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लेबल
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- श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध 7 से 12
- श्रीमद्भागवतमहापुराण स्कंध 1 से 6
- श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
- श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् (स्कन्दपुराणान्तर्गत)
- स्तोत्र
सोमवार, 13 अक्टूबर 2025
श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - चौदहवां अध्याय..(पोस्ट०२)
बुधवार, 2 अगस्त 2023
नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 11)
नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय
न
ह्येष क्षयतां याति सोमः सुरगणैर्यथा ।
कम्पितः
पतते भूमिं पुनश्चैवाधिरोहति ॥ ५४॥
देवता लोग
चन्द्रमा का अमृत पीकर जिस प्रकार उसे क्षीण कर देते हैं, उस प्रकार सूर्यदेव का क्षय नहीं होता । धूममार्ग से चन्द्रमण्डल में गया
हुआ जीव कर्मभोग समाप्त होनेपर कम्पित हो फिर इस पृथ्वीपर गिर पड़ता है। इसी
प्रकार नूतन कर्मफल भोगने के लिये वह पुनः चन्द्रलोक में जाता है ( सारांश यह कि
चन्द्रलोकमें जानेवालेको आवागमनसे छुटकारा नहीं मिलता है ) ॥ ५४ ॥
क्षीयते
हि सदा सोमः पुनश्चैवाभिपूर्यते ।
नेच्छाम्येवं
विदित्वैते ह्रासवृद्धी पुनः पुनः ॥ ५५ ॥
इसके सिवा
चन्द्रमा सदा घटता-बढ़ता रहता है । उसकी हास- वृद्धिका क्रम कभी टूटता नहीं है ।
इन सब बातोंको जानकर मुझे चन्द्र- लोकमें जाने या ह्रास-वृद्धिके चक्करमें पड़नेकी
इच्छा नहीं होती है ॥ ५५ ॥
रविस्तु
सन्तापयते लोकान् रश्मिभिरुल्बणैः ।
सर्वतस्तेज
आदत्ते नित्यमक्षयमण्डलः॥५६॥
सूर्यदेव
अपनी प्रचण्ड किरणों से समस्त जगत् को सन्तप्त करते हैं । वे सब जगहसे तेज को
स्वयं ग्रहण करते हैं (उनके तेजका कभी ह्रास नहीं होता); इसलिये उनका मण्डल सदा अक्षय बना रहता है ॥ ५६ ॥
अतो
मे रोचते गन्तुमादित्यं दीप्ततेजसम् ।
अत्र
वत्स्यामि दुर्धर्षो निःशङ्केनान्तरात्मना ॥ ५७ ॥
अतः उद्दीप्त
तेजवाले आदित्यमण्डलमें जाना ही मुझे अच्छा जान पड़ता है। इसमें मैं निर्भीकचित्त
होकर निवास करूँगा । किसीके लिये भी मेरा पराभव करना कठिन होगा ॥ ५७ ॥
सूर्यस्य
सदने चाहं निक्षिप्येदं कलेवरम् ।
ऋषिभिः
सह यास्यामि सौरं तेजोऽतिदुःसहम् ॥ ५८
॥ इस शरीरको
सूर्यलोकमें छोड़कर मैं ऋषियोंके साथ सूर्यदेवके अत्यन्त दुःसह तेजमें प्रवेश कर
जाऊँगा ॥ ५८ ॥
आपृच्छामि
नगान् नागान् गिरिमुर्वी दिशो दिवम् ।
देवदानवगन्धर्वान्
पिशाचोरगराक्षसान् ॥ ५९ ॥
इसके लिये
मैं नग-नाग,
पर्वत, पृथ्वी, दिशा,
द्युलोक, देव, दानव,
गन्धर्व, पिशाच, सर्प और
राक्षसों से आज्ञा माँगता हूँ ॥ ५९ ॥
लोकेषु
सर्वभूतानि प्रवेक्ष्यामि न संशयः ।
पश्यन्तु
योगवीर्यं मे सर्वे देवाः सहर्षिभिः ॥ ६० ॥
आज मैं
निःसन्देह जगत् के सम्पूर्ण भूतोंमें प्रवेश करूँगा । समस्त देवता और ऋषि मेरी
योगशक्तिका प्रभाव देखें ॥ ६० ॥
अथानुज्ञाप्य
तमृषिं नारदं लोकविश्रुतम् ।
तस्मादनुज्ञां
सम्प्राप्य जगाम पितरं प्रति ॥ ६१ ॥
ऐसा निश्चय
करके शुकदेवजीने विश्वविख्यात देवर्षि नारदजीसे आज्ञा माँगी। उनसे आज्ञा लेकर वे अपने
पिता व्यासजीके पास गये ॥ ६१ ॥
सोऽभिवाद्य
महात्मानं कृष्णद्वैपायनं मुनिम् ।
शुकः
प्रदक्षिणं कृत्वा कृष्णमापृष्टवान् मुनिम् ॥ ६२ ॥
वहाँ अपने
पिता महात्मा श्रीकृष्णद्वैपायन मुनिको प्रणाम करके शुकदेवजीने उनकी प्रदक्षिणा की
और उनसे जानेके लिये आज्ञा माँगी ॥ ६२ ॥
श्रुत्वा
चर्षिस्तद् वचनं शुकस्य
प्रीतो
महात्मा पुनराह चैनम् ।
भो
भो पुत्र स्थीयतां तावदद्य
यावच्चक्षुः
प्रीणयामि त्वदर्थे ॥ ६३ ॥
शुकदेवकी यह
बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए महात्मा व्यासने उनसे कहा - 'बेटा! बेटा! आज यहीं रहो, जिससे तुम्हें जी - भर
निहारकर अपने नेत्रोंको तृप्त कर लूँ ' ॥ ६३ ॥
निरपेक्षः
शुको भूत्वा निःस्नेहो मुक्तसंशयः ।
मोक्षमेवानुसञ्चिन्त्य
गमनाय मनो दधे॥६४॥
परंतु
शुकदेवजी स्नेह का बन्धन तोड़कर निरपेक्ष हो गये थे । तत्त्व के विषय में उन्हें
कोई संशय नहीं रह गया था;
अतः बारम्बार मोक्षका ही चिन्तन करते हुए उन्होंने वहाँ से जाने का
ही विचार किया ॥ ६४ ॥
पितरं
सम्परित्यज्य जगाम मुनिसत्तमः ।
कैलासपृष्ठं
विपुलं सिद्धसङ्घनिषेवितम् ॥ ६५ ॥
पिता को वहीं
छोड़कर मुनिश्रेष्ठ शुकदेव सिद्ध- समुदाय से सेवित विशाल कैलासशिखर पर चले गये ॥
६५॥
॥
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारदगीतायां तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से
नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 10)
नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय
परं
भावं हि काङ्क्षामि यत्र नावर्तते पुनः ।
सर्वसङ्गान्
परित्यज्य निश्चितो मनसा गतिम् ॥ ५० ॥
जहाँ जानेपर
जीव की पुनरावृत्ति नहीं होती, मैं उसी परमभाव को प्राप्त करना
चाहता हूँ । सब प्रकार की आसक्तियों का परित्याग करके
मैंने मन के
द्वारा उत्तम गति प्राप्त करने का निश्चय किया है ॥ ५० ॥
तत्र
यास्यामि यत्रात्मा शमं मेऽधिगमिष्यति ।
अक्षयश्चाव्ययश्चैव
यत्र स्थास्यामि शाश्वतः ॥ ५१ ॥
अब मैं वहीं
जाऊँगा,
जहाँ मेरे आत्माको शान्ति मिलेगी तथा जहाँ मैं अक्षय, अविनाशी और सनातनरूपसे स्थित रहूँगा॥५१॥
न तु
योगमृते शक्या प्राप्तुं सा परमा गतिः ।
अवबन्धो
हि बुद्धस्य कर्मभिर्नोपपद्यते ॥ ५२॥
परंतु योगके
बिना उस परम गतिको नहीं प्राप्त किया जा सकता । बुद्धिमान् का कर्मोंके निकृष्ट
बन्धनसे बँधा रहना उचित नहीं है ॥ ५२ ॥
तस्माद्
योगं समास्थाय त्यक्त्वा गृहकलेवरम् ।
वायुभूतः
प्रवेक्ष्यामि तेजोराशिं दिवाकरम् ॥ ५३ ॥
अतः मैं योग का
आश्रय ले इस देह – गेह का परित्याग करके वायुरूप हो तेजोराशिमय सूर्यमण्डल में
प्रवेश करूँगा ॥ ५३ ॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से
मंगलवार, 1 अगस्त 2023
नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 09)
नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय
द्वन्द्वारामेषु
भूतेषु गच्छन्त्येकैकशो नराः ।
इदमन्यत्
पदं पश्य मात्र मोहं करिष्यसि ॥ ४३ ॥
सभी प्राणी
सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंमें रम रहे हैं। मनुष्य उनमेंसे एक-एकका अनुभव करते हैं
अर्थात् किसीको सुखका अनुभव होता है, किसीको दुःखका । यह
जो ब्रह्म नामक वस्तु है, इसे सबसे भिन्न एवं विलक्षण समझो।
इसके विषयमें तुम्हें मोहग्रस्त नहीं होना चाहिये ॥ ४३ ॥
त्यज
धर्ममधर्मं च उभे सत्यानृते त्यज ।
उभे
सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तं त्यज ॥ ४४ ॥
धर्म और
अधर्मको छोड़ो। सत्य और असत्य दोनोंका त्याग करो । सत्य और असत्य दोनोंका त्याग
करके जिससे त्याग करते हो,
उस अहंकारको भी त्याग दो ॥ ४४ ॥
एतत्
ते परमं गुह्यमाख्यातमृषिसत्तम ।
येन
देवाः परित्यज्य मर्त्यलोकं दिवं गताः ॥ ४५ ॥
मुनिश्रेष्ठ
! यह मैंने तुमसे परम गूढ़ बात बतलायी है, जिससे
देवतालोग
मर्त्यलोक छोड़कर स्वर्गलोकको चले गये ॥ ४५ ॥
नारदस्य
वचः श्रुत्वा शुकः परमबुद्धिमान् ।
सञ्चिन्त्य
मनसा धीरो निश्चयं नाध्यगच्छत ॥ ४६ ॥
नारदजीकी बात
सुनकर परम बुद्धिमान् और धीरचित्त शुकदेवजीने मन-ही-मन बहुत विचार किया; किंतु सहसा वे किसी निश्चयपर न पहुँच सके ॥ ४६ ॥
पुत्रदारैर्महान्
क्लेशो विद्याम्नाये महाञ्च्छ्रमः ।
किं
नु स्याच्छाश्वतं स्थानमल्पक्लेशं महोदयम् ॥ ४७ ॥
वे सोचने लगे, स्त्री- पुत्रोंके झमेलेमें पड़नेसे महान् क्लेश होगा । विद्याभ्यासमें भी
बहुत अधिक परिश्रम है। कौन-सा ऐसा उपाय है, जिससे सनातन पद
प्राप्त हो जाय। उस साधनमें क्लेश तो थोड़ा हो, किन्तु
अभ्युदय महान् हो ॥ ४७ ॥
ततो
मुहूर्तं सञ्चिन्त्य निश्चितां गतिमात्मनः ।
परावरज्ञो
धर्मस्य परां नैःश्रेयसीं गतिम् ॥ ४८ ॥
तदनन्तर
उन्होंने दो घड़ीतक अपनी निश्चित गतिके विषय में विचार किया; फिर भूत और भविष्य के ज्ञाता शुकदेवजीको अपने धर्मकी कल्याणमयी परम गतिका
निश्चय हो गया ॥ ४८ ॥
कथं
त्वहमसंश्लिष्टो गच्छेयं गतिमुत्तमाम् ।
नावर्तेयं
यथा भूयो योनिसङ्करसागरे ॥ ४९ ॥
फिर वे सोचने
लगे,
मैं सब प्रकारकी उपाधियोंसे मुक्त होकर किस प्रकार उस उत्तम गति को
प्राप्त करूँ, जहाँसे फिर इस संसार - सागरमें आना न पड़े ॥
४९ ॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से
नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 08)
नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय
उपर्युपरि
लोकस्य सर्वो गन्तुं समीहते।
यतते
च यथाशक्ति न च तद् वर्तते तथा ॥ ३८ ॥
सब लोग लोकों
के ऊपर से - ऊपर स्थान में जाना चाहते हैं और यथाशक्ति इसके लिये चेष्टा भी करते
हैं;
किंतु वैसा करनेमें समर्थ नहीं होते ॥ ३८ ॥
ऐश्वर्यमदमत्तांश्च
मत्तान् मद्यमदेन च।
अप्रमत्ताः
शठाञ्छूरा विक्रान्ताः पर्युपासते ॥ ३९ ॥
प्रमादरहित
पराक्रमी शूरवीर भी ऐश्वर्य तथा मदिरा के मद से उन्मत्त रहनेवाले शठ मनुष्यों की
सेवा करते हैं ॥ ३९ ॥
क्लेशाः
परिनिवर्तन्ते केषाञ्चिदसमीक्षिताः ।
स्वं
स्वं च पुनरन्येषां न किञ्चिदधिगम्यते ॥ ४० ॥
कितने ही
लोगोंके क्लेश ध्यान दिये बिना ही निवृत्त हो जाते हैं तथा दूसरों को अपने ही धन में
से समय पर कुछ भी नहीं मिलता ॥ ४० ॥
महच्च
फलवैषम्यं दृश्यते कर्मसन्धिषु ।
वहन्ति
शिबिकामन्ये यान्त्यन्ये शिबिकागताः ॥ ४१ ॥
कर्मों के फल
में भी बड़ी भारी विषमता देखने में आती है। कुछ लोग पालकी ढोते हैं और दूसरे लोग
उसी पालकी में बैठकर चलते हैं ॥ ४१ ॥
सर्वेषामृद्धिकामानामन्ये
रथपुरःसराः।
मनुष्याश्च
गतस्त्रीकाः शतशो विविधस्त्रियः ॥ ४२ ॥
सभी मनुष्य
धन और समृद्धि चाहते हैं;
परंतु उनमें से थोड़े- से ही ऐसे लोग होते हैं, जो रथपर चढ़कर चलते हैं। कितने ही पुरुष स्त्रीरहित हैं और सैकड़ों मनुष्य
कई स्त्रियोंवाले हैं ॥ ४२ ॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से
सोमवार, 31 जुलाई 2023
नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 07)
नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय
के
वा भुवि चिकित्सन्ते रोगार्तान् मृगपक्षिणः ।
श्वापदानि
दरिद्रांश्च प्रायो नार्ता भवन्ति ते ॥ ३३ ॥
इस पृथ्वीपर
मृग,
पक्षी, हिंसक पशु और दरिद्र मनुष्योंको जब रोग
सताता है, तब कौन उनकी चिकित्सा करने जाते हैं ? किंतु प्राय: उन्हें रोग होता ही नहीं है ॥ ३३ ॥
घोरानपि
दुराधर्षान् नृपतीनुग्रतेजसः ।
आक्रम्याददते
रोगाः पशून् पशुगणा इव ॥ ३४ ॥
परन्तु
बड़े-बड़े पशु जैसे छोटे पशुओंपर आक्रमण करके उन्हें दबा देते हैं, उसी प्रकार प्रचण्ड तेजवाले, घोर एवं दुर्धर्ष
राजाओं पर भी बहुत-से रोग आक्रमण करके उन्हें अपने वश में कर लेते हैं ॥ ३४ ॥
इति
लोकमनाक्रन्दं मोहशोकपरिप्लुतम् ।
स्त्रोतसा
सहसाऽक्षिप्तं ह्रियमाणं बलीयसा ॥ ३५ ॥
इस प्रकार सब
लोग भवसागरके प्रबल प्रवाहमें सहसा पड़कर इधर-उधर बहते हुए मोह और शोकमें डूब रहे
हैं और आर्तनादतक नहीं कर पाते हैं ॥ ३५ ॥
न
धनेन न राज्येन नोग्रेण तपसा तथा।
स्वभावमतिवर्तन्ते
ये नियुक्ताः शरीरिणः ॥ ३६ ॥
विधाताके
द्वारा कर्मफल- भोगमें नियुक्त हुए देहधारी मनुष्य धन, राज्य तथा कठोर तपस्याके प्रभावसे प्रकृतिका उल्लंघन नहीं कर सकते ॥ ३६ ॥
न
म्रियेरन् न जीर्येरन् सर्वे स्युः सर्वकामिनः ।
नाप्रियं
प्रति पश्येयुरुत्थानस्य फले सति ॥ ३७ ॥
यदि प्रयत्न का
फल अपने हाथ में होता तो मनुष्य न तो बूढ़े होते और न मरते ही। सबकी समस्त कामनाएँ
पूरी हो जातीं और किसीको अप्रिय नहीं देखना पड़ता ॥ ३७ ॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से
नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 06)
नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय
स
तस्य सहजातस्य सप्तमीं नवमीं दशाम् ।
प्राप्नुवन्ति
ततः पञ्च न भवन्ति गतायुषः ॥ २८ ॥
अनादिकाल से
साथ उत्पन्न होनेवाले शरीर के साथ जीवात्मा अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है । इस
शरीर की गर्भवास,
जन्म, बाल्य, कौमार,
पौगण्ड, यौवन, वृद्धत्व,
जरा, प्राणरोध और नाश- ये दस दशाएँ होती हैं ।
इनमेंसे सातवीं और नवीं दशा को भी शरीरगत पाँचों भूत ही प्राप्त होते हैं, आत्मा नहीं । आयु समाप्त होनेपर शरीरकी नवीं दशामें पहुँचनेपर ये पाँच भूत
नहीं रहते । अर्थात् दसवीं दशाको प्राप्त हो जाते हैं ॥ २८ ॥
नाभ्युत्थाने
मनुष्याणां योगाः स्युर्नात्र संशयः ।
व्याधिभिश्च
विमथ्यन्ते व्याधैः क्षुद्रमृगा इव ॥ २९ ॥
जैसे व्याध
छोटे मृगोंको कष्ट पहुँचाते हैं, उसी प्रकार जब नाना प्रकार के रोग
मनुष्यों को मथ डालते हैं, तब उनमें उठने-बैठने की भी शक्ति
नहीं रह जाती, इसमें संशय नहीं है॥ २९ ॥
व्याधिभिर्मथ्यमानानां
त्यजतां विपुलं धनम्।
वेदनां
नापकर्षन्ति यतमानाश्चिकित्सकाः ॥ ३० ॥
रोगों से
पीड़ित हुए मनुष्य वैद्यों को बहुत-सा धन देते हैं और वैद्यलोग रोग दूर करने की
बहुत चेष्टा करते हैं तो भी उन रोगियों की पीड़ा दूर नहीं कर पाते हैं ॥ ३० ॥
ते
चातिनिपुणा वैद्याः कुशलाः सम्भृतौषधाः ।
व्याधिभिः
परिकृष्यन्ते मृगा व्याधैरिवार्दिताः ॥ ३१ ॥
बहुत-सी
ओषधियोंका संग्रह करनेवाले चिकित्सामें कुशल चतुर वैद्य भी व्याधोंके मारे हुए
मृगोंकी भाँति रोगोंके शिकार हो जाते हैं ॥ ३१ ॥
ते
पिबन्तः कषायांश्च सर्पींषि विविधानि च ।
दृश्यन्ते
जरया भग्ना नगा नागैरिवोत्तमैः ॥ ३२ ॥
बड़े-बड़े
हाथी जैसे वृक्षोंको झुका देते हैं, वैसे ही वे तरह-
तरहके काढ़े और नाना प्रकारके घी पीते रहते हैं तो भी वृद्धावस्था उनकी कमर टेढ़ी
कर देती है; यह देखा जाता है ॥ ३२ ॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से
रविवार, 30 जुलाई 2023
नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 05)
नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय
शीघ्रं
परशरीराणि च्छिन्नबीजं शरीरिणम् ।
प्राणिनं
प्राणसंरोधे मांसश्लेष्मविवेष्टितम् ॥ २१ ॥
जिसका स्थूल
शरीर क्षीण हो गया है तथा जो कफ और मांसमय शरीर से घिरा हुआ है, उस देहधारी प्राणी को मृत्यु के बाद शीघ्र ही दूसरे शरीर उपलब्ध हो जाते
हैं ॥ २१ ॥
निर्दग्धं
परदेहेऽपि परदेहं चलाचलम् ।
विनश्यन्तं
विनाशान्ते नावि नावमिवाहितम्॥ २२॥
जैसे एक नौका
भग्न होनेपर उसपर बैठे हुए लोगों को उतारने के लिये दूसरी नाव प्रस्तुत रहती है, उसी प्रकार एक शरीर से मृत्यु को प्राप्त होते हुए जीवको लक्ष्य करके
मृत्यु के बाद उसके कर्मफल- भोगके लिये दूसरा नाशवान् शरीर उपस्थित कर दिया जाता
है ॥ २२ ॥
सङ्गत्या
जठरे न्यस्तं रेतोबिन्दुमचेतनम्।
केन
यत्नेन जीवन्तं गर्भं त्वमिह पश्यसि ॥ २३॥
शुकदेव !
पुरुष स्त्रीके साथ समागम करके उसके उदरमें जिस अचेतन शुक्रबिन्दुको स्थापित करता
है,
वही गर्भरूप में परिणत होता है। फिर वह गर्भ किस यत्न से यहाँ जीवित
रहता है, क्या तुम कभी इसपर विचार करते हो ? ॥ २३ ॥
अन्नपानानि
जीर्यन्ते यत्र भक्षाश्च भक्षिताः ।
तस्मिन्नेवोदरे
गर्भः किं नान्नमिव जीर्यते ॥ २४ ॥
जहाँ खाये
हुए अन्न और जल पच जाते हैं तथा सभी तरह के भक्ष्य पदार्थ जीर्ण हो जाते हैं, उसी पेट में पड़ा हुआ गर्भ अन्न के समान क्यों नहीं पच जाता है ? ॥ २४ ॥
गर्भे
मूत्रपुरीषाणां स्वभावनियता गतिः ।
धारणे
वा विसर्गे वा न कर्ता विद्यते वशः ॥ २५ ॥
स्त्रवन्ति
ह्युदराद् गर्भा जायमानास्तथा परे ।
आगमेन
तथान्येषां विनाश उपपद्यते ॥ २६ ॥
गर्भ में मल
और मूत्र के धारण करने या त्याग में कोई स्वभावनियत गति है; किंतु कोई स्वाधीन कर्ता नहीं है । कुछ गर्भ माता के पेट से गिर जाते हैं,
कुछ जन्म लेते हैं और कितनों की ही जन्म लेने के बाद मृत्यु हो जाती
है ॥ २५-२६॥
एतस्माद्
योनिसम्बन्धाद् यो जीवन् परिमुच्यते ।
प्रजां
च लभते काञ्चित् पुनर्द्वन्द्वेषु सज्जति ॥ २७ ॥
इस योनि –
सम्बन्ध से कोई सकुशल जीता हुआ बाहर निकल आता है, तब कोई सन्तान
को प्राप्त होता है और पुनः परस्पर के सम्बन्ध में संलग्न हो जाता है ॥ २७ ॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से
नारद गीता तीसरा अध्याय (पोस्ट 04)
नारदजी का शुकदेव को कर्मफलप्राप्तिमें परतन्त्रता- विषयक उपदेश तथा शुकदेवजी का सूर्य- लोक में जाने का निश्चय
केषाञ्चित्
पुत्रकामानामनुसन्तानमिच्छताम् ।
सिद्धौ
प्रयतमानानां न चाण्डमुपजायते॥ १६॥
कुछ लोग
पुत्र की इच्छा रखते हैं और उस पुत्र के भी सन्तान चाहते हैं तथा इसकी सिद्धि के
लिये सब प्रकार से प्रयत्न करते हैं तो भी उनके एक अंडा भी उत्पन्न नहीं होता ॥ १६
॥
गर्भाच्चोद्विजमानानां
क्रुद्धादाशीविषादिव ।
आयुष्माञ्जायते
पुत्रः कथं प्रेत इवाभवत्॥१७॥
बहुत-से
मनुष्य बच्चा पैदा होने से उसी तरह डरते हैं, जैसे क्रोध में भरे
हुए विषधर सर्प से लोग भयभीत रहते हैं, तथापि उनके यहाँ
दीर्घजीवी पुत्र उत्पन्न होता है और क्या मजाल कि वह कभी किसी तरह रोग आदि से
मृतकतुल्य हो सके ॥ १७ ॥
देवानिष्ट्वा
तपस्तप्त्वा कृपणैः पुत्रगृद्धिभिः ।
दश
मासान् परिधृता जायन्ते कुलपांसनाः ॥ १८ ॥
पुत्र की
अभिलाषा रखनेवाले दीन स्त्री-पुरुषोंद्वारा देवताओं की पूजा और तपस्या करके दस मास
तक गर्भ धारण किया जाता है,
तथापि उनके कुलांगार पुत्र उत्पन्न होते हैं ॥ १८ ॥
अपरे
धनधान्यानि भोगांश्च पितृसञ्चितान् ।
विपुलानभिजायन्ते
लब्धास्तैरेव मङ्गलैः॥१९॥
तथा बहुत से
ऐसे हैं,
जो आमोद-प्रमोदमें ही जन्म धारण करके पिताके सञ्चित किये हुए अपार
धनधान्य एवं विपुल भोगोंके अधिकारी होते हैं ॥ १९ ॥
अन्योन्यं
समभिप्रेत्य मैथुनस्य समागमे ।
उपद्रव
इवाविष्टो योनिं गर्भः प्रपद्यते ॥ २० ॥
पति-पत्नी की
पारस्परिक इच्छा के अनुसार मैथुन के लिये जब उनका समागम होता है, उस समय किसी उपद्रव के समान गर्भ योनि में प्रवेश करता है ॥ २०॥
......शेष
आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-संग्रह पुस्तक (कोड 1958) से
श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - छब्बीसवां अध्याय..(पोस्ट०३)
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध – छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) राजा पुरञ्जनका शिकार खेलने वनमें जाना और रानीका ...
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सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे | तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय — रहस्यात्मक पुरा...
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हम लोगों को भगवान की चर्चा व संकीर्तन अधिक से अधिक करना चाहिए क्योंकि भगवान् वहीं निवास करते हैं जहाँ उनका संकीर्तन होता है | स्वयं भगवान...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान् की पूजाविधि ...
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निगमकल्पतरोर्गलितं फलं , शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् | पिबत भागवतं रसमालयं , मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः || महामुनि व्यासदेव के द्वारा न...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५) श्रीकृष्ण के विरह में गोपियो...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्...
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☼ श्रीदुर्गादेव्यै नम: ☼ क्षमा-प्रार्थना अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया । दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरी ।। 1...
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शिवसंकल्पसूक्त ( कल्याणसूक्त ) [ मनुष्यशरीर में प्रत्येक इन्द्रियका अपना विशिष्ट महत्त्व है , परंतु मनका महत्त्व सर्वोपरि है ; क्यो...







