सोमवार, 17 मई 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण --श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- पहला अध्याय

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- पहला अध्याय

 

परीक्षित्‌ और वज्रनाभ का समागम, शाण्डिल्यमुनि के मुख से

भगवान्‌ की लीला के रहस्य और व्रजभूमिके महत्त्व का वर्णन

 

व्यास उवाच

श्रीसच्चिदानन्दघन स्वरूपिणे

     कृष्णाय चानन्तसुखाभिवर्षिणे ।

 विश्वोद्‌भवस्थाननिरोधहेतवे

     नुमो नु वयं भक्तिरसाप्तयेऽनिशम् ॥ १ ॥

 नैमिषे सूतमासीनं अभिवाद्य महामतिम् ।

 कथामृतरसास्वाद कुशला ऋषयोऽब्रुवन् ॥ २ ॥

 

 ऋषयः ऊचुः -

वज्रं श्रीमाथुरे देशे स्वपौत्रं हस्तिनापुरे ।

 अभिषिच्य गते राज्ञि तौ कथं किंच चक्रतुः ॥ ३ ॥

 

 सूत उवाच -

 नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।

 देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ ४ ॥

 महापथं गते राज्ञि परीक्षित् पृथिवीपतिः ।

 जगाम मथुरां विप्रा वज्रनाभदिदृक्षया ॥ ५ ॥

 पितृव्यमागतं ज्ञात्वा वज्रः प्रेमपरिप्लुतः ।

 अभिगम्याभिवाद्याथ निनाय निजमन्दिरम् ॥ ६ ॥

 परिष्वज्य स तं वीरः कृष्णैकगतमानसः ।

 रोहिण्याद्या हरेः पत्‍नीः ववन्दायतनागतः ॥ ७ ॥

 ताभिः संमानितोऽत्यर्थं परीक्षित् पृथिवीपतिः ।

 विश्रान्तः सुखमासीनो वज्रनाभमुवाच ह ॥ ८ ॥

 

 परीक्षिदुवाच -

 तात त्वत्पितृभिः नूनं अस्मत् पितृपितामहाः ।

 उद्‌धृता भूरिदुःखौघादहं च परिरक्षितः ॥ ९ ॥

 न पारयाम्यहं तात साधु कृत्वोपकारतः ।

 त्वामतः प्रार्थयाम्यङ्‌ग सुखं राज्येऽनुयुज्यताम् ॥ १० ॥

 कोशसैन्यादिजा चिन्ता तथारिदमनादिजा ।

 मनागपि न कार्या ए सुसेव्याः किन्तु मातरः ॥ ११ ॥

 निवेद्य मयि कर्तव्यं सर्वाधिपरिवर्जनम् ।

 श्रुत्वैतत् परमप्रीतो वज्रस्तं प्रत्युवाच ह ॥ १२ ॥

 

 वज्रनाभ उवाच -

 राज उचितमेतत्ते यदस्मासु प्रभाषसे ।

 त्वत्पित्रोपकृतश्चाहं धनुर्विद्याप्रदानतः ॥ १३ ॥

 तस्मात् नाल्पापि मे चिन्ता क्षात्रं दृढमुपेयुषः ।

 किन्त्वेका परमा चिन्ता तत्र किञ्चिद् विचार्यताम् ॥ १४ ॥

 माथुरे त्वभिषिक्तोऽपि स्थितोऽहं निर्जने वने ।

 क्व गता वै प्रजात्रत्या अत्र राज्यं प्ररोचते ॥ १५ ॥

 इत्युक्तो विष्णुरातस्तु नदादीनां पुरोहितम् ।

 शाण्डिल्यमाजुहावाशु वज्रसन्देहमुत्तये ॥ १६ ॥

 अथोटजं विहायाशु शाण्डिल्यः समुपागतः ।

 पूजितो वज्रनाभेन निषसादासनोत्तमे ॥ १७ ॥

 उपोद्‌घातं विष्णुरातः चकाराशु ततस्त्वसौ ।

 उवाच परमप्रीतस्तावुभौ परिसान्त्वयन् ॥ १८ ॥

 

 शाण्डिल्य उवाच -

 श्रृणुतं दत्तचित्तौ मे रहस्यं व्रजभूमिजम् ।

 व्रजनं व्याप्तिरित्युक्त्या व्यापनाद् व्रज उच्यते ॥ १९ ॥

 गुणातीतं परं ब्रह्म व्यापकं व्रज उच्यते ।

 सदानन्दं परं ज्योतिः मुक्तानां पदमव्ययम् ॥ २० ॥

 तस्मिन् नन्दात्मजः कृष्णः सदानन्दाङ्‍‌गविग्रहः ।

 आत्मारामस्चाप्तकामः प्रेमाक्तैरनुभूयते ॥ २१ ॥

 आत्मा तु राधिका तस्य तयैव रमणादसौ ।

 आत्मारामतया प्राज्ञैः प्रोच्यते बूढवेदिभिः ॥ २२ ॥

 कामास्तु वाञ्छितास्तस्य गावो गोपाश्च गोपिकाः ।

 नित्यां सर्वे विहाराद्या आप्तकामस्ततस्त्वयम् ॥ २३ ॥

 रहस्यं त्विदमेतस्य प्रकृतेः परमुच्यते ।

 प्रकृत्या खेलतस्तस्य लीलान्यैरनुभूयते ॥ २४ ॥

 सर्गस्थित्यप्यया जत्र रजःसत्त्वतमोगुणैः ।

 लीलैवं द्विविधा तस्य वास्तवी व्यावहारिकी ॥ २५ ॥

 वास्तवी तत्स्वसंवेद्या जीवानां व्यावहारिकी ।

 आद्यां विना द्वितीया न द्वितीया नाद्यगा क्वचित् ॥ २६ ॥

 युवयोः गोचरेयं तु तल्लीला व्यावहारिकी ।

 यत्र भूरादयो लोका भुवि माथुरमण्डलम् ॥ २७ ॥

 अत्रैव व्रजभूमिः सा यत्र तत्वं सुगोपितम् ।

 भासते प्रेमपूर्णानां कदाचिदपि सर्वतः ॥ २८ ॥

 कदाचित् द्वापरस्यान्ते रहोलीलाधिकारिणः ।

 समवेता यदात्र स्युः यथेदानीं तदा हरिः ॥ २९ ॥

 स्वैः सहावतरेत् स्वेषु समावेशार्थमीप्सिताः ।

 तदा देवादयोऽप्यन्ये ऽवरन्ति समन्ततः ॥ ३० ॥

 सर्वेषां वाञ्छितं कृत्वा हरिरन्तर्हितोऽभवत् ।

 तेनात्र त्रिविधा लोकाः स्थिताः पूर्वं न संशयः ॥ ३१ ॥

 नित्यास्तल्लिप्सवश्चैव देवाद्याश्चेति भेदतः ।

 देवाद्यास्तेषु कृष्णेन द्वारिकां प्रापिताः पुरा ॥ ३२ ॥

 पुनर्मौसलमार्गेण स्वाधिकारेषु चापिताः ।

 तल्लिप्सूंश्च सदा कृष्णः प्रेमानन्दैकरूपिणः ॥ ३३ ॥

 विधाय स्वीयनित्येषु समावेशितवांस्तदा ।

 नित्याः सर्वेऽप्ययोग्येषु दर्शनाभावतां गताः ॥ ३४ ॥

 व्यावकारिकलीलास्थाः तत्र यन्नाधिकारिणः ।

 पश्यन्त्यत्रागतास्तत्मात् निर्जनत्वं समन्ततः ॥ ३५ ॥

 तस्माच्चिन्ता न ते कार्या वज्रनाभ मदाज्ञया ।

 वासयात्र बहून् ग्रामान् संसिद्धिस्ते भविष्यति ॥ ३६ ॥

 कृष्णलीलानुसारेण कृत्वा नामानि सर्वतः ।

 त्वया वासयता ग्रामान् संसेव्या भूरियं परा ॥ ३७ ॥

 गोवर्द्धने दीर्घपुरे मथुरायां महावने ।

 नन्दिग्रामे बृहत्सानौ कार्या राज्यस्थितिस्त्वया ॥ ३८ ॥

 नद्यद्रिद्रोणिकुण्डादि कुञ्जान् संसेवतस्तव ।

 राज्ये प्रजाः सुसम्पन्नास्त्वं च प्रीतो भविष्यसि ॥ ३९ ॥

 सच्चिदानन्दभूरेषा त्वया सेव्या प्रयत्‍नतः ।

 तव कृष्णस्थलान्यत्र स्फुरन्तु मदनुग्रहात् ॥ ४० ॥

 वज्र संसेवनादस्य उद्धवस्त्वां मिलिष्यति ।

 ततो रहस्यमेतस्मात् प्राप्स्यसि त्वं समातृकः ॥ ४१ ॥

 एवमुक्त्वा तु शाण्डिल्यो गतः कृष्णमनुस्मरन् ।

 विष्णूरातोऽथ वज्रश्च परां प्रीत्तिमवापतुः ॥ ४२ ॥

 

महर्षि व्यास कहते हैं—जिनका स्वरूप है सच्चिदानन्दघन, जो अपने सौन्दर्य और माधुर्यादि गुणों से सबका मन अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं और सदा-सर्वदा अनन्त सुख की वर्षा करते रहते हैं, जिनकी ही शक्ति से इस विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं—उन भगवान्‌ श्रीकृष्ण को हम भक्तिरस का आस्वादन करने के लिये नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं ॥ १ ॥

नैमिषारण्यक्षेत्र में श्रीसूतजी स्वस्थ चित्तसे अपने आसनपर बैठे हुए थे। उस समय भगवान्‌ की अमृतमयी लीलाकथाके रसिक, उसके रसास्वादनमें अत्यन्त कुशल शौनकादि ऋषियोंने सूतजीको प्रणाम करके उनसे यह प्रश्र किया ॥ २ ॥

ऋषियोंने पूछा—सूतजी ! धर्मराज युधिष्ठिर जब श्रीमथुरामण्डलमें अनिरुद्धनन्दन वज्रका और हस्तिनापुरमें अपने पौत्र परीक्षित्‌का राज्याभिषेक करके हिमालयपर चले गये, तब राजा वज्र और परीक्षित्‌ने कैसे-कैसे कौन-कौन-सा कार्य किया ॥ ३ ॥

सूतजीने कहा—भगवान्‌ नारायण, नरोत्तम नर, देवी सरस्वती और महर्षि व्यासको नमस्कार करके शुद्धचित्त होकर भगवत्तत्त्वको प्रकाशित करनेवाले इतिहासपुराणरूप ‘जय’का उच्चारण करना चाहिये ॥ ४ ॥ शौनकादि ब्रहमर्षियो ! जब धर्मराज युधिष्ठिर आदि पाण्डवगण स्वर्गारोहणके लिये हिमालय चले गये, तब सम्राट् परीक्षित्‌ एक दिन मथुरा गये। उनकी इस यात्राका उद्देश्य इतना ही था कि वहाँ चलकर वज्रनाभसे मिल-जुल आयें ॥ ५ ॥ जब वज्रनाभको यह समाचार मालूम हुआ कि मेरे पितातुल्य परीक्षित्‌ मुझसे मिलनेके लिये आ रहे हैं, तब उनका हृदय प्रेमसे भर गया। उन्होंने नगरसे आगे बढक़र उनकी अगवानी की, चरणोंमें प्रणाम किया और बड़े प्रेमसे उन्हें अपने महलमें ले आये ॥ ६ ॥ वीर परीक्षित्‌ भगवान्‌ श्रीकृष्णके परम प्रेमी भक्त थे। उनका मन नित्य-निरन्तर आनन्दघन श्रीकृष्णचन्द्रमें ही रमता रहता था। उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रपौत्र वज्रनाभका बड़े प्रेमसे आलिङ्गन किया। इसके बाद अन्त:पुरमें जाकर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी रोहिणी आदि पत्नियोंको नमस्कार किया ॥ ७ ॥ रोहिणी आदि श्रीकृष्ण-पत्नियोंने भी सम्राट् परीक्षित्‌का अत्यन्त सम्मान किया। वे विश्राम करके जब आरामसे बैठ गये, तब उन्होंने वज्रनाभसे यह बात कही ॥ ८ ॥

राजा परीक्षित्‌ ने कहा—‘हे तात ! तुम्हारे पिता और पितामहों ने मेरे पिता-पितामह को बड़े-बड़े सङ्कटों से बचाया है। मेरी रक्षा भी उन्होंने ही की है ॥ ९ ॥ प्रिय वज्रनाभ ! यदि मैं उनके उपकारों का बदला चुकाना चाहूँ तो किसी प्रकार नहीं चुका सकता। इसलिये मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि तुम सुखपूर्वक अपने राजकाजमें लगे रहो ॥ १० ॥ तुम्हें अपने खजानेकी, सेनाकी तथा शत्रुओंको दबाने आदिकी तनिक भी चिन्ता न करनी चाहिये। तुम्हारे लिये कोई कर्तव्य है तो केवल एक ही; वह यह कि तुम्हें अपनी इन माताओंकी खूब प्रेमसे भलीभाँति सेवा करते रहना चाहिये ॥ ११ ॥ यदि कभी तुम्हारे ऊपर कोई आपत्ति-विपत्ति आये अथवा किसी कारणवश तुम्हारे हृदयमें अधिक क्लेशका अनुभव हो, तो मुझसे बताकर निश्चिन्त हो जाना; मैं तुम्हारी सारी चिन्ताएँ दूर कर दूँगा।’ सम्राट् परीक्षित्‌की यह बात सुनकर वज्रनाभको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने राजा परीक्षित्‌से कहा— ॥ १२ ॥

वज्रनाभने कहा—‘महाराज ! आप मुझसे जो कुछ कह रहे हैं, वह सर्वथा आपके अनुरूप है। आपके पिताने भी मुझे धनुर्वेदकी शिक्षा देकर मेरा महान् उपकार किया है ॥ १३ ॥ इसलिये मुझे किसी बातकी तनिक भी चिन्ता नहीं है; क्योंकि उनकी कृपासे मैं क्षत्रियोचित शूरवीरतासे भलीभाँति सम्पन्न हूँ। मुझे केवल एक बातकी बहुत बड़ी चिन्ता है, आप उसके सम्बन्धमें कुछ विचार कीजिये ॥ १४ ॥ यद्यपि मैं मथुरामण्डलके राज्यपर अभिषिक्त हूँ, तथापि मैं यहाँ निर्जन वनमें ही रहता हूँ। इस बातका मुझे कुछ भी पता नहीं है कि यहाँकी प्रजा कहाँ चली गयी; क्योंकि राज्यका सुख तो तभी है, जब प्रजा रहे’ ॥ १५ ॥ जब वज्रनाभने परीक्षित्‌से यह बात कही, तब उन्होंने वज्रनाभका सन्देह मिटानेके लिये महर्षि शाण्डिल्यको बुलवाया। ये ही महर्षि शाण्डिल्य पहले नन्द आदि गोपोंके पुरोहित थे ॥ १६ ॥ परीक्षित्‌ का सन्देश पाते ही महर्षि शाण्डिल्य अपनी कुटी छोडक़र वहाँ आ पहुँचे। वज्रनाभने विधिपूर्वक उनका स्वागत-सत्कार किया और वे एक ऊँचे आसनपर विराजमान हुए ॥ १७ ॥ राजा परीक्षित्‌ ने वज्रनाभकी बात उन्हें कह सुनायी। इसके बाद महर्षि शाण्डिल्य बड़ी प्रसन्नतासे उनको सान्त्वना देते हुए कहने लगे— ॥ १८ ॥

शाण्डिल्यजीने कहा—‘प्रिय परीक्षित्‌ और वज्रनाभ ! मैं तुमलोगोंसे व्रजभूमिका रहस्य बतलाता हूँ। तुम दत्तचित्त होकर सुनो। ‘व्रज’ शब्दका अर्थ है व्याप्ति। इस वृद्धवचनके अनुसार व्यापक होनेके कारण ही इस भूमिका नाम ‘व्रज’ पड़ा है ॥ १९ ॥ सत्त्व, रज, तम—इन तीन गुणोंसे अतीत जो परब्रह्म है, वही व्यापक है। इसलिये उसे ‘व्रज’ कहते हैं। वह सदानन्दस्वरूप, परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है। जीवन्मुक्त पुरुष उसीमें स्थित रहते हैं ॥ २० ॥ इस परब्रह्मस्वरूप व्रजधाममें नन्दनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णका निवास है। उनका एक-एक अंग सच्चिदानन्दस्वरूप है। वे आत्माराम और आप्तकाम हैं। प्रेमरसमें डूबे हुए रसिकजन ही उनका अनुभव करते हैं ॥ २१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी आत्मा हैं—राधिका; उनसे रमण करनेके कारण ही रहस्य-रसके मर्मज्ञ ज्ञानी पुरुष उन्हें ‘आत्माराम’ कहते हैं ॥ २२ ॥ ‘काम’ शब्दका अर्थ है कामना—अभिलाषा। व्रजमें भगवान्‌ श्रीकृष्णके वाञ्छित पदार्थ हैं—गौएँ, ग्वालबाल, गोपियाँ और उनके साथ लीला-विहार आदि; वे सब-के-सब यहाँ नित्य प्राप्त हैं। इसीसे श्रीकृष्णको ‘आप्तकाम’ कहा गया है ॥ २३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी यह रहस्य-लीला प्रकृतिसे परे है। वे जिस समय प्रकृतिके साथ खेलने लगते हैं, उस समय दूसरे लोग भी उनकी लीलाका अनुभव करते हैं ॥ २४ ॥ प्रकृतिके साथ होनेवाली लीलामें ही रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणके द्वारा सृष्टि, स्थिति और प्रलयकी प्रतीति होती है। इस प्रकार यह निश्चय होता है कि भगवान्‌ की लीला दो प्रकारकी है—एक वास्तवी और दूसरी व्यावहारिकी ॥ २५ ॥ वास्तवी लीला स्वसंवेद्य है—उसे स्वयं भगवान्‌ और उनके रसिक भक्तजन ही जानते हैं। जीवोंके सामने जो लीला होती है, वह व्यावहारिकी लीला है। वास्तवी लीलाके बिना व्यावहारिकी लीला नहीं हो सकती; परन्तु व्यावहारिकी लीलाका वास्तविक लीलाके राज्यमें कभी प्रवेश नहीं हो सकता ॥ २६ ॥ तुम दोनों भगवान्‌की जिस लीलाको देख रहे हो, यह व्यावहारिकी लीला है। यह पृथ्वी और स्वर्ग आदि लोक इसी लीलाके अन्तर्गत हैं। इसी पृथ्वीपर यह मथुरामण्डल है ॥ २७ ॥ यहीं वह व्रजभूमि है, जिसमें भगवान्‌की वह वास्तवी रहस्य-लीला गुप्तरूपसे होती रहती है। वह कभी-कभी प्रेमपूर्ण हृदयवाले रसिक भक्तोंको सब ओर दीखने लगती है ॥ २८ ॥ कभी अट्ठाईसवें द्वापरके अन्तमें जब भगवान्‌ की रहस्य-लीलाके अधिकारी भक्तजन यहाँ एकत्र होते हैं, जैसा कि इस समय भी कुछ काल पहले हुए थे, उस समय भगवान्‌ अपने अन्तरङ्ग प्रेमियों के साथ अवतार लेते हैं। उनके अवतारका यह प्रयोजन होता है कि रहस्य-लीलाके अधिकारी भक्तजन भी अन्तरङ्ग परिकरोंके साथ सम्मिलित होकर लीला-रसका आस्वादन कर सकें। इस प्रकार जब भगवान्‌ अवतार ग्रहण करते हैं, उस समय भगवान्‌के अभिमत प्रेमी देवता और ऋषि आदि भी सब ओर अवतार लेते हैं ॥ २९-३० ॥

अभी-अभी जो अवतार हुआ था, उसमें भगवान्‌ अपने सभी प्रेमियोंकी अभिलाषाएँ पूर्ण करके अब अन्तर्धान हो चुके हैं। इससे यह निश्चय हुआ कि यहाँ पहले तीन प्रकारके भक्तजन उपस्थित थे; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३१ ॥ उन तीनोंमें प्रथम तो उनकी श्रेणी है, जो भगवान्‌के नित्य ‘अन्तरङ्ग’ पार्षद हैं—जिनका भगवान्‌से कभी वियोग होता ही नहीं। दूसरे वे हैं, जो एकमात्र भगवान्‌को पानेकी इच्छा रखते हैं—उनकी अन्तरङ्ग-लीलामें अपना प्रवेश चाहते हैं। तीसरी श्रेणीमें देवता आदि हैं। इनमेंसे जो देवता आदिके अंशसे अवतीर्ण हुए थे, उन्हें भगवान्‌ने व्रजभूमिसे हटाकर पहले ही द्वारका पहुँचा दिया था ॥ ३२ ॥ फिर भगवान्‌ने ब्राह्मणके शापसे उत्पन्न मूसलको निमित्त बनाकर यदुकुलमें अवतीर्ण देवताओंको स्वर्गमें भेज दिया और पुन: अपने-अपने अधिकारपर स्थापित कर दिया। तथा जिन्हें एकमात्र भगवान्‌को ही पानेकी इच्छा थी, उन्हें प्रेमानन्दस्वरूप बनाकर श्रीकृष्णने सदाके लिये अपने नित्य अन्तरङ्ग पार्षदोंमें सम्मिलित कर लिया। जो नित्य पार्षद हैं, वे यद्यपि यहाँ गुप्तरूपसे होनेवाली नित्यलीलामें सदा ही रहते हैं, परन्तु जो उनके दर्शनके अधिकारी नहीं हैं, ऐसे पुरुषोंके लिये वे भी अदृश्य हो गये हैं ॥ ३३-३४ ॥ जो लोग व्यावहारिक लीलामें स्थित हैं, वे नित्यलीलाका दर्शन पानेके अधिकारी नहीं हैं; इसलिये यहाँ आनेवालोंको सब ओर निर्जन वन—सूना-ही-सूना दिखायी देता है; क्योंकि वे वास्तविक लीलामें स्थित भक्तजनोंको देख नहीं सकते ॥ ३५ ॥

इसलिये वज्रनाभ ! तुम्हें तनिक भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। तुम मेरी आज्ञासे यहाँ बहुत-से गाँव बसाओ; इससे निश्चय ही तुम्हारे मनोरथोंकी सिद्धि होगी ॥ ३६ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने जहाँ जैसी लीला की है, उसके अनुसार उस स्थानका नाम रखकर तुम अनेकों गाँव बसाओ और इस प्रकार दिव्य व्रजभूमिका भलीभाँति सेवन करते रहो ॥ ३७ ॥ गोवर्धन, दीर्घपुर (डीग), मथुरा, महावन (गोकुल), नन्दिग्राम (नन्दगाँव) और बृहत्सानु (बरसाना) आदि में तुम्हें अपने लिये छावनी बनवानी चाहिये ॥ ३८ ॥ उन-उन स्थानोंमें रहकर भगवान्‌ की लीलाके स्थल नदी, पर्वत, घाटी, सरोवर और कुण्ड तथा कुञ्ज-वन आदिका सेवन करते रहना चाहिये। ऐसा करनेसे तुम्हारे राज्यमें प्रजा बहुत ही सम्पन्न होगी और तुम भी अत्यन्त प्रसन्न रहोगे ॥ ३९ ॥ यह व्रजभूमि सच्चिदानन्दमयी है, अत: तुम्हें प्रयत्नपूर्वक इस भूमिका सेवन करना चाहिये। मैं आशीर्वाद देता हूँ; मेरी कृपासे भगवान्‌ की लीलाके जितने भी स्थल हैं, सबकी तुम्हें ठीक-ठीक पहचान हो जायगी ॥ ४० ॥ वज्रनाभ ! इस व्रजभूमिका सेवन करते रहनेसे तुम्हें किसी दिन उद्धवजी मिल जायँगे। फिर तो अपनी माताओंसहित तुम उन्हींसे इस भूमिका तथा भगवान्‌ की लीलाका रहस्य भी जान लोगे ॥ ४१ ॥

मुनिवर शाण्डिल्यजी उन दोनोंको इस प्रकार समझा-बुझाकर भगवान्‌ श्रीकृष्णका स्मरण करते हुए अपने आश्रमपर चले गये। उनकी बातें सुनकर राजा परीक्षित्‌ और वज्रनाभ दोनों ही बहुत प्रसन्न हुए ॥ ४२ ॥

 

इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे

श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये शाण्डील्योपदिष्ट व्रजभूमिमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 




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