सोमवार, 30 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

देवासुर-संग्राम

चित्रध्वजपटै राजन्नातपत्रैः सितामलैः
महाधनैर्वज्रदण्डैर्व्यजनैर्बार्हचामरैः ॥ १३ ॥
वातोद्धूतोत्तरोष्णीषैरर्चिर्भिर्वर्मभूषणैः
स्फुरद्भिर्विशदैः शस्त्रैः सुतरां सूर्यरश्मिभिः ॥ १४ ॥
देवदानववीराणां ध्वजिन्यौ पाण्डुनन्दन
रेजतुर्वीरमालाभिर्यादसामिव सागरौ ॥ १५ ॥
वैरोचनो बलिः सङ्ख्ये सोऽसुराणां चमूपतिः
यानं वैहायसं नाम कामगं मयनिर्मितम् ॥ १६ ॥
सर्वसाङ्ग्रामिकोपेतं सर्वाश्चर्यमयं प्रभो
अप्रतर्क्यमनिर्देश्यं दृश्यमानमदर्शनम् ॥ १७ ॥
आस्थितस्तद्विमानाग्र्यं सर्वानीकाधिपैर्वृतः
बालव्यजनछत्राग्र्यै रेजे चन्द्र इवोदये ॥ १८ ॥
तस्यासन्सर्वतो यानैर्यूथानां पतयोऽसुराः
नमुचिः शम्बरो बाणो विप्रचित्तिरयोमुखः ॥ १९ ॥
द्विमूर्धा कालनाभोऽथ प्रहेतिर्हेतिरिल्वलः
शकुनिर्भूतसन्तापो वज्रदंष्ट्रो विरोचनः ॥ २० ॥
हयग्रीवः शङ्कुशिराः कपिलो मेघदुन्दुभिः
तारकश्चक्रदृक्शुम्भो निशुम्भो जम्भ उत्कलः ॥ २१ ॥
अरिष्टोऽरिष्टनेमिश्च मयश्च त्रिपुराधिपः
अन्ये पौलोमकालेया निवातकवचादयः ॥ २२ ॥
अलब्धभागाः सोमस्य केवलं क्लेशभागिनः
सर्व एते रणमुखे बहुशो निर्जितामराः ॥ २३ ॥
सिंहनादान्विमुञ्चन्तः शङ्खान्दध्मुर्महारवान्
दृष्ट्वा सपत्नानुत्सिक्तान्बलभित्कुपितो भृशम् ॥ २४ ॥
ऐरावतं दिक्करिणमारूढः शुशुभे स्वराट्
यथा स्रवत्प्रस्रवणमुदयाद्रि महर्पतिः ॥ २५ ॥
तस्यासन्सर्वतो देवा नानावाहध्वजायुधाः
लोकपालाः सहगणैर्वाय्वग्निवरुणादयः ॥ २६ ॥

परीक्षित्‌ ! उस समय रंग-बिरंगी पताकाओं, स्फटिकमणि के समान श्वेत निर्मल छत्रों, रत्नों से जड़े हुए दण्डवाले बहुमूल्य पंखों, मोरपंखों, चँवरों और वायु से उड़ते हुए दुपट्टों, पगड़ी, कलँगी, कवच, आभूषण तथा सूर्य की किरणों से अत्यन्त दमकते हुए उज्ज्वल शस्त्रों एवं वीरों की पंक्तियों के कारण देवता और असुरोंकी सेनाएँ ऐसी शोभायमान हो रही थीं, मानो जल-जन्तुओं से भरे हुए दो महासागर लहरा रहे हों ॥ १३१५ ॥ परीक्षित्‌ ! रणभूमि में दैत्यों के सेनापति विरोचनपुत्र बलि मय दानवके बनाये हुए वैहायस नामक विमानपर सवार हुए। वह विमान चलानेवाले की जहाँ इच्छा होती थी, वहीं चला जाता था ॥ १६ ॥ युद्धकी समस्त सामग्रियाँ उसमें सुसज्जित थीं। परीक्षित्‌! वह इतना आश्चर्यमय था कि कभी दिखलायी पड़ता तो कभी अदृश्य हो जाता। वह इस समय कहाँ हैजब इस बातका अनुमान भी नहीं किया जा सकता था, तब बतलाया तो कैसे जा सकता था ॥ १७ ॥ उसी श्रेष्ठ विमानपर राजा बलि सवार थे। सभी बड़े-बड़े सेनापति उनको चारों ओरसे घेरे हुए थे। उनपर श्रेष्ठ चमर डुलाये जा रहे थे और छत्र तना हुआ था। उस समय बलि ऐसे जान पड़ते थे, जैसे उदयाचलपर चन्द्रमा ॥ १८ ॥ उनके चारों ओर अपने-अपने विमानोंपर सेनाकी छोटी-छोटी टुकडिय़ोंके स्वामी नमुचि, शम्बर, बाण, विप्रचित्ति, अयोमुख, द्विमूर्धा, कालनाभ, प्रहेति, हेति, इल्वल, शकुनि, भूतसन्ताप, वज्रदंष्ट्र, विरोचन, हयग्रीव, शङ्कुशिरा, कपिल, मेघदुन्दुभि, तारक, चक्राक्ष, शुम्भ, निशुम्भ, जम्भ, उत्कल, अरिष्ट, अरिष्टनेमि, त्रिपुराधिपति मय, पौलोम, कालेय और निवातकवच आदि स्थित थे ॥ १९२२ ॥ ये सब-के-सब समुद्रमन्थनमें सम्मिलित थे। परंतु इन्हें अमृतका भाग नहीं मिला, केवल क्लेश ही हाथ लगा था। इन सब असुरोंने एक नहीं अनेक बार युद्धमें देवताओंको पराजित किया था ॥ २३ ॥ इसलिये वे बड़े उत्साहसे सिंहनाद करते हुए अपने घोर स्वरवाले शङ्ख बजाने लगे। इन्द्रने देखा कि हमारे शत्रुओंका मन बढ़ रहा है, ये मदोन्मत्त हो रहे हैं; तब उन्हें बड़ा क्रोध आया ॥ २४ ॥ वे अपने वाहन ऐरावत नामक दिग्गजपर सवार हुए। उसके कपोलोंसे मद बह रहा था। इसलिये इन्द्रकी ऐसी शोभा हुई, मानो भगवान्‌ सूर्य उदयाचलपर आरूढ़ हों और उससे अनेकों झरने बह रहे हों ॥ २५ ॥ इन्द्रके चारों ओर अपने-अपने वाहन, ध्वजा और आयुधोंसे युक्त देवगण एवं अपने-अपने गणोंके साथ वायु, अग्नि, वरुण आदि लोकपाल हो लिये ॥ २६ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

देवासुर-संग्राम

श्रीशुक उवाच
इति दानवदैतेया नाविन्दन्नमृतं नृप
युक्ताः कर्मणि यत्ताश्च वासुदेवपराङ्मुखाः ॥ १ ॥
साधयित्वामृतं राजन्पाययित्वा स्वकान्सुरान्
पश्यतां सर्वभूतानां ययौ गरुडवाहनः ॥ २ ॥
सपत्नानां परामृद्धिं दृष्ट्वा ते दितिनन्दनाः
अमृष्यमाणा उत्पेतुर्देवान्प्रत्युद्यतायुधाः ॥ ३ ॥
ततः सुरगणाः सर्वे सुधया पीतयैधिताः
प्रतिसंयुयुधुः शस्त्रैर्नारायणपदाश्रयाः ॥ ४ ॥
तत्र दैवासुरो नाम रणः परमदारुणः
रोधस्युदन्वतो राजंस्तुमुलो रोमहर्षणः ॥ ५ ॥
तत्रान्योन्यं सपत्नास्ते संरब्धमनसो रणे
समासाद्यासिभिर्बाणैर्निजघ्नुर्विविधायुधैः ॥ ६ ॥
शङ्खतूर्यमृदङ्गानां भेरीडमरिणां महान्
हस्त्यश्वरथपत्तीनां नदतां निस्वनोऽभवत् ॥ ७ ॥
रथिनो रथिभिस्तत्र पत्तिभिः सह पत्तयः
हया हयैरिभाश्चेभैः समसज्जन्त संयुगे ॥ ८ ॥
उष्ट्रैः केचिदिभैः केचिदपरे युयुधुः खरैः
केचिद्गौरमृगैर्ॠक्षैर्द्वीपिभिर्हरिभिर्भटाः ॥ ९ ॥
गृध्रैः कङ्कैर्बकैरन्ये श्येनभासैस्तिमिङ्गिलैः
शरभैर्महिषैः खड्गैर्गोवृषैर्गवयारुणैः ॥ १० ॥
शिवाभिराखुभिः केचित्कृकलासैः शशैर्नरैः
बस्तैरेके कृष्णसारैर्हंसैरन्ये च सूकरैः ॥ ११ ॥
अन्ये जलस्थलखगैः सत्त्वैर्विकृतविग्रहैः
सेनयोरुभयो राजन्विविशुस्तेऽग्रतोऽग्रतः ॥ १२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! यद्यपि दानवों और दैत्यों ने बड़ी सावधानी से समुद्रमन्थन की चेष्टा की थी, फिर भी भगवान्‌ से विमुख होने के कारण उन्हें अमृतकी प्राप्ति नहीं हुई ॥ १ ॥ राजन् ! भगवान्‌ने समुद्रको मथकर अमृत निकाला और अपने निजजन देवताओंको पिला दिया। फिर सबके देखते-देखते वे गरुड़पर सवार हुए और वहाँसे चले गये ॥ २ ॥ जब दैत्योंने देखा कि हमारे शत्रुओंको तो बड़ी सफलता मिली, तब वे उनकी बढ़ती सह न सके। उन्होंने तुरंत अपने हथियार उठाये और देवताओंपर धावा बोल दिया ॥ ३ ॥ इधर देवताओंने एक तो अमृत पीकर विशेष शक्ति प्राप्त कर ली थी और दूसरे उन्हें भगवान्‌ के चरणकमलोंका आश्रय था ही। बस, वे भी अपने अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित हो दैत्योंसे भिड़ गये ॥ ४ ॥ परीक्षित्‌ ! क्षीरसागरके तटपर बड़ा ही रोमाञ्चकारी और अत्यन्त भयङ्कर संग्राम हुआ। देवता और दैत्योंकी वह घमासान लड़ाई ही देवासुर-संग्रामके नामसे कही जाती है ॥ ५ ॥ दोनों ही एक-दूसरेके प्रबल शत्रु हो रहे थे, दोनों ही क्रोधसे भरे हुए थे। एक-दूसरेको आमने-सामने पाकर तलवार, बाण और अन्य अनेकानेक अस्त्र-शस्त्रोंसे परस्पर चोट पहुँचाने लगे ॥ ६ ॥ उस समय लड़ाईमें शङ्ख, तुरही, मृदङ्ग, नगारे और डमरू बड़े जोरसे बजने लगे; हाथियोंकी चिग्घाड़, घोड़ोंकी हिनहिनाहट, रथोंकी घरघराहट और पैदल सेनाकी चिल्लाहट से बड़ा कोलाहल मच गया ॥ ७ ॥ रणभूमिमें रथियोंके साथ रथी, पैदलके साथ पैदल, घुड़सवारों के साथ घुड़सवार एवं हाथीवालोंके साथ हाथीवाले भिड़ गये ॥ ८ ॥ उनमेंसे कोई-कोई वीर ऊँटोंपर, हाथियोंपर और गधोंपर चढक़र लड़ रहे थे तो कोई-कोई गौरमृग, भालू, बाघ और सिंहोंपर ॥ ९ ॥ कोई-कोई सैनिक गिद्ध, कङ्क, बगुले, बाज और भास पक्षियोंपर चढ़े हुए थे तो बहुत-से तिमिङ्गिल मच्छ, शरभ, भैंसे, गैंड़े, बैल, नीलगाय और जंगली साँड़ों पर सवार थे ॥ १० ॥ किसी-किसी ने सियारिन, चूहे, गिरगिट और खरहों पर ही सवारी कर ली थी तो बहुत-से मनुष्य, बकरे, कृष्णसार मृग, हंस और सूअरों पर चढ़े थे ॥ ११ ॥ इस प्रकार जल, स्थल एवं आकाश में रहनेवाले तथा देखने में भयङ्कर शरीरवाले बहुत-से प्राणियोंपर चढक़र कई दैत्य दोनों सेनाओं में आगे-आगे घुस गये ॥ १२ ॥

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रविवार, 29 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

मोहिनीरूप से भगवान्‌ के द्वारा अमृत बाँटा जाना

एवं सुरासुरगणाः समदेशकाल
     हेत्वर्थकर्ममतयोऽपि फले विकल्पाः ।
तत्रामृतं सुरगणाः फलमञ्जसापुः
     यत्पादपंकजरजःश्रयणान्न दैत्याः ॥ २८ ॥
यद् युज्यतेऽसुवसुकर्ममनोवचोभिः
     देहात्मजादिषु नृभिस्तदसत्पृथक्त्वात् ।
तैरेव सद्‍भवति यत् क्रियतेऽपृथक्त्वात्
     सर्वस्य तद्‍भवति मूलनिषेचनं यत् ॥ २९ ॥

परीक्षित्‌ ! देखोदेवता और दैत्य दोनोंने एक ही समय एक स्थानपर एक प्रयोजन तथा एक वस्तुके लिये एक विचारसे एक ही कर्म किया था, परंतु फलमें बड़ा भेद हो गया। उनमेंसे देवताओंने बड़ी सुगमतासे अपने परिश्रमका फलअमृत प्राप्त कर लिया, क्योंकि उन्होंने भगवान्‌ के चरणकमलोंकी रजका आश्रय लिया था। परंतु उससे विमुख होनेके कारण परिश्रम करनेपर भी असुरगण अमृतसे वञ्चित ही रहे ॥ २८ ॥ मनुष्य अपने प्राण, धन, कर्म, मन और वाणी आदिसे शरीर एवं पुत्र आदिके लिये जो कुछ करता हैवह व्यर्थ ही होता है; क्योंकि उसके मूलमें भेदबुद्धि बनी रहती है। परंतु उन्हीं प्राण आदि वस्तुओंके द्वारा भगवान्‌के लिये जो कुछ किया जाता है, वह सब भेदभावसे रहित होनेके कारण अपने शरीर, पुत्र और समस्त संसारके लिये सफल हो जाता है। जैसे वृक्षकी जड़में पानी देनेसे उसका तना, टहनियाँ और पत्तेसब-के-सब सिंच जाते हैं, वैसे ही भगवान्‌ के लिये कर्म करने से वे सब के लिये हो जाते हैं ॥ २९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे अमृतमथने नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

मोहिनीरूप से भगवान्‌ के द्वारा अमृत बाँटा जाना

देवलिङ्‌गप्रतिच्छन्नः स्वर्भानुर्देवसंसदि ।
प्रविष्टः सोममपिबत् चन्द्रार्काभ्यां च सूचितः ॥ २४ ॥
चक्रेण क्षुरधारेण जहार पिबतः शिरः ।
हरिस्तस्य कबन्धस्तु सुधयाप्लावितोऽपतत् ॥ २५ ॥
शिरस्त्वमरतां नीतं अजो ग्रहमचीकॢपत् ।
यस्तु पर्वणि चन्द्रार्कौ अभिधावति वैरधीः ॥ २६ ॥
पीतप्रायेऽमृते देवैः भगवान् लोकभावनः ।
पश्यतां असुरेन्द्राणां स्वं रूपं जगृहे हरिः ॥ २७ ॥

जिस समय भगवान्‌ देवताओंको अमृत पिला रहे थे, उसी समय राहु दैत्य देवताओंका वेष बनाकर उनके बीचमें आ बैठा और देवताओंके साथ उसने भी अमृत पी लिया। परंतु तत्क्षण चन्द्रमा और सूर्यने उसकी पोल खोल दी ॥ २४ ॥ अमृत पिलाते-पिलाते ही भगवान्‌ने अपने तीखी धारवाले चक्रसे उसका सिर काट डाला। अमृतका संसर्ग न होनेसे उसका धड़ नीचे गिर गया ॥ २५ ॥ परंतु सिर अमर हो गया और ब्रह्माजीने उसे ग्रहबना दिया। वही राहु पर्वके दिन (पूर्णिमा और अमावस्याको) वैर-भावसे बदला लेनेके लिये चन्द्रमा तथा सूर्यपर आक्रमण किया करता है ॥ २६ ॥ जब देवताओंने अमृत पी लिया, तब समस्त लोकोंको जीवनदान करनेवाले भगवान्‌ने बड़े-बड़े दैत्योंके सामने ही मोहिनीरूप त्यागकर अपना वास्तविक रूप धारण कर लिया ॥ २७ ॥

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शनिवार, 28 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

मोहिनीरूप से भगवान्‌ के द्वारा अमृत बाँटा जाना

कल्पयित्वा पृथक् पंक्तीः उभयेषां जगत्पतिः ।
तांश्चोपवेशयामास स्वेषु स्वेषु च पंक्तिषु ॥ २० ॥
दैत्यान् गृहीतकलसो वञ्चयन् उपसञ्चरैः ।
दूरस्थान् पाययामास जरामृत्युहरां सुधाम् ॥ २१ ॥
ते पालयन्तः समयं असुराः स्वकृतं नृप ।
तूष्णीमासन्कृतस्नेहाः स्त्रीविवादजुगुप्सया ॥ २२ ॥
तस्यां कृतातिप्रणयाः प्रणयापायकातराः ।
बहुमानेन चाबद्धा नोचुः किञ्चन विप्रियम् ॥ २३ ॥

भगवान्‌ ने देवता और असुरोंकी अलग-अलग पंक्तियाँ बना दीं और फिर दोनोंको कतार बाँधकर अपने-अपने दलमें बैठा दिया ॥ २० ॥ इसके बाद अमृतका कलश हाथमें लेकर भगवान्‌ दैत्योंके पास चले गये। उन्हें हाव-भाव और कटाक्षसे मोहित करके दूर बैठे हुए देवताओंके पास आ गये तथा उन्हें अमृत पिलाने लगे, जिसे पी लेनेपर बुढ़ापे और मृत्युका नाश हो जाता है ॥ २१ ॥ परीक्षित्‌ ! असुर अपनी की हुई प्रतिज्ञाका पालन कर रहे थे। उनका स्नेह भी हो गया था और वे स्त्रीसे झगडऩेमें अपनी निन्दा भी समझते थे। इसलिये वे चुपचाप बैठे रहे ॥ २२ ॥ मोहिनीमें उनका अत्यन्त प्रेम हो गया था। वे डर रहे थे कि उससे हमारा प्रेम-सम्बन्ध टूट न जाय। मोहिनीने भी पहले उन लोगोंका बड़ा सम्मान किया था, इससे वे और भी बँध गये थे। यही कारण है कि उन्होंने मोहिनीको कोई अप्रिय बात नहीं कही ॥ २३ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

मोहिनीरूप से भगवान्‌ के द्वारा अमृत बाँटा जाना

प्राङ्‌मुखेषूपविष्टेषु सुरेषु दितिजेषु च ।
धूपामोदितशालायां जुष्टायां माल्यदीपकैः ॥ १६ ॥
तस्यां नरेन्द्र करभोरुरुशद्दुकूल
     श्रोणीतटालसगतिर्मदविह्वलाक्षी ।
सा कूजती कनकनूपुरशिञ्जितेन
     कुम्भस्तनी कलसपाणिरथाविवेश ॥ १७ ॥
तां श्रीसखीं कनककुण्डलचारुकर्ण
     नासाकपोलवदनां परदेवताख्याम् ।
संवीक्ष्य सम्मुमुहुरुत्स्मितवीक्षणेन
     देवासुरा विगलित स्तनपट्टिकान्ताम् ॥ १८ ॥
असुराणां सुधादानं सर्पाणामिव दुर्नयम् ।
मत्वा जातिनृशंसानां न तां व्यभजदच्युतः ॥ १९ ॥

जब देवता और दैत्य दोनों ही धूपसे सुगन्धित, मालाओं और दीपकोंसे सजे-सजाये भव्य भवनमें पूर्वकी ओर मुँह करके बैठ गये, तब हाथमें अमृतका कलश लेकर मोहिनी सभा मण्डपमें आयी। वह एक बड़ी सुन्दर साड़ी पहने हुए थी। नितम्बोंके भारके कारण वह धीरे-धीरे चल रही थी। आँखें मदसे विह्वल हो रही थीं। कलशके समान स्तन और गजशावक की सूँड क़े समान जङ्घाएँ थीं। उसके स्वर्णनूपुर अपनी झनकार से सभाभवन को मुखरित कर रहे थे ॥ १६-१७ ॥ सुन्दर कानों में सोनेके कुण्डल थे और उसकी नासिका, कपोल तथा मुख बड़े ही सुन्दर थे। स्वयं परदेवता भगवान्‌ मोहिनी के रूप में ऐसे जान पड़ते थे मानो लक्ष्मीजीकी कोई श्रेष्ठ सखी वहाँ आ गयी हो। मोहिनी ने अपनी मुसकानभरी चितवन से देवता और दैत्योंकी ओर देखा, तो वे सब-के-सब मोहित हो गये। उस समय उनके स्तनोंपरसे अञ्चल कुछ खिसक गया था ॥ १८ ॥ भगवान्‌ ने मोहिनीरूप में यह विचार किया कि असुर तो जन्मसे ही क्रूर स्वभाववाले हैं। इनको अमृत पिलाना सर्पों को दूध पिलाने के समान बड़ा अन्याय होगा। इसलिये उन्होंने असुरों को अमृत में भाग नहीं दिया ॥ १९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥  श्रीमद्भागवतमहापुराण  प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५) विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और  गान्धारीका वनमे...