अजायत ॥ ११॥
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ॥ १२॥
नाभ्या आसीदन्तरिक्षᳫ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँऽकल्पयन् ॥ १३॥
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥ १४॥
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ॥ १५॥
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १६॥
.........[शु०यजु० ३१।१–१६]
उन परम पुरुषके सहस्रों (अनन्त) मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं। वे इस सम्पूर्ण विश्वको समस्त भूमि (पूरे स्थान)-को सब ओरसे व्याप्त करके इससे दस अंगुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं अर्थात् वे ब्रह्माण्डमें व्यापक होते हुए उससे परे भी हैं ॥१॥ यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया और जो आगे होनेवाला है, वह सब वे परम पुरुष ही हैं। इसके अतिरिक्त वे देवताओंके तथा जो अन्नसे (भोजनद्वारा) जीवित रहते हैं, उन सबके भी ईश्वर (अधीश्वर--शासक) हैं ॥ २ ॥ यह भूत, भविष्य, वर्तमानसे सम्बद्ध समस्त जगत् इन परम पुरुषका वैभव है। वे अपने इस विभूति-विस्तारसे भी महान् हैं। उन परमेश्वरकी एकपाद्विभूति (चतुर्थांश)-में ही यह पंचभूतात्मक विश्व है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूतिमें शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि) हैं ॥३॥ वे परम पुरुष स्वरूपतः इस मायिक जगत् से परे त्रिपाद्विभूति में प्रकाशमान हैं (वहाँ माया का प्रवेश न होनेसे उनका स्वरूप नित्य प्रकाशमान है)। इस विश्वके रूपमें उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है अर्थात् एक पादसे वे ही विश्वरूप भी हैं, इसलिये वे ही सम्पूर्ण जड एवं चेतनमय उभयात्मक जगत् को परिव्याप्त किये हुए हैं।॥ ४॥ उन्हीं आदिपुरुष से विराट् (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ। वे परम पुरुष ही विराट् के अधिपुरुष-अधिदेवता (हिरण्यगर्भ)-रूपसे उत्पन्न होकर अत्यन्त प्रकाशित हुए। बादमें उन्होंने भूमि (लोकादि) तथा शरीर (देव, मानव, तिर्यक् आदि) उत्पन्न किये॥५॥ जिसमें सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञपुरुषसे उसीने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायुमें, वनमें एवं ग्राममें रहनेयोग्य पशु उत्पन्न किये॥६॥ उसी सर्वहुत यज्ञपुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए, उसीसे यजुर्वेद के मन्त्र उत्पन्न हुए और उसीसे सभी छन्द भी उत्पन्न हुए॥७॥उसीसे घोड़े उत्पन्न हुए, उसीसे गायें उत्पन्न हुईं और उसीसे भेड़ बकरियाँ उत्पन्न हुईं। वे दोनों ओर दाँतोंवाले हैं॥८॥ देवताओं, साध्यों तथा ऋषियोंने सर्वप्रथम उत्पन्न हुए उस यज्ञ पुरुषको कुशापर अभिषिक्त किया और उसीसे उसका यजन किया॥९॥ पुरुष का जब विभाजन हुआ तो उसमें कितनी विकल्पनाएँ की गयीं? उसका मुख क्या था? उसके बाहु क्या थे? उसके जंघे क्या थे? और उसके पैर क्या कहे जाते हैं? ॥१०॥ ब्राह्मण इसका मुख था (मुखसे ब्राह्मण उत्पन्न हुए)। क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बने (दोनों भुजाओंसे क्षत्रिय उत्पन्न हुए)। इस पुरुषकी जो दोनों जंघाएँ थीं, वे ही वैश्य हुईं अर्थात् उनसे वैश्य उत्पन्न हुए और पैरोंसे शूद्रवर्ण प्रकट हुआ॥११॥ इस परम पुरुषके मनसे चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रोंसे सूर्य प्रकट हुए, कानोंसे वायु और प्राण तथा मुखसे अग्नि की उत्पत्ति हुई ॥१२॥ उन्हीं परम पुरुषकी नाभि से अन्तरिक्षलोक उत्पन्न हुआ, मस्तक से स्वर्ग प्रकट हुआ, पैरों से पृथिवी, कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं। इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुषमें ही कल्पित हुए।।। १३ ।। जिस पुरुषरूप हविष्य से देवोंने यज्ञका विस्तार किया, वसन्त उसका घी था, ग्रीष्म काष्ठ एवं शरद हवि थी॥१४॥ देवताओं ने जब यज्ञ करते समय (संकल्पसे) पुरुषरूप पशुका बन्धन किया, तब सात समुद्र इसकी परिधि (मेखलाएँ) थे। इक्कीस प्रकार के छन्दों की (गायत्री, अतिजगती और कृति में से प्रत्येक के सात-सात प्रकारसे) समिधाएँ बनीं ॥ १५ ॥ देवताओंने (पूर्वोक्त रूपसे) यज्ञके द्वारा यज्ञस्वरूप परम पुरुषका यजन (आराधन) किया। इस यज्ञ से सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। उन धर्मो के आचरण से वे देवता महान् महिमावाले होकर उस स्वर्गलोकका सेवन करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्यदेवता निवास करते हैं। अतः हम सभी सर्वव्यापी जड-चेतनात्मकरूप विराट् पुरुष की करबद्ध स्तुति करते हैं। ॥ १६॥
.....गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित वैदिक सूक्त-संग्रह पुस्तक (कोड 1885) से