॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट१५)
हिरण्यकशिपु
के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न
यदाचार्यः
परावृत्तो गृहमेधीयकर्मसु
वयस्यैर्बालकैस्तत्र
सोपहूतः कृतक्षणैः ||५४||
अथ
तान्श्लक्ष्णया वाचा प्रत्याहूय महाबुधः
उवाच
विद्वांस्तन्निष्ठां कृपया प्रहसन्निव ||५५||
ते
तु तद्गौरवात्सर्वे त्यक्तक्रीडापरिच्छदाः
बाला
अदूषितधियो द्वन्द्वारामेरितेहितैः ||५६||
पर्युपासत
राजेन्द्र तन्न्यस्तहृदयेक्षणाः
तानाह
करुणो मैत्रो महाभागवतोऽसुरः ||५७||
एक
दिन गुरुजी गृहस्थी के काम से कहीं बाहर चले गये थे। छुट्टी मिल जाने के कारण
समवयस्क बालकों ने प्रह्लाद जी को खेलने के लिये पुकारा ॥ ५४ ॥ प्रह्लादजी परम
ज्ञानी थे,
उनका प्रेम देखकर उन्होंने उन बालकोंको ही बड़ी मधुर वाणीसे पुकारकर
अपने पास बुला लिया। उनसे उनके जन्म-मरण की गति भी छिपी नहीं थी। उनपर कृपा करके
हँसते हुए- से उन्हें उपदेश करने लगे ॥ ५५ ॥ युधिष्ठिर ! वे सब अभी बालक ही थे,
इसलिये राग-द्वेषपरायण विषयभोगी पुरुषों के उपदेशों से और चेष्टाओं से
उनकी बुद्धि अभी दूषित नहीं हुई थी। इसीसे, और प्रह्लादजी के
प्रति आदर-बुद्धि होनेसे उन सबने अपनी खेल-कूदकी सामग्रियोंको छोड़ दिया तथा
प्रह्लादजी के पास जाकर उनके चारों ओर बैठ गये और उनके उपदेशमें मन लगाकर बड़े
प्रेमसे एकटक उनकी ओर देखने लगे। भगवान्के परम प्रेमी भक्त प्रह्लादका हृदय उनके
प्रति करुणा और मैत्रीके भावसे भर गया तथा वे उनसे कहने लगे ॥ ५६-५७ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते
पञ्चमोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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