गुरुवार, 31 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)





॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

भगवान्‌ वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी माँगना,
बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना

श्रीभगवानुवाच -
यावन्तो विषयाः प्रेष्ठाः त्रिलोक्यां अजितेन्द्रियम् ।
न शक्नुवन्ति ते सर्वे प्रतिपूरयितुं नृप ॥ २१ ॥
त्रिभिः क्रमैः असन्तुष्टो द्वीपेनापि न पूर्यते ।
नववर्षसमेतेन सप्तद्वीपवरेच्छया ॥ २२ ॥
सप्तद्वीपाधिपतयो नृपा वैन्यगयादयः ।
अर्थैः कामैर्गता नान्तं तृष्णाया इति नः श्रुतम् ॥ २३ ॥
यदृच्छयोपपन्नेन सन्तुष्टो वर्तते सुखम् ।
नासन्तुष्टः त्रिभिर्लोकैः अजितात्मोपसादितैः ॥ २४ ॥
पुंसोऽयं संसृतेर्हेतुः असन्तोषोऽर्थकामयोः ।
यदृच्छयोपपन्नेन सन्तोषो मुक्तये स्मृतः ॥ २५ ॥
यदृच्छालाभतुष्टस्य तेजो विप्रस्य वर्धते ।
तत्प्रशाम्यति असन्तोषाद् अम्भसेवाशुशुक्षणिः ॥ २६ ॥
तस्मात्त्रीणि पदान्येव वृणे त्वद् वरदर्षभात् ।
एतावतैव सिद्धोऽहं वित्तं यावत् प्रयोजनम् ॥ २७ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहाराजन् ! संसार के सब-के-सब प्यारे विषय एक मनुष्य की कामनाओं को भी पूर्ण करने में समर्थ नहीं हैं, यदि वह अपनी इन्द्रियों को वश में रखनेवालासन्तोषी न हो ॥ २१ ॥ जो तीन पग भूमि से सन्तोष नहीं कर लेता, उसे नौ वर्षों से युक्त एक द्वीप भी दे दिया जाय तो भी वह सन्तुष्ट नहीं हो सकता। क्योंकि उसके मनमें सातों द्वीप पानेकी इच्छा बनी ही रहेगी ॥ २२ ॥ मैंने सुना है कि पृथु, गय आदि नरेश सातों द्वीपोंके अधिपति थे; परंतु उतने धन और भोगकी सामग्रियोंके मिलनेपर भी वे तृष्णाका पार न पा सके ॥ २३ ॥ जो कुछ प्रारब्धसे मिल जाय, उसीसे सन्तुष्ट हो रहनेवाला पुरुष अपना जीवन सुखसे व्यतीत करता है। परंतु अपनी इन्द्रियोंको वशमें न रखनेवाला तीनों लोकोंका राज्य पानेपर भी दुखी ही रहता है। क्योंकि उसके हृदयमें असन्तोषकी आग धधकती रहती है ॥ २४ ॥ धन और भोगोंसे सन्तोष न होना ही जीवके जन्म-मृत्युके चक्करमें गिरनेका कारण है। तथा जो कुछ प्राप्त हो जाय, उसीमें सन्तोष कर लेना मुक्तिका कारण है ॥ २५ ॥ जो ब्राह्मण स्वयंप्राप्त वस्तुसे ही सन्तुष्ट हो रहता है, उसके तेजकी वृद्धि होती है। उसके असन्तोषी हो जानेपर उसका तेज वैसे ही शान्त हो जाता है जैसे जलसे अग्रि ॥ २६ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि आप मुँहमाँगी वस्तु देनेवालोंमें शिरोमणि हैं। इसलिये मैं आपसे केवल तीन पग भूमि ही माँगता हूँ। इतने से ही मेरा काम बन जायगा। धन उतना ही संग्रह करना चाहिये, जितने की आवश्यकता हो ॥ २७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी माँगना,
बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना

श्रीबलिरुवाच -
अहो ब्राह्मणदायाद वाचस्ते वृद्धसम्मताः ।
त्वं बालो बालिशमतिः स्वार्थं प्रत्यबुधो यथा ॥ १८ ॥
मां वचोभिः समाराध्य लोकानां एकमीश्वरम् ।
पदत्रयं वृणीते यो अबुद्धिमान् द्वीपदाशुषम् ॥ १९ ॥
न पुमान् मां उपव्रज्य भूयो याचितुमर्हति ।
तस्माद् वृत्तिकरीं भूमिं वटो कामं प्रतीच्छ मे ॥ २० ॥

राजा बलिने कहाब्राह्मणकुमार ! तुम्हारी बातें तो वृद्धों-जैसी हैं, परंतु तुम्हारी बुद्धि अभी बच्चोंकी-सी ही है। अभी तुम हो भी तो बालक ही न, इसीसे अपना हानि-लाभ नहीं समझ रहे हो ॥ १८ ॥ मैं तीनों लोकोंका एकमात्र अधिपति हूँ और द्वीप-का-द्वीप दे सकता हूँ। जो मुझे अपनी वाणीसे प्रसन्न कर ले और मुझसे केवल तीन डग भूमि माँगेवह भी क्या बुद्धिमान् कहा जा सकता है ? ॥ १९ ॥ ब्रह्मचारीजी ! जो एक बार कुछ माँगनेके लिये मेरे पास आ गया, उसे फिर कभी किसीसे कुछ माँगनेकी आवश्यकता नहीं पडऩी चाहिये। अत: अपनी जीविका चलानेके लिये तुम्हें जितनी भूमिकी आवश्यकता हो, उतनी मुझसे माँग लो ॥ २० ॥

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बुधवार, 30 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी माँगना,
बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना


एवं स निश्चित्य रिपोः शरीरं
     आधावतो निर्विविशेऽसुरेन्द्र ।
श्वासानिलान्तर्हितसूक्ष्मदेहः
     तत्प्राणरन्ध्रेण विविग्नचेताः ॥ १० ॥
स तन्निकेतं परिमृश्य
     शून्यमपश्यमानः कुपितो ननाद ।
क्ष्मां द्यां दिशः खं विवरान्समुद्रान्
     विष्णुं विचिन्वन् न ददर्श वीरः ॥ ११ ॥
अपश्यन् इति होवाच मयान्विष्टमिदं जगत् ।
भ्रातृहा मे गतो नूनं यतो नावर्तते पुमान् ॥ १२ ॥
वैरानुबन्ध एतावान् आमृत्योरिह देहिनाम् ।
अज्ञानप्रभवो मन्युः अहंमानोपबृंहितः ॥ १३ ॥
पिता प्रह्लादपुत्रस्ते तद्विद्वान् द्विजवत्सलः ।
स्वमायुर्द्विजलिंगेभ्यो देवेभ्योऽदात् स याचितः ॥ १४ ॥
भवान् आचरितान् धर्मान् आस्थितो गृहमेधिभिः ।
ब्राह्मणैः पूर्वजैः शूरैः अन्यैश्चोद्दामकीर्तिभिः ॥ १५ ॥
तस्मात् त्वत्तो महीमीषद् वृणेऽहं वरदर्षभात् ।
पदानि त्रीणि दैत्येन्द्र सम्मितानि पदा मम ॥ १६ ॥
न अन्यत् ते कामये राजन् वदान्यात् जगदीश्वरात् ।
नैनः प्राप्नोति वै विद्वान् यावदर्थप्रतिग्रहः ॥ १७ ॥

असुरशिरोमणे ! जिस समय हिरण्यकशिपु उनपर झपट रहा था, उसी समय ऐसा निश्चय करके डरसे काँपते हुए विष्णुभगवान्‌ ने अपने शरीर को सूक्ष्म बना लिया और उसके प्राणों के द्वारा नासिकामें से होकर हृदयमें जा बैठे ॥ १० ॥ हिरण्यकशिपु ने उनके लोकको भलीभाँति छान डाला, परंतु उनका कहीं पता न चला। इसपर क्रोधित होकर वह सिंहनाद करने लगा। उस वीरने पृथ्वी, स्वर्ग, दिशा, आकाश, पाताल और समुद्रसब कहीं विष्णुभगवान्‌को ढूँढ़ा, परंतु वे कहीं भी उसे दिखायी न दिये ॥ ११ ॥ उनको कहीं न देखकर वह कहने लगामैंने सारा जगत् छान डाला, परंतु वह मिला नहीं। अवश्य ही वह भ्रातृघाती उस लोकमें चला गया, जहाँ जाकर फिर लौटना नहीं होता ॥ १२ ॥ बस, अब उससे वैरभाव रखनेकी आवश्यकता नहीं, क्योंकि वैर तो देहके साथ ही समाप्त हो जाता है। क्रोधका कारण अज्ञान है और अहंकारसे उसकी वृद्धि होती है ॥ १३ ॥ राजन् ! आपके पिता प्रह्लादनन्दन विरोचन बड़े ही ब्राह्मण भक्त थे। यहाँतक कि उनके शत्रु देवताओंने ब्राह्मणोंका वेष बनाकर उनसे उनकी आयुका दान माँगा और उन्होंने ब्राह्मणोंके छलको जानते हुए भी अपनी आयु दे डाली ॥ १४ ॥ आप भी उसी धर्मका आचरण करते हैं, जिसका शुक्राचार्य आदि गृहस्थ ब्राह्मण, आपके पूर्वज प्रह्लाद और दूसरे यशस्वी वीरोंने पालन किया है ॥ १५ ॥ दैत्येन्द्र ! आप मुँहमाँगी वस्तु देनेवालोंमें श्रेष्ठ हैं। इसीसे मैं आपसे थोड़ी-सी पृथ्वीकेवल अपने पैरोंसे तीन डग माँगता हूँ ॥ १६ ॥ माना कि आप सारे जगत्के स्वामी और बड़े उदार हैं, फिर भी मैं आपसे इससे अधिक नहीं चाहता। विद्वान् पुरुषको केवल अपनी आवश्यकताके अनुसार ही दान स्वीकार करना चाहिये। इससे वह प्रतिग्रहजन्य पापसे बच जाता है ॥ १७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌ वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी माँगना,
बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना

यतो जातो हिरण्याक्षः चरन्नेक इमां महीम् ।
प्रतिवीरं दिग्विजये नाविन्दत गदायुधः ॥ ५ ॥
यं विनिर्जित्य कृच्छ्रेण विष्णुः क्ष्मोद्धार आगतम् ।
आत्मानं जयिनं मेने तद्वीर्यं भूर्यनुस्मरन् ॥ ६ ॥
निशम्य तद्वधं भ्राता हिरण्यकशिपुः पुरा ।
हन्तुं भ्रातृहणं क्रुद्धो जगाम निलयं हरेः ॥ ७ ॥
तं आयान्तं समालोक्य शूलपाणिं कृतान्तवत् ।
चिन्तयामास कालज्ञो विष्णुर्मायाविनां वरः ॥ ८ ॥
यतो यतोऽहं तत्रासौ मृत्युः प्राणभृतामिव ।
अतोऽहं अस्य हृदयं प्रवेक्ष्यामि पराग्दृशः ॥ ९ ॥

(श्रीभगवान् राजा बलि से कह रहे हैं) आपके कुल में ही हिरण्याक्ष-जैसे वीर का जन्म हुआ था। वह वीर जब हाथ में गदा लेकर अकेला ही दिग्विजय के लिये निकला, तब सारी पृथ्वी में घूमने पर भी उसे अपनी जोड क़ा कोई वीर न मिला ॥ ५ ॥ जब विष्णुभगवान्‌ जल में से पृथ्वी का उद्धार कर रहे थे, तब वह उनके सामने आया और बड़ी कठिनाईसे उन्होंने उसपर विजय प्राप्त की। परंतु उसके बहुत बाद भी उन्हें बार-बार हिरण्याक्षकी शक्ति और बलका स्मरण हो आया करता था और उसे जीत लेनेपर भी वे अपनेको विजयी नहीं समझते थे ॥ ६ ॥ जब हिरण्याक्षके भाई हिरण्यकशिपुको उसके वधका वृत्तान्त मालूम हुआ, तब वह अपने भाईका वध करनेवालेको मार डालनेके लिये क्रोध करके भगवान्‌के निवासस्थान वैकुण्ठधाममें पहुँचा ॥ ७ ॥ विष्णुभगवान्‌ माया रचनेवालोंमें सबसे बड़े हैं और समयको खूब पहचानते हैं। जब उन्होंने देखा कि हिरण्यकशिपु तो हाथमें शूल लेकर कालकी भाँति मेरे ही ऊपर धावा कर रहा है, तब उन्होंने विचार किया ॥ ८ ॥ जैसे संसारके प्राणियोंके पीछे मृत्यु लगी रहती हैवैसे ही मैं जहाँ-जहाँ जाऊँगा, वहीं-वहीं यह मेरा पीछा करेगा। इसलिये मैं इसके हृदयमें प्रवेश कर जाऊँ, जिससे यह मुझे देख न सके; क्योंकि यह तो बहिर्मुख है, बाहरकी वस्तुएँ ही देखता है ॥ ९ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



मंगलवार, 29 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

भगवान्‌ वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी माँगना,
बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना

श्रीशुक उवाच -

इति वैरोचनेर्वाक्यं धर्मयुक्तं स सूनृतम् ।
निशम्य भगवान्प्रीतः प्रतिनन्द्येदमब्रवीत् ॥ १ ॥

श्रीभगवानुवाच -

वचस्तवैतत् जनदेव सूनृतं
     कुलोचितं धर्मयुतं यशस्करम् ।
यस्य प्रमाणं भृगवः सांपराये
     पितामहः कुलवृद्धः प्रशान्तः ॥ २ ॥
न ह्येतस्मिन्कुले कश्चित् निःसत्त्वः कृपणः पुमान् ।
प्रत्याख्याता प्रतिश्रुत्य यो वादाता द्विजातये ॥ ३ ॥
न सन्ति तीर्थे युधि चार्थिनार्थिताः
     पराङ्‌मुखा ये त्वमनस्विनो नृपाः ।
युष्मत्कुले यद् यशसामलेन
     प्रह्लाद उद्‍भाति यथोडुपः खे ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजा बलिके ये वचन धर्मभावसे भरे और बड़े मधुर थे। उन्हें सुनकर भगवान्‌ वामन ने बड़ी प्रसन्नता से उनका अभिनन्दन किया और कहा ॥ १ ॥
श्रीभगवान्‌ ने कहाराजन् ! आपने जो कुछ कहा, वह आपकी कुलपरम्परा के अनुरूप, धर्मभाव से परिपूर्ण, यश को बढ़ानेवाला और अत्यन्त मधुर है । क्यों न हो, परलोकहितकारी धर्म के सम्बन्ध में आप भृगुपुत्र शुक्राचार्य को परम प्रमाण जो मानते हैं । साथ ही अपने कुलवृद्ध पितामह परम शान्त प्रह्लादजी की आज्ञा भी तो आप वैसे ही मानते हैं ॥२॥ आपकी वंशपरम्परा में कोई धैर्यहीन अथवा कृपण पुरुष कभी हुआ ही नहीं । ऐसा भी कोई नहीं हुआ, जिसने ब्राह्मणको कभी दान न दिया हो अथवा जो एक बार किसी को कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके बादमें मुकर गया हो ॥ ३ ॥ दान के अवसर पर याचकों की याचना सुनकर और युद्धके अवसर पर शत्रु के ललकारने पर उनकी ओर से मुँह मोड़ लेनेवाला कायर आपके वंश में कोई भी नहीं हुआ। क्यों न हो, आपकी कुलपरम्परा में प्रह्लाद अपने निर्मल यश से वैसे ही शोभायमान होते हैं, जैसे आकाश में चन्द्रमा ॥ ४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥  श्रीमद्भागवतमहापुराण  प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५) विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और  गान्धारीका वनमे...