रविवार, 30 अप्रैल 2023

तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 06


प्रश्न‒सत्तामें एकदेशीयता दीखनेमें क्या कारण है ?

उत्तर‒सत्ता को बुद्धि का विषय बनाने से अथवा मन, बुद्धि और अहम्‌ के संस्कार रहने से ही सत्ता में एकदेशीयता दीखती है । वास्तविक सत्ता मन-बुद्धि-अहम्‌‌के अधीन नहीं है, प्रत्युत उनको प्रकाशित करनेवाला तथा उनसे अतीत है । सत्तामात्रमें न मन है, न बुद्धि है, न अहम् है ।

प्रश्न‒यह एकदेशीयता कैसे मिटे ?

उत्तर‒एकदेशीयता मिट जाय‒यह आग्रह भी छोड़कर सत्तामात्रमें स्थित (चुप) हो जाय । चुप होने से मन-बुद्धि-अहम्‌ के संस्कार स्वतः मिट जायेंगे । जैसे समुद्र में बर्फ के ढेले तैर रहे हों तो उनको गलाने के लिये कुछ करनेकी जरूरत ही नहीं है, वे तो स्वतः गल जायेंगे । ऐसे ही सत्तामात्रमें  शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-अहम् आदि की प्रतीति हो रही है तो उनको न हटाना है, न रखना है । चुप अर्थात् निर्विकल्प होने से वे स्वतः गल जायेंगे [*] ।

सत्तामात्र को देखें तो वह कभी बद्ध हुआ ही नहीं, प्रत्युत सदा ही मुक्त है । अगर वह बद्ध होगा तो कभी मुक्त नहीं हो सकता और मुक्त है तो कभी बद्ध नहीं हो सकता । बन्धन का भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और मुक्ति का अभाव विद्यमान नहीं है । बन्धन की केवल मान्यता है । वह मान्यता छोड़ दें तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है ।

मानवमात्र तत्त्वज्ञानका अधिकारी है; क्योंकि सत्तामें सब मनुष्य एक हो जाते हैं । क्रूर-से-क्रूर भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस आदिमें भी वही सत्ता है और सौम्य-से-सौम्य सन्त, महात्मा, तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, भगवत्प्रेमी आदिमें भी वही सत्ता है । वह सत्ता परमात्मसत्तासे सदा अभिन्न है । केवल उस सत्ताके सम्मुख होना है । इसमें क्या अभ्यास है ? क्या परिश्रम है ? क्या कठिनता है ? क्या दुर्लभता है ? क्या परोक्षता है ? सत्तामें न मल है, न विक्षेप है, न आवरण है । अभ्यास तो दृढ़ और अदृढ़ दो तरहका होता है, पर सत्ता दो तरहकी होती ही नहीं । सत्ता और उसका ज्ञान होता है तो सदा दृढ़ ही होता है, अदृढ़ होता ही नहीं ।

अनुकूल-से-अनुकूल परिस्थितिमें भी वही सत्ता है, प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थितिमें भी वही सत्ता है । जीवनमें भी वही सत्ता है, मौतमें भी वही सत्ता है । अमृतमें भी वही सत्ता है, जहरमें भी वही सत्ता है । स्वर्गमें भी वही सत्ता है, नरकमें भी वही सत्ता है । रोगमें भी वही सत्ता है, नीरोगमें भी वही सत्ता है । विद्यामें भी वही सत्ता है, अविद्यामें भी वही सत्ता है । ज्ञानीमें भी वही सत्ता है, मूढ़में भी वही सत्ता है । मित्रमें भी वही सत्ता है, शत्रुमें भी वही सत्ता है । धनीमें भी वही सत्ता है, निर्धनमें भी वही सत्ता है । बलवान्‌में भी वही सत्ता है, निर्बलमें भी वही सत्ता है ।

------------------------------------
[*] ‘एक निर्विकल्प अवस्था होती है और एक निर्विकल्प बोध होता है । निर्विकल्प अवस्था करण-सापेक्ष होती है और निर्विकल्प बोध करण-निरपेक्ष होता है । तात्पर्य है कि निर्विकल्प अवस्था मन-बुद्धिकी होती है और निर्विकल्प बोध मन-बुद्धिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर स्वयंसे होता है । निर्विकल्प अवस्थामें निर्विकल्पता अखण्डरूपसे नहीं रहती, प्रत्युत उससे व्युत्थान होता है । परन्तु निर्विकल्प बोधमें निर्विकल्पता अखण्डरूपसे रहती है और उससे कभी व्युत्थान नहीं होता । निर्विकल्प अवस्थासे भी असंग होनेपर स्वतःसिद्ध निर्विकल्प बोधका अनुभव हो जाता है ।

नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


देवता कौन ?.... (पोस्ट 13)


 प्रश्न‒क्या देवोपासना सब के लिये आवश्यक है ?

उत्तर‒जैसे प्राणिमात्र को ईश्वर का स्वरूप मानकर आदर-सत्कार करना चाहिये, ऐसे ही देवताओं को ईश्वर का स्वरूप मानकर उनकी तिथि के अनुसार उन का पूजन करना गृहस्थ और वानप्रस्थके लिये आवश्यक है । परन्तु उनका पूजन कोई भी कामना न रखकर, केवल भगवान् और शास्त्रकी आज्ञा मानकर ही किया जाना चाहिये ।

प्रश्न‒देवोपासना करनेसे क्या लाभ है ?

उत्तर‒निष्कामभावसे देवताओंका पूजन करनेसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है और वे देवता यज्ञ (कर्तव्यकर्म) की सामग्री भी देते हैं । उस सामग्री का सदुपयोग करके मनुष्य मनोऽभिलषित वस्तुकी प्राप्ति कर सकते हैं ।[*]

...........................................
[*] काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
    क्षिप्रं हि मानुषे लोके  सिद्धिर्भवति  कर्मजा ॥
                                  ………….(गीता ४ । १२)
(कर्मोंकी सिद्धि (फल) चाहने वाले मनुष्य देवताओं की उपासना किया करते हैं; क्योंकि इस मनुष्यलोक में कर्मोंसे  उत्पन्न होनेवाली सिद्धि जल्दी मिल जाती है)

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


शनिवार, 29 अप्रैल 2023

तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 05



आत्मज्ञान और परमात्मज्ञान एक ही है । कारण कि चिन्मय सत्ता एक ही है, पर जीव की उपाधि से अलग-अलग दीखती है । भगवान् कहते हैं‒

“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।“
                                         ..............(गीता १५ । ७)

(इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा सदा से मेरा ही अंश है ।)

प्रकृतिके अंश ‘अहम्’ को पकडने के कारण ही यह जीव अंश कहलाता है । अगर यह अहम्‌ को न पकड़े तो एक सत्ता-ही-सत्ता है । सत्ता (होनेपन) के सिवाय सब कल्पना है । वह चिन्मय सत्ता सब कल्पनाओं का आधार है, अधिष्ठान है, प्रकाशक है, आश्रय है, जीवनदाता है । उस सत्ता में एकदेशीयपना नहीं है । वह चिन्मय सत्ता सर्वव्यापक है । सम्पूर्ण सृष्टि (क्रियाएँ और पदार्थ) उस सत्ता के अन्तर्गत है । सृष्टि तो उत्पन्न और नष्ट होती रहती है, पर सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है । गीतामें आया है‒

“यथा सर्वगतं सौक्ष्मादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥“
                 ............(१३ । ३२)

(जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होने से कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देहमें लिप्त नहीं होता ।)

तात्पर्य है कि चिन्मय सत्ता केवल शरीर आदि में स्थित नहीं है, प्रत्युत आकाश की तरह सम्पूर्ण शरीरों के, सृष्टिमात्र के बाहर-भीतर सर्वत्र परिपूर्ण है । वह सर्वव्यापी सत्ता ही हमारा स्वरूप है और वही परमात्मतत्त्व है । तात्पर्य है कि सर्वदेशीय सत्ता एक ही है । साधक का लक्ष्य निरन्तर उस सत्ता की ओर ही रहना चाहिये ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


देवता कौन ?.... (पोस्ट 12)


प्रश्न‒यज्ञ आदि करने से देवताओं की पुष्टि होती है और यज्ञ आदि न करनेसे वे क्षीण हो जाते हैं‒इसका तात्पर्य क्या है ?

उत्तर‒जैसे वृक्ष, लता आदिमें स्वाभाविक ही फल-फूल लगते हैं; परन्तु यदि उनको खाद और पानी दिया जाय तो उनमें फल-फूल विशेषता से लगते हैं । ऐसे ही शास्त्रविधि के अनुसार देवताओं के लिये यज्ञादि अनुष्ठान करनेसे देवताओं को खुराक मिलती है, जिससे वे पुष्ट होते हैं और उनको बल मिलता है, सुख मिलता है । परंतु यज्ञ आदि न करनेसे उनको विशेष बल, शक्ति नहीं मिलती ।

यज्ञ आदि न करने से मर्त्यदेवताओं की शक्ति तो क्षीण होती ही है, आजानदेवताओ में जो कार्य करने की क्षमता होती है, उसमें भी कमी आ जाती है । उस कमी के कारण ही संसार में अनावृष्टि, अतिवृष्टि आदि उपद्रव होने लगते हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

श्रीराम जय राम जय जय राम

गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही॥

(हे राम ! जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझता है, जिसे सब प्रकार से आपका ही भरोसा है, और रामभक्त जिसे प्यारे लगते हैं, उसके हृदय में आप सीता सहित निवास कीजिए)


तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 04


साधकको ‘सत्’ और ‘चित्’ (चेतन) की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिये । सत्‌का स्वरूप है‒सत्तामात्र और चित्‌का स्वरूप है‒ज्ञानमात्र । उत्पत्तिका आधार होनेसे यह ‘सत्ता’ (सत्) है तथा प्रतीतिका प्रकाशक होनेसे यह ‘ज्ञान’ (चित्) है । यह सत्ता और ज्ञान ही ‘चिन्मय सत्ता’ है, जो कि हमारा स्वरूप है । जैसे, सुषुप्तिमें अनुभव होता है कि ‘मैं बड़े सुखसे सोया अर्थात् मैं तो था ही’‒ यह ‘सत्ता’ है और ‘मुझे कुछ भी पता नहीं था’‒यह ‘ज्ञान’ है । तात्पर्य है कि सुषुप्तिमें अपनी सत्ता तथा अहम्‌के अभावका (मुझे कुछ भी पता नहीं था‒इसका) ज्ञान रहता है । जैसे, आँखसे सब वस्तुएँ दीखती हैं, पर आँखसे आँख नहीं दीखती; अतः यह कह सकते हैं कि जिससे सब वस्तुएँ दीखती हैं, वही आँख है । ऐसे ही जिसको अहम्‌के भाव और अभावका ज्ञान होता है, वही चिन्मय सत्ता (स्वरूप) है । उस चिन्मय सत्ताके अभावका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता । चित् ही बुद्धिमें ज्ञान-रूपसे आता है और भौतिक जगत्‌में (नेत्रोंके सामने) प्रकाश-रूपसे आता है । बुद्धिमें जानना और न जानना रहता है तथा नेत्रोंके सामने प्रकाश और अँधेरा रहता है । जैसे सम्पूर्ण संसारकी स्थिति एक सत्ताके अन्तर्गत है, ऐसे ही सम्पूर्ण पढ़ना, सुनना, सीखना, समझना आदि एक ज्ञानके अन्तर्गत है । ये सत् और चित् सबके प्रत्यक्ष हैं, किसीसे भी छिपे हुए नहीं हैं । इनके सिवाय जो असत् है, वह ठहरता नहीं है और जो जड़ है, वह टिकता नहीं है । सत् और चित्‌का अभाव कभी विद्यमान नहीं है एवं असत् और जडका भाव कभी विद्यमान नहीं है । सत् और चित् सबसे पहले भी हैं, सबसे बादमें भी हैं और अभी भी ज्यों-के-त्यों हैं ।

जिनकी मान्यतामें कालकी सत्ता है, उनके लिये यह कहा जाता है कि परमात्मतत्त्व भूतमें भी है, भविष्यमें भी है और वर्तमानमें भी है । वास्तवमें न तो भूत है, न भविष्य है और न वर्तमान ही है, प्रत्युत एक परमात्मतत्त्व ही है । वह परमात्मतत्त्व कालका भी महाकाल है, कालका भी भक्षण करनेवाला है‒     
                   
(१)  ब्रह्म अगनि तन बीचमें, मथकर काढ़े कोय ।
       उलट कालको खात है हरिया गुरुगम होय ॥
 (२) नवग्रह चौसठ जोगिणी,  बावन बीर प्रजंत ।
      काल भक्ष सबको करै,    हरि शरणै डरपंत ॥
                                           .............. (करुणासागर ६४)

काल उसी को खाता है, जो पैदा हुआ है । जो पैदा ही नहीं हुआ, उसको काल कैसे खाये ? ऐसा वह परमात्मतत्त्व जीवमात्र को नित्यप्राप्त है । उस सर्वसमर्थ परमात्मतत्त्वमें यह सामर्थ्य नहीं है कि वह कभी किसीसे अलग हो जाय, कभी किसीको अप्राप्त हो जाय । वह नित्य-निरन्तर सबमें ज्यों-का-त्यों विद्यमान है, नित्यप्राप्त है । यह ‘परमात्मज्ञान’ है ।

नारायण ! नारायण !!

   (शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


देवता कौन ?.... (पोस्ट 11)


प्रश्न‒भक्तों के सामने भगवान् किस रूपसे आते हैं ?

उत्तर‒सामान्य भक्त (आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी आदि) के सामने भगवान् देवरूपसे आते हैं और विशेष भक्ति- (अनन्यभाव-) वाले भक्त के सामने भगवान् सच्चिदानन्दमय (महाविष्णु आदि) रूप से आते हैं । परंतु भक्त उन दोनों रूपोंको अलग-अलग नहीं जान सकता । यदि भगवान् जना दें, तभी वह जान सकता है ।

वास्तव में देखा जाय तो दोनों रूपों में तत्त्वसे कोई भेद नहीं है, केवल अधिकार में भेद है । भगवान् देवरूप में सीमित शक्ति से प्रकट होते हैं और सच्चिदानन्दमयरूप में असीम शक्तिसे ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

श्रीराम जय राम जय जय राम !

“जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं॥
जासु नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अबिनासी॥“

( मुनिगण जन्म-जन्म में अनेकों प्रकार का साधन करते रहते हैं। फिर भी अंतकाल में उनके मुख से राम नाम नहीं निकलता, जिनके नाम के बल से शंकरजी काशी में सबको समान रूप से अविनाशिनी गति (मुक्ति) देते हैं)


तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 03


अब ‘परमात्मज्ञान’ का वर्णन किया जाता है । सृष्टिमात्रमें ‘है’ के समान कोई सार चीज है ही नहीं । लोक-परलोक, चौदह भुवन, सात द्वीप, नौ खण्ड आदि जो कुछ है, उसमें सत्ता (‘है’) एक ही है । यह सब संसार प्रतिक्षण बदलता है, इतनी तेजीसे बदलता है कि इसको दो बार नहीं देख सकते । जैसे, नया मकान कई वर्षोंके बाद पुराना हो जाता है तो वह प्रतिक्षण बदलता है, तभी पुराना होता है । इस प्रतिक्षण बदलनेको ही भूत-भविष्य-वर्तमान, उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय, सत्य-त्रेता-द्वापर-कलियुग आदि नामोंसे कहते हैं । प्रतिक्षण बदलनेपर भी यह हमें ‘है’-रूपसे इसलिये दीखता है कि हमने इस बदलनेवालेके ऊपर ‘है’ (परमात्मतत्त्व) का आरोप कर लिया कि ‘यह है’ । वास्तवमें यह है नहीं, प्रत्युत ‘है’ में ही यह सब है । यह तो निरन्तर बदलता है, पर ‘है’ ज्यों-का-त्यों रहता है । ‘है’ जितना प्रत्यक्ष है, उतना यह संसार प्रत्यक्ष नहीं है । जो निरन्तर बदलता है, वह प्रत्यक्ष कहाँ है ? ‘है’ इतना प्रत्यक्ष है कि यह कभी बदला नहीं, कभी बदलेगा नहीं, कभी बदल सकता नहीं, बदलनेकी कभी सम्भावना ही नहीं । इसलिये गीतामें आया है‒

“नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।“
.................(२ । १६)

‘असत्‌का भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है ।’

तात्पर्य है कि जो निरन्तर बदलता है, उसका भाव कभी नहीं हो सकता और जो कभी नहीं बदलता, उसका अभाव कभी नहीं हो सकता । ‘नहीं’ कभी ‘है’ नहीं हो सकता और ‘है’ कभी ‘नहीं’ नहीं हो सकता । असत् कभी विद्यमान नहीं है और ‘है' सदा विद्यमान है । जिसका अभाव है, उसीका त्याग करना है और जिसका भाव है, उसीको प्राप्त करना है‒इसके सिवाय और क्या बात हो सकती है ! ‘है’ को स्वीकार करना है और ‘नहीं’ को अस्वीकार करना है‒यही वेदान्त है, वेदोंका खास निष्कर्ष है ।

जो सत्ता (‘है’) है, वह ‘सत्’ है, उसका जो ज्ञान है, वह ‘चित्’ (चेतन) है तथा उसमें जो दुःख, सन्ताप, विक्षेपका अत्यन्त अभाव है, वह ‘आनन्द’ है । सत्‌के साथ ज्ञान और ज्ञानके साथ आनन्द स्वतः भरा हुआ है । ज्ञानके बिना सत् जड है और सत्‌के बिना ज्ञान शून्य है । किसी भी बातका ज्ञान होते ही एक प्रसन्नता होती है‒यह ज्ञानके साथ आनन्द है । परमात्मतत्त्व सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है । वह सच्चिदानन्द परमात्मतत्त्व ‘है’-रूपसे सब जगह ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


देवता कौन ?....(पोस्ट 10)


 मनु और शतरूपा तप कर रहे थे तो ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा,विष्णु और महेश कई बार उनके पास आये, पर उन्होंने अपना तप नहीं छोड़ा । अन्त में जब परब्रह्म परमात्मा उनके पास आये, तब उन्होंने अपना तप छोड़ा और उनसे वरदान माँगा ।

वास्तव में भगवान्‌ का सच्चिदानन्दमयरूप और देवरूप-दोनों एक ही हैं । मनु-शतरूपा भगवान्‌के सच्चिदानन्दमयरूप (महाविष्णु) को देखना चाहते थे,इसलिये भगवान् उनके सामने उसी रूपसे आये, अन्यथा ब्रह्माण्डके विष्णु तथा महाविष्णु में कोई भेद नहीं है । अवतार के समय भी भगवान् सब को सच्चिदानन्दमयरूप से अर्थात् भगवत्स्वरूपसे नहीं दीखते‒‘नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः’ (गीता ७ । २५) । अर्जुन को भगवान् जैसे दीखते थे, वैसे दुर्योधन को नहीं दीखते थे । परशुराम को भगवान् राम पहले राजकुमारके रूपमें दीखते थे, पीछे भगवत्स्वरूप से दीखने लगे ! तात्पर्य है कि भगवान् एक होते हुए भी दूसरे के भाव के अनुसार अलग-अलग रूप से प्रकट होते हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


बुधवार, 26 अप्रैल 2023

तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 02



पुस्तकों की पढ़ाई करनेका, शास्त्रोंकी बातें सीखने का उद्देश्य न हो, प्रत्युत केवल तत्त्व को समझनेका उद्देश्य हो तो हम श्रुति विप्रतिपत्तिसे तर गये ! तात्पर्य है कि हमें न तो मोहकी मुख्यता रखनी है और न शास्त्रीय मतभेदकी मुख्यता रखनी है । किसी मत, सम्प्रदाय का भी कोई आग्रह नहीं रखना है [*] । इतना हो जाय तो हम योगके, तत्त्वज्ञानके अधिकारी हो गये ! इससे अधिक किसी अधिकार-विशेषकी जरूरत नहीं है । अब इस बातपर विचार करना है कि तत्त्वज्ञान क्या है ?

तत्त्वज्ञान सबसे सरल है, सबसे सुगम है और सबके प्रत्यक्ष अनुभवकी बात है । तात्पर्य है कि इसको करनेमें, समझनेमें और पानेमें कोई कठिनता है ही नहीं । इसमें करना, समझना और पाना लागू होता ही नहीं । कारण कि यह नित्यप्राप्त है और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति आदि सम्पूर्ण अवस्थाओंमें सदा ज्यों-का-त्यों मौजूद है । तत्त्वज्ञान जितना प्रत्यक्ष है, उतना प्रत्यक्ष यह संसार कभी नहीं है । तात्पर्य है कि हमारे अनुभवमें तत्त्वज्ञान जितना स्पष्ट आता है, उतना स्पष्ट संसार नहीं आता । इस बातको इस प्रकार समझना चाहिये । जीव अनेक योनियोंमें जाता है । वह कभी मनुष्य बनता है, कभी पशु-पक्षी बनता है, कभी देवता बनता है, कभी राक्षस बनता है, कभी असुर बनता है, कभी भूत-प्रेत-पिशाच बनता है तो शरीर वही नहीं रहता, पर जीव स्वयं सत्तारूपसे वही रहता है । स्वभाव वही नहीं रहा, आदत वही नहीं रही, भाषा वही नहीं रही, व्यवहार वही नहीं रहा, लोक (स्थान) वही नहीं रहा, समय वही नहीं रहा; सब कुछ बदल गया, पर स्वयंकी सत्ता नहीं बदली । अगर सत्ता वही नहीं रहेगी तो तरह-तरहके नाम तथा रूप कौन धारण करेगा ? इसलिये गीतामें आया है‒

“भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।“
...........(८ । १९)

‘वही यह प्राणिसमुदाय उत्पन्न हो-होकर लीन होता है ।’ जो उत्पन्न हो-होकर लीन होता है, वह शरीर है और जो वही रहता है, वह जीवका असली स्वरूप अर्थात् चिन्मय सत्ता (होनापन) है । यह ‘आत्मज्ञान’ का वर्णन हुआ ।

----------------------------
[*] नारायण अरु नगरके, रज्जब राह अनेक ।
भावे आवो किधर से, आगे अस्थल एक ॥
पहुँचे पहुँचे एक मत, अनपहुँचे मत और ।
संतदास घड़ी अरठ की, ढुरे एक ही ठौर ॥
जब लगि काची खीचड़ी, तब लगि खदबद होय ।
संतदास सीज्यां पछे, खदबद करै न कोय ॥

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


देवता कौन ?....(पोस्ट 09)


प्रश्न‒भगवान्‌ के दर्शन करने पर भी देवता मुक्त क्यों नहीं होते ?

उत्तर‒मुक्ति भाव के अधीन है, क्रिया के अधीन नहीं । देवता केवल भोग भोगने के लिये ही स्वर्गादि लोकों में गये हैं । अतः भोगपरायणता के कारण उनमें मुक्ति की इच्छा नहीं होती । इसके सिवा देवलोक में मुक्ति का अधिकार भी नहीं है ।

भगवान्‌के दो रूप होते हैं‒सच्चिदानन्दमयरूप और देवरूप । प्रत्येक ब्रह्माण्ड के जो अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और महेश होते हैं, वह भगवान्‌ का देवरूप है और जो सबका मालिक, सर्वोपरि परब्रह्म परमात्मा है, वह भगवान्‌का सच्चिदानन्दमयरूप है । इस सच्चिदानन्दमय-रूपको ही शास्त्रोंमें महाविष्णु आदि नामोंसे कहा गया है । भगवान्‌ को भक्ति के वश में होकर भक्तों के सामने तो सच्चिदानन्दमयरूप से प्रकट होना पड़ता है, पर देवताओं के सामने वे देवरूप से ही प्रकट होते हैं । कारण कि देवता केवल अपनी रक्षा के लिये ही भगवान्‌ को पुकारते हैं, मुक्त होने के लिये नहीं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


मंगलवार, 25 अप्रैल 2023

तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 01


तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिमें दो मुख्य बाधाएँ हैं :‒  मोह और शास्त्रीय मतभेद ।

गीतामें आया है‒

“यदा  ते  मोहकलिलं    बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं   श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला  बुद्धिस्तदा  योगमवाप्स्यसि ॥“
                                            ..................(गीता २ । ५२-५३)

‘जिस समय तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको तर जायगी, उसी समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा ।’
‘जिस कालमें शास्त्रीय मतभेदोंसे विचलित हुई तेरी बुद्धि निश्चल हो जायगी और परमात्मामें अचल हो जायगी, उस कालमें तू योगको प्राप्त हो जायगा ।’
अज्ञान, अविवेकको ‘मोह’ कहते हैं । अविवेकका अर्थ विवेकका अभाव नहीं है, प्रत्युत विवेकका अनादर है । अतः विवेकका आदर नहीं करना, उसको महत्व नहीं देना, उसकी तरफ खयाल नहीं करना ‘अविवेक’ है । विवेक स्वतःसिद्ध है । विवेकज्ञान साधन है और तत्त्वज्ञान साध्य है । जैसे साध्यरूप तत्त्वज्ञान स्वतःसिद्ध है, ऐसे ही साधनरूप विवेकज्ञान भी स्वतःसिद्ध है ।

अज्ञानका चिह्न ‘राग’ हैं‒‘रागो लिङ्गमबोधस्य चित्तव्यायामभूमिषु ।’ शरीर, धन-सम्पत्ति, परिवार, मान-बड़ाई आदि किसीमें भी राग होना अज्ञानका, मोहका लक्षण है । जितना राग है, उतना ही मोह है, उतना ही अज्ञान है, उतनी ही मूढ़ता है, उतनी ही गलती है, उतनी ही बाधा है । इस रागके ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि अनेक रूप हैं ।

दूसरी बाधा है‒श्रुतिविप्रतिपत्ति अर्थात् शास्त्रीय मतभेद । कोई कहते हैं कि अद्वैत है, कोई कहते हैं कि द्वैत है, कोई कहते हैं कि विशिष्टाद्वैत है, कोई कहते हैं कि शुद्धाद्वैत है, कोई कहते हैं कि द्वैताद्वैत है कोई कहते हैं कि अचिन्त्यभेदाभेद है‒इस प्रकार अनेक मतभेद हैं । इन मतभेदोंके कारण साधककी बुद्धि भ्रमित हो जाती है और उसके लिये यह निश्चय करना बड़ा कठिन हो जाता है कि कौन-सा मत ठीक है, कौन-सा बेठीक है !

‒इस प्रकार मोह और शास्त्रीय मतभेद अर्थात् सांसारिक मोह और शास्त्रीय मोह‒दोनों से तरने पर ही तत्त्वज्ञान का, नित्ययोग का अनुभव होता है । केवल अपने कल्याण का उद्देश्य हो और रुपये-पैसे, कुटुम्ब-परिवार आदिसे कोई स्वार्थका सम्बन्ध न हो तो हम मोहरूपी दलदल से तर गये ! 

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


देवता कौन ?....(पोस्ट 08)


प्रश्न‒ मनुष्य स्वर्ग पाने की और देवता मर्त्यलोक में मनुष्यजन्म पानेकी अभिलाषा क्यों करते हैं ?

उत्तर‒मनुष्य सुख-भोग के लिये ही स्वर्गलोक की इच्छा करते हैं । मनुष्य-शरीर से सब अधिकार प्राप्त होते हैं । मोक्ष, स्वर्ग आदि भी मनुष्य-शरीर से ही प्राप्त होते हैं । देवता भोगयोनि हैं । वे नया कर्म नहीं कर सकते । अतः वे नया कर्म करके ऊँचा उठने के लिये मर्त्यलोक में मनुष्यजन्म चाहते हैं । जैसे राजस्थान के लोग धन कमाने के लिये दूसरे नगरों में तथा विदेश में जाते हैं, ऐसे ही देवता ऊँचा पद प्राप्त करने के लिये मृत्युलोक में आना चाहते हैं ।

प्रश्न‒मनुष्यजन्म देवताओं को भी दुर्लभ क्यों है ?

उत्तर‒मनुष्य शरीर में नये कर्म करने का, नयी उन्नति करने का अधिकार है । इसमें मुक्ति, ज्ञान, वैराग्य, भक्ति आदि सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है । परंतु देवता भोगपरायण रहते हैं और केवल पुण्यकर्मों का फल भोगते हैं । उनको नये कर्म करने का अधिकार नहीं है । अतः मनुष्य शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


सोमवार, 24 अप्रैल 2023

देवता कौन ?....(पोस्ट 07)



 प्रश्न‒देवता और भगवान्‌ के शरीर में क्या अन्तर है ?

उत्तर‒देवताओं का शरीर भौतिक और भगवान्‌ का अवतारी शरीर चिन्मय होता है । भगवान्‌ का शरीर सत्-चित्-आनन्दमय, नित्य रहनेवाला, अलौकिक और अत्यन्त दिव्य होता है । अतः देवता भी भगवान्‌ को देखने के लिये लालायित रहते हैं ( गीता ११ । ५२) ।

प्रश्न‒देवलोक और भगवान्‌ के लोक में क्या अन्तर है ?

उत्तर‒देवलोक क्षय होनेवाला, अवधि वाला और कर्म-साध्य है । परन्तु भगवान्‌ का लोक (धाम) अक्षय,अवधिरहित और भगवत्कृपासाध्य है ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


रविवार, 23 अप्रैल 2023

देवता कौन ?.... (पोस्ट 06)



प्रश्न‒देवताओं को कौन-से रोग होते हैं, जिनका इलाज अश्विनीकुमार करते हैं ?

उत्तर‒हमारे शरीर में जैसे रोग (व्याधि) होते हैं, वैसे रोग देवताओं को नहीं होते । देवताओं को चिन्ता, भय, ईर्ष्या,जलन आदि मानसिक रोग (आधि) होते हैं और उन्हीं का इलाज अश्विनीकुमार करते हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


शनिवार, 22 अप्रैल 2023

महिमा राम नाम की

“राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल ।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल ॥“

( राम नाम श्री नृसिंह भगवान है, कलियुग हिरण्यकशिपु है और जप करने वाले जन प्रह्लाद के समान हैं, यह राम नाम देवताओं के शत्रु (कलियुग रूपी दैत्य) को मारकर जप करने वालों की रक्षा करेगा )


कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः।।


नाम-जप, कीर्तन आदि यदि अश्रद्धापूर्वक भी किये जाते हैं तो वे असत्‌ नहीं होते; क्योंकि उनमें भगवान्‌ का सम्बन्ध होने से वे ‘कर्म’ नहीं हैं, प्रत्युत ‘उपासना’ हैं ।


देवता कौन ?....(पोस्ट 05)


प्रश्न‒माता, पिता आदि को देवता क्यों कहा गया है; जैसे ‘मातृदेवो भव’ आदि ?

उत्तर‒‘मातृदेवो भव’ आदि में ‘देव’ नाम परमात्मा का है । अतः माता, पिता आदि को साक्षात् ईश्वर मानकर निष्कामभाव से उनका पूजन करनेसे परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

देवता कौन ?....(पोस्ट 04)


प्रश्न‒भूत, प्रेत, पिशाच आदि को भी देवयोनि क्यों कहा गया है ? जैसे‒‘विद्याधराप्सरोयक्षरक्षोगन्धर्व- किन्नराः । पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः ॥’ (अमरकोष १ । १ । ११)

उत्तर‒हमलोगों के शरीरों की अपेक्षा उनका शरीर दिव्य होने से उन को भी देव योनि कहा गया है । उनका शरीर वायुतत्त्वप्रधान होता है । जैसे वायु कहीं भी नहीं अटकती,ऐसे ही उनका शरीर कहीं भी नहीं अटकता । उनके शरीर में वायु से भी अधिक विलक्षणता होती है । घर के किवाड़ बंद करने पर वायु तो भीतर नहीं आती, पर भूत-प्रेत भीतर आ सकते हैं । तात्पर्य है कि पृथ्वीतत्त्वप्रधान मनुष्यशरीर की अपेक्षा ही भूत-प्रेत आदि को देवयोनि कहा गया है ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


गुरुवार, 20 अप्रैल 2023

देवता कौन ?....(पोस्ट 03)


प्रश्न‒जीवों को अधिष्ठातृ देवता कौन बनाता है ?

उत्तर‒भगवान्‌ ने ब्रह्माजी को सृष्टि-रचनाका अधिकार दिया है, अतः ब्रह्माजी के बनाये हुए नियमके अनुसार अधिष्ठातृ देवता स्वतः बनते रहते हैं । जैसे यहाँ किसी को किसी पद पर नियुक्त करते हैं तो उसको उस पद के अनुसार सीमित अधिकार दिया जाता है, ऐसे ही पुण्यों के फलस्वरूप जो जीव अधिष्ठातृ देवता बनते हैं, उनको उस विषयमें सीमित अधिकार मिलता है ।

प्रश्न‒ये अधिष्ठातृ देवता क्या काम करते हैं ?

उत्तर‒ये अपने अधीन वस्तु की रक्षा करते हैं । जैसे,कुएँ का भी अधिष्ठातृ देवता होता है । यदि कुआँ चलाने से पहले उसके अधिष्ठातृ देवता का पूजन किया जाय, उसको प्रणाम किया जाय अथवा उसका नाम लिया जाय तो वह कुएँ की विशेष रक्षा करता है, कुएँ के कारण कोई नुकसान नहीं होने देता । ऐसे ही वृक्ष आदि का भी अधिष्ठातृदेवता होता है । रात्रि में किसी वृक्ष के नीचे रहना पड़े तो उसके अधिष्ठातृ देवता से प्रार्थना करें कि ‘हे वृक्षदेवता ! मैं आपकी शरण में हूँ, आप मेरी रक्षा करें’ तो रात्रिमें रक्षा होती है ।

जंगलमें शौच जाना हो तो वहाँ पर ‘उत्तम भूमि मध्यम काया, उठो देव मैं जंगल आया’‒ऐसा बोलकर शौच जाना चाहिये, नहीं तो वहाँ रहनेवाले देवता तथा भूत-प्रेत कुपित होकर हमारा अनिष्ट कर सकते हैं ।

वर्तमान में अधिष्ठातृदेवताओं का पूजन उठ जाने से जगह-जगह तरह-तरह के उपद्रव हो रहे हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


बुधवार, 19 अप्रैल 2023

देवता कौन ?....(पोस्ट 02)



देवता तीन तरहके होते हैं‒

(१) आजानदेवता‒जो महासर्ग से महाप्रलय तक (एक कल्पतक) देवलोक में रहते हैं, वे ‘आजानदेवता’ कहलाते हैं । ये देवलोक के बड़े अधिकारी होते हैं । उनके भी दो भेद होते हैं‒

(क) ईश्वरकोटि के देवता‒शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु‒यें पाँचों ईश्वर भी हैं और देवता भी । इन पाँचों के अलग-अलग सम्प्रदाय चलते हैं । शिवजी के शैव, शक्तिके शाक्त, गणपतिके गाणपत, सूर्य के सौर और विष्णु के वैष्णव कहलाते हैं । इन पाँचोंमें एक ईश्वर होता है तो अन्य चार देवता होते हैं । वास्तव में ये पाँचों ईश्वरकोटि के ही हैं ।

(ख) साधारण देवता‒इन्द्र, वरुण, मरुत्, रुद्र, आदित्य, वसु आदि सब साधारण देवता हैं ।

(२) मर्त्यदेवता‒जो मनुष्य मृत्युलोक में यज्ञ आदि करके स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करते हैं, वे ‘मर्त्यदेवता’कहलाते हैं । ये अपने पुण्यों के बल पर वहाँ रहते हैं और पुण्य क्षीण होने पर फिर मृत्युलोक में लौट आते हैं‒

“ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोक विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।“
………..(गीता ९ । २१)

(३) अधिष्ठातृदेवता‒सृष्टि की प्रत्येक वस्तु का एक मालिक होता है, जिसे ‘अधिष्ठातृदेवता’ कहते हैं । नक्षत्र, तिथि, वार, महीना, वर्ष, युग, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सृष्टि की मुख्य-मुख्य वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता ‘आजानदेवता’ बनते हैं । और कुआँ, वृक्ष आदि साधारण वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता‘मर्त्यदेवता’ (जीव) बनते हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


श्रीराम जय राम जय जय राम ।

“परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता।।
मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया।।“

( जीव परतंत्र है, भगवान् स्वतंत्र हैं। जीव अनेक हैं, श्रीपति भगवान् एक हैं। यद्यपि माया का किया हुआ यह भेद असत् है तथापि वह भगवान् के भजन के बिना करोड़ों उपाय करनेपर भी नहीं जा सकता )


मंगलवार, 18 अप्रैल 2023

देवता कौन ?....(पोस्ट 01)


मनुष्यों के पृथ्वीतत्त्व प्रधान शरीरों की अपेक्षा देवताओं के शरीर तेजस्तत्त्व प्रधान, दिव्य और शुद्ध होते हैं । मनुष्यों के शरीरों से मल, मूत्र, पसीना आदि पैदा होते हैं । अतः जैसे हम लोगों को मैले से भरे हुए सूअर से दुर्गन्ध आती है, ऐसे ही देवताओं को हमारे (मनुष्योंके) शरीरों से दुर्गन्ध आती है । देवताओं के शरीरों से सुगन्ध आती है । उनके शरीरों की छाया नहीं पड़ती । उनकी पलकें नहीं गिरतीं । वे एक क्षण में बहुत दूर जा सकते हैं और जहाँ चाहें, वहाँ प्रकट हो सकते हैं । इस दिव्यता के कारण ही उनको देवता कहते हैं ।

बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनीकुमार‒ये तैंतीस कोटि (तैंतीस प्रकार के) देवता सम्पूर्ण देवताओं में मुख्य माने जाते हैं । उनके सिवाय मरुद्‌गण, गन्धर्व, अप्सराएँ आदि भी देवलोक वासी होने से देवता कहलाते हैं ।

देवता तीन तरहके होते हैं‒
(१) आजानदेवता‒जो महासर्ग से महाप्रलय तक (एक कल्पतक) देवलोक में रहते हैं, वे ‘आजानदेवता’ कहलाते हैं । ये देवलोक के बड़े अधिकारी होते हैं । उनके भी दो भेद होते हैं‒

(क) ईश्वरकोटि के देवता‒शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु‒यें पाँचों ईश्वर भी हैं और देवता भी । इन पाँचों के अलग-अलग सम्प्रदाय चलते हैं । शिवजी के शैव, शक्तिके शाक्त, गणपतिके गाणपत, सूर्य के सौर और विष्णु के वैष्णव कहलाते हैं । इन पाँचोंमें एक ईश्वर होता है तो अन्य चार देवता होते हैं । वास्तव में ये पाँचों ईश्वरकोटि के ही हैं ।
(ख) साधारण देवता‒इन्द्र, वरुण, मरुत्, रुद्र, आदित्य, वसु आदि सब साधारण देवता हैं ।

(२) मर्त्यदेवता‒जो मनुष्य मृत्युलोक में यज्ञ आदि करके स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करते हैं, वे ‘मर्त्यदेवता’कहलाते हैं । ये अपने पुण्यों के बल पर वहाँ रहते हैं और पुण्य क्षीण होने पर फिर मृत्युलोक में लौट आते हैं‒
“ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोक विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।“
………..(गीता ९ । २१)

(३) अधिष्ठातृदेवता‒सृष्टि की प्रत्येक वस्तु का एक मालिक होता है, जिसे ‘अधिष्ठातृदेवता’ कहते हैं । नक्षत्र, तिथि, वार, महीना, वर्ष, युग, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सृष्टि की मुख्य-मुख्य वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता ‘आजानदेवता’ बनते हैं । और कुआँ, वृक्ष आदि साधारण वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता ‘मर्त्यदेवता’ (जीव) बनते हैं ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ “ पुस्तकसे


सोमवार, 17 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 11)





उपसंहार (ii)

भगवत्तत्त्व सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु और व्यक्ति में परिपूर्ण है । अतः उसकी प्राप्ति किसी क्रिया, बल, योग्यता, अधिकार, परिस्थिति, सामर्थ्य, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदि के आश्रित नहीं है; क्योंकि चेतन-(सत्य-) की प्राप्ति जडता-(असत्य-) के द्वारा नहीं, अपितु जडता के त्याग से होती है ।

मनुष्य यदि अपने ही अनुभव का आदर करे तो उसे सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति हो सकती है । यह प्रत्येक मनुष्य का अनुभव है कि जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि की अवस्थाएँ तो परिवर्तनशील तथा अनेक होती हैं, पर इन अवस्थाओं को जाननेवाला अपरिवर्तनशील तथा एक रहता है । यदि अवस्थाओं को जाननेवाला अवस्थाओं से अतीत न होता, तो अवस्थाओंकी भिन्नता, उनकी गणना, उनके परिवर्तन (आने-जाने), उनकी सन्धि और उनके अभावका ज्ञाता (जाननेवाला) कौन होता ? ये अवस्थाएँ ‘अहम्’ (जडसे माने हुए सम्बन्ध-) पर टिकी हुई हैं और ‘अहम्’ सत्यतत्त्व पर टिका हुआ है । तात्पर्य यह है कि एक सत्यतत्त्व के सिवा अन्य किसी भी अवस्था आदि की और माने हुए ‘अहम्’ की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । इस प्रकार अवस्थाओं से तथा ‘अहम्’ से अपने-आप-(स्वरूप-) को अलग अनुभव करने पर तत्त्वज्ञान हो जाता है । तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जानेपर ‘अहम्’ और ‘अहम्’ की अवस्थाओं की स्वतन्त्र सत्ता सत्यत्वेन किंचित भी नहीं रहती । जिस प्रकार समुद्र और लहरोंमें सत्ता जलकी ही है, समुद्र और लहरोंकी किसी भी काल में कोई स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । उसी प्रकार ‘अहम्’ और अवस्थाओं में एक भगवत्तत्त्व की सत्ता है अर्थात् सर्वत्र एक भगवत्तत्त्व ही शेष रह जाता है । इसीको गीताने ‘वासुदेवः सर्वम्’ कहा है ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


रविवार, 16 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 10)



उपसंहार (i)

उपर्युक्त विवेचनसे यह सिद्ध होता है कि प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप संसारसे अतीत एवं प्राकृत दृष्टियोंसे अगोचर जो सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्व है, वही सम्पूर्ण दर्शनोंका आधार एवं सम्पूर्ण साधनोंका अन्तिम लक्ष्य है । उसका अनुभव करके कृतकृत्य, ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्रातव्य हो जानेके लिये ही मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ है । मनुष्य यदि चाहे तो कर्मयोग, ज्ञानयोग अथवा भक्तियोग‒किसी भी एक योगमार्गका अनुसरण करके उस तत्त्वको सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकता है । उसे चाहिये कि वह इन्द्रियाँ और उनके विषयोंको महत्त्व न देकर विवेक-विचारको ही महत्त्व दे और ‘असत्’ से माने हुए सम्बन्धमें सद्भावका त्याग करके ‘सत्’ का अनुभव कर ले ।

सत्ता दो प्रकारकी होती है‒पारमार्थिक और सांसारिक । पारमार्थिक सत्ता तो स्वतःसिद्ध (अविकारी) है, पर सांसारिक सत्ता उत्पन्न होकर होनेवाली (विकारी) है । साधकसे भूल यह होती है कि वह विकारी सत्ताको स्वतःसिद्ध सत्तामें मिला लेता है, जिससे उसे संसार सत्य प्रतीत होने लगता है अर्थात् वह संसारको सत्य मानने लगता है [*] । इस कारण वह राग-द्वेषके वशीभूत हो जाता है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह विवेकदृष्टिको महत्त्व देकर पारमार्थिक सत्ताकी सत्यता एवं सांसारिक सत्ताकी असत्यताको अलग-अलग पहचान ले । इससे उसके राग-द्वेष बहुत कम हो जाते हैं । विवेकदृष्टिकी पूर्णता होनेपर साधकको तत्त्वदृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिससे उसमें राग-द्वेष सर्वथा मिट जाते हैं और उसे भगवत्तत्त्वका अनुभव हो जाता है ।

------------------------------------------
[*] अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् ।
आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपमं ततो द्वयम् ॥
…………(वाक्यसुधा २०)

‘अस्ति, भाति, प्रिय, रूप तथा नाम‒इन पाँचोंमें प्रथम तीन ब्रह्मके रूप हैं और अन्तिम दो जगत्‌के ।’
‒इस श्लोकमें आया ‘अस्ति' पद परमात्माके स्वतःसिद्ध (अविकारी) स्वरूपका वाचक है और‒

जायतेऽस्ति विपरिणमते वर्धतेऽपक्षीयते विनश्यति ।
………..(निरुक्त १ । १ । २)

‘उत्पन्न होना, अस्तित्व धारण करना, सत्तावान् होना, बदलना, बढ़ना, क्षीण होना और नष्ट होना‒ये छः विकार कहे गये हैं ।’ यहाँ आया हुआ ‘अस्ति’ पद संसारके विकारी स्वरूपका वाचक है । तात्पर्य यह है कि इस विकाररूप ‘अस्ति’ में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है; यह एक क्षण भी एकरूप नहीं रहता ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


शनिवार, 15 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 09)


ज्ञानीके व्यवहार की विशेषता

तत्त्वज्ञान होनेसे पूर्वतक साधक (अन्तःकरणको अपना माननेके कारण) तत्त्वमें अन्तःकरणसहित अपनी स्थिति मानता है । ऐसी स्थितिमें उसकी वृत्तियाँ व्यवहारसे हटकर तत्त्वोन्मुखी हो जाती हैं, अतः उसके द्वारा संसारके व्यवहारमें भूलें भी हो सकती हैं । अन्तःकरण-(जडता-) से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेपर जड-चेतनके सम्बन्धसे होनेवाला सूक्ष्म ‘अहम्’ पूर्णतः नष्ट हो जाता है । फिर तत्त्वज्ञ पुरुषकी स्वरूपमें नित्य-निरन्तर स्वाभाविक स्थिति रहती है । इसलिये साधनावस्थामें अन्तःकरणको लेकर तत्त्वमें तल्लीन होनेके कारण जो व्यवहारमें भूलें हो सकती हैं, वे भूलें सिद्धावस्थाको प्राप्त तत्त्वज्ञ पुरुषके द्वारा नहीं होतीं, अपितु उसका व्यवहार स्वतः स्वाभाविक सुचारुरूपसे होता है और दूसरोंके लिये आदर्श होता है [*] । इसका कारण यह है कि अन्तःकरणसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेपर तत्त्वज्ञ पुरुषकी स्थिति तो अपने स्वाभाविक स्वरूप अर्थात् तत्त्वमें हो जाती है और अन्तःकरणकी स्थिति अपने स्वाभाविक स्थान‒शरीर-(जडता-) में हो जाती है । ऐसी स्थितिमें तत्त्व तो रहता है, पर तत्त्वज्ञ (तत्त्वका ज्ञाता) नहीं रहता अर्थात् व्यक्तित्व (अहम्) पूर्णतः मिट जाता है । व्यक्तित्वके मिटनेपर राग-द्वेष कौन करे और किससे करे ? उसके अपने कहलानेवाले अन्तःकरणमें अन्तकरणसहित संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अत्यन्त अभाव हो जाता है और परमात्मतत्त्वकी सत्ताका भाव नित्य-निरन्तर जाग्रत् रहता है । अन्तःकरणसे अपना कोई सम्बन्ध न रहनेपर उसका अन्तःकरण मानो जल जाता है । जैसे गैसकी जली हुई बत्तीसे विशेष प्रकाश होता है, वैसे ही उस जले हुए अन्तःकरणसे विशेष ज्ञान प्रकाशित होता है ।

जिस प्रकार परमात्माकी सत्ता-स्फूर्तिसे संसारमात्रका व्यवहार चलते रहनेपर भी परमात्मतत्त्व- (ब्रह्म-) में किंचित भी अन्तर नहीं आता, उसी प्रकार तत्त्वज्ञ पुरुषके स्वभाव [†], जिज्ञासुओंकी जाननेकी अभिलाषा [‡] और भगवत्प्रेरणा [§]‒-- इनके द्वारा तत्त्वज्ञ पुरुषके शरीरसे सुचारु रूप से व्यवहार होते रहने पर भी उसके स्वरूप में किंचित भी अन्तर नहीं आता । उसमें स्वतःसिद्ध निर्लिप्तता रहती है [**] । जबतक प्रारब्धका वेग रहता है, तब तक उसके अन्तःकरण और बहिःकरणसे आदर्श व्यवहार होता रहता है ।

-------------------------------------------
[*] “यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥“
…………………….(गीता ३ । २१)

‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं । वह जो कुछ (वचनोंसे) प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसीके अनुसार आचरण करते हैं ।’

[†] “सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥“
……………….(गीता ३ । ३३)

[‡] “तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥“
……………..(गीता ४ । ३४)

[§] अहम्‌का नाश होनेपर तत्त्वज्ञ महापुरुषकी भगवान्‌के साथ एकता हो जाती है‒‘मम साधर्म्यमागताः’ (गीता १४ । २), अतः उसके द्वारा होनेवाली मात्र क्रियाएँ भगवत्प्रेरित ही होती हैं ।

[**] अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥…(गीता १३ । ३१)
प्रकाश च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥“…(गीता १४ । २२)
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥“…(गीता १४ । २३)

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 08)



व्यवहार के विविध रूप

साधारण (विषयी) पुरुष, विवेकी (साधक) पुरुष और तत्त्वज्ञ (सिद्ध) पुरुष‒तीनोंके भाव अलग-अलग होते हैं । साधारण पुरुष संसारको सत् मानकर राग-द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्तिरूप व्यवहार करते हैं । इसके आगे विचारदृष्टिकी प्रधानतावाले विवेकी पुरुषका व्यवहार राग-द्वेषरहित एवं शास्त्रविधिके अनुसार होता है[*] । विवेकदृष्टिकी प्रधानता रहनेके कारण‒किंचित राग-द्वेष रहनेपर भी उसका (विवेकदृष्टि-प्रधान साधकका) व्यवहार राग-द्वेषपूर्वक नहीं होता अर्थात् वह राग-द्वेषके वशीभूत होकर व्यवहार नहीं करता[**] । उसमें राग-द्वेष बहुत कम‒नहींके बराबर रहते हैं । जितने अंशमें अविवेक रहता है, उतने ही अंशमें राग-द्वेष रहते हैं । जैसे-जैसे विवेक जाग्रत् होता जाता है, वैसे-वैसे राग-द्वेष कम होते चले जाते हैं और वैराग्य बढ़ता चला जाता है । वैराग्य बढ़नेसे बहुत सुख मिलता है; क्योंकि दुःख तो रागमें ही है[***] । पूर्ण विवेक जाग्रत् होनेपर राग-द्वेष पूर्णतः मिट जाते हैं । विवेकी पुरुषको संसारकी सत्ता दर्पणमें पड़े हुए प्रतिबिम्बके समान असत् दीखती है । इसके आगे तत्त्वदृष्टि प्राप्त होनेपर तत्त्वज्ञ पुरुष स्वप्नकी स्मृतिके समान संसारको देखता है । इसलिये बाहरसे व्यवहार समान होनेपर भी विवेकी और तत्त्वज्ञ पुरुषके भावोंमें अत्यन्त अन्तर रहता है ।

साधारण पुरुषमें इन्द्रियोंकी, साधक पुरुषमें विवेक-विचारकी और सिद्ध पुरुषमें स्वरूपकी प्रधानता रहती है । साधारण पुरुषके राग-द्वेष पत्थरपर पड़ी लकीरके समान (दृढ़) होते हैं । विवेकी पुरुषके राग-द्वेष आरम्भमें बालूपर पड़ी लकीरके समान एवं विवेककी पूर्णता होनेपर जलपर पड़ी लकीरके समान होते हैं । तत्त्वज्ञ पुरुषके राग-द्वेष आकाशमें पड़ी लकीरके समान (जिसमें लकीर खिंचती ही नहीं, केवल अँगुली दीखती है) होते हैं; क्योंकि उसकी दृष्टिमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती ।

----------------------------------------------
[*] “तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥“
.........................(गीता १६ । २४)

‘तेरे लिये कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है । ऐसा जानकर तू इस लोकमें शास्त्र-विधिसे नियत कर्म ही करनेयोग्य है ।’

[**] “इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥“
......................(गीता ३ । ३४)

‘इन्द्रिय, इन्द्रियके अर्थमें अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष व्यवस्थासे स्थित हैं । मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण-मार्गमें विघ्र करनेवाले महान् शत्रु हैं ।’

[***] साधकको चाहिये कि वह इस साधनजन्य सुखमें सन्तोष अथवा सुखका भोग न करें भगवान् कहते हैं कि‒---

“तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसड्‌गेन चानघ ॥“
.........................(गीता १४ । ६)

‘हे निष्पाप अर्जुन ! उन तीनों गुणोंमें सत्त्वगुण निर्मल होनेके कारण प्रकाश करनेवाला और विकाररहित है । वह सुखके सम्बन्ध (भोग) से और ज्ञानके सम्बन्ध-(अभिमान-) से साधकको बाँधता है ।’

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 07)


तत्त्वप्राप्तिका उपाय

तत्त्वको प्राप्त करनेका सर्वोत्तम उपाय है‒एकमात्र तत्त्वप्राप्तिका ही उद्देश्य बनाना । वास्तवमें उद्देश्य पहले बना है और उस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये मनुष्य-शरीर पीछे मिला है । परंतु मनुष्य भोगोंमें आसक्त होकर अपने उस (तत्त्व-प्राप्तिके) उद्देश्यको भूल जाता है । इसलिये उस उद्देश्यको पहचानकर उसकी सिद्धिका दृढ़ निश्रय करना है । उद्देश्यपूर्तिका निश्चय जितना दृढ़ होता है, उतनी ही तेजीसे साधक तत्त्वप्राप्तिकी ओर अग्रसर होता है । उद्देश्यकी दृढ़ताके लिये सबसे पहले साधक बहिःकरण-(इन्द्रियदृष्टि-) को महत्त्व न देकर अन्तःकरण-(बुद्धि अथवा विचारदृष्टि-) को महत्त्व दे । विचारदृष्टिसे दिखायी देगा कि जितने भी शरीरादि सांसारिक पदार्थ हैं, वे सब-के-सब उत्पत्तिसे पहले भी नहीं थे और विनाशके बाद भी नहीं रहेंगे एवं वर्तमानमें भी वे निरन्तर बदल रहे हैं । तात्पर्य यह कि सब पदार्थ आदि और अन्तवाले हैं । जो पदार्थ आदि और अन्तवाला होता है, वह वास्तवमें होता ही नहीं; क्योंकि यह सिद्धान्त है कि जो पदार्थ आदि और अन्तमें नहीं होता, वह वर्तमानमें भी नहीं होता‒‘आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा’ (माण्डूक्यकारिका) । इस प्रकार विचार-दृष्टिको महत्त्व देनेसे सत् और असत्, प्रकृति और पुरुषके अलग-अलग ज्ञान-(विवेक-) का अनुभव हो जाता है और साधकमें वास्तविक तत्त्व-(सत्-) को प्राप्त करनेकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् हो जाती है । संसारके सुखको तो क्या, साधनजन्य सात्त्विक सुखका भी आश्रय न लेनेसे परम व्याकुलता जाग्रत् हो जाती है । फलतः साधक संसार-(असत्‌-) से सर्वथा विमुख हो जाता है और उसे तत्त्वदृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिसके प्राप्त होनेसे एकमात्र सत्-तत्त्व‒भगवत्तत्त्वकी सत्ताका अनुभव हो जाता है ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन.........

कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास।।

(यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है। क्योंकि इस युग में श्रीरामजी के निर्मल गुणसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाता है )


गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

राम राम रटते रहो जब लगि घट मे प्रान। कभी तो दीनदयाल के भनक पड़ेगी कान ।।

हनुमान जी का सिद्धांत है कि जीव चाहे लेटा हो या बैठा हो अथवा खडा ही क्यों न हो, जिस किसी भी दशा में श्रीराम नाम का स्मरण करके वह भगवान् के परमपद को प्राप्त हो जाता है |

“आसीनो वा शयानो वा तिष्ठन् वा यत्र कुत्र वा |
श्रीरामनाम संस्मृत्य याति तत्परमं पदम् ||”


बुधवार, 12 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 06)


सहज-निवृत्तिरूप वास्तविक तत्त्व

संसारमें एक तो प्रवृत्ति (करना) होती है और एक निवृत्ति (न करना) होती है । जिसका आदि और अन्त हो, वह क्रिया अथवा अवस्था कहलाती है । प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों ही क्रियाएँ अथवा अवस्थाएँ हैं । तात्पर्य यह है कि जैसे प्रवृत्ति क्रिया है, वैसे ही निवृत्ति भी क्रिया है । प्रवृत्ति निवृत्तिको और निवृत्ति प्रवृत्तिको जन्म देती है । क्रिया और अवस्थामात्र प्रकृतिकी ही होती है; तत्त्वकी नहीं । इस दृष्टिसे प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों प्रकृतिके राज्यमें ही हैं । निर्विकल्प समाधितक प्रकृतिका राज्य है; क्योंकि निर्विकल्प समाधिसे भी ‘व्युत्थान’ होता है । अतएव जागने, चलने, बोलने, देखने, सुनने आदिके समान सोना, बैठना, मौन होना, मूर्छित होना, समाधिस्थ होना आदि भी क्रियाएँ अथवा अवस्थाएँ ही हैं ।

अवस्थासे अतीत जो अक्रिय परमात्मतत्त्व है, उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों ही नहीं हैं । अवस्थाएँ बदलती हैं, पर वह तत्त्व नहीं बदलता । वह वास्तविक तत्त्व सहज-निवृत्तिरूप है । उस तत्त्वमें मनुष्यमात्रकी (स्वरूपसे) स्वाभाविक स्थिति है । वह परमतत्त्व सम्पूर्ण देश, काल, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदिमें स्वाभाविकरूपसे ज्यों-का-त्यों विद्यमान रहता है । अतएव उस सहज-निवृत्तिरूप परमतत्त्वको जो चाहे, जब चाहे, जहाँ चाहे प्राप्त कर सकता है । आवश्यकता केवल प्राकृत-दृष्टियोंके प्रभावसे मुक्त होनेकी है ।

‘स्वयम्’ का प्रकृतिसे माना हुआ सम्बन्ध ही ‘अहम्’ कहलाता है । साधक प्रमादवश अपनी वास्तविक सत्ताको (जहाँसे ‘अहम्’ उठता है अथवा जो ‘अहम्’ का आधार है) भूलकर माने हुए ‘अहम्’ को ही (जो उत्पन्न होनेपर सत्तावान् है) अपनी सत्ता या अपना स्वरूप मान लेता है । माना हुआ ‘अहम्’ बदलता रहता है, पर वास्तविक तत्त्व (स्वरूप) कभी नहीं बदलता । इस माने हुए ‘अहम्’ को भगवान्‌ने इदंतासे कहा है; जैसे‒‘अहङ्कार इतीयम्’ (गीता ७ । ४) और ‘अपरा इयम्’ (गीता ७ । ५) । जबतक यह माना हुआ ‘अहम्’ रहता है तबतक साधकका प्रकृति-(प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप अवस्था-) से सम्बन्ध बना रहता है, और उसमें साधक निवृत्तिको अधिक महत्त्व देता रहता है । यह ‘अहम्’ प्रवृत्तिमें ‘कार्य’-रूपसे और निवृत्तिमें ‘कारण’-रूपसे रहता है । ‘अहम्’ का नाश होते ही प्रवृत्ति और निवृत्तिसे परे जो वास्तविक तत्त्व है, उसमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है । फिर तत्त्वज्ञ पुरुषका प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनोंसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता । ऐसा होनेपर प्रवृत्ति और निवृत्तिका नाश नहीं होता, अपितु उनका बाह्य चित्रमात्र रहता है । इस प्रकार वास्तविक तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिके अनुभवको ही दार्शनिकोंने सहज-निवृत्ति, सहजावस्था, सहज-समाधि आदि नामोंसे कहा है ।
 
प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप संसारसे माने हुए प्रत्येक संयोगका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है । कारण यह है कि संसारसे माना हुआ संयोग अस्वाभाविक और उसका वियोग स्वाभाविक है । विचारपूर्वक देखा जाय तो संयोगकालमें भी वियोग ही है अर्थात् संयोग है ही नहीं । परंतु संसारसे माने हुए संयोगमें सद्‌भाव (सत्ता-भाव) कर लेनेसे वियोगका अनुभव नहीं हो पाता । तात्त्विक दृष्टिसे देखा जाय तो जिसका वियोग होता है, उस प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । जैसे, बाल्यावस्थासे वियोग हो गया, तो अब उसकी सत्ता कहाँ है ? जैसे वर्तमानमें भूतकालकी सत्ता नहीं है, वैसे ही वर्तमान और भविष्यत्कालकी भी सत्ता नहीं है । जहाँ भूतकाल चला गया, वहीं वर्तमान जा रहा है और भविष्यत्काल भी वहीं चला जायगा । इसीलिये भगवान्‌ने गीतामें कहा है‒

“नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥“
                                         ...................(२ । १६)

‘असत्‌ की तो सत्ता विद्यमान नहीं है और सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है । इन दोनोंका ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी महापुरुषोंके द्वारा देखा गया है ।’

प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप संसारसे वियोगका अनुभव होनेपर सहज-निवृत्तिरूप वास्तविक तत्त्वका ज्ञान हो जाता है और वियुक्त होनेवाले संसारकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार न करनेसे वह तत्त्वज्ञान दृढ़ हो जाता है ।

नारायण ! नारायण !!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे



मंगलवार, 11 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 05)


साध्यतत्त्व की एकरूपता

जैसे नेत्र तथा नेत्रों से दीखने वाला दृश्य‒दोनों सूर्य से प्रकाशित होते हैं, वैसे ही बहिःकरण, अन्तःकरण, विवेक आदि सब उसी परम प्रकाशक तत्त्व से प्रकाशित होते हैं‒‘तस्य भासा सर्वमिदं विभाति’ (श्वेताश्वतर॰ ६ । १४) । जो वास्तविक प्रकाश अथवा तत्त्व है, वही सम्पूर्ण दर्शनों का आधार है । जितने भी दार्शनिक हैं, प्रायः उन सबका तात्पर्य उसी तत्त्व को प्राप्त करने में है । दार्शनिकों की वर्णन-शैलियाँ तथा साधन-पद्धतियाँ तो अलग-अलग हैं, पर उनका तात्पर्य एक ही है । साधकों में रुचि, विश्वास और योग्यता की भिन्नता के कारण उनके साधनों में तो भेद हो जाते हैं, पर उनका साध्यतत्त्व वस्तुतः एक ही होता है ।

“नारायण अरु नगरके, रज्जब राह अनेक ।
भावे आवो किधरसे, आगे अस्थल एक ॥“

दिशाओं की भिन्नता के कारण नगर में जाने के अलग-अलग मार्ग होते हैं । नगर में कोई पूर्व से, कोई पश्रिम से, कोई उत्तर से और कोई दक्षिण से आता है; परन्तु अन्त में सब एक ही स्थान पर पहुँचते हैं । इसी प्रकार साधकों की स्थिति की भिन्नता के कारण साधन-मार्गोंमें भेद होने पर भी सब साधक अन्त में एक ही तत्त्व को प्राप्त होते हैं । इसीलिये संतों ने कहा है‒

“पहुँचे पहुँचे एक मत, अनपहुँचे मत और ।
संतदास घड़ी अरठकी, ढुरे एक ही ठौर ॥“

प्रत्येक मनुष्य की भोजन की रुचि में दूसरे से भिन्नता रहती है; परंतु ‘भूख’ और ‘तृप्ति’ सब की समान ही होती है अर्थात् अभाव और भाव सब के समान ही होते हैं । ऐसे ही मनुष्यों की वेश-भूषा, रहन-सहन, भाषा आदि में बहुत भेद रहते हैं; परंतु ‘रोना’ और ‘हँसना’ सब के समान ही होते हैं अर्थात् दुःख और सुख सब को समान ही होते हैं । ऐसा नहीं होता कि यह रोना या हँसना तो मारवाड़ी है, यह गुजराती है, यह बँगाली है आदि ! इसी प्रकार साधन-पद्धतियोमें भिन्नता रहने पर भी साध्य की ‘अप्राप्तिका दुःख’ और ‘प्राप्तिका आनन्द’ सब साधकों को समान ही होते हैं ।

वह परमात्मतत्त्व ही ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करता है, विष्णुरूप से सब का पालन-पोषण करता है और रुद्ररूप से सबका संहार करता है‒‘भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥’ (गीता १३ । १६) । वही तत्त्व अनेक अवतार लेकर, अनेक रूपों में लीला करता है । इस प्रकार अनेक रूपों से दीखने पर भी वह तत्त्व वस्तुतः एक ही रहता है और तत्त्व-दृष्टि से एक ही दीखता है । इस तत्त्वदृष्टि की प्राप्ति को ही दार्शनिकों ने मोक्ष, परमात्मप्राप्ति, भगवत्प्राप्ति, तत्त्वज्ञान आदि नामोंसे कहा है ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


सोमवार, 10 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 04)



जिस प्रकार प्रकाश बल्ब में नहीं होता, अपितु बल्ब में आता है, उसी प्रकार यह अनादिसिद्ध विवेक भी बुद्धि में पैदा नहीं होता, अपितु बुद्धि में आता है । इन्द्रियदृष्टि की अपेक्षा बुद्धिदृष्टि की प्रधानता होनेसे विवेक विशेष स्फुरित होता है, जिससे सत्‌ की सत्ता और असत्‌ के अभाव का अलग-अलग ज्ञान हो जाता है । विवेकपूर्वक असत्‌ का त्याग कर देनेपर जो शेष रहता है, वही तत्त्व है । तत्त्वदृष्टि से देखनेपर एक भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्वके सिवा संसार, शरीर, अन्तःकरण, बहिःकरण आदि किसीकी भी स्वतन्त्र सत्ता सत्यत्वेन किंचिन्मात्र भी नहीं रहती । तब एकमात्र ‘वासुदेवः सर्वम्’‒‘सब कुछ वासुदेव ही हैं’‒इसका बोध हो जाता है ।

इस प्रकार यह संसार बहिकरण-(इन्द्रियाँ-) से देखनेपर नित्य एवं सुखदायी, अन्तःकरण-(बुद्धि-) से देखनेपर अनित्य एवं दुःखदायी तथा तत्त्वसे देखनेपर परमात्मस्वरूप दिखायी देता है ।

साधककी विवेकदृष्टि और सिद्धकी तत्त्वदृष्टिमें अन्तर यह है कि विवेकदृष्टिसे सत् और असत्-दोनों अलग-अलग दीखते हैं और सत्‌का अभाव नहीं एवं असत्‌का भाव नहीं‒ऐसा बोध होता है । इस प्रकार विवेकदृष्टिका परिणाम होता है‒असत्‌के त्यागपूर्वक सत्‌की प्राप्ति । जहाँ सत्‌की प्राप्ति होती है वहाँ तत्त्वदृष्टि रहती है । तत्त्वदृष्टिसे संसार कभी सत्यरूपसे प्रतीत नहीं होता । तात्पर्य है कि विवेकदृष्टिमें सत् और असत्‒दोनों रहते हैं और तत्त्वदृष्टिमें केवल सत् रहता है ।

विवेकको महत्त्व देनेसे इन्द्रियों का ज्ञान लीन हो जाता है । उस विवेकसे परे जो वास्तविक तत्त्व है, वहाँ विवेक भी लीन हो जाता है ।

वास्तविक दृष्टि‒- वस्तुतः तत्त्वदृष्टि ही वास्तविक दृष्टि है । इन्द्रियदृष्टि और बुद्धिदृष्टि वास्तविक नहीं है; क्योंकि जिस धातुका संसार है, उसी धातुकी ये दृष्टियाँ हैं । अतः ये दृष्टियाँ सांसारिक अथवा पारमार्थिक विषयमें पूर्ण निर्णय नहीं कर सकतीं । तत्त्वदृष्टिमें ये सब दृष्टियाँ लीन हो जाती हैं । जैसे रात्रिमें बल्ब जलानेसे प्रकाश होता है; परंतु वही बल्ब यदि मध्याह्नकालमें (दिनके प्रकाशमें) जलाया जाता है तो उसके प्रकाश का भान तो होता है, पर उस प्रकाश का (सूर्य के प्रकाश के सामने) कोई महत्त्व नहीं रहता; वैसे ही इन्द्रियदृष्टि और बुद्धिदृष्टि अज्ञान (अविद्या) अथवा संसारमें तो काम करती हैं; पर तत्त्वदृष्टि हो जानेपर इन दृष्टियोंका उसके (तत्त्वदृष्टिके) सामने कोई महत्त्व नहीं रह जाता । ये दृष्टियाँ नष्ट तो नहीं होतीं, पर प्रभावहीन हो जाती हैं । केवल सच्चिदानन्दरूपसे एक ज्ञान शेष रह जाता है; उसीको भगवत्तत्त्व या परमात्मतत्त्व कहते हैं । वही वास्तविक तत्त्व है । शेष सब अतत्त्व हैं ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


रविवार, 9 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 03)


वह तत्त्व ही संसाररूपसे भास रहा है । परंतु जबतक उधर दृष्टि नहीं जाती, तबतक संसार-ही-संसार दीखता है, तत्त्व नहीं । जैसे, जबतक ‘यह गंगाजी हैं’‒इस तरफ दृष्टि नहीं जाती, तबतक वह साधारण नदी ही दीखती है । परमात्मतत्त्व तत्त्वदृष्टिसे ही देखा जा सकता है ।

तीन प्रकारकी दृष्टियाँ :

मनुष्यकी दृष्टियाँ तीन प्रकारकी हैं‒ 

(१) इन्द्रियदृष्टि (बहिःकरण) [*], 
(२) बुद्धिदृष्टि (अन्तःकरण) [**] ...और 
(३) तत्त्वदृष्टि (स्वरूप)[***]   
---‒ये तीनों दृष्टियाँ क्रमशः एक-एकसे सूक्ष्म एवं श्रेष्ठ हैं ।

संसार असत् और अस्थिर होते हुए भी इन्द्रियदृष्टि से देखनेपर सत् एवं स्थिर प्रतीत होता है, जिससे संसारमें राग हो जाता है । बुद्धिदृष्टिमें वस्तुतः विवेक ही प्रधान है । जब बुद्धिमें भोगों-(इन्द्रियों तथा उनके विषयों-) की प्रधानता नहीं होती, अपितु विवेककी प्रधानता होती है, तब बुद्धिदृष्टिसे संसार परिवर्तनशील और उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाला दीखता है, जिससे संसारसे वैराग्य हो जाता है ।

जड-चेतन, नित्य-अनित्य, सत्-असत् आदि दो वस्तुओंके अलग-अलग ज्ञानको ‘विवेक’ कहते हैं । यह विवेक प्राणिमात्रमें स्वतः विद्यमान है । पशुपक्षियोंमें शरीर-निर्वाहके योग्य ही (खाद्य-अखाद्यका) विवेक रहता है; परंतु मनुष्यमें यह विवेक विशेषरूपसे जाग्रत् होता है । विवेक अनादि है । भगवान् कहते हैं‒

“प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।“
                                               . ..............(गीता १३ । १९)
(प्रकृति और पुरुष‒इन दोनोंको ही तू अनादि जान)|

‒इस श्लोकार्द्धमें आये ‘उभौ’ (दोनों) पदसे यह सिद्ध होता है कि जैसे प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं, वैसे ही इन दोनोंका भेद ज्ञानरूप विवेक भी अनादि है । ‘उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः’ ॥ (गीता २ । १६) ‘तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने सत्-असत् दोनोंका ही तत्त्व देखा है’‒इस श्लोकार्द्धमें आये ‘उभयोः’ पदसे भी यही बात सिद्ध होती है ।

---------------------------------------
[*] यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
    अतत्त्वार्थवदल्पं च  तत्तामसमुदाहृतम् ॥
   ............(१८  । २२)
[**] सर्वभूतेषु    येनैकं          भावमव्ययमीक्षते ।
      विभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥
       ...............(१८ । २०)
[***] बहूनां जन्मनामन्ते  ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
       वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
    ..............(७ । १९)

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


शनिवार, 8 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 02)


यदि साधक की समझ में यह बात आ जाय, तो उपर्युक्त किसी भी मार्ग से भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्व की प्राप्ति बहुत सुगमता से हो सकती है [*] । कारण यह है कि परमात्मा सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदि में ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं । उनका कभी कहीं अभाव नहीं है । इसलिये स्वतःसिद्ध, नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में कठिनता का प्रश्न ही नहीं है । नित्यप्राप्त परमात्मा की प्राप्ति में कठिनाई प्रतीत होने का प्रधान कारण है‒सांसारिक सुखकी इच्छा । इसी कारण साधक संसारसे अपना सम्बन्ध मान लेता है और परमात्मासे विमुख हो जाता है । संसारसे माने हुए सम्बन्धके कारण ही साधक नित्यप्राप्त भगवत्तत्त्वको अप्राप्त मानकर उसकी प्राप्तिको परिश्रम-साध्य एवं कठिन मान लेता है । वास्तवमें भगवत्तत्त्व की प्राप्ति में कठिनता नहीं है, प्रत्युत संसार के त्याग में कठिनता है, जो कि निरन्तर हमारा त्याग कर रहा है । अतएव भगवत्तत्त्व का सुगमता से अनुभव करने के लिये संसार से माने हुए संयोग का वर्तमान में ही वियोग अनुभव करना अत्यावश्यक है, जो तभी सम्भव है जब संयोगजन्य सुख की इच्छा का परित्याग कर दिया जाय ।

तत्त्व-दृष्टिसे एक परमात्मतत्त्व के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं----ऐसा ज्ञान हो जाने पर मनुष्य फिर जन्म-मरणके चक्रमें नहीं पड़ता । भगवान् कहते हैं‒

“यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।“
 ...................(गीता ४ । ३५)
‘जिसे जानकर फिर तू इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा ।’

----------------------------
[*] कर्मयोग से सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति‒--

“ज्ञेयः स नित्य सन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि  महाबाहो   सुखं   बन्धात्प्रमुच्यते ॥“
...........(गीता ५ । ३)

‘हे महाबाहो ! जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी समझने योग्य है; क्योंकि द्वन्द्वों से रहित वह सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।’

ज्ञानयोग से सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति‒--

“युञ्जन्नेवं सदात्मान योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन   ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं    सुखमश्नुते ॥“
  ........(गीता ६ । २८)

‘अपने-आप को सदा परमात्मा में लगाता हुआ पापरहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्मप्राप्तिरूप अत्यन्त सुख को प्राप्त हो जाता है ।’

भक्तियोग से सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति‒

“अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥“
   .....(गीता ८ । १४)

‘हे पार्थ ! अनन्यचित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुगमतासे प्राप्त हो जाता हूँ ।’

[ इस विषयको विस्तारसे जाननेके लिये गीताप्रेससे प्रकाशित ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकमें ‘गीतामें तीनों योगोंकी समानता’ शीर्षक लेख देखना चाहिये । ]

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

भगवत्तत्व (वासुदेव: सर्वम् ...पोस्ट 01)



भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्व वह तत्त्व है, जिसमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई विकार या परिवर्तन नहीं होता, जो सम्पूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदिमें समानरूपसे परिपूर्ण है, जो सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप है और जो जीवमात्रका वास्तविक स्वरूप है । वह एक ही तत्त्व निर्गुण-निराकार होनेसे ‘ब्रह्म’, सगुण-निराकार होनेसे ‘परमात्मा’ तथा सगुण-साकार होनेसे ‘भगवान्’ नामसे कहा जाता है‒--

“वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं  यज्ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥“
                           …………………..(श्रीमद्भागवत १ । २ । ११)

वही एक तत्त्व संसारमें अनेक रूपोंसे भास रहा है । जिस प्रकार स्वर्णसे बने गहनोंमें नाम, आकृति, उपयोग, तौल और मूल्य अलग-अलग होते हैं एवं ऊपरसे मीना आदि होनेसे रंग भी अलग-अलग होते हैं, परंतु इतना होनेपर भी स्वर्णतत्त्वमें कोई अन्तर नहीं आता, वह वैसा-का-वैसा ही रहता है । इसी प्रकार जो कुछ भी देखने, सुनने, जाननेमें आता है, उन सबके मूलमें एक ही परमात्मतत्त्व विद्यमान है; इसीके अनुभवको गीतामें ‘वासुदेवः सर्वम्’ कहा है (७ । १९) ।

इस तत्त्वकी प्राप्तिके लिये संसारमें तीन योग मुख्य माने जाते हैं‒कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग । कर्मयोगमें साधक कर्म-बन्धनसे मुक्त होकर भगवत्तत्त्वको प्राप्त हो जाता है‒

“यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥“
                                 ……………..(गीता ४ । २३)
“योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥“
                                 ……………..(गीता ५ । ६)
ज्ञानयोगमें साधक परमात्माको तत्त्वसे जानकर उनमें प्रविष्ट हो जाता है‒--
“ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ।“
                                 ………………(गीता १८ । ५५)

भक्तियोगमें साधक अनन्यभक्तिसे भगवान्‌को तत्त्वसे जान लेता है, उनके प्रत्यक्ष दर्शन कर लेता है और उनमें प्रविष्ट हो जाता है । गीतामें भगवान् कहते हैं‒

“भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं  द्रष्टुं  च  तत्त्वेन   प्रवेष्टुं  च  परन्तप ॥“
                        …………………(११ । ५४)

साधक अपनी रुचि, विश्वास और योग्यताके अनुसार चाहे योगमार्गसे चले, चाहे ज्ञानमार्गसे चले, चाहे भक्तिमार्गसे चले, अन्तमें इन सभी मार्गोंके साधकोंको एक ही तत्त्वकी प्राप्ति होती है । वही एक तत्त्व शास्त्रोंमें अनेक नामोंसे वर्णित हुआ है । उस तत्त्वका अनुभव होनेके बाद फिर कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे


बुधवार, 5 अप्रैल 2023

कलियुग में नाम-महिमा



“भरोसो जाहि दूसरो सो करो ।
मोको तो रामको नाम कलपतरु कलि कल्यान करो ॥ १ ॥
करम, उपासन, ग्यान, बेदमत, सो सब भाँति खरो ।
मोहि तो ‘सावनके अंधहि’ ज्यों सूझत रंग हरो ॥ २ ॥
चाटत रह्यो स्वान पातरि ज्यों कबहुँ न पेट भरो ।
सो हौं सुमिरत नाम-सुधारस पेखत परूसि धरो ॥ ३ ॥
स्वारथ औ परमारथ हू को नहिं कुंजरो-नरो ।
सुनियत सेतु पयोधि पषाननि करि कपि-कटक तरो ॥ ४ ॥
प्रीति-प्रतीति जहाँ जाकी, तहँ ताको काज सरो ।
मेरे तो माय-बाप दोउ आखर, हौं सिसु-अरनि अरो ॥ ५ ॥
संकर साखि जो राखि कहौं कछु तौ जरि जीह गरो ।
अपनो भलो राम-नामहि ते तुलसिहि समुझि परो ॥ ६ ॥“
                  ………………..(विनय-पत्रिका, पद २२६)

जिसे दूसरे का भरोसा हो, वह भले ही करे, पर मेरे तो यह ‘राम’ नाम ही कल्पवृक्ष है । अन्त में कहते हैं‒‘मेरे तो माय-बाप दोउ आखर’‒मेरे तो माँ-बाप ये दोनों अक्षर ‘र’ और ‘म’ हैं । मैं तो इनके आगे बच्चेकी तरह अड़ रहा हूँ । यदि मैं कुछ भी छिपाकर कहता होऊँ तो भगवान् शंकर साक्षी हैं; मेरी जीभ जलकर या गलकर गिर जाय । गवाही देनेवालेसे कहा जाता है कि ‘सच्चा-सच्चा कहते हो न ? तो गंगाजल उठाओ सिरपर !’ ऐसे भगवान् शंकर जो गंगाको हर समय सिरपर अपनी जटामें धारण किये हुए रहते हैं, उनकी साक्षी में कहता हूँ । वे कहते हैं तुलसीदासको तो यही समझमें आया कि अपना कल्याण एक ‘राम’ नामसे ही हो सकता है । इस प्रकार ‘राम’ नाम लेनेसे लोक-परलोक दोनों सुधर जाते हैं । कितनी बढ़िया बात है !

“नहि कलि करम न भगति बिबेकू ।
राम   नाम    अवलंबन      एकू ॥
कालनेमि  कलि   कपट   निधानू ।
नाम   सुमति  समरथ    हनुमानू ॥“
                          ……………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा २७ । ७-८)

वेदोंमें तीन काण्ड हैं‒कर्मकाण्ड उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड । इसलिये कहते हैं कि कलियुग में कर्म का भी सांगोपांग अनुष्ठान नहीं कर सकते, भक्ति का भी सांगोपांग अनुष्ठान नहीं कर सकते और ‘ग्यान पंथ कृपान कै धारा’ वह तो कड़ा है ही, कर ही नहीं सकते । तो कहते हैं एक  ‘राम’ नाम ही अवलम्बन है उसके लिये ।

यह कलियुग महाराज कालनेमि राक्षस है, कपट का खजाना है और नाम महाराज हनुमान्‌ जी हैं । हनुमान्‌जी संजीवनी लेने के लिये जा रहे थे । रास्ते में प्यास लग गयी । मार्ग में कालनेमि तपस्वी बना हुआ बड़ी सुन्दर जगह आश्रम बनाकर बैठ गया । रावण ने यह सुन लिया था कि हनुमान्‌ जी संजीवनी लाने जा रहे हैं और संजीवनी सूर्योदय से पहले दे देंगे तब तो लक्ष्मण जी जायगा और नहीं तो मर जायगा । इसलिये किसी तरहसे हनुमान्‌ को रोकना चाहिये । कालनेमि ने कहा कि ‘मैं रोक लूँगा ।’ वह तपस्वी बनकर बैठ गया । हनुमान्‌जीने साधु देखकर उसे नमस्कार किया । ‘तुम कैसे आये हो ?’ ‘महाराज ! प्यास लग गयी ।’ तो बाबाजी कमण्डलु का जल देने लगा । ‘इतने जल से मेरी तृप्ति नहीं होगी ।’ ‘अच्छा, जाओ, सरोवर में पी आओ ।’ वहाँ गये तो मकरी ने पैर पकड़ लिया, उसका उद्धार किया । उसने सारी बात बतायी कि ‘महाराज ! यह कालनेमि राक्षस है और आपको कपट करके ठगने के लिये बैठा है ।’ हनुमान्‌ जी लौटकर आये तो वह बोला‒‘लो भाई, आओ ! दीक्षा दें तुम्हारे को ।’ हनुमान्‌जी ने कहा‒‘महाराज, पहले गुरुदक्षिणा तो ले लीजिये ।’ पूँछ में लपेट कर ऐसा पछाड़ा कि प्राणमुक्त कर दिये । कलियुग कपट का खजाना है । जो नाम महाराज का आश्रय ले लेता है, वह कपट में नहीं आता ।

राम !   राम !!   राम !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में  नाम-वन्दना” पुस्तकसे


मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

।। श्री जानकीवल्लभो विजयते।।

हे राघव ! सीता के सहित आप सर्वदा मेरे हृदय में निवास करें; मुझे चलते-फिरते सदा आपका स्मरण बना रहे ॥

(सदा मे सीतया सार्धं हृदये वस राघव ।
गच्छतस्तिष्ठतो वापि स्मृतिः स्यान्मे सदा त्वयि)
          ....अध्यात्मरामायण (३-४-४४)


सोमवार, 3 अप्रैल 2023

साधक के लिए करणीय

 


यदि संभव हो तो सात दिन में एक बार, जिनसे स्वभाव मिलता हो— ऐसे सत्संगी भाइयों के साथ बैठकर आपस में विचार-विनिमय करें और उनके सामने अपने दोषों को बिना किसी संकोच तथा छिपाव के स्पष्ट शब्दों में प्रकट कर दें तथा उनको हटाने के लिए उनसे परामर्श लें | ऐसा करने से साधक के दोष शीघ्र ही मिट जाते हैं |


...ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज




श्रीराम जय राम जय जय राम !

“तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन । 
जानहिं भगत भगत उर चंदन॥“
 
( हे रघुनंदन ! हे भक्तों के हृदय को शीतल करनेवाले चंदन ! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं )


शनिवार, 1 अप्रैल 2023

श्रीसीतारामाभ्यां नम:

“परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता।।
मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया।।“

( जीव परतंत्र है, भगवान् स्वतंत्र हैं। जीव अनेक हैं, श्रीपति भगवान् एक हैं। यद्यपि माया का किया हुआ यह भेद असत् है तथापि वह भगवान् के भजन के बिना करोड़ों उपाय करनेपर भी नहीं जा सकता )

-----श्रीरामचरितमानस(उत्तरकाण्ड), पुस्तक कोड-81, गीताप्रेस गोरखपुर


श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥  श्रीमद्भागवतमहापुराण  प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५) विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और  गान्धारीका वनमे...