मननशील मुनि इन
सबके रूप में श्रीकृष्णपद को ही प्राप्त करता है ।।
........गीता
प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग संहिता (विश्वजित् खण्ड- ३३/२२-२३)
इस ब्लॉग का ध्येय, सनातन धर्म एवं भारतीय संस्कृति का प्रसार करना तथा सन्तों के दुर्लभ प्रवचनों को जन-जन तक पहुंचाने का है | हम केवल धार्मिक और आध्यात्मिक विषयों पर प्रामाणिक जानकारियों को ही प्रकाशित करते हैं। आत्मकल्याण तथा दुर्लभ-सत्संग हेतु हमसे जुड़ें और अपने सभी परिवारजनों और मित्रों को इसके लाभ की बात बताकर सबको जोड़ने का प्रयास करें | भगवान् में लगना और दूसरों को लगाना ‘परम-सेवा’ है | अतः इसका लाभ उठाना चाहिए |
मननशील मुनि इन
सबके रूप में श्रीकृष्णपद को ही प्राप्त करता है ।।
........गीता
प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग संहिता (विश्वजित् खण्ड- ३३/२२-२३)
श्रीभगवान् कहते हैं— मुझ में भक्ति
रखनेवाला मानव मेरे गुणों से सम्पन्न होकर मुक्त हो जाता है । उसकी वृत्ति गुण का
अनुसरण करने लगती है । वह सदा मेरी कथा – वार्ता में लगता है । मेरा गुणानुवाद
सुनने मात्र से वह आनन्द में तन्मय हो उठता है । उसका शरीर पुलकित हो जाता है और
वाणी गद्गद हो जाती है। उसकी आँखों में आँसू भर आते और वह अपनी सुधि-बुधि खो बैठता
है । मेरी पवित्र सेवा में नित्य नियुक्त रहने के कारण सुख,
चार प्रकार की सालोक्यादि मुक्ति,
ब्रह्मा का पद अथवा अमरत्व कुछ भी पाने की अभिलाषा वह नहीं करता । ब्रह्मा,
इन्द्र एवं मनु की उपाधि तथा स्वर्ग के राज्य का सुख - ये सभी परम
दुर्लभ है; किंतु मेरा भक्त स्वप्न में भी इनकी इच्छा नहीं
करता ।
मद्भक्तियुक्तो
मर्त्यश्च स मुक्तो मद्गुणान्वितः ।
मद्गुणाधीनवृत्तिर्यः
कथाविष्टश्च संततम् ॥
मगुणश्रुतिमात्रेण
सानन्दः पुलकान्वितः ।
सगद्गदः
साश्रुनेत्रः स्वात्मविस्मृत एव च ॥
न
वाञ्छति सुखं मुक्तिं सालोक्यादिचतुष्टयम् ।
ब्रह्मत्वममरत्वं
वा तद्वाञ्छा मम सेवने ॥
इन्द्रत्वं
च मनुत्वं च ब्रह्मत्वं च सुदुर्लभम् ।
स्वर्गराज्यादिभोगं
च स्वप्नेऽपि च न वाञ्छति ॥
………..(देवीभागवत, नवम स्कन्ध )
......गीता
प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्मांक” पुस्तक से (कोड 572)
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०८) विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन काल...