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मंगलवार, 13 फ़रवरी 2024

# कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने । प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नम: ॥


 

 कुछ लोग वैष्णव- धाम को 'परमपद' कहते हैं, कोई वैकुण्ठ को परमेश्वर- का 'परमधाम' बताते हैं, कोई अज्ञानान्धकार से परे जो शान्तस्वरूप परमब्रह्म है, उसे 'परमपद' मानते हैं और कुछ लोग कैवल्य मोक्ष को ही 'परमधाम' की संज्ञा देते हैं। कोई अक्षरतत्त्व की उत्कृष्टता का प्रतिपादन करते हैं, कोई गोलोक धाम को ही सबका आदिकारण कहते हैं तथा कुछ लोग भगवान्‌ की निज लीलाओं से परिपूर्ण निकुञ्ज को ही 'सर्वोत्कृष्ट पद' बताते हैं ॥

मननशील मुनि इन सबके रूप में श्रीकृष्णपद को ही प्राप्त करता है ।

 

........गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग संहिता (विश्वजित्  खण्ड- ३३/२२-२३)

 




सोमवार, 2 अक्तूबर 2023

भगवद्भक्त का महत्त्व




 श्री परमात्मने नम:

 

श्रीभगवान् कहते हैं— मुझ में भक्ति रखनेवाला मानव मेरे गुणों से सम्पन्न होकर मुक्त हो जाता है । उसकी वृत्ति गुण का अनुसरण करने लगती है । वह सदा मेरी कथा – वार्ता में लगता है । मेरा गुणानुवाद सुनने मात्र से वह आनन्द में तन्मय हो उठता है । उसका शरीर पुलकित हो जाता है और वाणी गद्गद हो जाती है। उसकी आँखों में आँसू भर आते और वह अपनी सुधि-बुधि खो बैठता है । मेरी पवित्र सेवा में नित्य नियुक्त रहने के कारण सुख, चार प्रकार की सालोक्यादि मुक्ति,  ब्रह्मा का पद अथवा अमरत्व कुछ भी पाने की अभिलाषा वह नहीं करता । ब्रह्मा, इन्द्र एवं मनु की उपाधि तथा स्वर्ग के राज्य का सुख - ये सभी परम दुर्लभ है; किंतु मेरा भक्त स्वप्न में भी इनकी इच्छा नहीं करता ।

 

मद्भक्तियुक्तो मर्त्यश्च स मुक्तो मद्गुणान्वितः ।

मद्गुणाधीनवृत्तिर्यः कथाविष्टश्च संततम् ॥

मगुणश्रुतिमात्रेण सानन्दः पुलकान्वितः ।

सगद्गदः साश्रुनेत्रः स्वात्मविस्मृत एव च ॥

न वाञ्छति सुखं मुक्तिं सालोक्यादिचतुष्टयम् ।

ब्रह्मत्वममरत्वं वा तद्वाञ्छा मम सेवने ॥

इन्द्रत्वं च मनुत्वं च ब्रह्मत्वं च सुदुर्लभम् ।

स्वर्गराज्यादिभोगं च स्वप्नेऽपि च न वाञ्छति ॥

 

………..(देवीभागवत, नवम स्कन्ध )

......गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्मांक” पुस्तक से (कोड 572)

 




रविवार, 24 सितंबर 2023

# भक्तराज प्रह्लाद और ध्रुव #

|| ॐ नमो नारायणाय ||

 विश्व के भक्तों में भक्तप्रवर श्रीप्रह्लाद और ध्रुव की भक्ति, प्रेम, सहिष्णुता अत्यन्त ही अलौकिक थी। दोनों प्रातःस्मरणीय भक्त श्रीभगवान्‌ के विलक्षण प्रेमी थे।  प्रह्लादजी के निष्काम भाव की महिमा कही नहीं जा सकती।  आरंभ से ही इनमें पूर्ण निष्काम भाव था।  जब भगवान्‌ नृसिंहदेव ने इनसे वर मांगनेको कहा तब इन्होंने जवाब दिया कि ‘नाथ!  मैं क्या लेन देन करनेवाला व्यापारी हूं?  मैं तो आपका सेवक हूं, सेवक का काम मांगना नहीं है और स्वामी का कुछ दे दिलाकर सेवक को टाल देना नहीं है।’  परन्तु जब भगवान्‌ ने फिर आग्रह किया तो प्रह्लाद ने एक वरदान तो यह मांगा कि ‘मेरे पिता ने आपसे द्वेष करके आपकी भक्ति में बाधा पहुंचाने के लिये मुझपर जो अत्याचार किये, हे प्रभो!  आपकी कृपा से मेरे पिता उस दुष्कर्म से उत्पन्न हुए पाप से अभी छूट जायं।’ 

 ‘स्वत्प्रसादात्‌ प्रभो सद्यस्तेन मुच्यते मे पिता।’ 

 कितनी महानता है!  दूसरा वरदान यह मांगा कि ‘प्रभो!  यदि आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो यह दीजिये कि मेरे मन में कभी कुछ मांगने की अभिलाषा ही न हो।’  

 कितनी अद्भुत निष्कामता और दृढ़ता है।  पिता ने कितना कष्ट दिया, परन्तु प्रह्लादजी सब कष्ट सुखपूर्वक सहते रहे, पितासे कभी द्वेष नहीं किया, और अन्तमें महान्‌ निष्कामी होनेपर भी पिताका अपराध क्षमा करनेके लिये भगवान्‌ से प्रार्थना की!

 भक्तवर ध्रुवजी में एक बातकी और विशेषता है, उनमें अपनी सौतेली माता सुरुचीजीके लिये भगवान्‌ से यह कहा कि ‘नाथ!  मेरी माताने यदि मेरा तिरस्कार न किया होता तो आज आपके दुर्लभ दर्शनका अलभ्य लाभ मुझे कैसे मिलता?  माता ने बड़ा ही उपकार किया है।’  इस तरह दोषमें उल्टा गुणका आरोप कर उन्होंने भगवान्‌ से सौतेली माँ के लिये मुक्तिका वरदान मांगा।  कितने मह्त्त्व की बात है!

 पर इससे यह नहीं समझना चाहिये, कि भक्तवर प्रह्लादजी ने पिता में दोषारोपण कर भगवान्‌ के सामने उसे अपराधी बतलाया, इससे उनका भाव नीचा है।  ध्रुवजी की सौतेली माताने ध्रुवसे द्वेष किया था, उनके इष्टदेव भगवान्‌ से नहीं, परन्तु प्रह्लादजी के पिता हिरण्यकशिपु ने तो प्रह्लाद के इष्टदेव भगवान्‌ से द्वेष किया था।  अपने प्रति किया हुआ दोष तो भक्त मानते ही नहीं, फिर माता-पिताद्वारा किया हुआ तिरस्कार तो उत्तम फलका कारण होता है।  इसलिये ध्रुवजीका मातामें गुणका आरोप करना उचित ही था।  परन्तु प्रह्लादजी के तो इष्टदेवका तिरस्कार था।  प्रह्लादजीने अपनेको कष्ट देनेवाला जानकर पिताको दोषी नहीं बतलाया, उन्होंने भगवान्‌ से उनका अपराध  करनेके लिये क्षमा मांगकर पिताका उद्धार चाहा।

 बहुतसी बातोंमें एकसे होनेपर भी प्रह्लादजी में निष्काम भावकी विशेषता थी और ध्रुवजीमें सौतेली माताके प्रति गुणारोप कर उसके लिये मुक्ति मांगनेकी ! वास्तवमें दोनों ही विलक्षण भक्त थे।  भगवान्‌ का दर्शन करनेके लिये दोनोंकी ही प्रतिज्ञा अटल थी, दोनोंने उसको बड़ी ही दृढ़ता और तत्परता से पूरा किया।  प्रह्लादजी ने घरमें पिता के द्वारा दिये हुए कष्ट प्रसन्न मन से सहे, तो ध्रुवजी ने वनमें अनेक कष्टोंको सानन्द सहन किया।  नियमोंसे कोई किसीप्रकार भी नहीं हटे, अपने सिद्धान्तपर दृढ़तासे डटे रहे, कोई भी भय या प्रलोभन उन्हें तनिक सा भी नहीं झुका सका।

 वास्तवमें दोनों ही परम आदर्श और वन्दनीय हैं, हमें दोनों ही के जीवनसे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये।

 
...........००३. १२. आषाढ़ कृष्ण ११  सं०१९८६वि० कल्याण  (पृ०१०५२ )


# श्री राम जय राम जय जय राम #

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई ॥ 

अर्थ- श्रीहनुमान् जी कहते हैं- 'हे प्रभो! विपत्ति वही है कि जब आपका भजन-स्मरण नहीं होता !

श्रीहनुमान् जी विपत्ति की परिभाषा बतलाते हैं। जिस समय सुमिरन-भजन न हो उसी समयका नाम विपत्ति है। सुमिरन-भजन न होने का मतलब संसार की ओर उन्मुख होना है। दूसरे शब्दोंमें यह कहा जा सकता है कि मनका बहिर्मुख होना ही विपत्ति है। शङ्कर भगवान् कहते हैं कि 'सत हरि भजन जगत सब सपना।' 'सपना' का भाव यह है कि सब जगत् क्षणभङ्गुर है। क्षणभङ्गुर का नाश ही होगा, अत: उसमें मन लगाने वाले को पदे-पदे विपत्ति है। 

जो आपका नाम-स्मरण करनेवाले हैं उनके स्मरणमें बाधा पड़ती है तो उनको विपत्ति वही है और उनके लिये दूसरी कोई विपत्ति नहीं है। पुनः जो आपकी सेवा करनेवाले भक्त हैं। आपकी सेवामें जब बाधा पड़ती है, उनसे आपकी सेवा नहीं होती तो उनकी विपत्ति वही है और दूसरी विपत्ति उनके लिये नहीं है। ....(मानस पीयूष ६/३२-३)


शनिवार, 23 सितंबर 2023

मनन करने योग्य

रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम:


1- ‘पुत्र, स्त्री और धनसे सच्ची तृप्ति नहीं हो सकती । यदि होती तो अब तक किसी न किसी योनि में हो ही जाती । सच्ची तृप्तिका विषय है, केवल परमात्मा।  जिसके मिल जाने पर जीव सदा के लिये तृप्त हो जाता है।’

2-‘दुःख मनुष्यत्व के विकास का साधन है । सच्चे मनुष्य का जीवन दुःख में ही खिल उठता है।  सोने का रङ्ग तपाने पर ही चमकता है।’

3-‘नित्य हँसमुख रहो, मुखको मलीन कभी न करो, यह निश्चय कर लो कि चिन्ता ने तुम्हारे लिये जगत्‌ में जन्म ही नहीं लिया, आनन्दस्वरूप में सिवा हँसने के चिन्ता को स्थान ही कहां है।’

4-‘सर्वत्र परमात्मा की मधुर मूर्ति देखकर आनन्द में मग्न रहो, जिसको उसकी मूर्ति सब जगह दीखती है वह तो स्वयं आनन्दस्वरूप ही है।’

5-‘शान्ति तो तुम्हारे अन्दर है।  कामनारूप डाकिनी का आवेश उतरा कि शान्ति के दर्शन हुए।  वैराग्य के महामन्त्र से कामना को भगा दो, फिर देखो सर्वत्र शान्ति की शान्त मूरति।’

6-‘जहां सम्पत्ति है वहीं सुख है, परन्तु सम्पत्ति के भेदसे ही सुख का भी भेद है ।  दैवी सम्पत्तिवालों को परमात्मसुख है और आसुरीवालोंको आसुरीसुख, नरक के कीड़ों को नरक सुख।’

7-‘किसी भी अवस्थामें मनको व्यथित मत होने दो, याद रक्खो परमात्मा के यहाँ कभी भूल नहीं होती और न उसका कोई विधान दयासे रहित ही होता है।’

8-‘परमात्मा पर विश्वास रखकर अपनी जीवन डोर उसके चरणों में बांध दो, फिर निर्भयता तो तुम्हारे चरणों की दासी बन जायगी ।’

9-‘बीते हुए की चिन्ता न करो, जो अब करना है उसे विचारो और विचारो यही कि बाकी का सारा जीवन केवल उस परमात्माके ही काम में आवे ।’

10-‘धन्य वही है, जिसके जीवन का एक एक क्षण अपने प्रियतम प्यारे के मन की अनुकूलता में बीतता है ।  चाहे वह अनुकूलता संयोग में हो  या वियोग में, स्वर्गमें हो या नरक में, मान में हो या अपमान में, मुक्ति में हो या बन्धन में ।’

11-‘सदा अपने हृदयको देखते रहो, कहीं उसमें काम, क्रोध, वैर, ईर्षा, घृणा, मान और मदरूपी शत्रु घर न कर लें ।  इनमेंसे जिस किसीको भी देखो, तुरन्त मारकर भगा दो।  पर देखना बड़ी बारीक नजरसे सचेत होकर, ये चुपके से अन्दर आकर छिप जाते हैं और मौका देखकर अपना विकरालरूप दिखलाते हैं।  

12-‘किसी के भी ऊपर के आचरणों को देखकर उसे पापी मत मानो ।  हो सकता है उस पर मिथ्या ही दोषारोपण किया जाता हो और वह उससे अपने को निर्दोष सिद्ध करने की परिस्थिति में न हो।  अथवा यह भी सम्भव है कि उसने किसी परिस्थिति में पड़कर अनिच्छा से कोई बुरा कर्म कर लिया हो, परन्तु उसका अन्तःकरण तुमसे अधिक पवित्र हो।’
            
…....००२. ०६. पौष सं० १९८४वि०.कल्याण( पृ० ३०२ )


मंगलवार, 22 अगस्त 2023

सच्चा सुधारक... गोस्वामी तुलसीदास जी (पोस्ट ०२)



दिनरात भजनमें संलग्न रहनेपर भी तुलसीदासजी कहते हैं-

तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पापपुञ्जहारी॥

कितना बड़ा आत्म-विश्लेषण है !

हम आजकल तनिक सा पूजा-पाठ करके अपने को कृतार्थ समझ लेते हैं और उस कृतकृत्य की आड़में मनमाने पाप करनेमें भी नहीं सकुचाते। इतना होनेपर भी लोगों के सामने बड़े भक्त, सदाचारी और निर्दोष बननेका दावा करते हैं । पर गोस्वामी जी महाराज जैसे परम पवित्र महापुरुष जीवनभर सच्ची भक्ति और मानसिक भजन में लगे रहनेपर भी अपनी मानवीय दुर्बलताओं को अपने इष्टदेव श्रीरामके सामने कितनी स्पष्टतासे प्रकट करते हैं। यही उनके सच्चे सुधारक होनेका ज्वलन्त प्रमाण है। आप बड़े ही आर्त्त भावसे कहते हैं-

कौन जतन बिनती करिये।
निज आचरन बिचारि हारि हिय मानि जानि डरिये॥
जेहि साधन हरि द्रवहु जानि जन सो हठि परिहरिये। 
जाते विपत्ति-जाल निसिदिन दुख तोहि पथ अनुसरिये॥
जानत हूं मन बचन करम पर-हित कीन्हें तरिये।
सो विपरीत देखि परसुख बिनु कारन ही जरिये॥
स्रुति पुरान सबको मत यह सत्संग सुदृढ़ धरिये।
निज अभिमान मोह ईर्षावस तिनहिं न आदरिये॥
संतत सोइ प्रिय मोहिं सदा जाते भवनिधि परिये।
कहो, अब नाथ ! कौन बलतें संसार-सोक हरिये॥
जब कब निज करुना-सुभावतें द्रवहु तो निस्तरिये।
तुलसिदास बिस्वास आन नहिं कत पचि पचि मरिये॥

अपने दोषों के वर्णन के साथ ही करुणामय नाथ पर कितना भरोसा है। दूसरों को उपदेश देकर उनका सुधार करनेवाले और भगवान्‌ के आश्रय की उपेक्षा करने वाले आत्म-विस्मृत हम लोगों को गोस्वामी जी महाराज की इस विनय से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये।

गोस्वामी जी महाराज के इस आत्मसंशोधन के कार्य को उनके सद्‌ग्रन्थों द्वारा जानकर हमें अपनी दुर्बलताओं का अनुभव करके एकमात्र सर्वगुणाधार सर्वनियन्ता सर्वशक्तिमान भगवान्‌ की शरण ग्रहण करनेके लिये तैयार हो जाना चाहिये। भगवान्‌ की शरण से समस्त पापों का नाश होकर सारा सुधार स्वयमेव हो जायगा।

भगवान्‌ की यह घोषणा याद रखनी चाहिये—

सर्वधर्मान्‌ परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

( बाबा राघवदासजी )

..................००४.०२.भाद्रपद कृष्ण ११ सं०१९८६. कल्याण (पृ०५७१)


सच्चा सुधारक... गोस्वामी तुलसीदास जी (पोस्ट ०१)



स्वामी रामतीर्थजी ने एक बार कहा था कि ‘एफ़ोर्मेर्स, नोत ओफ़ ओथेर्स बुत ओफ़ थेम्सेल्वेस, व्हो एअर्नेद नो उनिवेर्सित्य दिस्तिन्च्तिओन बुत चोन्त्रोल ओवेर थे लोचल सेल्फ़’ अर्थात्‌ हमें ऐसे सुधारक चाहिये जो दूसरों का नहीं, पर अपना सुधार करना चाहते हैं, जिन्हें विश्वविद्यालय की उपाधियां प्राप्त नहीं हैं, पर जो अपने आत्मा पर शासन कर सकते हैं ।*

संसार में जिन महापुरुषों ने ऐसा किया है, उनमें भगवद्भक्ति-परायण पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज का नाम विशेष उल्लेखनीय है । गोस्वामीजी महाराज ने जो कुछ सुधार का काम किया सो केवल अपने ही सुधारका किया । वे आजकल की भांति आत्मनिरीक्षण न कर पराये सुधार का दम नहीं भरते थे। उनके जीवन में ऐसे प्रसंग नहीं के बराबर हैं जिनमें उन्होंने दूसरों को उपदेश देने के लिये कभी प्रवचन आदि किया हो। अपने जगत्‌-प्रसिद्ध पुण्य-ग्रन्थ श्रीरामचरितमानस के आरम्भमें आप कहते हैं-

“स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा,
भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति।“

मानस में वन्दना करते समय तो आपने बड़ी ही खूबी से आत्म-संशोधन का कार्य किया है । आपने कहा है-

आकर चारि लाख चौरासी।
जाति जीव जल थल नभबासी॥
सीयराममय सब जग जानी।
करौं प्रणाम जोरि जुग पानी॥
जानि कृपा करि किंकर मोहू।
सब मिलि करहु छाँड़ि छल छोहु॥
निज बल बुधि भरोस मोहि नाहीं।
तातें विनय करौं सब पाही॥
आज जिसके भक्ति-सुधा-पूर्ण महान्‌ काव्य की धूम सारे संसार में मच रही है, जो जगत्‌ का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है, जिसकी उपर्युक्त पंक्तियों में भी अनुप्रास प्रासादिक भरे हैं, वह हृदयके सच्चे भावों से किस प्रकार सब के आशीर्वाद का इच्छुक है। कितना बड़ा आत्म-संशोधन है ! सर्वव्यापी भगवान्‌ के सर्वव्यापीपन में कैसी विलक्षण एकनिष्ठा है !
आपका दूसरा प्रसिद्ध और लोकप्रिय ग्रन्थ विनयपत्रिका है, वह तो उनके आत्म-संशोधन का एक अनुपम संग्रह है । एक जगह आप कितनी दीनता के साथ भगवान्‌ से अपने उद्धार के लिये प्रार्थना करते हैं-

माधव अब न द्रवहु केहि लेखे।
प्रनतपाल पन तोर मोर पन जिअहु कमल पद लेखे॥
जबलगि मैं न दीन, दयालु तैं, मैं न दास तैं स्वामी।
तबलगि जो दुख सहेउं कहेउं नहिं जद्यपि अन्तरजामी।
तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत स्रुति गावै।
बहुत नात रघुनाथ तोहि मोहि अब न तजै बनि आवै॥

यह केवल दिखाने के लिये शब्द-रचनामात्र नहीं है, गोस्वामी जी महाराज अपने प्रभु के सम्मुख हृदय खोलकर रख रहे हैं और विनयपूर्वक अपने उद्धार के लिये प्रार्थना कर रहें हैं । इतना ही नहीं वे अपने मन-इन्द्रियों से भी इस कार्य में सहायता चाहते हैं-

रुचिर रसना तू राम राम क्यों न रटत।
सुमिरत सुख सुकृत बढ़त अघ अमंगल घटत॥

एक स्थानपर आप अपने उद्धार-कार्यों को लोगों की दृष्टि में अधिक चढ़ा हुआ देखकर बड़ी ग्लानि से कहते हैं-

लोक कहै रामको गुलाम हौं कहावौं।
एतो बड़ो अपराधको न मन बावौं॥
पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी ज्यों नीचो।
बोरत न बारि ताहि जानि आपु सींचो॥
...........................................................................
(* भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने भी श्रीगीतोक्त अमृतोपदेश में यही उपदेश दिया है-‘उद्धरेदात्मनात्मानम्‌’ आप ही अपना उद्धार करे। )
( बाबा राघवदासजी )

शेष आगामी पोस्ट में ---
.......००४. ०२.भाद्रपद कृष्ण ११ सं०१९८६. कल्याण (पृ०५७१)


जय श्री कृष्ण



मेरे लिये तो जहाँ तुम हो, वहीं काशी है, वहीं द्वारका है ।  वहीं मक्का है और वहीं जेरूसलेम है ।  मुझे ऐसे ही तरण-तारण तीर्थों में ले चलो, मेरे नाथ ! 

 जहाँ भी तुम्हारे प्रेम-रस की विमल धारा बहती हो, वहीं गङ्गा है, वहीं जमुना है और वहीं आबे ज़मज़म है ।  मुझे ऐसी ही सरस सरिताओं की लहरों पर धीरे-धीरे झुलाते रहो, मेरे हृदय-रमण !

 जहाँ कहीं भी तुम्हारी प्यारी झलक देखने को मिलती हो, मेरी नज़र में, वहीं मन्दिर है, वहीं मसज़िद है और वहीं गिरिजा है ।  मेरा आसन किसी ऐसे उपासना-स्थल में जमा दो, मेरे स्वामी !

(श्रीवियोगी हरिजी)
………..००४.०६.पौष कृष्ण ११ सं० १९८६वि०-कल्याण (पृ०८३८)


बुधवार, 12 जुलाई 2023

भगवत्‌-प्राप्ति क्यों नहीं होती ? (पोस्ट ०२)

||ॐ श्री परमात्मने नम:||


एक महापुरुष कहा करते, ‘मान लो, एक घर में चोर घुसा है, उसे यह पता लग गया है कि बगल के ही घर में सोने का ढेर है। बीच में एक पतली सी कमजोर दीवार है। इस अवस्था में चोर के मन की क्या स्थिति होगी? उसको न नींद आवेगी, न भूख लगेगी, वह सब कुछ भूल जायगा, उसे केवल एक ही बात का स्मरण रहेगा, कैसे दीवाल में सेंध लगाकर सोना निकाला जाय।’ क्या तुम कह सकते हो कि यदि मनुष्य को इस बात का यथार्थ विश्वास होता कि सम्पूर्ण आनन्द और महिमा की खान स्वयं भगवान्‌ यहां हैं, तब क्या उसका मन उसे छोड़कर तुच्छ सांसारिक कामों में लग सकता? जब मनुष्य को यह यथार्थ विश्‍वास हो जाता है कि ‘भगवान्‌’ हैं तभी उन्हें प्राप्त करने के लिये उसके मनमें प्रबल आकांक्षा उत्पन्न होकर उसको पागल बना देती है!
……….००३. १०. ज्येष्ठ कृष्ण ११ सं० १९८६. कल्याण (पृ० १०१४)


भगवत्‌-प्राप्ति क्यों नहीं होती ? (पोस्ट ०१)( स्वामी विवेकानन्द )

||ॐ श्री परमात्मने नम:।।

एक शिष्य ने गुरु के पास जाकर कहा ‘प्रभो! मुझे भगवत्‌-प्राप्ति की इच्छा है।’ गुरु एक बार उसके चेहरे की ओर ताक कर तनिक मुस्कुरा दिये, कुछ बोले नहीं। शिष्य रोज रोज जाकर कहने लगा, ‘महाराज! मुझे भगवत्‌-प्राप्ति का उपाय बतलाना ही पड़ेगा।’ कैसे क्या होता है, इस बातको गुरु जी समझते थे। एक दिन गर्मी के दिनों में गुरुजी अपने शिष्य को साथ लेकर नदी नहाने गये। ज्योंही शिष्य ने नदी में डुबकी लगायी त्योंही गुरुजी ने दौड़कर उसकी गरदन दबा दी। शिष्य बाहर निकलने के लिये खूब ही तलमलाया। थोड़ी देर बाद गुरुजी ने उसे छोड़ दिया, बाहर निकलने पर उससे पूछा कि, ‘बताओ! जब तुम जलके भीतर थे, तब तुम्हारे प्राण सब से अधिक किस बात के लिये छटपटा रहे थे? उसने कहा ‘हवा के अभाव से प्राण निकले जा रहे थे।’ तब गुरुजी ने कहा, भाई! जैसे उस समय तुम हवा बिना छटपटाते थे, क्या भगवान्‌ के बिना ऐसी छटपटाहट तुम्हारे हृदयमें कभी हुई? जब वैसी छटपटाहट होगी, तभी तुम्हें भगवान्‌ मिल जायंगे। जब तक तीव्र पिपासा और तीव्र चाहना नहीं जाग उठती, तब तक चाहे जितना तर्क, विचार, अध्ययन या बाहरी अनुष्ठान किया जाय, उससे कुछ भी लाभ नहीं होता!

शेष आगामी पोस्ट में -----

………..००३. १०. ज्येष्ठ कृष्ण ११ सं० १९८६. कल्याण (पृ० १०१४)


मंगलवार, 4 जुलाई 2023

पार ब्रह्म परमेश्वर तुम सबके स्वामी (पोस्ट 02)



श्रीराम, माँ कौसल्या से कहते हैं कि अब इस निर्गुण भक्ति का साधन बतलाता हूँ--- 

अपने धर्म का अत्यंत निष्काम भाव से आचरण करने से, अत्युत्तम हिंसाहीन कर्मयोग से  मेरे दर्शन, स्तुति, महापूजा, स्मरण और वंदन से, प्राणियों में मेरी भावना करने से, असत्य के त्याग और सत्संग से, महापुरुषों का अत्यन्त मान करने से, दु:खियों पर दया करने से, अपने समान पुरुषों से मैत्री करने से, वेदान्तवाक्यों का श्रवण करने से, मेरा नाम-संकीर्तन करने से, सत्संग और कोमलता से, अहंकार का त्याग करने से और मेरे भागवत-धर्मों की इच्छा करने से जिसका चित्त शुद्ध होगया है, वह पुरुष मेरे गुणों का श्रवण करने से ही अति सुगमता से मुझे प्राप्त करलेता है |  जिस प्रकार वायु के द्वारा गन्ध अपने आश्रय को छोड़कर घ्राणेन्द्रिय में प्रविष्ट होता है, उसी प्रकार योगाभ्यास में लगा हुआ चित्त आत्मा में लीन हो जाता है | 

समस्त प्राणियों में आत्मरूप से मैं ही स्थित हूँ, हे मात: ! उसे  न जानकर मूढ़ पुरुष केवल बाह्य भावना करता है | किन्तु क्रियासे उत्पन्न हुए  अनेक पदार्थों से भी मेरा संतोष नहीं होता | अन्य  जीवों का तिरस्कार करने वाले प्राणियों से  प्रतिमा में  पूजित होकर भी मैं वास्तव में पूजित नहीं होता | मुझ परमात्मदेव का अपने कर्मों द्वारा प्रतिमा आदि में तभी तक पूजन करना चाहिए जब तक कि समस्त प्राणियों में और अपने-आप में मुझे स्थित न जाने | जो अपने आत्मा और  परमात्मा में भेदबुद्धि करता है उस भेददर्शी को मृत्यु अवश्य भय उत्पन्न करती है,इसमें संदेह नहीं |

इसलिए अभेददर्शी भक्त समस्त परिछिन्न प्राणियों में स्थित मुझ एकमात्र परमात्मा का ज्ञान, मान और मैत्री आदि से पूजन करे | इस प्रकार मुझ शुद्ध चेतना को ही जीवरूप से स्थित जानकर बुद्धिमान पुरुष  अहर्निश सब प्राणियों को चित्त से ही प्रमाण करे | इसलिए जीव और ईश्वर का भेद कभी न देखे |  हे मात: ! मैंने तुमसे यह भक्तियोग और ज्ञानयोग का वर्णन किया | इनमें से एक का भी अवलंबन करने से पुरुष आत्यन्तिक शुभ प्राप्त कर लेता है | अत: हे मात: ! मुझे सब प्राणियों के अन्त:करण में  स्थित जानते हुए अथवा पुत्ररूप से भक्तियोग के द्वारा नित्यप्रति स्मरण करते रहने से तुम शान्ति प्राप्त करोगी | 
भगवान् राम के ये वचन सुनकर कौसल्या जी आनंद से भर गयीं | और हृदय में निरन्तर श्रीरामचन्द्रजी का ध्यान करती हुई संसार-बन्धन को काटकर तीनों प्रकार की गतियों को पारकर परमगति को प्राप्त हुई |    

जय सियाराम जय सियाराम  !

-----गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “अध्यात्मरामायण” पुस्तक (कोड 74) से उत्तरकाण्ड सर्ग ७-श्लोक ६८-८३


सोमवार, 3 जुलाई 2023

पार ब्रह्म परमेश्वर तुम सबके स्वामी (पोस्ट 01)

# जय श्रीराम #

एक दिन जब श्रीरघुनाथ जी एकांत में ध्यानमग्न थे, प्रियभाषिणी श्री कौसल्या जी ने उन्हें साक्षात् नारायण जानकर अति भक्तिभाव से उनके पास आ उन्हें प्रसन्न जान अतिहर्ष से विनयपूर्वक  कहा—

“ हे राम ! तुम संसार के आदिकारण  हो तथा स्वयं आदि,अंत और मध्य से रहित  हो | तुम परमात्मा, परानन्दस्वरूप.सर्वत्र पूर्ण, जीवरूप से शरीररूप पुर में शयन करने वाले सबके स्वामी हो; मेरे प्रबल पुण्य के उदय होने से ही तुमने मेरे गर्भ से जन्म लिया है | हे रघुश्रेष्ठ ! अब अन्त समय में मुझे आज ही (कुछ पूछने का) समय मिला है , अब तक मेरा अज्ञानजन्य संसारबन्धन पूर्णतया नहीं टूटा | हे विभो ! मुझे संक्षेप में कोई ऐसा उपदेश दीजिये जिससे अब भी मुझे भवबन्धन काटने वाला ज्ञान हो जाए |”

तब मातृभक्त,दयामय, धर्मपरायण भगवान् राम ने इस प्रकार वैराग्यपूर्ण वचन कहने वाली अपनी जराजर्जरित शुभलक्षणा माता से कहा—

“मैंने  पूर्वकाल में मोक्षप्राप्ति के साधनरूप तीन मार्ग बतलाये हैं –कर्मयोग, ज्ञानयोग और  सनातन भक्तियोग | हे मात: ! (साधक के) गुणानुसार भक्ति के तीन भेद हैं | जिसका जैसा स्वभाव होता है उसकी भक्ति भी वैसे ही भेद वाली होती है | जो पुरुष हिंसा, दंभ या मात्सर्य के उद्देश्य से भक्ति करता है तथा जो भेददृष्टि वाला और क्रोधी होता है वह तामस भक्त माना गया है | जो फल की इच्छा वाला, भोग चाहने वाला तथा धन और यश की कामना वाला होता है  और भेदबुद्धि से अर्चा आदि में मेरी पूजा करता है वह रजोगुणी होता है | तथा जो पुरुष परमात्मा को अर्पण किये हुए कर्म-सम्पादन करने के लिए अथवा ‘करना चाहिए’ इस लिए भेदबुद्धि से कर्म करता है वह सात्त्विक है | जिसप्रकार गंगाजी का जल समुद्र में लीन होजाता है उसी प्रकार जब मनोवृत्ति मेरे गुणों के आश्रय से मुझ अनन्त गुणधाम में निरन्तर लगी रहे, तो वही मेरे निर्गुण भक्तियोग का लक्षण है | मेरे प्रति जो निष्काम और अखण्ड भक्ति उत्पन्न होती है वह साधक को सालोक्य, सामीप्य, सार्ष्टि और सायुज्य * -चार प्रकार की मुक्ति देती है; किन्तु उसके देने पर भी वे भक्तजन मेरी सेवा के अतिरिक्त और कुछ ग्रहण नहीं करते | हे मात: ! भक्तिमार्ग का आत्यंतिक योग यही है | इसके द्वारा भक्त तीनों गुणों को पारकर मेरा ही रूप हो जाता है |
.....................................
*वैकुंठादि भगवान् के लोकों को प्राप्त करना ‘सालोक्य’ मुक्ति है | हर समय भगवान् ही के निकट रहना ‘सामीप्य’ है, भगवान् के समान ऐश्वर्य लाभ करना ‘सार्ष्टि’ है और भगवान् में लीन हो जाना ‘सायुज्य’ है |

जय सियाराम जय सियाराम  !

(शेष आगामी पोस्ट में) 
-----गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “अध्यात्मरामायण” पुस्तक (कोड 74) से उत्तरकाण्ड सर्ग ७-श्लोक ५३-६७


मंगलवार, 27 जून 2023

भगवान्‌ की आवश्यकता का अनुभव करना(पोस्ट १)

: श्रीहरि :

जब मनुष्य इस बात को जान लेता है कि इतने बड़े संसारमें, अनन्त ब्रह्माण्डों में कोई भी वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत जिसके एक अंशमें अनन्त ब्रह्माण्ड हैं, वही अपना है, तब उसके भीतर भगवान्‌ की आवश्यकता का अनुभव होता है । कारण कि अपनी वस्तु वही हो सकती है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहें । जो कभी हमारेसे अलग न हो और हम कभी उससे अलग न हों । ऐसी वस्तु भगवान् ही हो सकते हैं ।
अब प्रश्न यह उठता है कि जब मनुष्य को भगवान्‌ की आवश्यकता है, तो फिर भगवान् मिलते क्यों नहीं ? इसका कारण यह है कि मनुष्य भगवान्‌ की प्राप्तिके बिना सुख-आरामसे रहता है, वह अपनी आवश्यकता को भूले रहता है । वह मिली हुई वस्तु, योग्यता और सामर्थ्यमें ही सन्तोष कर लेता है । अगर वह भगवान्‌ की आवश्यकताका अनुभव करे, उनके बिना चैनसे न रह सके तो भगवान्‌ की प्राप्तिमें देरी नहीं है । कारण कि जो नित्यप्राप्त है, उसकी प्राप्तिमें क्या देरी ? भगवान् कोई वृक्ष तो हैं नहीं कि आज बोयेंगे और वर्षोंके बाद फल मिलेगा ! वे तो सब देशमें सब समयमें, सब वस्तुओंमें, सब अवस्थाओंमें, सब परिस्थितियों में ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं । हम ही उनसे विमुख हुए हैं, वे हमसे कभी विमुख नहीं हुए ।

शेष आगामी पोस्ट में....... 
‒गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तक से


सोमवार, 26 जून 2023

मुक्ति और प्रेम (पोस्ट 03)

।। जय श्रीहरिः ।।

अगर मनुष्य चाहे तो वह शास्त्रोंके अध्ययनके बिना भी यह अनुभव कर सकता है कि जो वस्तु मिली है और बिछुड़ जायगी, वह अपनी और अपने लिये नहीं है । उसको अपनी और अपने लिये न मानने पर ममता और कामना नहीं रहती । ममता और कामना न रहने पर बुद्धि सम हो जाती है । बुद्धि सम होने से असत्‌ से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है अर्थात् शरीर-संसार की सत्ता, महत्ता और अपनापन सर्वथा नहीं रहता ।

जब मनुष्य अपने को अधिक महत्त्व देता है, तब वह मुक्त हो जाता है । मुक्त होनेपर ‘मैं मुक्त हूँ’ ऐसा एक सूक्ष्म अहम्‌ (अभिमानशून्य अहम्) रह जाता है, जिससे दार्शनिक मतभेद पैदा होते हैं । परन्तु जब वह अपने से भी परमात्मा को अधिक महत्त्व देता है, तब उसका वह सूक्ष्म अहम् प्रेम  परिणत हो जाता है, आत्मरति भगवद्‌रति में परिणत हो जाती है[*] । प्रेमकी प्राप्ति होनेपर सभी भेद मिट जाते हैं । मुक्ति तो साधन है, पर प्रेम साध्य है । प्रेम की प्राप्ति में ही मानव-जीवन की वास्तविक पूर्णता है, सफलता है ।

मुक्ति होनेपर जिज्ञासाकी पूर्ति हो जाती है और दुःखोंकी सर्वथा निवृत्ति हो जाती है; परन्तु प्रेमकी प्राप्ति होनेपर न तो प्रेमकी पूर्ति होती है, न क्षति होती है और न निवृत्ति ही होती है, प्रत्युत उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है‒‘प्रतिक्षणवर्धमानम्’ (नारद॰ ५४) । इस प्रेमकी प्राप्ति भगवान्‌ में अपनापन करनेसे होती है‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ।’ कारण कि भगवान्‌ ने भोग और मोक्ष तो मनुष्यके लिये बनाये हैं, पर मनुष्यको अपने लिये बनाया है कि वह मेरेसे प्रेम करे, मैं उससे प्रेम करूँ । भगवान्‌ ने भोगके लिये क्रिया-शक्ति दी है, मोक्षके लिये विवेक दिया है और अपने लिये प्रेम दिया है । प्रेमकी भूख भगवान्‌में भी है‒‘एकाकी न रमते ।’ प्रेम भगवान्‌ को भी तृप्त करनेवाला है । इसलिये प्रेम सबसे ऊँची चीज है । प्रेमसे आगे कुछ नहीं है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे !


रविवार, 25 जून 2023

मुक्ति और प्रेम (पोस्ट 02)

।। जय श्रीहरिः ।।

मुक्ति और प्रेम (पोस्ट 02)

जब जीव परमात्माको अपनेसे भी अधिक महत्त्व देता है अर्थात् वह जिस सच्चाईसे, दृढ़तासे, विश्वाससे और निःसन्देहतासे शरीरको अपना और अपने लिये मानता है, उसी सच्चाईसे, दृढ़तासे, विश्वाससे और निःसन्देहतासे परमात्माको अपना और अपने लिये मान लेता है तब वह भक्त (प्रेमी) हो जाता है । परमात्माको अपनेसे भी अधिक महत्त्व देनेसे मुक्तिका रस भी फीका हो जाता है ! परमात्मा सम्पूर्ण संसारके परम प्रकाशक, परम आधार, परम आश्रय और परम अधिष्ठान हैं । जीव उस परमात्माका ही अंश है । जो अपनेसे अभिन्न है, उस परमात्माको अपनेसे अलग मानना और जो अपनेसे भिन्न है, उस शरीर-संसारको अपना और अपने लिये मानना सम्पूर्ण दोषोंका मूल है । परमात्माको अपना मानना सत्‌का संग है और शरीर-संसारको अपना मानना असत्‌का संग है । जो मिला है और बिछुड़ जायगा, उस शरीर-संसारको अपना माननेसे ही जो वास्तवमें अपना है, वह अपना नहीं दीखता । इसीका परिणाम है कि मनुष्यको अपने जीवनमें अशान्ति, दुःख, अभाव, नीरसता, पराधीनता, बन्धन आदि अनेक दोषोंका अनुभव होता है । जबतक मनुष्यको शरीर अपना और अपने लिये प्रतीत होता रहेगा, तबतक वह कितना ही साधन कर ले, तपस्या कर ले, अभ्यास कर ले, श्रवण-मनन-निदिध्यासन कर ले, उसको परमशान्ति नहीं मिलेगी, उलटे उसमें अभिमान पैदा हो जायगा कि मैं इतना जानकार हूँ, मैं तपस्वी हूँ, मैं ऊँचा साधक हूँ आदि । अभिमानसे सब दोष उत्पन्न होते हैं और पुष्ट होते हैं । तात्पर्य है कि शरीरको अपना मानकर वह कुछ भी करेगा, उससे उसके अभावकी पूर्ति नहीं होगी । इसलिये यह सिद्धान्त है कि जो मिला है और बिछुड़ जायगा, वह हमारे कुछ काम नहीं आ सकता । हाँ, उसके द्वारा दूसरोंकी सेवा कर सकते हैं; क्योंकि वह दूसरोंका तथा दूसरोंके लिये ही है । सेवा अथवा त्यागके सिवाय उसका और कोई उपयोग नहीं है ।

अनेक शास्त्रोंका अध्ययन करनेसे, बहुत व्याख्यान सुननेसे, बहुत-सी बातें जान लेनेसे ही जीवनमें दुःख, अशान्ति, अभाव, पराधीनता आदिका नाश नहीं हो सकता । उससे मनुष्यकी बुद्धि बलवती बन सकती है, पर सम (स्थिर) नहीं हो सकती । बुद्धि बलवती होनेसे मनुष्य अच्छा व्याख्यान दे सकता है, पुस्तकें लिख सकता है, अनेक विद्याएँ सीख सकता है, शास्त्रार्थमें दूसरेको हरा सकता है, बड़े-बड़े प्रश्रोंका उत्तर दे सकता है, पर पराधीनतासे नहीं छूट सकता ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
‒गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे !


शनिवार, 24 जून 2023

मुक्ति और प्रेम (पोस्ट 01)

।। जय श्रीहरिः ।।


परमात्मा के अन्तर्गत जीव है और जीवके अन्तर्गत संसार है । कारण कि संसार की सत्ता जीव के अधीन है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) और जीवकी सत्ता परमात्माके अधीन है‒‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः’ (गीता १५ । ७) । जब जीव संसार को अपनेसे अधिक महत्व देता है, तब वह बँध जाता है और जब अपनेको संसारसे अधिक महत्त्व देता है तब वह मुक्त (स्वरूपमें स्थित) हो जाता है । परन्तु जब वह अपनेसे भी अधिक परमात्माको महत्त्व देता है तब वह भक्त (प्रेमी) हो जाता है ।

जबतक जीव शरीर-संसार को अपनेसे भी अधिक महत्त्व देता है, तबतक उसका अभाव (दारिद्र्य) नहीं मिटता । उसको अनन्त ब्रह्माण्डों का आधिपत्य मिल जाय तो भी उसका अभाव बना रहता है । अभाव होनेसे उसके जीवन में दो बातें रहती हैं‒मिली हुई वस्तुमें ममता और जो नहीं मिली है, उसकी कामना । ममता और कामनाके रहते हुए मुक्ति नहीं होती और मुक्ति हुए बिना अभाव नहीं मिटता । जब जीव अपनेको संसारसे अधिक महत्त्व देता है अर्थात् उसने जितनी सच्चाईसे, दृढ़तासे, विश्वाससे और निःसन्देहतासे शरीरकी सत्ता-महत्ता मानी है, उतनी ही सच्चाईसे, दृढ़तासे, विश्वास से और निःसन्देहता से स्वयं-(स्वरूप-) की सत्ता-महत्ता मान लेता है और अनुभव कर लेता है, तब उसके जीवनमें अभावका सर्वथा अभाव हो जाता है । अभाव का अभाव होनेपर प्राप्त वस्तु परिस्थिति आदिमें ममता नहीं रहती । अप्राप्त की कामना मिट जाती है । भोग और संग्रहकी रुचिका नाश हो जाता है । प्राप्त वस्तु का दुरुपयोग नहीं होता । मृत्युका भय मिट जाता है । फिर जीवन-निर्वाह की आवश्यक वस्तुएँ उसको समयसे पहले ही प्राप्त होने लगती हैं; जैसे‒जन्मसे पहले माँ का दूध प्राप्त होता है । लोभ न रहनेसे वस्तुएँ उसके पास आनेके लिये लालायित रहती हैं ।

एक ही दोष अथवा गुण स्थानभेदसे अनेक रूपसे प्रकट होता है । शरीर-(अनित्य, नाशवान्-) को अपनेसे अधिक महत्त्व देना अर्थात् शरीरको अपना स्वरूप मानना मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण आसुरी-सम्पत्ति उत्पन्न होती है । अपने चेतनस्वरूप-(नित्य, अविनाशी-) को शरीरसे अधिक महत्त्व देना मूल गुण है, जिससे सम्पूर्ण दैवी-सम्पत्ति प्रकट होती है । अपनेको शरीरसे अधिक महत्त्व देनेका तात्पर्य है कि हमारी सत्ता शरीरके अधीन नहीं है अर्थात् शरीरके बिना भी हम रह सकते हैं और रहते हैं, जी सकते हैं और जीते हैं । शरीरके सम्बन्धसे हम बँधते हैं और सम्बन्ध-विच्छेदसे मुक्त होते हैं । शरीर संसारसे अभिन्न है; अतः एक शरीरके साथ सम्बन्ध होनेसे संसारमात्रके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है ।

नारायण !     नारायण !!     

(शेष आगामी पोस्ट में )
‒गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित परम श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे !


रविवार, 18 जून 2023

गीता में भगवान्‌ की न्यायकारिता और दयालुता (पोस्ट०५)

!! जय श्रीहरि :!!

शंका‒

श्रुतिमें आता है कि यह ईश्वर जिसको ऊर्ध्वगतिमें ले जाना चाहता है, उससे शुभ-कर्म कराता है और जिसको अधोगतिमें ले जाना चाहता है, उससे अशुभकर्म कराता है‒‘एष ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते एष ह्येवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते’ (कौषीतकि॰ ३ । ८) । अतः इसमें भगवान्‌ की न्यायकारिता और दयालुता क्या हुई ? केवल पक्षपात, विषमता ही हुई !

समाधान‒

इस श्रुतिका तात्पर्य शुभ-कर्म करवाकर ऊर्ध्वगति और अशुभ-कर्म करवाकर अधोगति करनेमें नहीं है, प्रत्युत प्रारब्धके अनुसार कर्मफल भुगताकर उसको शुद्ध करनेमें है अर्थात् जीव अपने शुभ-अशुभ कर्मोंका फल जिस तरहसे भोग सके, उसी तरहसे परिस्थिति और बुद्धि बना देते हैं । जैसे, शुभ कर्मोंके अनुसार किसी व्यापारीको मुनाफा होनेवाला है तो उस समय भगवान् वैसी ही परिस्थिति और बुद्धि बना देते हैं, जिससे वह सस्ते दामोंमें चीजें खरीदेगा और मँहगे दामोंमें बेचेगा; अतः उसको खरीद और बिक्री‒दोनोंमें मुनाफा-ही-मुनाफा होगा । ऐसे ही अशुभ कर्मोंके अनुसार किसी व्यापारीको घाटा लगनेवाला है तो उस समय भगवान् वैसी ही परिस्थिति और बुद्धि बना देते हैं, जिससे वह मँहगे दामोंमें चीजें खरीदेगा और भाव गिरनेसे सस्ते दामोंमें बेचेगा; अतः उसको खरीद और बिक्री‒दोनोंमें घाटा-ही-घाटा लगेगा । इस तरह कर्मोंके अनुसार मुनाफा और घाटा होना तो भगवान की न्यायकारिता है और जिससे मुनाफा और घाटा हो सके, वैसी परिस्थिति और बुद्धि बना देना, जिससे शुभ-अशुभ कर्मबन्धन कट जाय‒यह भगवान्‌ की दयालुता है ।

अगर श्रुतिका अर्थ शुभ-अशुभ कर्म करवाकर मनुष्यकी ऊर्ध्व-अधोगति करनेमें ही लिया जाय तो भगवान् न्यायकारी और दयालु हैं‒यह बात सिद्ध नहीं होगी । भगवान् सम्पूर्ण प्राणियोंमें सम है, उनका किसी भी प्राणीके साथ राग-द्वेष नहीं है‒यह बात भी सिद्ध नहीं होगी । ऐसा काम करो और ऐसा काम मत करो ‒शास्त्रों का यह विधि-निषेध भी मनुष्य के लिये लागू नहीं होगा । गुरुकी शिक्षा, सन्त-महापुरुषोंके उपदेश आदि सब व्यर्थ हो जायँगे । जिससे मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार करता है, वह विवेक व्यर्थ हो जायगा । मनुष्यजन्म की विशेषता, स्वतन्तता भी खत्म हो जायगी और मनुष्य पशु-पक्षियोंकी तरह ही हो जायगा अर्थात् वह अपनी तरफसे कोई नया काम नहीं कर सकेगा, अपनी उन्नति, उद्धार भी नहीं कर सकेगा !

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

.......गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-दर्पण’ पुस्तक से


शनिवार, 17 जून 2023

गीता में भगवान्‌ की न्यायकारिता और दयालुता (पोस्ट०४)

!! जय श्रीहरि :!!

गीता में भगवान्‌ की न्यायकारिता और दयालुता (पोस्ट०४)

जो सकामभाव से शुभ कर्म करता है, उसको शुभ कर्म के अनुसार स्वर्ग आदि में भेजना‒-यह भगवान्‌ का न्याय है; और वहाँ पुण्यकर्मों का फल भुगताकर उसको शुद्ध करना‒यह दया है । ऐसे ही जो अशुभ कर्म करता है, उसको नरकों और चौरासी लाख योनियों में भेजना‒-यह न्याय है; और वहाँ पापकर्मों का फल भुगताकर उसको शुद्ध करना, उसको अपनी ओर खींचना‒यह दया है । जैसे, किसीको लम्बे समयतक कोई कष्टदायक बीमारी आती है तो जब वह ठीक हो जाती है, तब उस व्यक्तिको भगवान्‌ की कथा, भगवन्नाम आदि अच्छा लगता है । इस प्रकार कर्मोंके अनुसार बीमारी आना तो न्यायकारिता है और उसके फलस्वरूप भगवान्‌ में रुचि का बढ़ना दयालुता है ।

         मनुष्य पाप, अन्याय आदि तो स्वेच्छासे करते हैं और उनके फलस्वरूप कैद, जुर्माना, दण्ड आदि परेच्छा से भोगते है । इसमें कर्मोंके अनुसार दण्ड आदि भोगना तो न्यायकारिता हैं और समय-समयपर ‘मैंने गलती की, जिससे मुझे दण्ड भोगना पड़ रहा है । अगर मैं गलती न करता तो मुझे दण्ड क्यों भोगना पड़ता ?’‒इस तरह का जो विचार आता है, होश आता है‒यह भगवान्‌ की दयालुता है ।

कर्मों के अनुसार अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति भेजना‒यह भगवान्‌ की न्यायकारिता है; और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिमें सुखी-दुःखी न होनेसे मनुष्य का कल्याण हो जाता है‒यह भगवान्‌ की दयालुता है ।

    शेष आगामी पोस्ट  में............

.......गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-दर्पण’ पुस्तक से


शुक्रवार, 16 जून 2023

गीता में भगवान्‌ की न्यायकारिता और दयालुता (पोस्ट०३)

!! जय श्रीहरि :!!

भगवान्‌ ने कहा है कि दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी अगर मेरी तरफ चलने का दृढ़ निश्चय करके अनन्यभाव से मेरा स्मरण करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये । वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है और सदा रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है (९ । ३०‒३१) । जब दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी भगवद्‌भक्त हो सकता है और शाश्वती शान्तिको प्राप्त हो सकता है, तो फिर भगवद्‌भक्त भी दुराचारी, पापात्मा बन सकता है और उसका भी पतन हो सकता है; परन्तु भगवान्‌ का कानून ऐसा नहीं है । भगवान्‌ के कानूनमें बहुत-ही दया भरी हुई है कि दुराचारीका तो कल्याण हो सकता है, पर भक्तका कभी पतन नहीं हो सकता‒ ‘न में भक्तः प्रणश्यति’ (९ । ३१) । इसमें भगवान्‌ की न्यायकारिता और दयालुता‒दोनों ही हैं ।

यहाँ एक शंका हो सकती है कि अगर भक्तका कभी पतन नहीं होता, तो फिर भगवान्‌ ने अर्जुन को अपना भक्त स्वीकार करते हुए ऐसा क्यों कहा कि अगर तू अहंकार के कारण मेरी बात नहीं मानेगा तो तेरा पतन हो जायगा (१८ । ५८) ? इसका समाधान यह है कि जब भक्त अभिमान के कारण भगवान्‌ की बात नहीं मानेगा, तब वह भक्त नहीं रहेगा और उसका पतन हो जायगा; परन्तु यह सम्भव ही नहीं है कि भक्त भगवान्‌की बात न माने । अर्जुनको तो भगवान्‌ ने केवल धमकाया है, डराया है । वास्तवमें अर्जुनने भगवान्‌की बात मानी है और उनका पतन नहीं हुआ है (१८ । ७३) ।

शेष आगामी पोस्ट  में............

.......गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-दर्पण’ पुस्तक से


गुरुवार, 15 जून 2023

गीता में भगवान्‌ की न्यायकारिता और दयालुता (पोस्ट०२)

!! जय श्रीहरि :!!


  भगवान्‌ ने गीता में कहा है कि मनुष्य अन्तसमय में जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह उसी भाव को प्राप्त होता है अर्थात् अन्तिम स्मरण के अनुसार ही उसकी गति होती है (८ । ६) । यह भगवान्‌ का न्याय है, जिसमें कोई पक्षपात नहीं है । इस न्याय में भी भगवान्‌ की दया भरी हुई है । जैसे, अन्तसमय में अगर कोई कुत्ते का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो वह कुत्ते‌‍ की योनि को प्राप्त हो जाता है अगर कोई भगवान्‌ का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो वह भगवान्‌ को प्राप्त हो जाता है । तात्पर्य है कि जितने मूल्य में कुत्ते की योनि मिलती है, उतने ही मूल्य में भगवान्‌ की प्राप्ति हो जाती है ! इस प्रकार भगवान्‌ के कानून में न्यायकारिता होते हुए भी महती दयालुता भरी हुई है ।

 सदाचारी-से-सदाचारी साधनपरायण मनुष्य अन्तसमय में भगवान्‌ का चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ता है तो उसको भगवत्प्रा‌प्ति हो जाती है, ऐसे ही दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी किसी विशेष कारण से अन्तसमय में भगवान्‌ का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो उसको भी भगवत्प्राप्ति हो जाती है (८ । ५) । यह भगवान्‌ की कितनी दयालुता और न्यायकारिता है !

शेष आगामी पोस्ट  में............

.......गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-दर्पण’ पुस्तक से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०८) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन काल...