रविवार, 30 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०६)

प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश

न ह्यच्युतं प्रीणयतो बह्वायासोऽसुरात्मजाः ।
आत्मत्वात् सर्वभूतानां सिद्धत्वादिह सर्वतः ॥ १९ ॥
परावरेषु भूतेषु ब्रह्मान्तस्थावरादिषु ।
भौतिकेषु विकारेषु भूतेष्वथ महत्सु च ॥ २० ॥
गुणेषु गुणसाम्ये च गुणव्यतिकरे तथा ।
एक एव परो ह्यात्मा भगवान् ईश्वरोऽव्ययः ॥ २१ ॥
प्रत्यगात्मस्वरूपेण दृश्यरूपेण च स्वयम् ।
व्याप्यव्यापकनिर्देश्यो हि, अनिर्देश्योऽविकल्पितः ॥ २२ ॥

मित्रो ! भगवान्‌ को प्रसन्न करने के लिये कोई बहुत परिश्रम या प्रयत्न नहीं करना पड़ता। क्योंकि वे समस्त प्राणियों के आत्मा हैं और सर्वत्र सब की सत्ता के रूप में स्वयंसिद्ध वस्तु हैं ॥ १९ ॥ ब्रह्मा से लेकर तिनके तक छोटे-बड़े समस्त प्राणियोंमें, पञ्चभूतों से बनी हुई वस्तुओं में,पञ्चभूतों में, सूक्ष्म तन्मात्राओं में, महत्तत्त्व में, तीनों गुणों में और गुणों की साम्यावस्था प्रकृति में एक ही अविनाशी परमात्मा विराजमान हैं। वे ही समस्त सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्यों की खान हैं ॥ २०-२१ ॥ वे ही अन्तर्यामी द्रष्टा के रूप में हैं और वे ही दृश्य जगत् के रूपमें भी हैं । सर्वथा अनिर्वचनीय तथा विकल्परहित होने पर भी द्रष्टा और दृश्य, व्याप्य और व्यापक के रूप में उनका निर्वचन किया जाता है। वस्तुत: उनमें एक भी विकल्प नहीं है ॥ २२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से







श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश

कुटुम्बपोषाय वियन् निजायुः
     न बुध्यतेऽर्थं विहतं प्रमत्तः ।
सर्वत्र तापत्रयदुःखितात्मा
     निर्विद्यते न स्वकुटुम्बरामः ॥ १४ ॥
वित्तेषु नित्याभिनिविष्टचेता
     विद्वांश्च दोषं परवित्तहर्तुः ।
प्रेत्येह चाथाप्यजितेन्द्रियस्तद्
     अशान्तकामो हरते कुटुम्बी ॥ १५ ॥
विद्वानपीत्थं दनुजाः कुटुम्बं
     पुष्णन् स्वलोकाय न कल्पते वै ।
यः स्वीयपारक्यविभिन्नभावः
     तमः प्रपद्येत यथा विमूढः ॥ १६ ॥
यतो न कश्चित् क्व च कुत्रचिद् वा
     दीनः स्वमात्मानमलं समर्थः ।
विमोचितुं कामदृशां विहार
     क्रीडामृगो यन्निगडो विसर्गः ॥ १७ ॥
ततो विदूरात् परिहृत्य दैत्या
     दैत्येषु सङ्‌गं विषयात्मकेषु ।
उपेत नारायणमादिदेवं
     स मुक्तसङ्‌गैः इषितोऽपवर्गः ॥ १८ ॥

यह मेरा कुटुम्ब है, इस भाव से उस में वह इतना रम जाता है कि उसी के पालन-पोषण के लिये अपनी अमूल्य आयु को गवाँ देता है और उसे यह भी नहीं जान पड़ता कि मेरे जीवन का वास्तविक उद्देश्य नष्ट हो रहा है। भला, इस प्रमाद की भी कोई सीमा है। यदि इन कामों में कुछ सुख मिले तो भी एक बात है; परंतु यहाँ तो जहाँ-जहाँ वह जाता है, वहीं-वहीं दैहिक, दैविक और भौतिक ताप उसके हृदय को जलाते ही रहते हैं। फिर भी वैराग्य का उदय नहीं होता। कितनी विडम्बना है ! कुटुम्ब की ममता के फेर में पडक़र वह इतना असावधान हो जाता है, उसका मन धनके चिन्तन में सदा इतना लवलीन रहता है कि वह दूसरे का धन चुराने के लौकिक-पारलौकिक दोषों को जानता हुआ भी कामनाओं को वश में न कर सकने के कारण इन्द्रियों के भोग की लालसा से चोरी कर ही बैठता है ॥ १४-१५ ॥ भाइयो ! जो इस प्रकार अपने कुटुम्बियों के पेट पालने में ही लगा रहता हैकभी भगवद्भजन नहीं करतावह विद्वान् हो, तो भी उसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि अपने पराये का भेद-भाव रहने के कारण उसे भी अज्ञानियों के समान ही तम:प्रधान गति प्राप्त होती है ॥ १६ ॥ जो कामिनियों के मनोरञ्जनका सामानउनका क्रीडामृग बन रहा है और जिसने अपने पैरों में सन्तान की बेड़ी जकड़ ली है, वह बेचारा गरीबचाहे कोई भी हो, कहीं भी होकिसी भी प्रकारसे अपना उद्धार नहीं कर सकता ॥ १७ ॥ इसलिये, भाइयो ! तुमलोग विषयासक्त दैत्यों का सङ्ग दूर से ही छोड़ दो और आदिदेव भगवान्‌ नारायण की शरण ग्रहण करो ! क्योंकि जिन्होंने संसार की आसक्ति छोड़ दी है, उन महात्माओं के वे ही परम प्रियतम और परम गति हैं ॥ १८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



शनिवार, 29 जून 2019

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०३)



।। श्रीहरिः ।।

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०३)

(१) भगवान्‌के होकर भजन करें, (२) भगवान्‌का ध्यान करते हुए भजन करें, (३) गुप्तरीतिसे करें, (४) निरन्तर करें, क्योंकि बीचमें छूटनेसे भजन इतना बढ़िया नहीं होता । निरन्तर करनेसे एक शक्ति पैदा होती है । जैसे, बहनें-माताएँ रसोई बनाती हैं ? तो रसोई बनावें तो दस-पंद्रह मिनट बनाकर छोड़ दें, फिर घंटाभर बादमें शुरू करें । फिर थोड़ी देर बनावें, फिर घंटाभर ठहरकर करने लगें । इस प्रकार करनेसे क्या रसोई बन जायगी ? दिन बीत जायगा, पर रसोई नहीं बनेगी । लगातार किया जाय तो चट बन जायगी । ऐसे ही भगवान्‌का भजन लगातार हो, निरन्तर हो, छूटे नहीं, रात-दिन, सुबह-शाम कभी भी छूटे नहीं ।
नारदजी महाराज भक्ति-सूत्रमें लिखते हैं

तदर्पिताखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति

सब कुछ भगवान्‌ के अर्पण कर दे, भगवान्‌ को भूलते ही परम व्याकुल हो जाय । जैसे मछली को जल से बाहर कर दिया जाय तो वह तड़फड़ाने लगती है । इस तरह से भगवान्‌ की विस्मृति में हृदय में व्याकुलता हो जाय । भगवान्‌ को भूल गये,गजब हो गया ! उसकी विस्मृति न हो । लगातार उसकी स्मृति रहे और प्रार्थना करे‒‘हे भगवान् ! मैं भूलूँ नहीं, हे ! नाथ ! मैं भूलूँ नहीं ।ऐसा कहता रहे और निरन्तर नाम-जप करता रहे ।

(५) इसमें एक बात और खास है‒-कामना न करे अर्थात् मैं माला फेरता हूँ, मेरी छोरी का ब्याह हो जाय । मैं नाम जपता हूँ तो धन हो जाय, मेरे व्यापार में नफा हो जाय । ऐसी कोई-सी भी कामना न करे । यह जो संसार की चीजों की कामना करना है यह तो भगवान्‌के नामकी बिक्री करना है । इससे भगवान्‌ का नाम पुष्ट नहीं होता, उसमें शक्ति नहीं आती । आप खर्च करते रहते हो, मानो हीरों को पत्थरों से तौलते हो ! भगवान्‌ का नाम कहेंगे तो धन-संग्रह हो जायगा । नहीं होगा तो क्या हो जायगा ? मेरे पोता हो जाय । अब पोता हो जाय । अब पोता हो गया तो क्या ? नहीं हो गया तो क्या ? एक विष्ठा पैदा करने की मशीन पैदा हो गयी, तो क्या हो गया ? नहीं हो जाय तो कौन-सी कमी रह गयी ? वह भी मरेगा, तुम भी मरोगे ! और क्या होगा ? पर इनके लिये भगवान्‌ के नाम की बिक्री कर देना बहुत बड़ी भूल है । इस वास्ते ऐसी तुच्छ चीजों के लिये, जिसकी असीम, अपार कीमत है, उस भगवन्नाम की बिक्री न करें, सौदा न करें और कामना न करें । नाम महाराज से तो भगवान्‌ की भक्ति मिले,भगवान्‌ के चरणों में प्रेम हो जाय, भगवान्‌ की तरफ खिंच जायँ यह माँगो । यह कामना नहीं है; क्योंकि कामना तो लेने की होती है और इसमें तो अपने-आपको भगवान्‌ को देना है । आपका प्रेम मिले, आपकी भक्ति मिले, मैं भूलूँ ही नहीं‒-ऐसी कामना खूब करो ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की भगवन्नामपुस्तकसे




श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश

पुत्रान् स्मरंस्ता दुहितॄर्हृदय्या
     भ्रातॄन् स्वसॄर्वा पितरौ च दीनौ ।
गृहान् मनोज्ञोः उपरिच्छदांश्च
     वृत्तीश्च कुल्याः पशुभृत्यवर्गान् ॥ १२ ॥
त्यजेत कोशस्कृदिवेहमानः
     कर्माणि लोभादवितृप्तकामः ।
औपस्थ्यजैह्वं बहुमन्यमानः
     कथं विरज्येत दुरन्तमोहः ॥ १३ ॥

जो अपनी ससुराल गयी हुई प्रिय पुत्रियों, पुत्रों, भाई-बहिनों और दीन अवस्था को प्राप्त पिता-माता, बहुत-सी सुन्दर-सुन्दर बहुमूल्य सामग्रियों से सजे हुए घरों, कुलपरम्परागत जीविका के साधनों तथा पशुओं और सेवकों के निरन्तर स्मरण में रम गया है, वह भला उन्हें कैसे छोड़ सकता है ॥ १२ ॥ जो जननेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय के सुखों को ही सर्वस्व मान बैठा है, जिसकी भोगवासनाएँ कभी तृप्त नहीं होतीं, जो लोभवश कर्म-पर-कर्म करता हुआ रेशम के कीड़े की तरह अपने को और भी कड़े बन्धन में जकड़ता जा रहा है और जिसके मो की कोई सीमा नहीं हैवह उनसे किस प्रकार विरक्त हो सकता है और कैसे उनका त्याग कर सकता है ॥ १३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



भगवान्‌ की आवश्यकता का अनुभव करना (पोस्ट ३)



: श्रीहरि :

भगवान्‌ की आवश्यकता का अनुभव करना
(पोस्ट ३)

हमारी आवश्यकता परमात्मतत्त्वकी है । इस आवश्यकताको हम कभी भूलें नहीं, इसको हरदम जाग्रत् रखें । नींद आ जाय तो आने दें, पर अपनी तरफसे आवश्यकताकी भूली मत होने दें । भगवान्‌की प्राप्ति हो जाय, उनमें प्रेम हो जायइस प्रकार आठ पहर इसको जाग्रत् रखें तो काम पूरा हो जायगा ! बीचमें दूसरी इच्छाएँ होती रहेंगी तो ज्यादा समय लग जायगा । दूसरी इच्छा पैदा हो तो जबान हिला दें कि नहीं-नहीं, मेरी कोई इच्छा नहीं! अगर दूसरी इच्छा न रहे तो आठ पहर भी नहीं लगेंगे

गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित लक्ष्य अब दूर नहीं !पुस्तक से



श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश

को गृहेषु पुमान्सक्तं आत्मानं अजितेन्द्रियः ।
स्नेहपाशैर्दृढैर्बद्धं उत्सहेत विमोचितुम् ॥ ९ ॥
को न्वर्थतृष्णां विसृजेत् प्राणेभ्योऽपि य ईप्सितः ।
यं क्रीणात्यसुभिः प्रेष्ठैः तस्करः सेवको वणिक् ॥ १० ॥
कथं प्रियाया अनुकम्पितायाः
     सङ्‌गं रहस्यं रुचिरांश्च मन्त्रान् ।
सुहृत्सु तत्स्नेहसितः शिशूनां
     कलाक्षराणामनुरक्तचित्तः ॥ ११ ॥

दैत्यबालको ! जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, ऐसा कौन-सा पुरुष होगा, जो घर-गृहस्थी में आसक्त और माया-ममता की मजबूत फाँसी में फँसे हुए अपने-आपको उससे छुड़ाने का साहस कर सके ॥ ९ ॥ जिसे चोर, सेवक एवं व्यापारी अपने अत्यन्त प्यारे प्राणों की भी बाजी लगाकर संग्रह करते हैं और इसलिये उन्हें जो प्राणों से भी अधिक वाञ्छनीय हैउस धन की तृष्णा को भला, कौन त्याग सकता है ॥ १० ॥ जो अपनी प्रियतमा पत्नी के एकान्त सहवास, उसकी प्रेमभरी बातों और मीठी-मीठी सलाह पर अपने को निछावर कर चुका है, भाई-बन्धु और मित्रों के स्नेह-पाश में बँध चुका है और नन्हें-नन्हें शिशुओं की तोतली बोली पर लुभा चुका हैभला, वह उन्हें कैसे छोड़ सकता है ॥ ११ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





शुक्रवार, 28 जून 2019

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०२)


।। श्रीहरिः ।।

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०२)

हमें एक महात्मा मिले थे । उन्होंने एक बात कही । प्रह्लादजी को इतना कष्ट क्यों पाना पड़ा ? प्रह्लादजी ने अपना भजन प्रकट कर दिया । अगर वे प्रकट न करते तो उनको इतना कष्ट क्यों पाना पडता ? इस वास्ते अपना भजन प्रकट न करें । किसी को पता ही न होने दें कि यह भगवान्‌ का भजन करता है । बहनों-माताओं को चाहिये कि वे ऐसी गुप्तरीति से भगवान्‌ के भजन में लग जायँ । देखो, गुप्तरीति से किया हुआ भजन बड़े महत्त्व का होता है । पाप भी गुप्त किये हुए बड़े भयंकर होते हैं । भजन भी बड़ा लाभदायक होता है । गुप्त दिया हुआ दान भी बड़ा लाभदायक है । गुप्त दान कौन-सा है ? घरवालों से छिपाकर देना चोरी है, गुप्त दान नहीं है । गुप्त दान कौन-सा है ? जिसके घर में चला जाय, उसे पता नहीं चले कि कहाँ से आया है ? किसने दिया है ? देनेवाले का पता न लगे, यह गुप्त दान होता है । घरवालों से छिपाकर देना चोरी है । चोरी का पाप होता है ।

एक बार सुबह के प्रवचन में मैंने कह दिया कि गरीबों की सेवा करो । तो एक भाई बोलेगरीबों की सेवा करते हैं तो गरीब तंग कर देते हैं महाराज ! तो मैंने कहासेवा इस ढंगसे करो कि उन्हें मालूम न हो कि किसने सेवा की । वह तो आपकी सेवा है, नहीं तो लोगों में झंडा फहराते हैं कि हम देते हैं, देते हैं । भीड़ बहुत हो जायगी, लोग लूट लेते हैं, तंग करते हैं । यह सेवा का भाव नहीं है । केवल वाह-वाह लेनी है और कुछ नहीं है ।

भीतर का भाव हो जाय कि इनके घर कैसे चीज पहुँचे ? किस तरहसे इनकी सहायता हो जाय । कैसे गुप्त दिया जाय, तो उस दान का माहात्म्य है । ऐसे ही गुप्तरीति से भजन हो । भगवान्‌ के नाम का जप भीतर-ही-भीतर हो । नामजप भीतर से नहीं होता है तो बोलकर करो, कोई परवाह नहीं; पर भाव दिखावटीपन का नहीं होना चाहिये । कोई देख भी ले, तो वह इतना दोष नहीं है, प्रत्युत दिखावे का भाव महान् दोष है । आप नित्य-निरन्तर भजन में लग जाओ । कहीं कोई देख भी ले तो सावधान हो जाओ । उसके लिये यह नहीं कि हमारा भजन ही बंद हो जाय ।

नारायण ! नारायण !!


---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की भगवन्नामपुस्तकसे



श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश

ततो यतेत कुशलः क्षेमाय भवमाश्रितः ।
शरीरं पौरुषं यावत् न विपद्येत पुष्कलम् ॥ ५ ॥
पुंसो वर्षशतं ह्यायुः तदर्धं चाजितात्मनः ।
निष्फलं यदसौ रात्र्यां शेतेऽन्धं प्रापितस्तमः ॥ ६ ॥
मुग्धस्य बाल्ये कौमारे क्रीडतो याति विंशतिः ।
जरया ग्रस्तदेहस्य यात्यकल्पस्य विंशतिः ॥ ७ ॥
दुरापूरेण कामेन मोहेन च बलीयसा ।
शेषं गृहेषु सक्तस्य प्रमत्तस्यापयाति हि ॥ ८ ॥

हमारे सिरपर अनेकों प्रकार के भय सवार रहते हैं। इसलिये यह शरीरजो भगवत्प्राप्ति के लिये पर्याप्त हैजबतक रोग-शोकादिग्रस्त होकर मृत्युके मुख में नहीं चला जाता, तभी तक बुद्धिमान् पुरुष को अपने कल्याणके  लिये प्रयत्न कर लेना चाहिये ॥ ५ ॥ मनुष्य की पूरी आयु सौ वर्ष की है। जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर लिया है, उनकी आयु का आधा हिस्सा तो यों ही बीत जाता है। क्योंकि वे रात में घोर तमोगुणअज्ञान से ग्रस्त होकर सोते रहते हैं ॥ ६ ॥ बचपन में उन्हें अपने हित-अहित का ज्ञान नहीं रहता, कुछ बड़े होने पर कुमार अवस्था में वे खेल-कूदमें लग जाते हैं। इस प्रकार बीस वर्ष का तो पता ही नहीं चलता। जब बुढ़ापा शरीर को ग्रस लेता है, तब अन्त के बीस वर्षों में कुछ करने-धरने की शक्ति ही नहीं रह जाती ॥ ७ ॥ रह गयी बीच की कुछ थोड़ी-सी आयु। उसमें कभी न पूरी होनेवाली बड़ी-बड़ी कामनाएँ हैं, बलात् पकड़ रखनेवाला मोह है और घर-द्वार की वह आसक्ति है, जिससे जीव इतना उलझ जाता है कि उसे कुछ कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान ही नहीं रहता। इस प्रकार बची-खुची आयु भी हाथ से निकल जाती है ॥ ८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




भगवान्‌ की आवश्यकता का अनुभव करना (पोस्ट २)



: श्रीहरि :

भगवान्‌की आवश्यकता का अनुभव करना
(पोस्ट २)

आपमें केवल भगवत्प्राप्तिकी लालसा हो जाय । वह लालसा ऐसी हो,जिसकी कभी विस्मृति न हो । तात्पर्य है कि मुझे भगवान्‌की प्राप्ति हो जाय, तत्त्वज्ञान हो जाय, उनके चरणोंमें मेरा प्रेम हो जायइसको केवल याद रखना है, भूलना नहीं है । हम सब भगवान्‌रूपी कल्पवृक्षकी छायामें बैठे हैं, इसलिये हमारी लालसा अवश्य पूरी होगी; क्योंकि इसीके लिये मनुष्यजन्म मिला है । अगर आपकी सच्ची लगन होगी तो दो-चार दिनमें काम सिद्ध हो जायगा । कितनी सुगम बात है ! इसमें कठिनता क्या है ? इसमें लाभ-ही-लाभ है, हानि कोई है ही नहीं । इससे बढ़िया, सुगम उपाय मुझे कहीं मिला नहीं !

केवल एक बात पकड़ लें कि मेरा भगवान्‌में प्रेम हो जाय । इस एक बातमें सब कुछ आ जायगा । इसमें पुरुषार्थ इतना ही है कि इस बातको भूलें नहीं, केवल याद रखें । ऐसा करोगे तो मैं अपनेपर आपकी बड़ी कृपा मानूँगा, एहसान मानूँगा ! केवल याद रखना है, इतनी ही बात है । ऊँची-से-ऊँची सिद्धि इससे हो जायगी । सदाके लिये दुःख मिट जायगा । कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोगये तीनों योग सिद्ध हो जायँगे । केवल अपनी आवश्यकताको याद रखें, भूलें नहीं । इसके सिद्ध होनेमें कम या ज्यादा दिन लग सकते हैं, पर इसमें कोई अयोग्य नहीं है । यह बात मामूली नहीं है ।

शेष आगामी पोस्ट में.......
गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित लक्ष्य अब दूर नहीं !पुस्तक से



‘अपने द्वारा अपना उद्धार करे’



श्रीहरि:

अपना कल्याण न गुरुके अधीन है, न सन्तोंके अधीन है और न ईश्वरके अधीन है, यह तो स्वयंके अधीन है‒‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ (गीता ६ । ५) अपने द्वारा अपना उद्धार करे। आप नहीं करोगे तो कल्याण नहीं होगा, नहीं होगा । लाखों गुरु बना लो तो भी कल्याण नहीं होगा । जब भूख भी खुद रोटी खानेसे ही मिटती है, फिर कल्याण दूसरा कैसे करेगा ? आपकी लगनके बिना भगवान् भी आपका कल्याण नहीं कर सकते, फिर गुरु कर देगा, महात्मा कर देगाइस ठगाईमें, इस चक्करमें मत आना । इसमें धोखा है, धोखा है ! पहले ही फँसे हुए हो,गुरु मिल जाय तो और फँस जाओगे ! जब परमात्माके रहते हुए हमारा कल्याण नहीं हुआ तो क्या उनसे भी तेज महात्मा आ जायगा ! दयालु, सर्वज्ञ और सर्वसमर्थ प्रभुके रहते हुए हमारा कल्याण नहीं हुआ, फिर गुरुसे कैसे होगा ? क्या भगवान् मर गये या बीमार हो गये या उनकी शक्ति कम हो गयी ? आपको खुदको ही लगना पड़ेगा । आप खुद लग जाओ तो गुरु, सन्त-महात्मा, भगवान् आदि सब-के-सब आपके सहायक हो जायँगे । बच्चेको भूख न हो तो दयालु माँ भी क्या करेगी? आपकी लगनके बिना कौन कल्याण करेगा और कैसे करेगा ?

अनन्त युग बीत गये, फिर भी हमारा कल्याण क्यों नहीं हुआ ? क्या भगवान्‌की दयालुतामें, सर्वज्ञतामें, सर्वसमर्थतामें कोई कमी है ? क्या गुरु भगवान्‌से ज्यादा दयालु, सर्वज्ञ और सर्वसमर्थ है ? जैसे अपना पतन आप खुद कर रहे हो, दूसरा नहीं, ऐसे ही अपना उत्थान भी आपको खुद ही करना पड़ेगा,अन्यथा परमात्माके रहते हुए आप दुःख क्यों पा रहे हो ? आपके तैयार हुए बिना कोई कल्याण नहीं कर सकता और आप तैयार हो जाओ तो कोई बाधा नहीं दे सकता ।


‒---गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक लक्ष्य अब दूर नहीं !से



श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश

प्रह्लाद उवाच
कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह ।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ॥ १ ॥
यथा हि पुरुषस्येह विष्णोः पादोपसर्पणम् ।
यदेष सर्वभूतानां प्रिय आत्मेश्वरः सुहृत् ॥ २ ॥
सुखं ऐन्द्रियकं दैत्या देहयोगेन देहिनाम् ।
सर्वत्र लभ्यते दैवाद् यथा दुःखमयत्‍नतः ॥ ३ ॥
तत्प्रयासो न कर्तव्यो यत आयुर्व्ययः परम् ।
न तथा विन्दते क्षेमं मुकुन्दचरणाम्बुजम् ॥ ४ ॥

प्रह्लादजीने कहा—मित्रो ! इस संसार में मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है। इसके द्वारा अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। परंतु पता नहीं कब इसका अन्त हो जाय; इसलिये बुद्धिमान् पुरुष को बुढ़ापे या जवानी के भरोसे न रहकर बचपन में ही भगवान्‌ की प्राप्ति कराने वाले साधनों का अनुष्ठान कर लेना चाहिये ॥ १ ॥ इस मनुष्य-जन्म में श्रीभगवान्‌ के चरणों की शरण लेना ही जीवन की एकमात्र सफलता है। क्योंकि भगवान्‌ समस्त प्राणियोंके स्वामी, सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हैं ॥ २ ॥ भाइयो ! इन्द्रियों से जो सुख भोगा जाता है, वह तो—जीव चाहे जिस योनिमें रहे—प्रारब्ध के अनुसार सर्वत्र वैसे ही मिलता रहता है, जैसे बिना किसी प्रकार का प्रयत्न किये, निवारण करनेपर भी दु:ख मिलता है ॥ ३ ॥ इसलिये सांसारिक सुख के उद्देश्य से प्रयत्न करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि स्वयं मिलनेवाली वस्तुके  लिये परिश्रम करना आयु और शक्ति को व्यर्थ गँवाना है। जो इनमें उलझ जाते हैं, उन्हें भगवान्‌ के परम कल्याण-स्वरूप चरणकमलों की प्राप्ति नहीं होती ॥ ४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



गुरुवार, 27 जून 2019

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०१)



।। श्रीहरिः ।।

नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०१)

नाम-जपकी खास विधि क्या है ? खास विधि है कि भगवान्‌के होकर भगवान्‌ के नाम का जप करें, ‘होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु। अब थोड़ी दूसरी बात बताते हैं । भगवान्‌ के नामका जप करो; पर जप के साथ में प्रभु के स्वरूप का चिन्तन भी होना चाहिये । जैसे‒‘गंगाजीका नाम लेते हैं तो गंगाजी की धारा दिखती है कि ऐसे बह रही है । गौमाताका नाम लेते हैं तो गाय का रूप दिखता है । ऐसे ब्राह्मणका नाम लेते हैं तो ब्राह्मणरूपी व्यक्ति दिखता है । मनमें एक स्वरूप आता है । ऐसे रामकहते ही धनुषधारी राम दीखने चाहिये मन से । इस प्रकार नाम लेते हुए मन से भगवान्‌ के स्वरूप का चिन्तन करो । यह खास विधि है । पातंजलयोगदर्शन में लिखा है‒‘तज्जपस्तदर्थभावनम्’, ‘तस्य वाचकः प्रणवःभगवान्‌ के नाम का जप करना और उसके अर्थ का चिन्तन करना अर्थात् नाम लेते जाओ और उसको याद करते जाओ ।

श्रीकृष्ण के भक्त हों तो उनके चरणों की शरण होकर,‘श्रीकृष्णः शरणं ममइस मन्त्रको जपते हुए साथ-साथ स्वरूपको याद करते जाओ । नाम-जप की यह खास विधि है । एक विधि तो उसके होकर नाम जपना और दूसरी विधि-नाम जपते हुए उसके स्वरूप का ध्यान करते रहना । कहीं भूल होते ही हे नाथ ! हे नाथ !!पुकारो । हे प्रभो ! बचाओ,मैं तो भूल गया । मेरा मन और जगह चला गया, हे नाथ ! बचाओ ।भगवान्‌से ऐसी प्रार्थना करो तो भगवान् मदद करेंगे । उनकी मदद से जो काम होगा, वह काम आप अपनी शक्तिसे कर नहीं सकोगे । इस वास्ते भगवान्‌ के नाम का जप और उनके स्वरूप का ध्यानये दोनों साथमें रहें ।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन् ।
………………(गीता ८ । १३)

’ --इस एक अक्षर का उच्चारण करे और मेरा स्मरण करे । यह जगह-जगह बात आती है । इस वास्ते भगवान्‌ के नाम-जप के साथ भगवान्‌ के स्वरूप की भी याद रहे ।

नाम-जप दिखावटीपन में न चला जाय अर्थात् मैं नाम जपता हूँ तो लोग मेरे को भक्त मानें, अच्छा मानें, लोग मेरे को देखेंयह भाव बिलकुल नहीं होना चाहिये । यह भाव होगा तो नाम की बिक्री हो जायगी । नामका पूरा फल नहीं मिलेगा; क्योंकि आपने नाम को मान-बडाईमें खर्च कर दिया । इस वास्ते दिखावटीपन नहीं होना चाहिये नाम-जपमें । नाम-जप भीतरसे होना चाहियेलगनपूर्वक । लौकिक धन को भी लोग दिखाते नहीं । उसको भी तिजोरी में बंद रखते हैं, तो लौकिक धन-जैसा भी यह धन नहीं है क्या ? जो लोगोंको दिखाया जाय । लोगों को पता लगे तो क्या भजन किया ? गुप्तरीति से करे, दिखावटीपन बिलकुल न आवे । नाम-जप भीतर-ही-भीतर करते रहें । एकान्तमें करते रहें,मन-ही-मन करते रहें और मन-ही-मनसे पुकारें, लोगों को दिखाने के लिये नहीं । लोग देख लें तो उसमें शर्म आनी चाहिये कि मेरी गलती हो गयी । लोगों को पता लग गया ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की भगवन्नामपुस्तकसे



श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट५)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

यदाचार्यः परावृत्तो गृहमेधीयकर्मसु
वयस्यैर्बालकैस्तत्र सोपहूतः कृतक्षणैः ||५४||
अथ तान्श्लक्ष्णया वाचा प्रत्याहूय महाबुधः
उवाच विद्वांस्तन्निष्ठां कृपया प्रहसन्निव ||५५||
ते तु तद्गौरवात्सर्वे त्यक्तक्रीडापरिच्छदाः
बाला अदूषितधियो द्वन्द्वारामेरितेहितैः ||५६||
पर्युपासत राजेन्द्र तन्न्यस्तहृदयेक्षणाः
तानाह करुणो मैत्रो महाभागवतोऽसुरः ||५७||

एक दिन गुरुजी गृहस्थी के काम से कहीं बाहर चले गये थे। छुट्टी मिल जाने के कारण समवयस्क बालकों ने प्रह्लाद जी को खेलने के लिये पुकारा ॥ ५४ ॥ प्रह्लादजी परम ज्ञानी थे, उनका प्रेम देखकर उन्होंने उन बालकोंको ही बड़ी मधुर वाणीसे पुकारकर अपने पास बुला लिया। उनसे उनके जन्म-मरण की गति भी छिपी नहीं थी। उनपर कृपा करके हँसते हुए- से उन्हें उपदेश करने लगे ॥ ५५ ॥ युधिष्ठिर ! वे सब अभी बालक ही थे, इसलिये राग-द्वेषपरायण विषयभोगी पुरुषों के उपदेशों से और चेष्टाओं से उनकी बुद्धि अभी दूषित नहीं हुई थी। इसीसे, और प्रह्लादजी के प्रति आदर-बुद्धि होनेसे उन सबने अपनी खेल-कूदकी सामग्रियोंको छोड़ दिया तथा प्रह्लादजी के पास जाकर उनके चारों ओर बैठ गये और उनके उपदेशमें मन लगाकर बड़े प्रेमसे एकटक उनकी ओर देखने लगे। भगवान्‌के परम प्रेमी भक्त प्रह्लादका हृदय उनके प्रति करुणा और मैत्रीके भावसे भर गया तथा वे उनसे कहने लगे ॥ ५६-५७ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते पञ्चमोऽध्यायः

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



भगवान्‌की आवश्यकता का अनुभव करना (पोस्ट १)


श्रीहरि :

भगवान्‌की आवश्यकता का अनुभव करना
(पोस्ट १)

जब मनुष्य इस बातको जान लेता है कि इतने बड़े संसारमें, अनन्त ब्रह्माण्डोंमें कोई भी वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत जिसके एक अंशमें अनन्त ब्रह्माण्ड हैं, वही अपना है, तब उसके भीतर भगवान्‌की आवश्यकताका अनुभव होता है । कारण कि अपनी वस्तु वही हो सकती है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहें । जो कभी हमारेसे अलग न हो और हम कभी उससे अलग न हों । ऐसी वस्तु भगवान् ही हो सकते हैं ।

अब प्रश्न यह उठता है कि जब मनुष्यको भगवान्‌की आवश्यकता है, तो फिर भगवान् मिलते क्यों नहीं ? इसका कारण यह है कि मनुष्य भगवान्‌की प्राप्तिके बिना सुख-आरामसे रहता है, वह अपनी आवश्यकताको भूले रहता है । वह मिली हुई वस्तु, योग्यता और सामर्थ्यमें ही सन्तोष कर लेता है । अगर वह भगवान्‌की आवश्यकताका अनुभव करे, उनके बिना चैनसे न रह सके तो भगवान्‌की प्राप्तिमें देरी नहीं है । कारण कि जो नित्यप्राप्त है, उसकी प्राप्तिमें क्या देरी ? भगवान् कोई वृक्ष तो हैं नहीं कि आज बोयेंगे और वर्षोंके बाद फल मिलेगा ! वे तो सब देशमें सब समयमें, सब वस्तुओंमें, सब अवस्थाओंमें, सब परिस्थितियोंमें ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं । हम ही उनसे विमुख हुए हैं, वे हमसे कभी विमुख नहीं हुए ।

शेष आगामी पोस्ट में.......
गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित लक्ष्य अब दूर नहीं !पुस्तक से




श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट४)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

तथेति गुरुपुत्रोक्तमनुज्ञायेदमब्रवीत्
धर्मो ह्यस्योपदेष्टव्यो राज्ञां यो गृहमेधिनाम् ||५१||
धर्ममर्थं च कामं च नितरां चानुपूर्वशः
प्रह्रादायोचतू राजन्प्रश्रितावनताय च ||५२||
यथा त्रिवर्गं गुरुभिरात्मने उपशिक्षितम्
न साधु मेने तच्छिक्षां द्वन्द्वारामोपवर्णिताम् ||५३||

हिरण्यकशिपु ने अच्छा, ठीक है कहकर गुरुपुत्रों की सलाह मान ली और कहा कि इसे उन धर्मों का उपदेश करना चाहिये, जिनका पालन गृहस्थ नरपति किया करते हैं॥ ५१ ॥ युधिष्ठिर ! इसके बाद पुरोहित उन्हें लेकर पाठशाला में गये और क्रमश: धर्म, अर्थ और कामइन तीन पुरुषार्थों की शिक्षा देने लगे। प्रह्लाद वहाँ अत्यन्त नम्र सेवक की भाँति रहते थे ॥ ५२ ॥ परंतु गुरुओंकी वह शिक्षा प्रह्लादको अच्छी न लगी। क्योंकि गुरुजी उन्हें केवल अर्थ, धर्म और कामकी ही शिक्षा देते थे। यह शिक्षा केवल उन लोगोंके लिये है, जो राग-द्वेष आदि द्वन्द्व और विषय- भोगोंमें रस ले रहे हों ॥ ५३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥  श्रीमद्भागवतमहापुराण  प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५) विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और  गान्धारीका वनमे...