गुरुवार, 30 नवंबर 2017

श्री गीताजयन्ती की शुभकामनाएं



'श्री गीताजयन्ती' एवं 'मोक्षदा एकादशी' के अवसर पर
आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ.....
“वसुदेवसुतं देवं कंस चाणूरमर्दनं |
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् ||”
“ श्रीमद्भगवद्गीता “ भगवान की दिव्यातिदिव्य वाणी है”
वेद, भगवान के नि:श्वास हैं और गीता भगवान की वाणी है | नि:श्वास तो स्वाभाविक होते हैं,पर गीता भगवान ने योग में स्थित होकर कही है | अत: वेदों की अपेक्षा भी गीता विशेष है |
“ न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषत:|
परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया ||” (महाभारत आश्व०१६/१२-१३)
गीता उपनिषदों का सार है | गीता की बात उपनिषदों से ही विशेष है |गीता में किसी मत का आग्रह नहीं है केवल जीव के कल्याण का ही आग्रह है | मतभेद यदि कोई है तो गीता में नहीं , प्रस्तुत टीकाकारों में है | गीता में भगवान साधक को समग्र की ओर ले जाते हैं | सगुण निर्गुण,साकार-निराकार, द्विभुज,चतुर्भुज,सहस्रभुज आदि सब रूप परमात्मा के ही अंतर्गत हैं | समग्र रूप में कोई भी रूप बाकी नहीं रहता | किसी की भी उपासना करें,सम्पूर्ण उपासनाएं, सम्पूर्ण दर्शन,समग्र रूप के अंतर्गत आ जाते हैं | अत: सब कुछ परमात्मा के ही अंतर्गत है, परमात्मा के सिवाय किंचिन्मात्र भी कुछ भी नहीं- इसी भाव में सम्पूर्ण गीता है | गीता का तात्पर्य “वासुदेव: सर्वम्” में है | एक परमात्म तत्व के सिवाय दूसरी सत्ता की मान्यता रहने से प्रवृत्ति का उदय होता है और दूसरी सत्ता की मान्यता मिटने से निवृत्ति की दृढता होती है | प्रवृत्ति का उदय होना ‘भोग’ है और निवृत्ति की दृढता होना ‘योग’ है |
गीता “सब कुछ परमात्मा है”-- ऐसा मानती है और इसी को महत्त्व देती है | संसार में कार्यरूप से,कारणरूप से,प्रभावरूप से, सब रूपों से “में-ही-में-हूं” यह बताने के लिये भगवान ने गीता में चार जगह (सातवें,नवें,दसवें,और पन्द्रहवें अध्याय मे) अपनी विभूतियों का वर्णन किया है | ब्रह्म (निर्गुण-निराकार),कृत्स्न अध्यात्म (अनंत योनियों के अनंत जीव), अखिल कर्म (उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय आदि सम्पूर्ण क्रियाएँ), अधिभूत (अपने शरीरसहित सम्पूर्ण पांच भौतिक जगत्) अधिदैव (मन,इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता सहित ब्रह्माजी आदि सभी देवता) तथा अधियज्ञ (अंतर्यामी विष्णु और उनके सभी रूप)- ये सब -के -सब “ वासुदेव:सर्वम् “ के अंतर्गत आ जाते हैं (सातवें अध्याय का उन्तीसवाँ -तीसवां श्लोक) | तात्पर्य है कि सत् , असत् और उसके परे जो कुछ भी है, वह सब परमात्मा ही हैं – “त्वमक्षरं सद्सत्त्परं यत्” (गीता ११/३७) |
संसार अपने राग के कारण ही दीखता है | राग के कारण ही दूसरी सत्ता दीखती है | राग न हों तो एक परमात्मा के सिवाय कुछ भी नहीं है | जैसे भगवान ने कहा है – “सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट:” (गीता १५/१५) “ मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हूं “ | जिस हृदय में भगवान रहते हैं, उसी हृदय में राग-द्वेष, हलचल,अशांति होते हैं | हृदय में ही सुख होता है और हृदय में ही दु:ख आता है | समुद्र मंथन में वहीं से विष निकला,वहीं से अमृत निकला | भगवान शंकर ने विष पी लिया तो अमृत निकल आया | इसी तरह राग द्वेष को मिटा दें तो परमात्मा निकल आएंगे | सन्त महात्माओं के हृदय में राग द्वेष नहीं रहते; अत: वहाँ परमात्मा रहते हैं | गीता, ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों को समकक्ष और लौकिक बताती है | क्षर (जगत् और अक्षर (जीव) दोनों लौकिक हैं – “द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च” (गीता १५/१६१६) पर भगवान अलौकिक हैं – “उत्तम:पुरुषस्त्वन्य:” (गीता १५/१७) क्षर को लेकर कर्मयोग और अक्षर को लेकर ज्ञान योग चलता है; अत: कर्मयोग और ज्ञानयोग- दोनों लौकिक हैं | परन्तु भक्तियोग भगवान को लेकर चलता है; अत: भक्तियोग अलौकिक है |
भगवान की वाणी बड़े बड़े ऋषि-मुनियों की वाणी से भी ठोस और श्रेष्ट है; क्योंकि भगवान, ऋषि-मुनियों के भी आदि हैं— “ अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश: “ (गीता १०/२) अत: कितने ही बड़े ऋषी – मुनि, सन्त महात्मा क्यों न हों और उनकी वाणी कितनी ही श्रेष्ठ क्यों न हों, पर वह भगवान की दिव्यातिदिव्य वाणी “ गीता “ की बराबरी नहीं कर सकती |
(गीताप्रेस-श्रीमद्भगवद्गीता साधक संजीवनी से संकलित)


रविवार, 26 नवंबर 2017

श्री हनुमते नम:


“प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन ।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ॥“
(मैं पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्ट रूपी वन को भस्म करने के लिए अग्निरूप हैं, जो ज्ञान की घनमूर्ति हैं और जिनके हृदय रूपी भवन में धनुष-बाण धारण किए श्री रामजी निवास करते हैं) ||
ये हनुमान जी है जिन्होंने शरचापधारी महाराज श्रीराम को अपने हृदय में बंद कर रखा है, जिससे वे बाहर निकल ही नहीं पाते !!


श्री हनुमते नम:


“प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन ।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ॥“
(मैं पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्ट रूपी वन को भस्म करने के लिए अग्निरूप हैं, जो ज्ञान की घनमूर्ति हैं और जिनके हृदय रूपी भवन में धनुष-बाण धारण किए श्री रामजी निवास करते हैं) ||
ये हनुमान जी है जिन्होंने शरचापधारी महाराज श्रीराम को अपने हृदय में बंद कर रखा है, जिससे वे बाहर निकल ही नहीं पाते !!


शनिवार, 25 नवंबर 2017

मुक्ति का रहस्य


|| जय श्रीहरिः ||
मुक्ति का रहस्य..
हम सबके अनुभवकी बात है कि जब गाढ़ नींद आती है, तब कुछ भी याद नहीं रहता । रुपये, पदार्थ, कुटुम्ब, जमीन, मकान आदि कुछ भी याद नहीं रहता । ऐसी स्थितिमें हमें कोई दुःख होता है क्या ? गाढ़ नींदमें किसी भी प्राणी-पदार्थका सम्बन्ध न रहनेपर भी हमें दुःख नहीं होता अपितु सुख ही होता है । इससे सिद्ध हुआ कि संसारके सम्बन्धसे सुख नहीं होता । अभी आप सोचते हैं कि हमें धन मिल जाय, ऊँचा पद मिल जाय, मान-बड़ाई मिल जाय, भोग मिल जाय, आराम मिल जाय तो हम सुखी हो जायँगे । विचार करें कि जब गाढ़ निद्रामें किसी भी प्राणी-पदार्थसे सम्बन्ध न रहनेपर भी दुःख नहीं होता, और सुख होता है तब इन वस्तुओंकी प्राप्तिसे सुख मिल जायगा क्या ? इस बातपर गहरा विचार करें ।
जाग्रत्‌की वस्तु स्वप्नमें और स्वप्नकी वस्तु सुषुप्तिमें नहीं रहती । तात्पर्य यह कि जाग्रत् और स्वप्नकी वस्तुओंके बिना भी हम रहते हैं । इससे सिद्ध यह हुआ कि वस्तुओंके बिना भी हम सुखपूर्वक रह सकते हैं अर्थात् हमारा रहना वस्तु, अवस्था आदिके आश्रित नहीं है । इसलिये वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति आदिके द्वारा हम सुखी होंगे और इनके बिना हम दुःखी होंगे‒यह बात गलत सिद्ध हो गयी । जाग्रत्‌में भी अनेक पदार्थोंके बिना हम रहते हैं, पर सुषुप्तिमें तो सम्पूर्ण पदार्थोंके बिना हम रहते हैं और उससे हमें शक्ति मिलती है । अच्छी गहरी नींद आनेपर स्वास्थ्य अच्छा होता है और जगनेपर व्यवहार अच्छा होता है । नींदके बिना मनुष्यका जीना कठिन है । नींद लिये बिना उसे चैन नहीं पडता । इससे सिद्ध हुआ कि सम्पूर्ण वस्तुओंके अभावके बिना हम रह नहीं सकते । वस्तुओं का अभाव बहुत आवश्यक है । अत: अनुभवके आधार पर हमारी यह मान्यता गलत सिद्ध हो गयी कि धन, सम्पत्ति, कुटुम्ब आदिके मिलनेसे ही हम सुखी होंगे और उनके बिना रह नहीं सकेंगे ।

सुषुप्ति में वस्तुओं के बिना भी हम जीते हैं । जीते ही नहीं, सुखी भी होते हैं और शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि सब में ताजगी भी आती है । जाग्रत्‌में जब वस्तुओंसे सम्बन्ध रहता है, तब हमारी शक्ति क्षीण होती है और नींदमें वस्तुओंका सम्बन्ध न रहनेसे शक्ति संचित होती है । वस्तुओंके सम्बन्ध-विच्छेदके बिना और नींदमें क्या होता है ? यदि जाग्रत् अवस्थामें ही हम वस्तुओंसे अलग हो जायँ, उनसे अपना सम्बन्ध न मानें, उनका आश्रय न लें, तो जीवन्मुक्त हो जायँ ! नींदमें तो बेहोशी (अज्ञान) रहती है, इसलिये उससे जीवन्मुक्त नहीं होते । सम्पूर्ण वस्तुओंसे सम्बन्ध-विच्छेद होना मुक्ति है । मुक्तिमें जो आनन्द है, वह बन्धनमें नहीं है । मुक्तिमें आनन्द होता है‒वस्तुओंसे सम्बन्ध छूटनेसे । नींदमें जब वस्तुओंको भूलनेसे भी सुख- शान्ति मिलती है, तब जानकर उनका सम्बन्ध-विच्छेद करनेसे कितनी सुख-शान्ति मिलेगी !
शरीर और संसार एक है । ये एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकते । शरीर को संसार की और संसार को शरीर की आवश्यकता है । पर हम स्वयं (आत्मा) शरीरसे अलग हैं और शरीरके बिना भी रहते ही हैं । शरीर उत्पन्न होनेसे पहले भी हम थे और शरीर नष्ट होनेके बाद भी रहेंगे‒इस बातका पता न हो तो भी यह तो जानते ही हैं कि गाढ़ निद्रामें जब शरीरकी यादतक नहीं रहती, तब भी हम रहते हैं और सुखी रहते हैं । शरीरसे सम्बन्ध न रहनेसे शरीर स्वस्थ होता है । संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनपर आप भी ठीक रहोगे और संसार भी ठीक रहेगा । दोनोंकी आफत मिट जायगी । शरीरादि पदार्थोंकी गरज और गुलामी मनसे मिटा दें तो महान् आनन्द रहेगा । इसीका नाम जीवन्मुक्ति है । शरीर, कुटुम्ब, धन आदिको रखो, पर इनकी गुलामी मत रखो । जड़ वस्तुओंकी गुलामी करनेवाला जड़से भी नीचे हो जाता है, फिर हम तो चेतन हैं । जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति‒तीनों अवस्थाओंसे हम अलग हैं । ये अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, पर हम नहीं बदलते । हम इन अवस्थाओंको जाननेवाले हैं और अवस्थाएँ जाननेमें आनेवाली हैं । अत : इनसे अलग हैं । जैसे, छप्परको हम जानते हैं कि यह छप्पर है तो हम छप्परसे अलग हैं‒यह सिद्ध होता है । अत: हम वस्तु, परिस्थिति, अवस्था आदिसे अलग हैं‒इसका अनुभव होना ही मुक्ति है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तक से


मुक्ति का रहस्य


|| जय श्रीहरिः ||
मुक्ति का रहस्य..
हम सबके अनुभवकी बात है कि जब गाढ़ नींद आती है, तब कुछ भी याद नहीं रहता । रुपये, पदार्थ, कुटुम्ब, जमीन, मकान आदि कुछ भी याद नहीं रहता । ऐसी स्थितिमें हमें कोई दुःख होता है क्या ? गाढ़ नींदमें किसी भी प्राणी-पदार्थका सम्बन्ध न रहनेपर भी हमें दुःख नहीं होता अपितु सुख ही होता है । इससे सिद्ध हुआ कि संसारके सम्बन्धसे सुख नहीं होता । अभी आप सोचते हैं कि हमें धन मिल जाय, ऊँचा पद मिल जाय, मान-बड़ाई मिल जाय, भोग मिल जाय, आराम मिल जाय तो हम सुखी हो जायँगे । विचार करें कि जब गाढ़ निद्रामें किसी भी प्राणी-पदार्थसे सम्बन्ध न रहनेपर भी दुःख नहीं होता, और सुख होता है तब इन वस्तुओंकी प्राप्तिसे सुख मिल जायगा क्या ? इस बातपर गहरा विचार करें ।
जाग्रत्‌की वस्तु स्वप्नमें और स्वप्नकी वस्तु सुषुप्तिमें नहीं रहती । तात्पर्य यह कि जाग्रत् और स्वप्नकी वस्तुओंके बिना भी हम रहते हैं । इससे सिद्ध यह हुआ कि वस्तुओंके बिना भी हम सुखपूर्वक रह सकते हैं अर्थात् हमारा रहना वस्तु, अवस्था आदिके आश्रित नहीं है । इसलिये वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति आदिके द्वारा हम सुखी होंगे और इनके बिना हम दुःखी होंगे‒यह बात गलत सिद्ध हो गयी । जाग्रत्‌में भी अनेक पदार्थोंके बिना हम रहते हैं, पर सुषुप्तिमें तो सम्पूर्ण पदार्थोंके बिना हम रहते हैं और उससे हमें शक्ति मिलती है । अच्छी गहरी नींद आनेपर स्वास्थ्य अच्छा होता है और जगनेपर व्यवहार अच्छा होता है । नींदके बिना मनुष्यका जीना कठिन है । नींद लिये बिना उसे चैन नहीं पडता । इससे सिद्ध हुआ कि सम्पूर्ण वस्तुओंके अभावके बिना हम रह नहीं सकते । वस्तुओं का अभाव बहुत आवश्यक है । अत: अनुभवके आधार पर हमारी यह मान्यता गलत सिद्ध हो गयी कि धन, सम्पत्ति, कुटुम्ब आदिके मिलनेसे ही हम सुखी होंगे और उनके बिना रह नहीं सकेंगे ।

सुषुप्ति में वस्तुओं के बिना भी हम जीते हैं । जीते ही नहीं, सुखी भी होते हैं और शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि सब में ताजगी भी आती है । जाग्रत्‌में जब वस्तुओंसे सम्बन्ध रहता है, तब हमारी शक्ति क्षीण होती है और नींदमें वस्तुओंका सम्बन्ध न रहनेसे शक्ति संचित होती है । वस्तुओंके सम्बन्ध-विच्छेदके बिना और नींदमें क्या होता है ? यदि जाग्रत् अवस्थामें ही हम वस्तुओंसे अलग हो जायँ, उनसे अपना सम्बन्ध न मानें, उनका आश्रय न लें, तो जीवन्मुक्त हो जायँ ! नींदमें तो बेहोशी (अज्ञान) रहती है, इसलिये उससे जीवन्मुक्त नहीं होते । सम्पूर्ण वस्तुओंसे सम्बन्ध-विच्छेद होना मुक्ति है । मुक्तिमें जो आनन्द है, वह बन्धनमें नहीं है । मुक्तिमें आनन्द होता है‒वस्तुओंसे सम्बन्ध छूटनेसे । नींदमें जब वस्तुओंको भूलनेसे भी सुख- शान्ति मिलती है, तब जानकर उनका सम्बन्ध-विच्छेद करनेसे कितनी सुख-शान्ति मिलेगी !
शरीर और संसार एक है । ये एक-दूसरे से अलग नहीं हो सकते । शरीर को संसार की और संसार को शरीर की आवश्यकता है । पर हम स्वयं (आत्मा) शरीरसे अलग हैं और शरीरके बिना भी रहते ही हैं । शरीर उत्पन्न होनेसे पहले भी हम थे और शरीर नष्ट होनेके बाद भी रहेंगे‒इस बातका पता न हो तो भी यह तो जानते ही हैं कि गाढ़ निद्रामें जब शरीरकी यादतक नहीं रहती, तब भी हम रहते हैं और सुखी रहते हैं । शरीरसे सम्बन्ध न रहनेसे शरीर स्वस्थ होता है । संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनपर आप भी ठीक रहोगे और संसार भी ठीक रहेगा । दोनोंकी आफत मिट जायगी । शरीरादि पदार्थोंकी गरज और गुलामी मनसे मिटा दें तो महान् आनन्द रहेगा । इसीका नाम जीवन्मुक्ति है । शरीर, कुटुम्ब, धन आदिको रखो, पर इनकी गुलामी मत रखो । जड़ वस्तुओंकी गुलामी करनेवाला जड़से भी नीचे हो जाता है, फिर हम तो चेतन हैं । जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति‒तीनों अवस्थाओंसे हम अलग हैं । ये अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, पर हम नहीं बदलते । हम इन अवस्थाओंको जाननेवाले हैं और अवस्थाएँ जाननेमें आनेवाली हैं । अत : इनसे अलग हैं । जैसे, छप्परको हम जानते हैं कि यह छप्पर है तो हम छप्परसे अलग हैं‒यह सिद्ध होता है । अत: हम वस्तु, परिस्थिति, अवस्था आदिसे अलग हैं‒इसका अनुभव होना ही मुक्ति है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तक से


वेदसार शिव स्तव










|| ॐ नम: शिवाय ||

आदिगुरू श्री शंकराचार्य द्वारा विरचित

वेदसार शिवस्तव:

पशूनां पतिं पापनाशं परेशं,गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम् |
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं,महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम् ||१||
महेशं सुरेशं सुरारार्तिनाशं,विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम् |
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं,सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम् ||२||
गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं, गवेन्द्राधिरूढं गणातीतरूपम् |
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं,भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम् ||३||
शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले,महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन् |
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः,प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप ||४||
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं, निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम् |
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम् ||५||
न भूमिर्न चापो न वह्निर्न वायुर्न चाकाश आस्ते न तन्द्रा न निद्रा |
न गृष्मो न शीतो न देशो न वेषो,न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे ||६||
अजं शाश्वतं कारणं कारणानां, शिवं केवलं भासकं भासकानाम् |
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं,प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम् ||७||
नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते,नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते |
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य,नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ||८||
प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ,महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र |
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे,त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः ||९||
शंभो महेश करुणामय शूलपाणे,गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन् |
काशीपते करुणया जगदेतदेकस्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि ||१०||
त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे,त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ |
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश,लिङ्गात्मकं हर चराचरविश्वरूपिन् ||११||

(गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित “शिवस्तोत्ररत्नाकर” से)


वेदसार शिव स्तव










|| ॐ नम: शिवाय ||

आदिगुरू श्री शंकराचार्य द्वारा विरचित

वेदसार शिवस्तव:

पशूनां पतिं पापनाशं परेशं,गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम् |
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं,महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम् ||१||
महेशं सुरेशं सुरारार्तिनाशं,विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम् |
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं,सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम् ||२||
गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं, गवेन्द्राधिरूढं गणातीतरूपम् |
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं,भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम् ||३||
शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले,महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन् |
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः,प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप ||४||
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं, निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम् |
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम् ||५||
न भूमिर्न चापो न वह्निर्न वायुर्न चाकाश आस्ते न तन्द्रा न निद्रा |
न गृष्मो न शीतो न देशो न वेषो,न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे ||६||
अजं शाश्वतं कारणं कारणानां, शिवं केवलं भासकं भासकानाम् |
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं,प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम् ||७||
नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते,नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते |
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य,नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ||८||
प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ,महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र |
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे,त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः ||९||
शंभो महेश करुणामय शूलपाणे,गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन् |
काशीपते करुणया जगदेतदेकस्त्वंहंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि ||१०||
त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे,त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृड विश्वनाथ |
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश,लिङ्गात्मकं हर चराचरविश्वरूपिन् ||११||

(गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित “शिवस्तोत्ररत्नाकर” से)


श्री हनुमान चालीसा




सभी स्नेही मानसप्रेमी साधकजनों को हमारी स्नेहमयी राम राम |
जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम
श्रीहनुमान चालीसा
दोहा:
श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि ।
बरनउं रघुबर विमल जसु, जो दायकु पल चारि ।।
बुद्घिहीन तनु जानिकै, सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुद्घि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश विकार ।।
चौपाई :
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर । जय कपीस तिहुं लोग उजागर ।।
रामदूत अतुलित बल धामा । अंजनि पुत्र पवनसुत नामा ।।
महावीर विक्रम बजरंगी । कुमति निवार सुमति के संगी ।।
कंचन बरन विराज सुवेसा । कानन कुण्डल कुंचित केसा ।।
हाथ वज्र औ ध्वजा विराजै । कांधे मूंज जनेऊ साजै ।।
शंकर सुवन केसरी नन्दन । तेज प्रताप महा जगवन्दन ।।
विद्यावान गुणी अति चातुर । राम काज करिबे को आतुर ।।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लखन सीता मन बसिया ।।
सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा । विकट रुप धरि लंक जरावा ।।
भीम रुप धरि असुर संहारे । रामचन्द्रजी के काज संवारे ।।
लाय संजीवन लखन जियाये । श्री रघुवीर हरषि उर लाये ।।
रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई । तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ।।
सहस बदन तुम्हरो यश गावै । अस कहि श्री पति कंठ लगावै ।।
सनकादिक ब्रहादि मुनीसा । नारद सारद सहित अहीसा ।।
यह कुबेर दिकपाल जहां ते । कवि कोबिद कहि सके कहां ते ।।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा । राम मिलाय राजपद दीन्हा ।।
तुम्हरो मन्त्र विभीषन माना । लंकेश्वर भये सब जग जाना ।।
जुग सहस्त्र योजन पर भानू । लाल्यो ताहि मधुर फल जानू ।।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही । जलधि लांघि गए अचरज नाहीं ।।
दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ।।
राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ।।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना । तुम रक्षक काहू को डरना ।।
आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हांक ते कांपै ।।
भूत पिशाच निकट नहिं आवै । महाबीर जब नाम सुनावै ।।
नासै रोग हरै सब पीरा । जपत निरन्तर हनुमत बीरा ।।
संकट ते हनुमान छुड़ावै । मन कर्म वचन ध्यान जो लावै ।।
सब पर राम तपस्वी राजा । तिनके काज सकल तुम साजा ।।
और मनोरथ जो कोई लावै । सोइ अमित जीवन फल पावै ।।
चारों जुग परताप तुम्हारा । है परसिद्घ जगत उजियारा ।।
साधु सन्त के तुम रखवारे । असुर निकन्दन राम दुलारे ।।
अष्ट सिद्घि नवनिधि के दाता । अस वर दीन जानकी माता ।।
राम रसायन तुम्हरे पासा । सदा रहो रघुपति के दासा ।।
तुम्हरे भजन राम को पावै । जनम जनम के दुख बिसरावै ।।
अन्तकाल रघुबर पुर जाई । जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ।।
और देवता चित्त न धरई । हनुमत सेई सर्व सुख करई ।।
संकट कटै मिटै सब पीरा । जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ।।
जय जय जय हनुमान गुसांई । कृपा करहु गुरुदेव की नाई ।।
जो सत बार पाठ कर सोई । छूटहिं बंदि महासुख होई ।।
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा । होय सिद्घि साखी गौरीसा ।।
तुलसीदास सदा हरि चेरा । कीजै नाथ हृदय महं डेरा ।।
।। दोहा ।।
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रुप ।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ।।

----गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “हनुमान चालीसा” पुस्तक (कोड-1919) से


श्री हनुमान चालीसा




सभी स्नेही मानसप्रेमी साधकजनों को हमारी स्नेहमयी राम राम |
जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम
श्रीहनुमान चालीसा
दोहा:
श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि ।
बरनउं रघुबर विमल जसु, जो दायकु पल चारि ।।
बुद्घिहीन तनु जानिकै, सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुद्घि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश विकार ।।
चौपाई :
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर । जय कपीस तिहुं लोग उजागर ।।
रामदूत अतुलित बल धामा । अंजनि पुत्र पवनसुत नामा ।।
महावीर विक्रम बजरंगी । कुमति निवार सुमति के संगी ।।
कंचन बरन विराज सुवेसा । कानन कुण्डल कुंचित केसा ।।
हाथ वज्र औ ध्वजा विराजै । कांधे मूंज जनेऊ साजै ।।
शंकर सुवन केसरी नन्दन । तेज प्रताप महा जगवन्दन ।।
विद्यावान गुणी अति चातुर । राम काज करिबे को आतुर ।।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लखन सीता मन बसिया ।।
सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा । विकट रुप धरि लंक जरावा ।।
भीम रुप धरि असुर संहारे । रामचन्द्रजी के काज संवारे ।।
लाय संजीवन लखन जियाये । श्री रघुवीर हरषि उर लाये ।।
रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई । तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ।।
सहस बदन तुम्हरो यश गावै । अस कहि श्री पति कंठ लगावै ।।
सनकादिक ब्रहादि मुनीसा । नारद सारद सहित अहीसा ।।
यह कुबेर दिकपाल जहां ते । कवि कोबिद कहि सके कहां ते ।।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा । राम मिलाय राजपद दीन्हा ।।
तुम्हरो मन्त्र विभीषन माना । लंकेश्वर भये सब जग जाना ।।
जुग सहस्त्र योजन पर भानू । लाल्यो ताहि मधुर फल जानू ।।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही । जलधि लांघि गए अचरज नाहीं ।।
दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ।।
राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ।।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना । तुम रक्षक काहू को डरना ।।
आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हांक ते कांपै ।।
भूत पिशाच निकट नहिं आवै । महाबीर जब नाम सुनावै ।।
नासै रोग हरै सब पीरा । जपत निरन्तर हनुमत बीरा ।।
संकट ते हनुमान छुड़ावै । मन कर्म वचन ध्यान जो लावै ।।
सब पर राम तपस्वी राजा । तिनके काज सकल तुम साजा ।।
और मनोरथ जो कोई लावै । सोइ अमित जीवन फल पावै ।।
चारों जुग परताप तुम्हारा । है परसिद्घ जगत उजियारा ।।
साधु सन्त के तुम रखवारे । असुर निकन्दन राम दुलारे ।।
अष्ट सिद्घि नवनिधि के दाता । अस वर दीन जानकी माता ।।
राम रसायन तुम्हरे पासा । सदा रहो रघुपति के दासा ।।
तुम्हरे भजन राम को पावै । जनम जनम के दुख बिसरावै ।।
अन्तकाल रघुबर पुर जाई । जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ।।
और देवता चित्त न धरई । हनुमत सेई सर्व सुख करई ।।
संकट कटै मिटै सब पीरा । जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ।।
जय जय जय हनुमान गुसांई । कृपा करहु गुरुदेव की नाई ।।
जो सत बार पाठ कर सोई । छूटहिं बंदि महासुख होई ।।
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा । होय सिद्घि साखी गौरीसा ।।
तुलसीदास सदा हरि चेरा । कीजै नाथ हृदय महं डेरा ।।
।। दोहा ।।
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रुप ।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ।।

----गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “हनुमान चालीसा” पुस्तक (कोड-1919) से


श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)

# श्रीहरि: #   श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)   शकटभञ्जन ; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार ; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्ण...